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Friday, March 28, 2008
विदर्भ की आत्महत्याओं का तोड़ (वाकई?)
मुझे झेंप आती है कि मेरे पास विदर्भ की समस्या का कोई, बेकार सा ही सही, समाधान नहीं है। वैसे बहुत विद्वता पूर्ण कहने-लिखने वालों के पास भी नहीं है। सरकार के पास तो नहियंई है। वह तो मात्र कर्ज माफी का पेड़ लगा कर वोट के फल तोड़ना चाहती है।
हमारे साथी अधिकारी श्रीयुत श्रीमोहन ने एक पते की बात बताई है। उनका गांव बलिया जिला में है। गरीबी का मूल स्थान है बलिया। और आज भी गरीबी की भीषणता के दर्शन करने हों तो वहां जाया जा सकता है।
करनराम, गांव दामोदरपुर, पास का रेल स्टेशन फेफना, जिला बलिया के निवासी थे। वे 96 साल की जिन्दगी काट कर दुनियां से गये। उनके अपने पास एक इंच जमीन नहीं थी। गांव में एक बाग में संत की समाधि की देखभाल करते थे करनराम जी। आसपास की लगभग एक बीघा की जमीन में अरहर, पटसन, चना - जो भी हो सकता था बो लेते थे। कुछ और कमाई के लिये पाजामा-कुरता-नेकर आदि देसी पहनावे के वस्त्र सिल लेते थे। उनकी पत्नी उनकी मृत्यु से तीन साल पहले मरी थीं। अर्थात दोनो पूरी जिन्दगी काट कर दुनियां से गये। एक लड़का था जिसे चतुर्थ श्रेणी में एफ सी आई में नौकरी मिली थी और जो अपने बूते पर अफसर बन गया था; पर करन राम जी ऐसे स्वाभिमानी थे कि लड़के से एक रत्ती भी सहायता कभी नहीं ली।
करनराम जी के पास खाने को कुछ हुआ तो ठीक वरना पटसन के फूलों की तरकारी बना कर भी काम चलाते थे। सदा मस्त रहने वाले जीव। किसी भी मेले में उनकी उपस्थिति अनिवार्य बनती थी। चाहे बलिया का ददरी मेला हो या गड़वार के जंगली बाबा के मन्दिर पर लगने वाला मेला हो। बड़े अच्छे गायक थे और ढ़ोल बजाते थे। अभाव में भी रस लेने का इंतजाम उनकी प्रकृति का अंग बना हुआ था। उन्हे अवसाद तो कभी हुआ न होगा। भले ही भूखे पेट रहे हों दिनो दिन।
करनराम जी एब्जेक्ट पावर्टी में भी पूरी जिन्दगी मस्त मलंग की तरह काट गये। और पूर्वांचल में करनराम अकेले नहीं हैं। यहां भूख के कारण मौत हो सकती है। पर विदर्भ की तरह के किसानों के सपने टूटने के अवसाद की आत्महत्या वाली मौतें नहीं होतीं। लोगों ने अपनी कृषि से कैश क्रॉप के अरिथमैटिक/कैश-फ्लो वाली अपेक्षायें अपने पर लाद नहीं रखी हैं। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के बेचे स्वप्न बिना वास्तविकता का डिस्काउण्ट लगाये उन लोगों ने स्वीकार नहीं कर लिये हैं। उन सपनों के आधार पर हैसियत से ऊपर के कर्ज नहीं ले रखे हैं। मितव्ययता/फ्रूगालिटी उनके गुणसूत्र में है। गंगा की बाढ़ ने सहस्त्राब्दियों से अभावों को सहजता से लेना उन्हे सिखाया है। आप एक आध चारवाकवादी को उद्धृत भले कर दें यहां के; पर सामान्य जनसंख्या करनराम जी की तरह की है।
करनराम जी का उदाहरण शायद विदर्भ का एण्टीडोट हो। न भी हो तो भी उसपर विचार करने से क्या जाता है। अपनी अपेक्षायें कम करने और थोड़े में प्रसन्नता ढ़ूंढ़ना ही तो समाधान है। और कोई समाधान भी तो नहीं है। है भी तो लफ्फाजी की चाशनी में लिपटा यूटोपिया है!
आप भी सोचें!
