सब विचार की देन है। निरापद विचार क्या होता है जी?
आइडिया अगर अन्दर से आते हैं तो वे ब्लॉग का मसाला नहीं बन सकते। वे आपको महान ऋषि बना सकते हैं। शुष्क और महान। पर वे आपके ब्लॉग को चौपाल नहीं बना सकते।
ब्लॉग के मसाले के लिये आपको बाहर देखना ही पड़ता है। आपको चीजों, लोगों, घटनाओं, व्यापक समस्याओं, व्यापक खुशी और गम को लिंक करना ही पड़ता है।
आपको व्याप्त चिरकुटई, अच्छाई, नैरो माइण्डेडनेस, उदात्तता, दादागिरी, सदैव नॉन-सीरियस
मैं जान-समझ रहा हूं कि आप अगर अपने विचारों को अभिव्यक्त कर रहे हैं तो धमकात्मक स्नेह - अनसॉलिसिटेड सलाह से अछूता नहीं रख सकते अपने को। आप खतरा सन्निकट भांप कर कछुये की तरह अपने को खोल में सिकोड़ सकते हैं। पर अन्तत: कछुआ अपने पैर पसारता है और सभी कर्म करता है। मुझे बताया गया है कि कछुआ दीर्घजीवी है। आप भी दीर्घजीवी हैं।
श्रीमन्त, आपको इस विश्व से आइडिया और इन्स्पिरेशन लेने हैं। लगाम आपको अपने हाथ में रखनी है और खुद को बेलगाम नहीं करना है, बस!
भद्रजन, आप इस जगत को अपने विचार, लेखन, सर्जनात्मकता, गम्भीरता, सटायर या गम्भीर-सटायर से निरापद करें।
आप ठेलें मित्र!
श्रीमन्त, आपको इस विश्व से आइडिया और इन्स्पिरेशन लेने हैं। लगाम आपको अपने हाथ में रखनी है और खुद को बेलगाम नहीं करना है, बस!
ReplyDeleteभद्रजन, आप इस जगत को अपने विचार, लेखन, सर्जनात्मकता, गम्भीरता, सटायर या गम्भीर-सटायर से निरापद करें।
100% sahi....
"लगाम आपको अपने हाथ में रखनी है और खुद को बेलगाम नहीं करना है, बस!.."
ReplyDeleteसही है.. यहीं कुजीं है..
श्रीमन्त, आपको इस विश्व से आइडिया और इन्स्पिरेशन लेने हैं। लगाम आपको अपने हाथ में रखनी है और खुद को बेलगाम नहीं करना है, बस!
ReplyDeleteसही है.
सारे भक्त एक साथ बोलो:
ReplyDeleteस्वामी ज्ञान दत्त पाण्डे जी की जय!!
-प्रभु, प्रवचन श्रृंखला जारी रखिये. हाथ बाँधे सुन रहे हैं.
श्री ज्ञानदत्त जी,
ReplyDeleteयह सही की मन उदात्त प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाना हमारे ही हाथ होना चाहिये। और किसी के हाथ होगा तो मात्र कठपुतलियों में सिमट आयेगा अस्तित्व। क्या आपकी आशंका अस्तित्व की लडाई को रोक जीवन एक खोज है से प्रारंभ करना चाहिये।
शायद यह टिप्पणी भी आपको एक अनसॉलिसिटेड़ सलाह ही लग सकती है? यदि ऐसा है तो मुआफ कीजियेगा।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
"आपने कहा आप ठेलें मित्र..." आपने ऐसा क्यूँ कहा अरे हम अब तक और कर ही क्या रहे थे सिवाय ठेलन के...आप अब कह रहे हैं और हम कब से कर रहे हैं...पोस्ट ठेलन का पवित्र कार्य..
ReplyDeleteनीरज
ठेलम ठेली चलती रहे. पद्य लिखें, गद्य लिखें निरापद लिखें या बिना निरापद लिखें....बस लिखें....
ReplyDeleteप्रश्न ज्यों का त्यों रहने देते हैं - "निरापद विचार क्या है जी ?"
ReplyDeletethike kah rahe hain. Chaliye is chaupaal ko "Vyakaran" se mukt hee Rakhte hain. baankee sab waqt par chorte hain...
