मैं एस जी अब्बास काजमी को बतौर एक अकेले व्यक्ति, या दुराग्रही व्यक्ति (परवर्ट इण्डीवीजुअल) के रूप में नहीं लेता। वे कसाब को बचा ले जायें या नहीं, वह मुद्दा नहीं है (वे न बचा पायें तो शायद सरकार बचाये रखे)। मुद्दा यह है कि कोई व्यक्ति/वकील यह जानते हुये भी उसके पक्ष में गलती/खोट है, उस पक्ष का बचाव कैसे कर सकता है?
मैं वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में चमकदार नहीं रहा। पर छात्र दिनों में अपने मित्रों को वाद विवाद में किसी विषय के पक्ष और विपक्ष में मुद्दे जरूर सप्लाई किये हैं। और कई बार तो एक ही डिबेट में पक्ष और विपक्ष दोनो को मसाला दिया है। पर अगर किसी मुद्दे पर अपने को बौद्धिक या नैतिक रूप से प्रतिबद्ध पाता था, तो वहां किनारा कर लेता था। दुर्भाग्य से काजमी छाप लीगल काम में वह किनारा करने की ईमानदारी नजर नहीं आती।
मित्रों, भारत में विधि व्यवस्था में संसाधनों की कमी सबसे बड़ा मुद्दा नहीं है। किस व्यवस्था में संसाधन की कमी नहीं है? मैं किसी भी प्रॉजेक्ट पर काम करना प्रारम्भ करता हूं तो सबसे पहले संसाधनों की कमी मुंह बाये दीखती है। मैं मालगाड़ी परिवहन देखता हूं। उसमें इन्जन/वैगन/चालक/ ट्रैक क्षमता – सब क्षेत्रों में तो कमी ही नजर आती है। तब भी हमें परिणाम देने होते हैं।
पर अगर अपने काम के प्रति अनैतिक होता हूं, तब बण्टाढार होना प्रारम्भ होता है। तब मैं छद्म खेल खेलने लगता हूं और बाकी लोग भी मुझसे वही करने लगते हैं।
यही मुझे भारत के लीगल सिस्टम में नजर आता है। क्लायण्ट और उसके केस के गलत या सही होने की परवाह न करना, तर्क शक्ति का अश्लील या बुलिश प्रयोग, न्यायधीश को अवैध तरीके से प्रभावित करने का यत्न, फर्जी डाक्यूमेण्ट या गवाह से केस में जान डालना, अपने क्लायण्ट को मौके पर चुप रह जाने की कुटिल (या यह कानून सम्मत है?) सलाह देना, गोलबन्दी कर प्रतिपक्ष को किनारे पर धकेलना, मामलों को दशकों तक लटकाये रखने की तकनीकों(?) का प्रयोग करना --- पता नहीं यह सब लीगल एथिक्स का हिस्सा है या उसका दुरुपयोग? जो भी हो, यह सामान्य जीवन की नैतिकता के खिलाफ जरूर जाता है। और आप यह बहुतायत में होता पाते हैं। मेरी तो घ्राण शक्ति या ऑब्जर्वेशन पावर बहुत सशक्त नहीं है – पर मुझे भी यह उत्तरोत्तर बढ़ता नजर आता है।
श्रीमन्, यह लीगल-एथिक्स हीनता असल गणक है जो व्यवस्था के महत्वपूर्ण अंग/खम्भे को खोखला करता है। और इस तथ्य को इस आधार पर अनदेखा/दरकिनार नहीं किया जा सकता कि व्यवस्था के सारे ही खम्भे तो खोखले हो रहे हैं।
