रोमिला थापर ब्राण्ड? या "नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे" ब्राण्ड?
मुझे ये दोनो मिक्सियां अपने काम की नहीं लगती हैं। एक २००० वोल्ट एसी सप्लाई मांगती है। दूसरी ३००० वोल्ट बीसी। दोनो ही सरलता से नहीं चलती हैं। वजह-बेवजह शॉक मारती हैं।
बेस्ट है मथनी का प्रयोग। वोल्टेज का झंझट नहीं। आपकी ऊर्जा से चलती है। उससे मक्खन बनने की प्रक्रिया स्लो मोशन में आप देख सकते हैं। कोई अनहोनी नहीं। थोड़ी मेहनत लगती है। पर मथनी तो क्र्यूड एपरेटस है। उसका प्रयोग हम जैसे अबौद्धिक करते हैं - जो पाकेट बुक्स, और लुगदी साहित्य पढ़ कर केवल पत्रिकाओं में बुक रिव्यू ब्राउज़ कर अपनी मानसिक हलचल छांटते हैं।
फ्रैंकली, क्या फर्क पड़ता है कि आर्य यूरेशिया से आये या ताक्लामाकन से या यहीं की पैदावार रहे। आर्य शाकाहारी थे, या गाय भक्षी या चीनियों की तरह काक्रोच-रैप्टाइल खाने वाले या दूर दराज के तर्क से केनीबल (नरभक्षी)। ऐसा पढ़ कर एकबारगी अपने संस्कारों के कारण छटपटाहट होती है; पर हम जान चुके हैं कि इतिहासकारों की आदत होती है हम जैसों में यह छटपटाहट जगा कर मजा लेना! ताकतें हैं जो हमें सलीके से अपनी विरासत पर नाज नहीं करने देतीं। और दूसरी ओर डा. वर्तक सरीखे हैं जिनके निष्कर्ष पर यकीन कर आप मुंह की खा सकते हैं।
इतने तरह का हिस्टॉरिकल मन्थन देख लिये हैं कि ये सब डब्ल्यू.डब्ल्यू.एफ. की कुश्ती सरीखे प्रतीत होते हैं। और इस प्रकार के मन्थन के लिये तर्क को बुढ़िया का काता (एक तरह की शूगर कैण्डी, जो लाल रंग की रूई जैसी होती है) की तरह फींचने वाले विद्वानों के प्रति बहुत श्रद्धा नहीं उपजती। अकादमिक सर्कल में उनका पाण्डित्य चमकता, आबाद होता रहे। हमारे लिये तो उनका शोध वैसा ही है जैसा फलानी विटामिन कम्पनी अपने प्रायोजित शोध से अपने पेटेण्ट किये प्रॉडक्ट को गठिया से हृदय रोग तक की दवा के रूप में प्रतिष्ठित कराये!
इतिहास, फिक्शन (गल्प साहित्य) का सर्वोत्तम प्रकार मालुम होता है। इतिहासकार दो चार पुरातत्वी पदार्थों, विज्ञान के अधकचरे प्रयोग, चार छ ॠग्वैदिक ॠचाओं, और उनके समान्तर अन्य प्राचीन भाषाओं/लिपियों/बोलियों से घालमेल कर कुछ भी प्रमाणित कर सकते हैं। हमारे जैसे उस निष्कर्ष को भकुआ बन कर पढ़ते हैं। कुछ देर इस या उस प्रकार के संवेदन से ग्रस्त होते हैं; फिर छोड छाड़ कर अपना प्रॉविडेण्ट फण्ड का आकलन करने लगते हैं।
हिस्ट्री का हिस्टीरिया हमें सिविल सेवा परीक्षा देने के संदर्भ में हुआ था। तब बहुत घोटा था इतिहास को। वह हिस्टीरिया नहीं रहा। अब देसी लकड़ी वाली मथनी के स्तर का इतिहास मन्थन चहुचक (उपयुक्त, कामचलाऊ ठीकठाक) है!
हम तो अपनी अल्पज्ञता में ही संतुष्ट हैं।
एक २००० वोल्ट एसी सप्लाई मांगती है। दूसरी ३००० वोल्ट
ReplyDeleteबहुत खूब - बहुत खूबसूरती से कही है आपने अपनी बात - मान गए उस्ताद!
