पंकज अवधिया जी इतना व्यस्त होते हुये भी समय पर लिख कर अपना लेख मुझे भेज देते हैं। और उनके लेखों में विविधता-नयापन बरकरार रहता है। इस बार भी उन्होंने बिल्कुल समय पर अपना आलेख भेज दिया।
मैने उनके पिछले आलेख के पुछल्ले के रूप में गेंहूं के खेत का एक चित्र लगा दिया था। उसमें सरसों के कुछ पीले फूलों वाले पौधे भी थे। पंकज जी का लेख उसी को लेकर बन गया है। और क्या महत्वपूर्ण अनुभव युक्त जानकारी दी है उन्होंने!
आप पंकज जी की पोस्ट पढ़ें। वे खेतों में उगने वाले खरपतवार के विषय में बहुराष्ट्रीय कीटनाशक व्यवसाय और खरपतवार की उपयोगिता के सम्बन्ध में रोचक जानकारी दे रहे हैं।
आप उनकी पहले की पोस्टें पंकज अवधिया पर लेबल सर्च कर देख सकते हैं।
पिछले बुधवार को ज्ञान जी ने गेहूँ के खेत की फोटो प्रकाशित की थी जिसमे सरसों के दो पौधे उगे हुये थे। कृषि विज्ञान की शिक्षा के दौरान हमें पढाया गया था कि मुख्य फसल के अलावा शेष सभी पौधे चाहे वे कितने भी उपयोगी हों, खरपतवार होते हैं। इस नजरिये से गेहूँ के खेत मे उग रहे सरसों के ये पौधे भी खरपतवार हैं। हमे यह भी बताया गया कि हाथ से इन्हे उखाडना महंगा है और दूसरे उपाय उतने कारगर नही है सिवाय खरपतवारनाशियों के। खरपतवारनाशी मतलब खरपतवारो को मारने वाले रसायन। ज्यादातर विदेशी कम्पनियाँ इन्हे बनाती हैं। परीक्षा के लिये हमने इनके नाम रटे और इनपर देश मे हो रहे शोधों के बारे मे पढ़ा। पता चला कि इस तरह के शोधों मे बड़ा पैसा खर्च किया जा रहा है। बहुत अच्छे नम्बरो से पास हुये। फिर तन कर साहब बन पहुँच गये किसानो के बीच अपना ज्ञान बाँटने।
पर वहाँ तो स्थिति एकदम उलट थी। जिन्हे खरपतवार बताया जा रहा था वे पौधे ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ बने हुये थे। किसानो को इनसे समस्या थी और वे जानते थे कि ये पौधे मुख्य फसल से पानी, भोजन और सूर्य के प्रकाश के लिये प्रतियोगिता करते हैं। पर उनका इनसे निपटने का ढंग अनोखा था। पशु चारे से लेकर अपने परिवार की स्वास्थ्य रक्षा के लिये इन तथाकथित खरपतवारों का प्रयोग वे करते दिखे। कुछ भागों मे किसान इसे एकत्र करके पास के दवा व्यापारियों को बेच देते हैं। इससे उखाड़ने के पैसे वसूल हो जाते हैं और साथ ही अलग से कमाई भी। ज्यादातर भागों मे इन खरपतवारो के बदले वे गाँव की दुकान से दैनिक उपयोग के समान खरीद लेते हैं। वे इन्ही खरपतवारों को साग के रूप मे वर्ष भर खाते हैं। इससे बाजार से रसायनयुक्त सब्जी उन्हे नहीं खरीदनी पडती। फिर ये उन्हे साल भर रोगों से भी बचाते हैं। मतलब चिकित्सा व्यय मे भारी बचत। भले ही हमे कुछ खरपतवारो के उपयोग पढ़ाये गये पर किसान तो सभी पौधो के उपयोग जानते हैं, पीढ़ियों से साथ जो रह रहे हैं। वे इनसे बाड़ तैयार कर लेते हैं या फिर झोपड़ियों की छत बना लेते हैं।
जब उनसे खरपतवारनाशी रसायन के प्रयोग की बात कही गयी तो वे बोले ये तो महंगा है और फिर इससे जब पौधे नष्ट हो जायेंगें तो इन सब लाभों का क्या होगा? हम निरुत्तर हो गये। अब किसानो से पढना शुरु किया और फिर पहुँच गये वैज्ञानिको के बीच संगोष्ठियो में। पता लगा इन विराट आयोजनों के पीछे खरपतवारनाशी बनाने वाली कम्पनियों का हाथ और साथ होता है। वे ही शोध के लिये पैसा देती हैं। इसलिये वैज्ञानिक ऐसे शोध करते हैं। जैसी उम्मीद थी मुझे बिरादरी से अलग करने की कोशिश शुरु हो गयी। किसान जैसे गुरु पाकर लगा कि सही विश्वविद्यालय मे दाखिला हो गया है और अब जीवन भर पढ़ना होगा। मैने कूप मंडूक