और सही समाधान काजमीत्व के स्थानपर व्यापक युधिष्ठिरीकरण की बात करना नहीं है। आप किसी को जबरी एथिकल नहीं बना सकते। पर इलेक्ट्रॉनिफिकेशन में समाधान हैं। नन्दन निलेकनी को किसी अन्य क्षेत्र में इसी प्रकार के समाधान हेतु अथॉरिटी का अध्यक्ष बनाया गया है। कुछ वैसा ही काम लीगल क्षेत्र में भी होना चाहिये।
भौतिकवादी दृष्टिकोंण से भी यदि हम देखें तो न्यायव्यवस्था लोकतंत्र का आधार है। कानून और न्याय में भेद है। कानून विषयगत होता है जबकि न्याय उद्देश्यगत। कानून के प्राविधानों को कैसे भी संतुष्ट कर देनें से कानून का काम पूरा मान लिया जाता है। भले न्याय मिले या न मिले। कानून का अध्येता, ज्युरिसप्रुड़ेन्स एक विषय के रूप में पढ़्ता अवश्य है किन्तु व्यवहार में प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्त पर ध्यान कम ही देता है।
ReplyDeleteन्यायव्यवस्था के साथ जो व्यवस्था शब्द है यह उस पूरे परिदृश्य को व्याख्यायित करता है जिसमें जज, अदालतों के विभिन्न कर्मचारी, नये-पुरानें सभी वकील, उन के कर्मचारी, टाउट्स तथा वादकारी आदि जुड़े हैं। इन सबनें मिलकर न्यायव्यवस्था को नारकीय बना दिया है। इस पर भी भारतीय पुलिस की तरह यह एक नेशसरी इविल तो है ही। विकल्प के अभाव में यह अभी तक सही जारही है। यद्यपि अब अधिकाँश लोग कोर्ट से बाहर विवाद सुलझानें में विश्वास रखते हैं। आपराधिक मामलों में ड़ाइरेक्ट एक्शन तो सर्वत्र दिख रहा है।
मैनें एक वकील की हैसियत से १९७३ में जब कोर्ट जाना शुरू किया तो मेरे एक सीनियर नें अदालत शब्द का अर्थ बताया था। अ+दा+ल+त= आओ लड़ो देओ और तबाह हो जाओ। १९८० मे ऊब कर जब रेगुलर प्रैक्टिस छोड़नें और कंसल्टेंसी करनें का निर्णय लिया उस समय से आज पतन ही हुआ है।
लेकिन यह पतन सभी प्रोफेशन्स में हुआ है। हाँ धर्म का स्थान लेनें वाली न्याय-व्यवस्था जिस पर पूरा समाज टिका हो वह अन्यायी हो जाए, तो? ? ?
बहुत चिन्तनपरक !शायद इस प्रोफेसन के लोगों को इस बात से सहरा मिलता हो की सत्य सापेक्षिक है !
ReplyDeleteअदालत में अदाकारी ही होती है खुलकर सच कोई नहीं बोलता , जिसका पक्ष सच्चा है वह भी यदि सत्य पर ही टिका रहे तो बचने के अवसर कम हो जायेंगे !
ReplyDeleteव्यवस्था ही ऐसी है !
हर वकील यह कहता है कि उसके पास आया क्लाइंट उससे मदद मांगता है और उसकी सहायता करना उसका कर्त्तव्य है. कोई भी वकील इस बात को नहीं मानेगा कि वह केवल न्याय के पक्ष में ही मुकदमा लेगा या लड़ेगा. वकीलों को बुरा ज़रूर लगेगा लेकिन मैंने उन्हें मुकदमा पाने या जीतने के लिए सारी हदें पार करते देखा है. जिन वकीलों को मैंने अपेक्षाकृत ईमानदार पाया वे वकालत कर ही नहीं पाते.
ReplyDeleteसारे प्रोफेशनों में गिरावट आई है लेकिन तीन P ऐसे हैं जिनमें होनेवाला पतन पूरे समाज को रसातल पर ले जा रहा है. वे हैं police, press, और prosecutors.