मथनी पुराण कहीं पढा नहीं था, आज वो भी पढ लिया। वैसे एक बार मुम्बई के Prince of wales संग्रहालय में हड्प्पा कालीन बर्तन और औजार आदि देख रहा था तो बगल में ही गुजराती परिवार भी देखताक रहा था, हांडी-कूडा देखकर उनमें से कोई महिला अपने पति से गुजराती में कह रही थी - ये क्या दिखाने लाये हो...ये तो अपने गांव में भी बनता है, मटका, सुराही क्या गांव में नहीं देखा जो ईधर दिखाने लाये हो....बस मैं दूसरी ओर मुँह करके हंसता रहा और वो देख कर चलते बने....। आज आपके मथनी के बखान ने भी वही काम कर दिया जो उस महिला ने कहा था :)
ReplyDelete.
ReplyDeleteमैं असहमत होने की अनुमति चाहूँगा, गुरुवर !
इतिहास का महत्व है, और सदैव रहेगा । मानवता ने जो कुछ भी सीखा है,
इतिहास से सबक लेता रहा है । हाँ, अलबत्ता.. यह जो इंज़ीनियर्ड इतिहास
रचा जा रहा है, वह निश्चय ही घातक है । हमारे वर्तमान के लिये भी और आने
वाली नस्लों के लिये भी, इसकी परवाह करने वाले भी कम ही रह गये हैं ।
एक छोटा उदाहरण दूँ, आज का बैंगन .. आने वाले कल का इतिहास बनने जा रहा है ।
बी.टी.बैंगन खाने वाली आगामी नस्लें, तब यह जानेंगी कि BT बैंगन से हानि ही हानि है, और हमारा आज प्रयोग किया जाने वाला बैंगन हमें डायबिटीज़ तक से सुरक्षा प्रदान करता था, फिर.. वही कवायद कि जगह जगह खोद कर बैंगन के बीज खोजे जायेंगे ।
है, ना मज़ेदार बात ! इतिहास बड़ा रोचक है... बिल्कुल सत्यकथा यदि तारीख़ों की बंदिश हटा ली जाये । कोई भी अपने इतिहास को नकार कर सुखी नहीं रह सकता ।
घृष्टता क्षमा करें, गुरुवर !
अल्पज्ञता में संतुष्ट होना भी जीवन जीने का एक तरीका ही है। फिर व्यक्ति की मानसिक हलचल की आवश्यकता भी समाप्त हो जाती है।
ReplyDeleteवास्तविकता तो यह है कि अपनी अल्पज्ञता में संतुष्ट होने का आप का कथन सत्य कम और कूटनीतिक अधिक है।
इतिहास को मैं आजीवन शंका की दृष्टि से देखते आया हूँ।
ReplyDeleteकिसी की भी लिखी हुई हो, उस पर संपूर्ण विश्वास नहीं करता।
हम तो यह भी तय नहीं कर पा रहे के आज की घटनाएं कितने सच हैं और कितने झूठ।
किस पर यकीन करना चाहेंगे? जो कॉंग्रेस कहती है या जो बीजेपी कहती है?
किस अखबार या किस संपादक की लेख पर आप विश्वास करना चाहेंगे?
क्या इन्दिरा गाँधी महान थी?
क्या राजीव गाँघी बोफ़ोर्स मामले में दोषी थे?
क्या सिंगूर में ममता बनर्जी जो कर रही है, ठीक कर रही है?
क्या नरेन्द्र मोदी महान व्यक्ति हैं? क्या मायावती और जयललिता भविष्य की रानी लक्ष्मीबाई मानी जाएगी?
क्या कांची के शंकराचार्य खूनी हैं?
जब आज की घटनाओं की सच्चई पर मुझे सन्देह होता है तो इतने साल पहले जो हुआ था, उस पर क्या विश्वास कर सकता हूँ?
हजारों साल पहले आज के आधुनिक साधन और औजार (कागज़, कलम, कैमेरा, रिकॉर्ड करने के औजार, टीवी, विडियो, फ़िल्में, किताबें, वगैरह) उपलब्ध नहीं थे।
भारत के विभाजन के कारणों पर अंग्रेज़ी, पाकिस्तानी और भारतीय इतिहासकारों की दृष्टिकोण अलग हैं
कशमीर के मामले में मेरा मन रोज पलटी खाता है।
यह तय नहीं कर पा रहा हूँ के वहाँ हमें क्या करना चाहिए।
जब आज यह स्थिति है तो जरा सोचिए हज़ारों साल पहले की घटनाओं के बारे में क्या सही मानूं?
मेरे लिए इतिहास, गल्प साहित्य, और ऐतिहासिक गल्प साहित्य के बीच की लकीरें हमेशा धुँधली नज़र आती हैं।
itihaas ko apne-apne hisab se likhne aur todne marodne ki parampara kabad kar rahi hai.man ki mathani se biloye bina usme se kuch nikalta bhi nahi hai.
