मैं मुठ्ठीगंज में दाल के आढ़तिये की गद्दी पर गया था - अरहर की पचास किलो दाल लाने के लिये। दाल कोई और ला सकता था, पर मात्र जिज्ञासा के चलते मैं लाने गया।
मैने देखा कि कोई लैपटॉप या कम्प्यूटर नहीं था। किसी प्रकार से यह नहीं लगता था कि ये सज्जन कमॉडिटी एक्स्चेंज से ऑन-लाइन जुड़े हैं। एन.सी.डी.ई.एक्स या एम.सी.एक्स का नाम भी न सुना था उन्होंने। कोई लैण्ड-लाइन फोन भी न दिखा। तब मैने पूछा – आप बिजनेस कैसे करते हैं? कोई फोन-वोन नहीं दिख रहा है।
बड़े खुश मिजाज सज्जन थे वे। अपनी जेब से उन्होंने एक सस्ते मॉडल का मोबाइल फोन निकाला। उसका डिस्प्ले भी कलर नहीं लग रहा था। निश्चय ही वे उसका प्रयोग मात्र फोन के लिये करते रहे होंगे। कोई एसएमएस या इण्टरनेट नहीं। बोलने लगे कि इससे सहूलियत है। हमेशा काम चलता रहता है। पिछली बार रांची गये थे रिश्तेदारी में, तब भी इस मोबाइल के जरीये कारोबार चलता रहा।
मैने बात आगे बढ़ाई – अच्छा, जब हर स्थान और समय पर कारोबार की कनेक्टिविटी है तो बिजनेस भी बढ़ा होगा?
उन सज्जन ने कुछ समय लिया उत्तर देने में। बोले – इससे कम्पीटीशन बहुत बढ़ गया है। पहले पोस्टकार्ड आने पर बिजनेस होता था। हफ्ता-दस दिन लगते थे। लैण्डलाइन फोन चले तो काम नहीं करते थे। हम लोग टेलीग्राम पर काम करते थे। अब तो हर समय की कनेक्टिविटी हो गयी है। ग्राहक आर्डर में मोबाइल फोन की सहूलियत के चलते कई बार बदलाव करता है सौदे के अंतिम क्रियान्वयन के पहले।
कम्पीटीशन – प्रतिस्पर्धा! बहुत सही बताया उन सज्जन ने। प्रतिस्पर्धा कर्मठ व्यक्ति को आगे बढ़ाती है। तकनीकी विकास यह फैक्टर ला रहा है बिजनेस और समाज में। यह प्रतिस्पर्धा उत्तरोत्तर स्वस्थ (नैतिक नियमों के अन्तर्गत) होती जाये, तो विकास तय है।
वे तो दाल के आढ़तिये हैं। दाल के बिजनेस का केन्द्र नागपुर है। लिहाजा वहां के सम्पर्क में रहते हैं। उससे ज्यादा कमॉडिटी एक्सचेंज में सिर घुसाना शायद व्यर्थ का सूचना संग्रह होता हो। अपने काम भर की जानकारी थी उन्हें, और पर्याप्त थी – जैसा उनका आत्मविश्वास दर्शित कर रहा था। उनके पास पंद्रह मिनट व्यतीत कर उनके व्यवसाय के प्रति भी राग उत्पन्न हो गया। कितना बढ़िया काम है? आपका क्या ख्याल है?
आढ़त की गद्दी पर बैठ काम करते श्री जयशंकर “प्रसाद” बनने के चांसेज बनते हैं। पर क्या बतायें, “कामायनी” तो लिखी जा चुकी!