कसाब को बचाना या न बचाना बहुत बड़ा प्रश्न नही है प्रश्न नैतिक मूल्यो का आज जाता है।
ReplyDeleteमैने कहीं किसी न्यायविद् को पढ़ा था कि न्यायमूर्तियो को कानून को छोड़ कर सब कुछ पढना चाहिये क्योकि कानून के ज्ञान से ज्यादा जरूरी है व्यवहारिक ज्ञान जिसके बल पर सार्थक न्याय दिया जा सकता है। यह व्यवहारिक ज्ञान सिर्फ साहित्य और समान से जुड़े बिना नही मिल सकता है।
पाण्डवों को न्याय नहीं मिला था तो महाभारत हुआ था । आजकल तो न्याय पाने के लिये महाभारत मचा हुआ है । सच में न्याय जब जब प्रक्रिया में उलझाया गया है, तब तब उसका पतन हुआ है । प्रक्रिया समय लेती हैं । प्रक्रियायें इसलिये महत्वपूर्ण मानी जाती हैं कि उनमें human discretion का रोल कम हो जाता है और कार्य न्यायपूर्ण होता हुआ प्रतीत होता है । तो क्या प्रक्रियाओं में human discretion की सेंधमारी नहीं हुयी है ? प्रक्रियाओं में कई लोगों की भागीदारी होती है शायद इसलिये कि उसपर कई लोग पैनी दृष्टि रख सकें । यदि सब के सब अपने दृष्टि रखने के अधिकार का मूल्य माँगने लगें तो प्रक्रिया मँहगी भी हो जायेगी ।
ReplyDeleteलोग अभी भी न्यायालयों के बाहर अपने मुद्दे निपटाने पर विश्वास रखते हैं, चाहे बातचीत से हो या हिंसा करके हो । कसाब का भी केस बाहर ही निपटा देना चाहिये था तब शायद ऐसे लोगों की ’देशभक्ति’ देखने का दुख न मिलता हम देशवासियों को ।
ये अच्छी बहस छेड़ी आप ने। विधिक व्यवसाय का एक मूलभूत सिद्धांत है जिसमें पहली ही मुलाक़ात में मुवक्किल को अपने वकील को सच और सिर्फ सच बताना होता है। कहा जाता है कि इससे केस को समझने और लड़ने में सहूलियत होती है।
ReplyDeleteयहीं वह नैतिक प्रश्न उठता है कि मुवक्किल यदि वास्तव में अपराधी है और उसने वकील महोदय को सच बता दिया है, तो वकील क्या करे? पिछ्ली पोस्ट में कहीं गांधी की चर्चा हुई थी। व्यवसायिक और नैतिक द्वन्द्व के दौरान उन्हों ने सामान्य नैतिकता को प्राथमिकता दी थी। चलिए यह मान लेते हैं कि हर वकील नैतिकता को प्राथमिकता देगा और इसलिए कोई भी ऐसा केस नहीं लड़ेगा जहाँ मुवक्किल वास्तव में दोषी होगा यानि कि वकील साहब को यह बताएगा - वह भी पहली भेंट में। ऐसी स्थिति में दो पक्ष बनते हैं:
(1) समाज आदर्श हो जाएगा। दोषी को कोई बचाव नहीं होने से वह बहुत शीघ्र दण्डित होगा।
(2) नं. 1 आदर्श स्थिति है जो कभी नहीं होगी। जैसे ही ऐसा होना शुरू होगा, अपराधी या दोषी वकील से भी वैसे ही झूठ बोलेंगे जैसे कोर्ट में बोलते हैं। जटिलता बढ़ेगी। पहले बेचारे वकील को खुद समझना होगा कि उसका मुवक्किल वाकई दोषी है। समझते समझते जब वह डिफेंस छोड़ने को मन बनाएगा तब तक कोर्ट में केस ऐसे स्टेज में पहुँच चुका होगा कि 'भइ गति साँप छ्छुन्दर केरी'।
इसलिए प्रोफेसनल होना ही बेहतर है। हर व्यक्ति के नैतिकता के अपने मानदण्ड होते हैं। उन मानदण्डों के अनुसार वह निर्णय ले और ऐसे केस हाथ में ले या न ले। इतनी स्वतंत्रता तो हमें वकील को देनी ही होगी। लेकिन यदि केस इतना स्पष्ट है कि आम जन को अपराधी स्वयंसिद्ध सा दिखता है, तो वकील साहब को आलोचना झेलने और उसकी स्वतंत्रता देने के लिए भी तैयार भी रहना होगा।
हाँ, कसाब का केस एकदम अलग है और मैं अपना मत इससे पहले की पोस्ट में दे चुका हूँ।
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इतने देर तक लंठ की टिप्पणी को झेलने के लिए सबको धन्यवाद ;)
काजमी साहब के बहाने जिस मुद्दे पर चोट करने की कोशश की है ...वह लगभग सभी क्षेत्रों में पाया जाता है , पर न्याय व्यवस्था में उसका रूप और प्रभाव एनी क्षेत्रों से अधिक होता दिख पड़ता है !!