ReplyDeleteइतिहास, फिक्शन (गल्प साहित्य) का सर्वोत्तम प्रकार मालुम होता है। इतिहासकार दो चार पुरातत्वी पदार्थों, विज्ञान के अधकचरे प्रयोग, चार छ ॠग्वैदिक ॠचाओं, और उनके समान्तर अन्य प्राचीन भाषाओं/लिपियों/बोलियों से घालमेल कर कुछ भी प्रमाणित कर सकते हैं।
ReplyDeleteये कहीं पढ़ा था की इतिहासकार का सबसे प्रमाण के साथ कोई तथ्य है तो वो वैसे ही होता है जैसे कहीं बाल्टी मिल जाय तो यह कह दो की उस जमाने में लोग दूध पीते थे भले गाय का कुछ भी अवशेष न मिले !
जो भी हो, पर रोचकता तो है ही. इतिहास तो बस स्कूल के बाद कभी इधर-उधर ही पढ़ा है... और इधर-उधर में द्वितीय विश्व युद्ध और मध्यकालीन भारतीय इतिहास के अलावा कुछ ख़ास नहीं... तो बहुत कम ही जानते हैं.
हाँ हमारे एक मित्र इस सिविल सेवा वाले हैं और वो ऐसे मित्र हैं की जो भी घोट लें हमें घुट्टी पिलाते रहते हैं. हम तो इतना ही कहेंगे की जो भी हो रोचक है !
ज्ञान जी बहुत विचारणीय लिखा है आपने मगर अपुन तो डॉ अमर कुमार की तरह भविष्य के इतिहास को लिखने में लगे हुए हैं -क्योंकि आपका कहना दुरुस्त है अब इतिहास में कोई भविष्य नहीं दिखता ......मगर भविष्य में इतिहास को झांकिए ,मजा आयेगा और आप तो मेरे ब्लॉग साईंस फिक्शन इन इंडिया(सॉरी फार सेल्फ प्रमोशन ) के आदरनीय पाठक हैं .
ReplyDelete@ डॉक्टर साहेब
ReplyDeleteडॉक्टर साहेब उवाच: "कोई भी अपने इतिहास को नकार कर सुखी नहीं रह सकता."
मुझे तो ये लगता है कि सुखी रहने का सबसे बढ़िया तरीका है कि इतिहास को नकार दिया जाय. दाल-रोटी के जुगाड़ से फुर्सत नहीं है. ऐसे में इतिहास पढ़कर क्या उखाड़ लिया जायेगा? पढेंगे तो अरब-इजराईल विवाद पर जाकर अटक जायेंगे. उसके बाद पोस्ट ठेलेंगे. उसके बाद कोई और जवाब में पोस्ट ठेल देगा. उसके बाद झमेला शुरू होगा. पोस्टों के तीर चलेंगे. नतीजा;
तीरन स काटें तीरन को
तीरन पर तीर चलावें हैं....टाइप
ये इतिहास पाठन कार्यक्रम तो उनके लिए है जो अपनी पार्टी में मेंबर भर्ती के लिए लोगों से इतिहास पर निबंध लिखने का आह्वान करते हैं.
घनघोर असहमति. अक्सर इतिहास को भुलाने या उपेक्षित करने का काम वे कौमें करती हैं जिनके इतिहास में या तो गर्व करने लायक कुछ होता नहीं, या फ़िर जिनके रक्त की विशिट ऊष्मा (specific heat) इतनी अधिक होती है कि उसे खौलाने के लिए ऊर्जा का संकट ही खड़ा हो जाए. इतिहास की ओर से मुंह फेरने वाले अक्सर उसे दुहराने पर विवश होते हैं.
ReplyDeleteप्रेसेंट इस ओनली अ कन्टीन्युएशन ऑव पास्ट.
आठ-दस लोगों के परिवार के लिए शायद मथनी उपयोगी हो, पर सौ करोड़ के परिवार के लिए आपको मिक्सी की आवश्यकता अवश्य पड़ने ही वाली है.
इतिहास को जानना समझना भी अत्यन्त आवश्यक है. और यदि आपके जैसे प्रबुद्ध लोग ही इससे जी चुराने लगेंगे तो क्या (अजदक जी के चेलों-चपाटों की भाषा में) रिक्शे वालों से इसकी आशा की जायेगी?
अपनी मथनी का उपयोग करना सर्वोत्तम है.