ReplyDeletewaise main kalam ko khilwade ka aujaar nahin manta.
sadar
ranjit
Ranchi
हमारा दिमाग अब तक तो ठेलम ठाली बिना सोचे समझे ही करता था. अब लगता है कि दिमाग को कसरत करवा कर ही ठेलन कार्यक्रम चलाना पडेगा. डर इस बात है कि हमको ठेलने मे जितना समय नही लगता उससे ज्यादा उसकी सामग्री को जांचने मे लगेगा कि कहीं कॊइ गडबड झाला तो नही है.
ReplyDeleteआज एक छोटी सी कविता ठेळी थी उसपर भी आपत्तियां आनी शुरु हो गई हैं.
अब तो कोई ठेलन साफ़्टवेयर भी बनवाना पडॆगा.:)
रामराम.
ठेलना तो हम बहुतै चाह रहे थे, लेकिन कुछ भीतर से निकलने की हिम्मत नहीं जुट पा रही है। बाहर जो दिख रहा है उसमें से छाँटते बीनते हुए कान्शस हो जाते हैं और कुछ सूझता ही नहीं लिखने को। सोच रहा हूँ बुजुर्गों पर कुछ लिख डालूँ। शायद खतरा कम हो।
ReplyDeleteयदि इसे विज्ञापन न माना जाय तो बता दूँ कि एक निरापद किन्तु करुण कथा टूटी-फूटी पर पोस्ट हुई है।
"वैष्णवन तो तेने कहीये .."
ReplyDelete(नरसिँह मेहतो के भजन की तर्ज पे ),
"भद्रजन तो तेने कहीये ..
जे निरापद लेखन जाणे रे "
ऐसे ,
बाँग्ल शब्द "भद्रलोक "
मुझे पसँद है ..
एक यही शब्द पूरे मध्य वर्ग का अस्तित्व
समेटे हुए है अपने मेँ...
- लावण्या
हसीबा-लडिबा लिखिबा ब्लागम !
ReplyDeleteगालीम बह्सम नामम-अनामम !
जय हो प्रभू-जय हो !
जब ठेला-ठेली ही चलेगी तब कैसे उद्देश्य पूरा होगा ?
ReplyDelete
ReplyDeleteवैसे तो यहाँ स्वीकृति की मोहर लग ही जायेगी,
इसलिये भेद की बात बताता हूँ कि,
यहाँ से आता है, निरापद लेखन :
अपनी लगाम चँद बेलगाम लोगों के हाथ में दे दें
और निश्चिन्त बेख़ौफ़ लिखें
या फिर पोस्ट श्रीप्रभु के चरणों में समर्पित कर दें
जयत्यतिबलो मारूत रामो लक्ष्मणश्च महाबलः
ब्लागर्थो प्रतिष्ठामि निरापदाः निज पोस्टरक्षताम
बहुत पहले 'हम लोग' नाम का एक सिरियल आता था। उसमें एक दादाजी और एक दादीजी थीं। एक छुटकी भी थी। एक एपिसोड में छुटकी पूछती है कि दादाजी आपके इस सेहत या कुशल क्षेम ( Exact word याद नहीं) का राज क्या है ?
ReplyDeleteतब दादाजी जवाब देते हैं कि - सुनो सबकी, पर करो अपने मन की । इससे दादी भी कंट्रोल में रहती है, बेटे भी कंट्रोल में रहते हैं और मैं भी :)
पोस्ट पढकर कुछ कुछ उन दादाजी वाली बात याद आ रही है कि सुनों सब की, पर लिखो अपने मन की :)
बेलगाम न होने की कोशिश मे लगे हुये हैं हम,गुरूदेव्।
ReplyDeleteसोच रहे हैं कि नॉन-सीरियस और फुरसतियात्मक मौज के बीच फ़न काढ़े खड़े सांप की तरह मौजूद प्रश्नवाचक चिन्ह (?) कब टलेगा ? कब आपके लेखन में हचक के आत्मविश्वास आयेगा?