ReplyDeleteआखिर आज सब प्रोफेसनालिज्म के यही मायने तो बच रह गए हैं??????
एनी = अन्य
ReplyDeleteअगर माने वाले मे जाना माना वकील होता तो शायद कसाब के मामले का सारे वकील बहिष्कार कर देते। अक्सर देखने मे आता है की सिर्फ़ वकील नही जिस जमात के खिलाफ़ कुछ होता है वो एकजुट होकर उसका विरोध करती है मगर बाकी तमाशा देखते है।यंहा एक वकील लखन लाल साहू की हत्या के बाद आरोपियों को रायपुर मे एक भी वकील नही मिला था।हम लोगो को यानी पत्रकार के साथ कुछ गड़बड़ होती है तो मामला सीधे अभिव्यक्ती पर हमले का हो जाता है।डाक्टर भी आई एम ए के बैनर तले हड़ताल करके दबाव बना ही लेते हैं।ऐसा ही हिंदू-मुस्लिम या अन्य जात वाले भी कर देते है।यानी हर कोई अलग-अलग टुकड़े मे एकजुट है।देश सारा का सारा एक्ज़ुट कभी नही होता और अगर होता तो कसाब को भी वकील नही मिल पाता।प्रवीण सही कह रहे हैं ये मामला तो हर प्रोफ़ेशन के साथ लागू होता है।आप्ने बहुत सही विषय पर चोट की है ये मामला वकालत या न्याय व्यवस्था का ही नही है देश का भी है इस्लिये इस मामले का महत्व और बढ जाता है।
ReplyDeleteपतन तो साश्वत है.. हर जगह है.. ्कोई भी व्यवस्था ले लो.. कोई भी क्षेत्र ले लो.. लीगल एथिक्स की ही बात क्यों करें.. मे्डिकल ए्थिक्स, टीचिंग एथिक्स.. कोई भी क्षेत्र लो.. समस्या है एथिक्स का रिलेटिव होना.. अब मेरे पक्ष या फायदे हो तो अलग और जब दुसरे कि बात हो तो अगल.. समझिये कि एक डॉ जो समय पर दवाखाने नहीं जाता, मरिजों को कमिशन आधारित दवा देता है.. और शाम में नेताओं के भ्रष्ट होने का रोना रोता है.. या व्यवस्था को गाली देता है.. जब तक हम स्वंय अपने स्तर पर एथिक्स फोलो नहीं करेगें कोई दुसरा पहल नहीं करने वाला..
ReplyDeleteदुसरा आपका system वो कैसा है... मान लो कि बईमानी है और रहेगी.. पर system इतना मजबुत हो कि वो सही गलत का फैसला कम समय में कर पाये.. लेकिन बात वो ही है system कौन बनायेगा..