की तरह रह रहे वैज्ञानिक समाज को नमस्कार किया और असली वैज्ञानिकों के पास पहुँच गया। जब मेडीसिनल वीड पर मैने हजारो आलेख लिखे तो नयी पीढी के वैज्ञानिकों को बात समझ आने लगी और अब जमीनी स्तर पर कृषि शोध की बात की जा रही है। इन सालो मे पता नही कितने टन खरपतवारनाशी भारतीय धरती पर डाले जा चुके हैं। पर्यावरण को कितना नुकसान पहुँच चुका है। गाँवो पर इसका प्रभाव तो साफ दिखता है। किसान रसायनयुक्त सब्जियाँ खरीद रहे हैं। वे बीमार भी हो रहे हैं। चिकित्सा के लिये शहरों पर उनकी निर्भरता बढ रही है। दिन-ब-दिन पारम्परिक खेती से दूरी का फल वे भुगत रहे हैं। ये फल वे वैज्ञानिक नही भुगत रहे हैं; जिन्होने इसे किसानो पर थोपा। वे आज उच्च पदो पर हैं और नयी किसानोपयोगी (?!) नीतियों के विकास मे जुटे हैं।
तो ज्ञान जी द्वारा ली गयी फोटो में भी यदि ध्यान से देखेंगे तो आपको खजाना दिखायी देगा। गेहूँ के खेतो मे दसों किस्म के पौधे अपने आप उगते हैं। इन सभी का सही प्रयोग न केवल एक साल तक बल्कि आजीवन निरोग रख सकता है। यदि हमने पारम्परिक खेती, किसानों और माँ प्रकृति के इन उपहारों का महत्व नही समझा तो जल्द ही हम इन्हे खो देंगे और साथ ही निरोगी जीवन की कुंजी भी।
इकोपोर्ट पर औषधीय खरपतवारो पर मेरे शोध आलेख यहां, यहां और यहां पर देखें।
इकोपोर्ट पर औषधीय खरपतवारों पर हिन्दी लेख इस लिंक पर लेख इस लिंक पर उपलब्ध हैं।
कुछ अन्य शोध आलेख आप यहां देख सकते हैं।
पंकज अवधिया
© इस लेख का सर्वाधिकार श्री पंकज अवधिया का है।
पंकज जी ने सही राह पकड़ी है। किसानों से सीखने की। सदियों से अनुभव की पाठशाला का ज्ञान सब के बीच उजागर करें और कंपनी निजाम के छल भी।
ReplyDeleteबहुत उपयोगी जानकारी
ReplyDeleteकर्ज माफी पाए
किसानों के लिए.
पर ब्लागदुनिया में भी
खरपतवार उगती है
मिलती है झड़ती है
इसके लिए कौन सा
रसायन उपयुक्त रहेगा
ज्ञान दीजिए
रेल वाले पर
रेल चाल में नहीं
तेज चाल में.
हे भगवान, मेहमान की समयबद्धता से काश मेजबान भी सीख लें और अपनी पोस्ट रोजाना डालें ;)
ReplyDeleteआपका लेख अच्छा लगा । कल मैं एक लेख लिख रही थी जिसमें अपने पिताजी के बगीचे के बारे में लिख रही थी । मुझे आपके लेखों में बहुत रुचि हे क्योंकि मैं प्रकृति के बीच रहती हूँ । मेरे बगीचे और किसी किसान के गेहूँ के खेत के बीच केवल एक कच्चे रास्ते भर का अन्तर है ।
ReplyDeleteकल मैं एक लेख लिख रही थी जिसमें अपने पिताजी के बगीचे के बारे में लिख रही थी । सोच रही हूँ उनके व अपने सभी बगीचों का वर्णन लिख दूँ ।
घुघूती बासूती
रोचक जानकारी, पकंज जी
ReplyDeleteअद्भुत जानकारी हमारे जैसे प्रकृति से कटे विज्ञान प्रेमियों के लिए. अत्यन्त रोचक भाषा. एक बार पढ़ना प्रारम्भ किया तो लेख समाप्त करके ही पलक झपका सके. हार्दिक धन्यवाद.
ReplyDeleteहेडिंग प्रभावकारी. यह सच्ची सोच है जो कोट शूट टाईवाले उठाईगीरों को समझ में नहीं आती.
ReplyDeleteबहुत सारी मुश्किलों के मूल में तो ये कम्पनियाँ और इनके उत्पाद ही हैं. हमारे गाँव में लोग बताते हैं की पहले रासायनिक खादें किसान अपने खेत में नहीं डालते थे. तब सरकारी अफसर और कृषि विभाग के लोग आकर रात में चुपके से उनके खेतों में खाद डाल जाते थे. बाद में जब पैदावार बढ़ जाती थी तब वे आकर बताते थे की देखिए हमने क्या से क्या कर दिया. तब किसी किसान को यह पता नहीं था की एक दिन ये गले की फाँस बन जाएगी. लोगों ने तब उसे अपना लिया, पर अब तो चाह कर भी छोड़ नहीं पा रहे हैं.
ReplyDelete