निश्चित ही प्रतियोगिता अच्छे परिणाम देती है विकास की ओर अग्रसर करती है, बशर्ते कि वह प्रतिद्वंदिता में न बदल जाए। अन्यथा सब से बुरे परिणाम भी वही देती है। वितरण में जिंस बदलना आसान है। जब जिसमें नुकसान हो उस से निकल लो और जिधर लाभ हो उस में घुस लो। लेकिन उत्पादन में काम कठिन है। एक बार पूंजी लग जाने के बाद आसानी से नहीं निकलती। पूँजी हमेशा लाभ के उत्पादन में लगती है। परिणामों की परवाह किए बिना तेजी से बहती है। इतनी तेजी से, कि सड़क पर फैलते भी देर नहीं करती।
ReplyDeleteबहुत से काम हो चुके हैं, मसलन गुरुत्वाकर्षण के नियम न्यूटन खोज चुका है। पर भौतिकी समाप्त नहीं हो गई है। कामायनी के बाद भी काव्य समाप्त नहीं हो गया है।
कम से कम बाजार में दाल का भाव तो बता देते ज्ञान जी !
ReplyDelete@ Arvind Mishra - 58/- प्रति किलो।
ReplyDeleteबाकी तो सब ठीक है .........मोबईल्वा घरै मा भूल गए का ?
ReplyDeleteएक ठो फोटो भी ठेलते तो .........
बैठक की बात आगे बढ़ाईये..कामायनी तो आगे बढ़ ही जायेगी..पार्ट २ बाकी है. ज्ञान जी आढ़त वाले के लिए छोड़े जा रहे हैं ऐसा कह कर निकले थे जयशंकर प्रसाद जी हमसे.
ReplyDeleteकाम तो अच्छा ही है शायद मेरे जैसे के बस का नही।
ReplyDeleteप्रतिस्पर्धा तो ठीक है पर ये लोग इसके नाम पर जो लूट रहें हैं उसका क्या .इन लोंगों की सारी गणित केवल किसानों पर और फुटकर खरीदनें वालों पर ही चलती है ऐसे में नेट की दुनिया से भला ये क्यों जुड़ने वाले .एकाध फोटो भी देते तो और मज़ा आता .
ReplyDeleteमोबाइल व इण्टरनेट से दुनिया सिकुड़कर आपकी हथेली में आ गयी है (अगर आप पुराने ८ इंच वाले मोबाइल प्रयोग नहीं करते हैं) । अपने समय का सदुपयोग करने में ’पैरलल प्रोसेसिंग’ के कारण एक क्रान्ति आ गयी है । मेरे एक मित्र को कार्यालय जाने में ४५ मिनट लगते हैं, पहले वह उस समय का उपयोग संगीत सुनने में करता था, अब मोबाइल में बातकर अपने कार्य निपटाने में करता है ।
ReplyDeleteइस तरह के ४५ मिनट की ’बेबसी’ के कई दौर हर दिन आते हैं । आप एक ऐसी बैठक में हैं जिसमें आपका कोई काम नहीं है तो आप क्या करेंगे ? आप यात्रा में हैं और सामने बैठा व्यक्ति आप से भी बड़ा ’स्नॉब’ है तो आप क्या करेंगे ? आप एक कवि हृदय हैं और उपवन में बैठे बैठे माँ सरस्वती आपको आशीर्वाद देने आ पहुँची तो क्या आप कापी व पेन लेने दौड़ पड़ेंगे ? सभी अपने जीवनचर्या में झाँककर देखें तो एक लम्बी सूची तैयार हो जायेगी । यदि आदरणीय श्री ज्ञानदत्त पाण्डेय जी को ट्रेनों की सम्पूर्ण जानकारी टहलते टहलते ही मिल जाये तो सम्भवतः पाठकों को उनके द्वारा दुगने ब्लाग मिलने लगेंगे ।
दुनिया का सिकुड़ने का सारे व्यवसायियों और व्यवसायों ने अधिकतम उपयोग किया है और जिन्होने नहीं किया है वो मंदी के ग्रास बन गये । आदतें अभी और बदलेंगी, परिवर्तन का स्वागत करें ।
बडा सही चित्रण किया है आपने. दाल का केंद्र नागपुर के साथ साथ इंदौर भी है. और आजकल इन आढतिया लोगों की नई पीढी पुरी तरह आधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल कर रही है और अधिकतर कमोडिटी एक्सचेंजेस पर काम करते हैं और साल मे एकाध बार औंधे भी हो जाते हैं.