@ रंजन - मुझे मालुम था कि ब्लॉगर्ली करेक्ट होने के चक्कर में पोछा लम्बा फैलाया जायेगा। इसी लिये पोस्ट में लिखा है:
ReplyDelete--- और इस तथ्य को इस आधार पर अनदेखा/दरकिनार नहीं किया जा सकता कि व्यवस्था के सारे ही खम्भे तो खोखले हो रहे हैं।
वकील का काम होता है सच को सामने लाना, सच्चे को इन्साफ़ दिलाना, ओर झुठे को पकडवाना,उसे बचाना नही, अब सहिब किसी किस पर हाथ रख कर कसमे खायेगे,जब कि उसे दुनिया ने देखा है, यह दाव पेंच अगर सच्चे को बचाने के लिये चलते तो अच्छा लगता, लेकिन एक ऎसे आदमी को जिस से नफ़रत करने कॊ भी दिल नही करता, जिस ने बेगुनाहो को मार डाला हो उस के वाचब मै .....
ReplyDeleteमरने वालो मे अगर काजमी साहब आप का जबान बेटा होता तो भी क्या आप इतनी मेहनत करते ......
बहुत सच लिखा है आपने. मुझे ऐसा लगता है कि हमारे सिस्टम मे ही कुछ गडबड हो गई है.
ReplyDeleteइसी विषय पर कुछ लोगों से बात हुई कि हमारा कानून ऐसा है कि अगर कोई वकील कसाब की पैरवी नही करेगा तो उसको यहां के कानून के हिसाब से बरी करना पडॆगा???
मुझे नही पता कि कोई ऐसा कानून है भी या नही..या इस बात मे कितनी सच्चाई है? अगर यहां कोई जानकार हों तो अवश्य बतायें..इसी उद्देश्य से मैने यह यहां लिखा है.
रामराम.
जब आदमी की आत्मा मर चुकी हो तो वह सच्चाई जानते हुए भी अपराधी का पक्ष लेता नजर आए तो ताजुब्ब कैसा?....आज यह हर जगह देखने को मिल रहा है.......आदमी आज बेबस नजर आता है।
ReplyDeleteकहां है लिगल एथिक्स????? सब पालिटिक्स है - इस केस में नाटकबाज़ी के और क्या है? दुनिया के सामने हम न्यायप्रिय बताने की कोशिश में अपनेआप को सब्से बडे़ मूर्ख साबित कर रहे हैं।
ReplyDeleteएथिक्स ........... क्या इसकी जगह रह गयी है समाज में
ReplyDeleteलीगल एथिक्स की बात हो रही है. ऐसे में यह कह देना कि एथिक्स कहाँ नहीं बिगडा है, मामले से भटकने वाली बात होगी. जब रिसोर्सेस की कमी की बात होती है तो मुझे लगता है कि शायद इसलिए की जाती है कि; "हमारे पर्सनल रिसोर्सेस हमारी जरूरतों को पूरा नहीं कर पा रहे इसलिए हम सारी चिरकुटई करने के लिए बाध्य है."
ReplyDeleteभाई ज्ञान जी,
ReplyDeleteसच बात कह कर झकझोर कर रख दिया आपने. पर अर्थतंत्र में अर्थ की ही महत्ता है...........
आज की दुनिया में सच्चाई के साथ रहकर कितने लोग पैसा कमा पा रहे हैं?
सर्वत्र भ्रष्टाचार ही फैला नज़र आ रहा है..........इसे ही आज शिष्टाचार का नाम दिया जा रहा है....
गाडी से उतर कर आने वाले का तहे दिल से स्वागत-सम्मान तो सभी करते हैं, पर फटेहाल नाते रिश्तेदारों या पढ़े लिखों का कोई नहीं..........
लोगों की नज़रों में सम्मानित रहने के लिए गिरना शायद आज के युग में अपरिहार्य सा हो गया है..............
सम्मानितों के पतन का और भी कैसा -कैसा रूप भविष्य दिखायेगा, हमें तो उसी का इंतजार है......