ReplyDeleteबहुत अच्छा विषय उठाया है।
ReplyDeleteइतिहास के बारे में मेरा मत है कि इसे हमेशा सशंक होकर ही पढना चाहिए, कैलकुलस के सूत्र की तरह घोंटा मारना खतरनाक है।
शिव ने जो "तीरन" वाली बात कही है उसके आगे या पीछे कुछ नहीं कहा जा सकता....
ReplyDeleteनीरज
इतिहास पढ़ने का और सच्चा इतिहास पढ़ने का धैर्य और संयम सबके पास नहीं होता। भारत में तो कम से कम। यहां तो एक सिरे से तारीफ चाहिए या एक सिरे से नकार, जबकि इतिहास यह नहीं होता। क्योंकि जब इतिहास गढ़ा जा रहा होता है, तो वह एक साथ सब कुछ होता है जिंदगी के माफिक।
ReplyDeleteशिवाजी के महान व्यक्तित्व में एकाध फांक झाकती सी दिखे, उसे कोई हाईलाइट करे, तो शिव सैनिक नहीं छोड़ेंगे। उधर अकबर के सेक्युलरत्व पर आंच आये, तो मारधाड़ मचाने वाले कम नहीं।
इतिहास दरअसल समझदारों का शास्त्र है, भारत अभी इसके लिए तैयार नहीं है।
यदि हम अपने अतीत को भूलेंगे तो भविष्य हमें भुला देगा। इतिहास का अध्ययन, चिंतन, मनन करके अपने निष्कर्षों के अनुसार भविष्य के निर्माण का सचेतन प्रयास कठिन परिश्रम तो मांगता ही है। परंतु ध्यान रहे समस्त जीव जगत में मात्र मनुष्य ही ऐसा प्रयास करते हैं।
ReplyDeleteमैंने इतिहास बहुत पढ़ा...लेकिन जितना ज्यादा पढो उतना ज्यादा उलझ जाओ! रोमिला थापर वाला इतिहास हज़म करने में बहुत कठिन है!छोटी छोटी किताबें ज्यादा रुचिकर रहीं!लेकिन विद्वान ही जब एकमत नहीं हैं तो क्या सही माने क्या गलत....लेकिन इसमें दिमाग खपाया नहीं सो कभी उलझे भी नहीं!
ReplyDeleteएक २००० वोल्ट एसी सप्लाई मांगती है। दूसरी ३००० वोल्ट बीसी।
ReplyDeleteAC यानि आल्टरनेट करंट के बारे में तो ज्ञान है, और दूसरा करंट डॉयरेक्ट करंट पढ़ा है जो कि बैट्री आदि में होता है। पर बीसी नहीं पढ़े हैं तो थोड़ी इसकी व्याख्या भी कीजिए! :)
बाकि इतिहासकारों, पुरातत्त्ववेत्ताओं की अपन नहीं जानते, इतनी समझ नहीं इसलिए जो वे कहते हैं वही मान लेने के अतिरिक्त कोई अन्य चारा नहीं दिखता। ऐतिहासिक कहानियाँ, टीवी धारावाहिक, फिल्में आदि देखने में बड़ा आनंद आता है वैसे! ;)
हर इंसान के अंदर अतीत को समझने की जिज्ञासा होती है, इसलिए इतिहास को नकारा नहीं जा सकता।
ReplyDeleteहां, आपकी मथनी वाली बात से मेरी पूर्ण सहमति है। दूसरों की थमायी हुई ब्रांडेड मिक्सी के बजाय अपने हिसाब से बनायी हुई मथनी इतिहास को ठीक से समझने में ज्यादा कारगर हो सकती है। आदमी जब विचारधाराओं और वादों का गुलाम बन जाता है तो उसकी कुछ नया सोचने की शक्ति क्षीण हो जाती है। लकीर का फकीर बन कर रह जाता है।
किसी पर्वत को अलग-अलग दिशाओं से देखा जाए तो उसका स्वरूप भिन्न-भिन्न नजर आता है। इतिहास के साथ भी यही बात है। एक ही परिघटना का स्वरूप अलग-अलग नजरिए से अलग-अलग दिखाई देगा। 1857 की क्रांति ब्रिटिश हुकूमत के लिए बगावत थी, लेकिन भारतीयों के लिए आजादी का पहला संग्राम। दोनों अपनी-अपनी जगह पर सही हैं।
यह आदमी की खुद की समझदारी पर निर्भर करता है कि सत्य को सबसे अधिक करीब से देखने के लिए वह कहां खड़ा हो। ब्रांडेड मिक्सी के चक्कर में पड़ा रहेगा तो गया काम से।