ReplyDeleteआपके आढतिया जी संतोषी आदमी आदमी लगते हैं?:)
रामराम.
अरहर या तुअर या राहर की दाल का उत्पादन मीडिया के फ़ेवरेट विदर्भ मे बहुत होता है।यंहा का किसान फ़सल निकलते ही उसे बाज़ार भाव मे बेच देता है,उस समय दाम हमेशा नीचे होते है।बाद मे वही दाल बढी हुई किमतो पर हमे बाज़ार मे मिलती है।स्टाकिस्ट का मुनाफ़ा जोडकर। आप यकिन नही करेंगे वंहा दाल उगती है मगर दाल मिले नही है और वंहा से ज्यादा रायपुर मे है जो वंहा से दाल लाकर यंहा मिलिंग करते हैं।वैसे काम भारी मुनाफ़े वाला है मगर कभी-कभी अण्डा मुर्गी मे नही बदलता। हमने भी एक नही कई बार सोचा है मगर आज-तक़ श्रीगणेश नही हुआ।
ReplyDeleteमैं वेपारी समाज से ही आता हूँ अतः इनके क्रियाकलापों और सफलताओं की कूँजी के बारे में जानकारी रखता हूँ. किसी की समृद्धि से ईर्ष्या रखने वाले समाजवादी शायद नहीं जानते कि जहाँ लोग 8 घंटे से ज्यादा काम करने से सिर हिला देते है, वेपारी 16-16 घंटे काम करते है. तकनीक से परहेज नहीं करते और उसका सटिक उपयोग करते है. लगता है इस पर पोस्ट लिखनी पड़ेगी. :)
ReplyDeleteवैसे ऐसी दुकानों पर जाकर राहत मिलती है। एकैदम राहत का भाव, बंदा एक झटके में 2009 से 1959 में पहुंच जाता है। शांति, सुकून कैसा भला सा माहौल। पर दिक्कत यह है कि नास्टेलिया में जा सकते हैं,उसमें जी नहीं सकते। आढ़तियाजी काम भर का बदल लिये हैं, और जरुरत होगी, तो आगे बदल जायेंगे।
ReplyDeleteरोचक पोस्ट लिखी है।लेकिन इस मोबाईल पर लेन देन के चक्कर पर आदमी आलसी हो गया है। और जैसा माल घर पर पहुँचे इस्तमाल कर लेता है।.....
ReplyDeleteअरविन्द जी की तरह हम भी यही सोच रहे थे की दाल का भाव क्यों नहीं बताया. आजकल हमारे यहाँ दाल चावल के ही चर्चे हैं. अरहर दाल एक हप्ते पहले ५८ रुपये किलो थी जो अब ६० हो गयी है. चावल साधारण पिछले वर्ष १६/१९ थी और आज २८/३० हो गयी है. कोई भी सब्जी ८ रुपये पाँव से नीचे नहीं है. इस तरह मूल्य वृद्धि में प्रतिस्पर्धा बन पड़ी है.
ReplyDeleteहम ने तो इन्हे बहुत नजदीक से देखा है, आप ने बहुत सुंदर ढंग से इन के बारे लिखा.
ReplyDeleteधन्यवाद
आढ़त की गद्दी पर बैठ काम करते श्री जयशंकर “प्रसाद” बनने के चांसेज बनते हैं। पर क्या बतायें, “कामायनी” तो लिखी जा चुकी!
ReplyDeleteअफ़सोस!
आपने मात्र १५ मिनट के संजोये याद को बहुत रोचक तरीके से ब्यापार........ उससे जुड़े प्रतिस्पर्धा.... और अपने आपको जोड़ा हैं. बहुत सुन्दर चित्रण हैं.