चन्द्र मोहन गुप्त
अच्छा किया आप ने (Ethics)नैतिकता के प्रश्न को उठाया। पिछले वर्ष मैं ने यही प्रश्न प्रोफेशनलिज्म को ले कर उठाया था। पर आप ने उस प्रश्न को उठा कर छोड़ दिया है। नैतिकता के मूल्यों का आरंभ परिवार और समाज से होता है। आज वही टूट रहे हैं। वहाँ ही नैतिकता क्षीण हो रही है। व्यक्ति जब तक समूह में रहता है और समूह के प्रति उत्तरदायी रहता है नैतिक बना रहता है। जैसे ही उस से विलग होता है। वह नैतिकता को किनारे कर देता है। आदर्श चरित्र तो समाज में इने गिने ही होते हैं। जहाँ तक वकालत के व्यवसाय में नैतिकता का प्रश्न है। उस के नियंत्रण की पूरी प्रणाली है। यदि यह प्रणाली सही तरीके से काम करे तो नैतिकता से इतर जाना वकील के लिए असंभव हो जाए। समस्या यह है कि प्रणालियों को सीमित रख कर उन का ही ध्वंस कर दिया गया है। उन्हें नैतिकता की ओर झांकने का समय ही कहाँ है? हालत यह है कि बार कौंसिल के नियम जिन के अंतर्गत नैतिकता नियम और उन्हें नियंत्रित करने की पद्यति निर्धारित की गई है वकालत की सनद जारी होने के पहले और बाद में उस के अध्ययन की आवश्यकता कोई विश्वविद्यालय नहीं समझता। कभी उस पर सामाजिक रूप से बात भी नहीं होती। उस के पढ़ने का अवसर तभी आता है जब किसी वकील के विरुद्ध नियम तोड़ने की शिकायत दर्ज हो जाती है। समय मिलने पर तीसरा खंबा पर इस विषय में कुछ आलेख अवश्य रखने का प्रयत्न रहेगा। जिस से इन की जानकारी आम लोगों के साथ वकील समुदाय को भी हो।
ReplyDeleteनैतिकता के बारे में तो सन १९६५-६६ में गयादीनजी द्वारा स्थापित चौकी का सिद्धांत ही धकम-पेल चल रहा है अब तक। सिद्धांत रागदरबारी में वर्णित है: वहां लकड़ी की एक टूटी-फ़ूटी चौकी पड़ी थी। उसकी ओर उंगली उठाकर गयादीन ने कहां,"नैतिकता, समझ लो कि यही चौकी है। एक कोने में पड़ी है। सभा-सोसायटी के वक्त इस पर चादर बिछा दी जाती है। तब बड़ी बढ़िया दिखती है। इस पर चढ़कर लेक्चर फ़टकार दिया जाता है। यह उसी के लिए है।" वकालत का पेशा इस नैतिकता के दायरे से बाहर कैसे हो सकता है। आपने अच्छा लेक्चर फ़टकारा ! :)
ReplyDeleteआपका चिन्तन बहुत सही है परन्तु आज व्यावसायिकता के दौर मैं नैतिकता का लोप हो गया है ,अफ़सोस जनक पहलू यह है वह सब ऐसे देश में हो रहा है जहाँ नैतिकता , सदाचार और कर्तव्य पारनता के लिए अनेक गाथाएं बचपन से ही हम सुनते आ रहें हैं -
ReplyDeleteराजा बिके टका में भइया ऐसो देश हमारो
सत के पालन हारो सुत पे शीश चलावे आरो ......
चर्चा पर नजर है.
ReplyDeleteमुझे लग रहा है कि जब हम नैतिकता की बात कर रहे हैं तो उन नैतिक दायित्वों की बात कर रहे हैं जो एक भारतीय के हैं. वकील के नैतिक दायित्व की बात करें तो उसके लिए अपने क्लांईट को बचाना ही उसका नैतिक दायित्व है जिस बात के वो पैसे ले रहा है.
॒राज भाटिया जी,
वकील का काम होता है सच को सामने लाना, सच्चे को इन्साफ़ दिलाना, ओर झुठे को पकडवाना,उसे बचाना नही... आप शायद वकील और न्यायाधिश के बीच क्न्फ्यूज हो गये हैं.
किन्तु एक वकील होने से ज्यादा और पहले वो एक भारतीय नागरिक है तो प्रेसिडेन्स थ्योरी के हिसाब से देशद्रोही/ आतंकवादी का साथ देना तो गलत ही है.