मुझे पक्का यकीन है कि बुद्धिवादी मेरी इस पोस्ट को खारिज करने का पूरा मन बनायेंगे। देश के आर्थिक विकास की बजाय मैं फ्रूगालिटी की बात कर रहा हूं। और असली बात - किसान की आत्महत्या का इतना बढ़िया मुद्दा मिला है सरकार पर कोड़े बरसाने का, उसे छोड़ मैं पटसन के फूलों की तरकारी की वकालत कर रहा हूं।
"सरकारी मुलाजिम हूं न! सो सरकार के पक्ष के लिये मामला डाइवर्ट कर रहा हूं!"
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ब्लॉग लेखन -
Gyan Dutt Pandey
समय (भारत)
5:30 AM
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मन चंगा तो कठौती मां गंगा। परसाई जी इसे जीने की इच्छा की गोंद कहते थे। आत्महत्या के बारे में म्नोवैज्ञानिक बताते हैं कि यह भी एक फ़ैशन की तरह आचरण करती है। लोगों को एक रास्ता दिख जाता उस पर चलने लगते हैं। आई.आई.टी. के लड़के आत्मह्त्या करने लगे। जापान में लोग तनाव में आत्महत्या करने लगते हैं। तमिलनाडु में लोग अपने नेताओं के समर्थन में आग लगा लेते हैं। विदर्भ की स्थितियां सच में भयावह हैं कि इत्ते लोग आत्महत्या कर रहे हैं और कोई इलाज नहीं है। यह हमारे समय और समाज की उदासीनता की पराकाष्ठा है।
ReplyDelete'मितव्ययता/फ्रूगालिटी उनके गुणसूत्र में है।'
ReplyDeleteपहले तो इस सुंदर से वाक्य पर बधाई -आधुनिक ज्ञान का कितना सुंदर और प्रभावशाली भाषायिक-साहित्यिक प्रयोग है .अग्रेतर सरकार की तरफदारी का तो आपका महज एक अंदाजे बयां है ,बात आप ने बहुत माफिक की है -भारतीय जीवन दर्शन के ही अनुरूप .मगर भाई लोग माने तब न ........
यह भी मानना होगा कि हम पुरवासियों की नब्ज आपने अच्छी पकडी है -अनेक लोग घोर प्रत्यक्ष विपन्नता के बावजूद भी मदमस्त ज़िंदगी जी रहे हैं -भौतिकवादी भले ही उसे जिंदगी के मानदंडों के लायक न माने !
आप ने करनराम जी का उदाहरण रख कर 'मीर' मार लिया है। मीर को मारने का यही तरीका है। बापू ने भी यही किया था। उन्होंने कम्पनी सरकार के माध्यम से ब्रिटिश सरकार तक पहुँचे उपनिवेशवादी सत्ता से स्वदेशी के माध्यम से ही लड़ाई प्रारंभ की थी। यह किसी भी लड़ाई में अपनी फौज को सुदृढ़ करने का एक मात्र रास्ता है। इन कर्जों से दूर भागना ही होगा। इन से वितृष्णा उत्पन्न करनी ही होगी। हम साधन खड़े करें मगर कर्जों में ड़ूब कर नहीं बल्कि तैरते हुए।
ReplyDeleteआज कोई भी पुराना वाद और तरीका समाज परिवर्तन के लिए कारगर नहीं हो सकता। हमें भारतीय समाज में परिवर्तन के लिए नई पद्यति का निर्माण करना होगा। नए का निर्माण वही कर सकता है जिस ने पुराने तरीकों का सर्वांगीण अध्ययन कर लिया हो। सभी पुराने वादों और तरीकों को खंगालना होगा। उन से अपने काम के तत्व और औजार ले कर अपनी पद्यति का विकास करना होगा। गाँधी का महत्व इसीलिए है कि उन्होंने अपनी पद्यति का विकास किया था। लेकिन आज वह पद्यति भी भोंथरी ही सिद्ध होगी। तमाम परिवर्तन कामी लोगों को चाहे वे गाँधीवादी हों या मार्क्सवादी या कोई और उन्हें यही करना होगा। कोई भी क्रांति पुरानी पद्यति पर चलकर नहीं हो सकती। या तो आप को नई पद्यति ईजाद करनी होगी अथवा पुरानी ही किसी पद्यति का विकास करना होगा।
गुणसुत्र वाली बात जमी, क्योंकि ये तरीके एकदम नहीं पीढ़ी दर पीढ़ी समझ से उपजे है. इनका कोई तोड़ नहीं.