अब, मैं अपनी बात बता रहा हूं। मुझे रोमिला थापर ब्रांड की मिक्सी सबसे उपयोगी लगती है। लेकिन मैंने उसमें अपनी समझदारी, संस्कार और जरूरतों के मुताबिक कुछ सुधार कर लिया है। अब वह मेरे लिए मेरी खुद की मथनी है।
हिन्दी ब्लाग जगत से थोडा दूर था लेकिन इस पोस्ट के टाईटल ने फ़िर खींच लिया । अभी जल्दी में हूँ लेकिन इस पोस्ट पर विस्तॄत टिप्पणी शीघ्र करूँगा ।
ReplyDeleteइतिहास को नकारा तो नहीं जा सकता, लेकिन समय समय पर लोगो ने भी तो उस मे फ़ेर बदल किये हे, शायद असल इतिहास बचा ही ना हो,
ReplyDeleteबाकी मे तो संजय बेंगाणी ओर अशोक पाण्डेय जी की बात से सहमत हू
इतिहास में अनिश्चय है इसलिए उसे पूरी तरह खारिज कर देना चाहिए; मैं इससे कत्तई सहमत नहीं हूँ।
ReplyDeleteविज्ञान वर्ग की शैक्षिक पृष्ठभूमि वाले यदि इस सिद्धान्त के पोषक हो गये हैं तो उन्हें सबसे पहले इस जीवन को ही नकार देना चाहिए। यहाँ भी तो बहुत कुछ संदिग्ध है। अनिश्चित है, और अस्थाई है। “परफेक्शनिस्ट” व्यक्ति प्रायः असन्तुष्टि के भाव में ही रहता है। क्यों कि इस असार संसार में पूर्ण सत्य कुछ भी नहीं है।
महान वैज्ञानिक न्यूटन के अनेक प्रतिदर्श कालान्तर में अवैज्ञानिक सिद्ध हो चुके हैं, तो क्या उन्हे महत्वहीन मानकर खारिज कर देंगे? पढ़ना छोड़ देंगे? ज्ञान का विशाल भण्डार सतत् परिवर्तन शील है। चाहे वह सजीव या निर्जीव विज्ञान हो, कला हो, मानविकी हो, वाणिज्य हो, या साहित्य हो, अथवा इतिहास ही क्यों न हो। लेकिन इससे वह त्याज्य नहीं हो जाता। परिमार्जन और परिष्कार की गुन्जाइश सर्वत्र है।
व्यक्तिगत अभिरुचि अलग बात है।
आप की पोस्ट और उस पर आयी टिप्पणियां पढ़ने के बाद मैं कफ़्युजड हो गयी हूँ। आप के ब्लोग पर देर से आने का ये ही नुकसान है कि हम दूसरों की टिप्पणियों से प्रभावित हो जाते हैं। मुझे तो लगता है कि पहले तो सवाल ये है कि हम कौन से इतिहास की बात कर रहे हैं अगर हम राजनीति,समाजिक रूढ़ीवाद की बात कर रहे है तो उसे तो उठा के फ़ैंक देना चाहिए उसी रामसेतु के नीचे जिस पर इतना बवाल हो रहा है। बाबरी मस्जिद के पहले वहां मंदिर था या खेत हमें क्या करना है, आज क्या वस्तुस्थिती है वो ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। दूसरी तरफ़ इतिहास को पूरी तरह से नकारा भी नहीं जा सकता, कम से कम इतिहास से ये तो जानना ही चाहिए कि लम्हों ने क्या खता की थी जिसकी सजा सदियों ने पायी थी। इतिहास को नकार कर पहिए का इजाद दोबारा क्युं करना।
ReplyDeleteसब बातों की एक बात आदमियों का इतिहास भूल जाओ, चीजों का इतिहास याद रखो। फ़िर भी ये मुद्दा इतना सरल नही है अभी और सोचने की जरूरत है।
अब मैं सोच रही हूं आप के मन में हलचल होती है और हम जैसे लोग बेचारे काम पर लग जाते है…।:)
"The HISTORY will be written with different words when LIONS can write instead of the HUNTERS "
ReplyDeleteI had red this sentence somewhere.
The prespective is Diff. from diff. view points & various vantage ponits.
Lavanyajee,
ReplyDeleteHere is another quote that is similar.
History is always written by the victors.
सबसे बडा ज्ञानी वह जो खुद को अज्ञानी समझे । काश, हम सब अल्पज्ञ हो जाएं ।
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