एथिक्स की जरुरत तो हर जगह है. कहीं भी नहीं है... इस मामले के चलते लीगल क्षेत्र में दिख रहा है. पता नहीं ला में एथिक्स पर कौर्स होता है या नहीं. बिजनेस में इसके लिए कुछ दिनों पहले सारे बी-स्कूल्स ने इस पर एक कोर्स जोड़ा था. खैर पढना तो बस पास करने के लिए होता है.
ReplyDeleteबहुत विशद चर्चा हो गयी। हम तो गुणी जन की बात सुनते रहे। कुछ कहने को बचा क्या? नैतिकता अब रिलेटिव होती जा रही है। और क्या?
ReplyDeleteपाण्डेय जी,
ReplyDeleteसवाल बहुत सही हैं मगर हमेशा की तरह (सही) जवाब मिलना कठिन है क्योंकि हमारी आदत सतही खोजबीन करने की ही रहती है. मेरी बात काफी लम्बी हो जायेगी जिसके लिए अभी न तो समय है और न ही मैं उस बात को टिप्पणियों के ढेर में दबते देखना चाहता हूँ इसलिए कभी तसल्ली से बैठकर एक पोस्ट लिखूंगा मगर अभी के लिए सिर्फ रामजेठमलानी के एक (पूर्णतया कानून-सम्मत) वक्तव्य की बानगी:
"आप जानते हैं कि आपके मुवक्किल ने हत्या की है वो अपराधी है लेकिन आपको तो उसे बचाना ही पड़ेगा.
फ़र्ज़ करो कि मुझे मालूम है कि मेरे मुवक्किल ने अपराध किया है. मैं अदालत से कहूँगा कि साहब मेरे मुवक्किल को सज़ा देने के लिए ये सबूत काफ़ी नहीं हैं. मैं ऐसा नहीं कहूँगा कि मेरा मुवक्किल कहता है कि उसने ऐसा नहीं किया इसलिए वो निर्दोष है.
ये हमारे पेशे की पाबंदी है. अगर मैं ऐसा करूँगा तो बार काउंसिल मेरे ख़िलाफ़ अनुशासनात्मक कार्रवाई कर सकता है. मुझे मालूम है कि मेरे मुवक्किल ने ऐसा किया है तो तो उसे बचाने के लिए मैं ऐसा नहीं कहूँगा कि किसी दूसरे ने अपराध किया है. आप झूठ नहीं बोल सकते बल्कि न्यायाधीश के सामने ये सिद्ध करने की कोशिश करेंगे कि सबूत पर्याप्त नहीं हैं. "
पूरा साक्षात्कार यहाँ है: http://www.bbc.co.uk/hindi/regionalnews/story/2007/04/070411_ekmulakat_ramjethmalani.shtml
ज़रा देखिये तो भारत के इस वरिष्ठतम और प्रतिष्ठित वकील की मासूम मजबूरी ... च, च, च!
दो परस्पर विरोधाभासी शब्दों का साथ-साथ प्रयोग अच्छा लगा ..लीगल एथिक्स.
ReplyDeleteगलती से मेरी टिप्पणी पिछले पोस्ट के साथ जुड गई।
ReplyDeleteगलती मेरी है, ज्ञानजी की नहीं।
उसे यहाँ फ़िर लिख रहा हूँ।
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अब्बास काज़्मी से यह दो सवाल पूछना चाहता हूँ:
१)आपका फ़ीस कसाब तो नहीं दे पाएगा? तो फ़िर कौन दे रहा है? किस देश से? क्या रकम है?
२)क्या भविष्य में आप किसी गैर मुसलमान नक्सलवादी का भी केस इसी dedication और committment के साथ लडेंगे?
स्मार्ट ईन्डियन की बात रोचक रही।
ReplyDeleteराम जेठमालानी को चाहिए के वे यह कोशिश में रहे कि अपने मुवक्किल को को कम से कम सज़ा मिले। सबूत की कमी का फ़ायदा उठाना वैध हो सकता है लेकिन नैतिक तो बिल्कुल नहीं।
एक और बात।
कसाब का हमला को हम अपराध मानकर अदालत में क्यों निपटा रहे हैं?