ReplyDelete(कई पोस्ट्स में) हर व्यवसाय से लेकर सिरमा कंपनी खोलने तक के विचार आपकी बिजनेस क्षमता दर्शाते हैं.अफसरी के चक्कर में कितने बिजनेस आईडिया बर्बाद हो गए :(
ReplyDelete'कितना बढ़िया काम है?' ये तो पता नहीं लेकिन हाँ काम से ज्यादा जो व्यक्ति काम अपनाए उसका अच्छा होना जरूरी है. और आप कोई भी व्यवसाय चालु करें तो उसमें कोई शक की गुंजाइश ही नहीं लगती !
आढतियों के बारे में पहली बार इतने करीब से जानने को मिला, हालाँकि ये बात अलग है कि मैं स्वयं मण्डी परिषद में हूं।
ReplyDeleteवैसे कामायनी पार्ट-२ भी तो हो सकती है।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
प्रतिस्पर्धा कर्मठ व्यक्ति को आगे बढ़ाती है। -100% sach kaha!
ReplyDelete-arhar daaal ki the costliest of all pulses.
India ki market ka seedha asar ham par bhi padta hai..
Dalen to aati hi india se hain...
UAE mein co-operative shop mein Arhar dal--8dhs /kg hai.
jahan yahi dusre stores mein--
10 -10.5 dhs--[yah condition tab hai jab sabhi consumer products especially 'pulses 'par yahan Ministry ke strict instructions aur checking hai.
हम भी सूरत में थे तो एक बार साडी मार्केट में गये .....उस दिन लगा हर व्यक्ति का दाना पानी तय है... ओर कम्पीटीशन से काहे घबराना .
ReplyDeleteकमॉडिटी एक्सचेंज तो सट्टा बाज़ार है माल नहीं है सौदे हो रहे कृतिम कमी दिखाकर कीमत बड़ाई जाती है . सट्टे वाज़ मज़े मार रहे है और बेचारा किसान मर रहा है . उसे तो लागत भी नहीं मिल पाती .
ReplyDeleteआढ़त की गद्दी पर बैठ काम करते श्री जयशंकर “प्रसाद” बनने के चांसेज बनते हैं। पर क्या बतायें, “कामायनी” तो लिखी जा चुकी!
ReplyDeletemere liye to yahi pankti poori post hai..ye pankti aakhir mein bhi sonchne par majboor karti hai waise hi jaise ekta kapoor ke serials ke episode khatm hote hain :) just joking ji..
बहुत पहले, दिल्ली की फतेहपुरी मस्जिद के सामने की कोरोनेशन बिल्डिंग में, आढ़तियों को काम करते देखा था तो सर घूम गया था. आपका आढ़तिया तो बिलकुल उसका उलट निकला.
ReplyDeleteक्या बतायें, “कामायनी” तो लिखी जा चुकी!