ReplyDeleteअच्छी सलाह दी है।आभार।
ReplyDeleteआपने जो कहा वही लोगों को समझाते आ रहे हैं कि भई यही पढ़ने-लिखने की दुनिया का शाश्वत सत्य है, बाकी सब तो मोह माया है! इसी का अनुसरण करते ठेलते आ रहे हैं। :)
ReplyDeleteबींध देने वाला कटाक्ष !
ReplyDeleteलेखन सबके बस की बात नहीं । लेखक किसी के बस में कभी रहे ही नहीं । आप किसी लेखक के विचार प्रवाह को रोक के देखिये, उसका पूरा का पूरा मानसिक बल विरोध के विरुद्ध खड़ा हो जायेगा । यदि दूसरे के क्षेत्र में घुसने से हानि की सम्भावना दिखेगी तो दीवार पर बैठ कर तीर चलेंगे कटाक्षों के । यदि छ्त सूर्य की किरणों को रोकने का प्रयास करेगी तो गरम हो जायेगी ।
ReplyDeleteकुछ भी कर लें, प्रभाव तो दिखेगा ही ।
किसी की अभिव्यक्ति रोकने का प्रयास किया जायेगा तो ’अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता’ पर ही अभिव्यक्तियाँ होंगी । अभिव्यक्ति तो बहती धारा की तरह है आप चट्टान रख दीजिये, वह बगल से निकल जायेगी । आप बाँध खड़ा कर दीजिये, अभिव्यक्ति का स्तर धीरे धीरे बढ़ेगा और फिर जब ऊपर से बहकर नीचे गिरेगी तो धरातलों को चोट बहुत पहुँचेगी ।
काहे छेड़ दिया था जी ! अब झेलिये माँ सरस्वती का प्रवेग ।
भन्ते,
ReplyDeleteसकल विश्व टिप्पणियों के लिये क्यों व्याकुल है? मुफ्त की टिप्पणियां कैसे सुखकारी हो सकती हैं?
टिप्पणी-रस क्या हलाहल विष है?
क्या सच्चा ब्लागर, सच्चा टिप्पणीकार भी होता है?
टिप्पणी में बूमरैंग-गुण भी होता है?
जीवन-मृत्यु के संदर्भ में टिप्पणी का निहितार्थ-प्रतीकार्थ क्या है?
भन्ते, मार्ग प्रशस्त करें...
-एक चिरकुट ब्लागर
सत्य वचन महाराज। सेनसेक्स और मूड एक से नहीं रहते। जब जैसा मूड हो, ठेल देना चाहिए। ब्लागिंग में बहुत औपचारिक स्ट्रक्चर की चिंता भी नहीं करनी चाहिए। जमाये रहिये।
ReplyDelete@ अनूप शुक्ल - सर्पदंश नहीं सहना होगा आपको। सांप मार दिया है!
ReplyDeleteभय हो का नारा लगाते रहिये
ReplyDelete"आइडिया अगर अन्दर से आते हैं तो वे ब्लॉग का मसाला नहीं बन सकते। वे आपको महान ऋषि बना सकते हैं। शुष्क और महान। पर वे आपके ब्लॉग को चौपाल नहीं बना सकते।"
ReplyDeleteअच्छी सलाह दी है। धन्यवाद..................
हम भी कतार में है सर जी.....हाथ बांधे
ReplyDeleteमुझे तो निरीह गोलू पाण्डेय की पिटाई और उस के बाद मिला ब्रेड-दूध का स्नेह स्मरण आ रहा है। काशः उसे कुछ धमकात्मक स्नेह मिला होता तो पिटाई से बच जाता।
ReplyDeleteआपने अपने नाम को सार्थक किया है ..बेलगाम ना होने देने वाली बात सटीक है
ReplyDeleteसही है.
ReplyDeleteसब कह रहे हैं तो मैं भी :)
नमस्कार,
ReplyDeleteआप की बात एकदम सही है....
आप का ब्लाग अच्छा लगा...बहुत बहुत बधाई....
एक नई शुरुआत की है-समकालीन ग़ज़ल पत्रिका और बनारस के कवि/शायर के रूप में...जरूर देखें..आप के विचारों का इन्तज़ार रहेगा....
रचना अच्छी लगी....