यह तो जंग थी।
जंग में अदालत कहाँ से आ टपकी?
कसाब को दुशमन समझ कर कार्रवाई करनी चाहिए।
क्या सीमा पर पकड़े जाने वाले पाकिस्तानी सैनिकों को हम अदालत में ले जाते हैं?
क्या उनके लिए सरकार वकील ढूँढती है?
लीगल सिस्टम को ज्यादा नाक घुसेड़ेंगे तो खोपड़ी भन्ना जाएगी. सबसे बड़ी चिंता तो डिले को लेकर है. ऐसे साफ मामलों में सटासट समरी ट्रायल और सजा होनी चाहिए. एथिक्स-ओथिक्स का रायता ज्यादा फैलने से मामला हाथ से निकल ना जाए. एक तरफ हम वकील को लेकर लट्ठम-लट्ठा कर रहे हैं दूसरी तरफ डर है कि कहीं ये डिले कसाब के आकाओं को एक और तैयारे (हवाई जहाज) की हाईजैकिंग का मौका ना दे दे.
ReplyDeleteएथिक्स से क्या वास्तव में किसी का वास्ता रह गया है।
ReplyDelete-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
हम तो पहले से ही कहते आ रहे है हर पेशे में घुसने से पहले" मोरल साइंस 'का क्रेश कोर्स करवाया जाए ..चाहे डॉ हो,इंजीनियर हो...वकील .जज या पत्रकार या सरकारी अफसर...नैतिक शिक्षा का कोर्स अब होता नहीं है ....
ReplyDeleteलोग अपने निजी सरोकार से ऊपर नहीं उठते है...उनके लिए कोई भी मुद्दे तभी महत्वपूर्ण होते है जब तक उनका उनका वास्ता उन मुद्दों से जुदा रहता है....किसी ने कहा है गांधी जी ने वकालत में नैतिकता के लिए केस छोडा था...हो सकता है पर नैतिकता के कई पैमाने है .एक पैमाने पर आप खरा सोना है पर दुसरे पे.....फर्ज कीजिये एक वैजानिक है देश को महत्वपूर्ण आविष्कार दे रहा है पर अपनी पत्नी को मारता पीटता है .नेगलेक्ट करता है ....तो उस पैमाने पे क्या कहेंगे ?समय सबकी अलग अलग सूरत दिखाता है ......
कुछ पेशो में जमीर से जद्दो जेहद ज्यादा है ... वकालत के पेशे में शायद सबसे ज्यादा ....कौन कहाँ कितना अपने जमीर को खींचता है यही अब महत्वपूर्ण है .मैंने मन्नू भंडारी का एक वक्तव्य पढ़ा था ....
"आप अपने सीमित दायरे में रहकर भी अगर अपना काम इमानदारी से करेगे तो सच मानिये इस देश ओर समाज को कुछ दे जायेगे ....."
दूसरा गुरुमंत्र हमारा एक सीनियर दिया करता था ".आजकल के जमाने में नोर्मल होना ही असधारहण होना है "
कभी मौका मिले तो " we the people " पढिये
पढ कर आश्चर्य नहीं हुआ क्यूं कि तकरीबन एक हजार साल से ऐेसे ही लोगों ने विदेशी आक्रमणकारियों की मदद की है, जिसकी वजह से देश को लूटा गया और गुलाम बनाने का षडयंत्र रचा गया । ऐसे महापुरूष पैदा न हुए होते तो देश का बंटवारा न हुआ होता । अभी भी इनके तमाम भाई बन्धु राजनीति और दूसरी जगहों पर सक्रिय हैं और अलगाववादियों की खुल कर मदद कर रहे हैं। ऐसी ईमानदारी से गद्दारी कर रहे हैं कि इनको गद्दार शिरोमणि रत्न प्रदान करना चाहिए ।
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