ReplyDeleteबिल्कुल अलग बात - [गहरी भी-? - घोर अवसाद की जिजीविषा से चलती हुई स्पर्धा ?] - वैसे अनिल जी के पोस्ट पर एक कमेन्ट यह भी था कि ऐसा विदर्भ में ही क्यों होता है - पिछली दो पोस्टें मानसिक हलचल बढ़ाने वाली रही - सादर - मनीष
ReplyDeleteअभाव में रस लेने का भाव पा जाए तो बात ही क्या है
ReplyDeleteमितव्ययिता के महत्व को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। पर विदर्म में पब्लिक एजुकेशन का मामला भी है। माइक्रो फाइनेंस कुछ काम कर सके वहां। पर वहां अब इत्ते तरह के गिद्ध आ गये हैं कि उनसे छुटकारा अपने आप में नयी समस्या है।
ReplyDeleteइस देश मे जब भी योजनाकार किसानो के विज्ञान को समझेंगे और अपनी खोखली नीतियो को थोपना बन्द कर देंगे भारतीय किसान अपने आप सम्भल जायेंगे। काश देश मे अनुसन्धान दस वर्षो तक बन्द कर दिये जाये और वैज्ञानिको को एसी कमरे से निकालकर खेत भेज दिया जाये। जो किसान के लिये अच्छा करे उसे प्रमोशन मिले और बाकि को नमस्कार किया जाये। अनुसन्धान ने इस देश की कृषि को डुबो दिया है। इस पर लगाम कसने की जरुरत है। आप ये लेख पढे तो स्थिति और स्पष्ट हो जायेगी। पीडीएफ मे हिन्दी लेख है।
ReplyDeletehttp://ecoport.org/ep?SearchType=reference&ReferenceID=557117
http://ecoport.org/ep?SearchType=reference&ReferenceID=557479
सोचने और मनन करने वाली बात है।
ReplyDeletesvaabhiman v daridrtaa aksar saath saath dikhaayi padtey hai...karanraam jaisey aneko udhaaran hain....jinkey baarey padh sunkar pet khaul uthhtaa hai .
ReplyDelete"अपनी अपेक्षायें कम करने और थोड़े में प्रसन्नता ढ़ूंढ़ना ही तो समाधान है। और कोई समाधान भी तो नहीं है। उसपर विचार करने से क्या जाता है। "करनराम जी के माध्यम से सही और सकारात्मक चिंतन को आपने मूर्तरूप दिया है और यह भी कहा है कि आप भी सोंचे , सचमुच आपने सोचने पर मजबूर कर दिया है, बधाईयाँ !
ReplyDeleteहम तो पहली लाईन पर रुक गये..पढ़ा पूरा..मगर रुके पहली लाईन पर रहे..जब आपके पास नहीं है कोई तोड़..तो हमारे पास क्या खाक होगा. आपकि जय हो.
ReplyDeleteBaat sahi hai.
ReplyDeleteShastron mein bhi likha hai:
Gaudhan, gajdhan, bajdhan aur ratan dhan khan.
Jab aaye, santosh dhan, sab dhan dhuri saman.
Lekin phir Charvak saheb ne yah bhi likh diya shartron mein hi:
Yavat jivet sukham jivet,
Rinam kritva ghritam pibet.
Aatmhatya ki baat to shayad kahin nahin likhi hai, ya likhi hai to maine padha nahin. Yah kyon hota hai. Aatmhatya ka n to mujhe karan pata na hi nivaran. Shayad ek karan to "apekshayen" hain. Samaj ka aapse, aapka samaj se, rajneta ka aapse, aapka rajneta se, patni ka pati se, pati ka patni se, bete ka baap se, baap ka bete se, bhai ka bahan se, bahan ka bhai se, bhai ka bhai se, devar ka baujai se, bhaujai ka devar se, agar koi nahin hai to apne aap se.
IIT mein aatmhatya ka karan yah apeksha hoti hai, aur log apekshaon par khare na ho sakane ke dar se bhag khadhe hote hain jindagi se. Apekshayen rakhana bilkul uchit hai, lekin jindagi se bhag jana uchit nahin hai.
Phir bhi mere khayal mein sarkar ko karana chahiye kuchh in pareshan kisanon ke liye.
अपनी अपेक्षायें कम करने और थोड़े में प्रसन्नता ढ़ूंढ़ना ही तो समाधान है। और कोई समाधान भी तो नहीं है। है भी तो लफ्फाजी की चाशनी में लिपटा यूटोपिया है!
ReplyDeleteजब बच्चों की मासूम आंखों में भूख सवालिया निशान बन कर चमकती है तो शायद किसान भाई आत्महत्या में ही इस प्रश्न का जवाब ढूंढते हैं.
कम अपेक्षाएं ही प्रसन्न्ता की कुंजी है इस से तो इंकार नहीं किया जा सकता न्। सच कहा आप ने
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