अरे कौन यहाँ गंभीर चिंतन करता है तो निरापद ही हैं वैसे आपकी सलाह बढिया है ।
ReplyDeleteआपको इस विश्व से आइडिया और इन्स्पिरेशन लेने हैं। लगाम आपको अपने हाथ में रखनी है और खुद को बेलगाम नहीं करना है, बस!
बहुमूल्य सलाह के लिए धन्यवाद.
ReplyDeleteकल आप के दूसरे ब्लॉग पर १००%'निरापद 'लेखन वाली पोस्ट भी पढ़ी..
समझ नहीं आया कि 'निरापद 'का अर्थ क्या है?
सही ठेला शुद्ध ' ज्ञान (प्र)दात्तीय' पोस्ट
ReplyDeletePandey ji, your writing is adhyatmik (sahaj swbhaav) which is reward in itself. It was also intersting that you understand abstract words like Rishi which have no substitute word/concept in other languages. mera sadar pranaam.
ReplyDeletePandey ji, your writing is adhyatmik (sahaj swbhaav) which is reward in itself. It was also intersting that you understand abstract words like Rishi which have no substitute word/concept in other languages. mera sadar pranaam.
ReplyDeleteसही ठेला शुद्ध ' ज्ञान (प्र)दात्तीय' पोस्ट
ReplyDeleteबहुत पहले 'हम लोग' नाम का एक सिरियल आता था। उसमें एक दादाजी और एक दादीजी थीं। एक छुटकी भी थी। एक एपिसोड में छुटकी पूछती है कि दादाजी आपके इस सेहत या कुशल क्षेम ( Exact word याद नहीं) का राज क्या है ?
ReplyDeleteतब दादाजी जवाब देते हैं कि - सुनो सबकी, पर करो अपने मन की । इससे दादी भी कंट्रोल में रहती है, बेटे भी कंट्रोल में रहते हैं और मैं भी :)
पोस्ट पढकर कुछ कुछ उन दादाजी वाली बात याद आ रही है कि सुनों सब की, पर लिखो अपने मन की :)
ठेलना तो हम बहुतै चाह रहे थे, लेकिन कुछ भीतर से निकलने की हिम्मत नहीं जुट पा रही है। बाहर जो दिख रहा है उसमें से छाँटते बीनते हुए कान्शस हो जाते हैं और कुछ सूझता ही नहीं लिखने को। सोच रहा हूँ बुजुर्गों पर कुछ लिख डालूँ। शायद खतरा कम हो।
ReplyDeleteयदि इसे विज्ञापन न माना जाय तो बता दूँ कि एक निरापद किन्तु करुण कथा टूटी-फूटी पर पोस्ट हुई है।
हमारा दिमाग अब तक तो ठेलम ठाली बिना सोचे समझे ही करता था. अब लगता है कि दिमाग को कसरत करवा कर ही ठेलन कार्यक्रम चलाना पडेगा. डर इस बात है कि हमको ठेलने मे जितना समय नही लगता उससे ज्यादा उसकी सामग्री को जांचने मे लगेगा कि कहीं कॊइ गडबड झाला तो नही है.
ReplyDeleteआज एक छोटी सी कविता ठेळी थी उसपर भी आपत्तियां आनी शुरु हो गई हैं.
अब तो कोई ठेलन साफ़्टवेयर भी बनवाना पडॆगा.:)
रामराम.
श्री ज्ञानदत्त जी,
ReplyDeleteयह सही की मन उदात्त प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाना हमारे ही हाथ होना चाहिये। और किसी के हाथ होगा तो मात्र कठपुतलियों में सिमट आयेगा अस्तित्व। क्या आपकी आशंका अस्तित्व की लडाई को रोक जीवन एक खोज है से प्रारंभ करना चाहिये।
शायद यह टिप्पणी भी आपको एक अनसॉलिसिटेड़ सलाह ही लग सकती है? यदि ऐसा है तो मुआफ कीजियेगा।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
श्रीमन्त, आपको इस विश्व से आइडिया और इन्स्पिरेशन लेने हैं। लगाम आपको अपने हाथ में रखनी है और खुद को बेलगाम नहीं करना है, बस!
ReplyDeleteभद्रजन, आप इस जगत को अपने विचार, लेखन, सर्जनात्मकता, गम्भीरता, सटायर या गम्भीर-सटायर से निरापद करें।
100% sahi....