ReplyDeleteयह भी खूब रही :)
हम , भाततीयोँ के लिये, अरहर की दाल और कान्मायनी दोनोँ ही जीवन मेँ रस लाने के लिये उपयुक्त हैँ - लावण्या
ReplyDeleteआप हमारे दर तक आ कर लौट गए और हम अपनी दूकान ही ताकते रह गए :(
ReplyDeleteदाल मंदी मेरे घर से २०० मीटर दूर है अगर पुनः पधारें तो नुक्कड़ के चाय वाले को स्पेशल चाय का पहले से आडर कर रखेंगे -
वीनस केसरी 9235407119
तो आढ़्ती बननें के गुण आपनें सीख ही लिए हैं। भाव-ताव का भी अन्दाजा हो ही गया है। व्यापार भी आपको फायदेमंद लग रहा है। तो धन्धा शुरु करनें में देर क्यों कर रहे हैं? पहला ग्राहक बननें के लिए मै तैयार हूँ। अरविन्द जी को बताये रेट पर १०० कि० भिजवा दीजिए। डिलिवरी पर नकद भुगतान का वादा। होम ड़िलिवरी चार्जेस अतिरिक्त अदा किये जाँएगे। कोई अड़्चन हो तो ०९४५०३४०२९३ पर सम्पर्क कर सकते हैं।
ReplyDeleteसही कहा उन्होंने। बढ़िया काम करते हैं और मस्त जीते हैं। अगर कमोडिटी एक्सचेंजों के चक्कर में पड़ते तो पैसा कमाते या गंवाते, अलग मामला है- सुख चैन जरूर खो बैठते सेठ जी।
ReplyDeleteबात तो आपकी सही है, तकनीक काम आसान करती है, आसान होने से अधिक लोग काम में आते हैं, बेहतर काम करते हैं और इससे प्रतिस्पर्धा बढ़े ही बढ़े है! आपके आढ़तियेजी को भी कोई अधिक ज्ञान देगा और उनको आवश्यकता महसूस होगी तो वे और अधिक तकनीक का सहारा लेंगे! :)
ReplyDeleteमुझे तो दाल में काला दिख रहा है। लालू जी गए, ममता जी आईं और आपको दाल का धंधा भला लगने लगा! :)
ReplyDeleteघुघूती बासूती
काका इस मंहगाई के जमाने में तो नमक रोटी ही चल पायेगी । दाल रोटी इस 60 रू0 किलो के भाव में तो भगवान ही मालिक है । और आपको आई.टी. की रेड पड़वानी है जो खुलेआम सारा ब्यौरा छाप डाला । ऐसे खुलेआम आढ़त की दुकान पर मत जाया करिये ।
ReplyDeleteकाका इस मंहगाई के जमाने में तो नमक रोटी ही चल पायेगी । दाल रोटी इस 60 रू0 किलो के भाव में तो भगवान ही मालिक है । और आपको आई.टी. की रेड पड़वानी है जो खुलेआम सारा ब्यौरा छाप डाला । ऐसे खुलेआम आढ़त की दुकान पर मत जाया करिये ।
ReplyDeleteसही कहा उन्होंने। बढ़िया काम करते हैं और मस्त जीते हैं। अगर कमोडिटी एक्सचेंजों के चक्कर में पड़ते तो पैसा कमाते या गंवाते, अलग मामला है- सुख चैन जरूर खो बैठते सेठ जी।
ReplyDeleteवैसे ऐसी दुकानों पर जाकर राहत मिलती है। एकैदम राहत का भाव, बंदा एक झटके में 2009 से 1959 में पहुंच जाता है। शांति, सुकून कैसा भला सा माहौल। पर दिक्कत यह है कि नास्टेलिया में जा सकते हैं,उसमें जी नहीं सकते। आढ़तियाजी काम भर का बदल लिये हैं, और जरुरत होगी, तो आगे बदल जायेंगे।
ReplyDeleteबडा सही चित्रण किया है आपने. दाल का केंद्र नागपुर के साथ साथ इंदौर भी है. और आजकल इन आढतिया लोगों की नई पीढी पुरी तरह आधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल कर रही है और अधिकतर कमोडिटी एक्सचेंजेस पर काम करते हैं और साल मे एकाध बार औंधे भी हो जाते हैं.
ReplyDeleteआपके आढतिया जी संतोषी आदमी आदमी लगते हैं?:)
रामराम.
@ Arvind Mishra - 58/- प्रति किलो।
ReplyDeleteआप हमारे दर तक आ कर लौट गए और हम अपनी दूकान ही ताकते रह गए :(
ReplyDeleteदाल मंदी मेरे घर से २०० मीटर दूर है अगर पुनः पधारें तो नुक्कड़ के चाय वाले को स्पेशल चाय का पहले से आडर कर रखेंगे -
वीनस केसरी 9235407119
आढतियों के बारे में पहली बार इतने करीब से जानने को मिला, हालाँकि ये बात अलग है कि मैं स्वयं मण्डी परिषद में हूं।
ReplyDeleteवैसे कामायनी पार्ट-२ भी तो हो सकती है।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }