बड़े जिद्दी किस्म के लोग हैं। इन्हें अपने प्रॉविडेण्ट फण्ड और रिटायरमेण्ट का पैसा गिनना चाहिये। फेड आउट होने का उपक्रम करना चाहिये। पर ये रोज पोस्ट ठेल दे रहे हैं। ये ओल्डीज क्या लिखना चाह रहे हैं? क्या वह समाज के हित में है? क्या उसके टेकर्स हैं?
मूकज्जी की वाणी एक बार खुलती है तो बहुत कुछ कहती हैं। बहुत से ओल्डीज मूकज्जी हैं, जिन्हें वाणी मिल गयी है।
यह भी नहीं है कि इन्हें बहुत महारत हासिल है। ब्लॉग विधा के तकनीकी पक्ष में तो इनमें से कई लंगड़े ही हैं। विचारों की पटरी भी बहुत नहीं बैठती बहुतों से। पर औरों की तरह ये भी पूरी टेनॉसिटी (tenacity – साहस) से जुटे हैं अपनी अभिव्यक्ति का स्पेस तलाशने। टिक पायेंगे?
समाज में ओल्डीज बढ़ेंगे। इन सबको बड़े बुजुर्ग की तरह कुटुम्ब में दरवाजे के पास तख्त पर सम्मानित स्थान नहीं मिलने वाला। ये पिछवाड़े के कमरे या आउटहाउस में ठेले जाने को अन्तत: अभिशप्त होंगे शायद। पर अपने लिये अगर ब्लॉगजगत में स्थान बना लेते हैं तो ये न केवल लम्बा जियेंगे, वरन समाज को सकारात्मक योगदान भी कर सकेंगे।
इनमें से बहुतों के पास बहुत कुछ है कहने को। के. शिवराम कारंत की मूकज्जी (कन्नड़ में “मूकज्जिय कनसुगलु”, ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त और भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित) की तरह ये जमाने से मूक रहे हैं। पर मूकज्जी की वाणी एक बार खुलती है तो बहुत कुछ कहती हैं। बहुत से ओल्डीज मूकज्जी हैं, जिन्हें वाणी मिल गयी है।
जब मैं इनको पढ़ता हूं (और कई तो कहेंगे कि मैं भी ओल्डीज में हूं) तो पाता हूं कि उनमें सम्प्रेषण का अटपटापन भले हो, कण्टेण्ट की कोई कमतरी नहीं है। वे जो कह रहे हैं, वह थोडा ट्रेण्डी कम भी हो, सारतत्व में उन्नीस नहीं है।
लेकिन मैं यह लिख क्यों रहा हूं? मैं न शिवराम कारंत बन सकता हूं, न मूकज्जी। मैं शायद अपना स्पेस तलाश रहा हूं।
श्री हेम पाण्डेय ने टिप्पणी की -
प्रतीक्षा है कुछ ऐसी पोस्ट की जो 'मानसिक हलचल' पैदा करे।
क्या मेरी पोस्टें कुछ हलचल पैदा करती है? या सब में मैं अपना स्पेस तलाशते केवल समय के साथ बहने का ही सहारा लेता हूं?! अगर वह है तो चल न पाऊंगा। स्विमिंग इस उम्र की यू.एस.पी. नहीं है!
ओल्डीज - हमार्री भी सुनो
ReplyDeleteवो तुम्हारी भी सुनेगा
तुम एक पोस्ट दोगे
हम ओल्डीज पोस्ट देंगें
ओल्डीज अब गोल्डीज परोस रहे है कि कोई ओल्डीज की भी तो पढ़े .......बुढापे में बांटने के लिए रह ही क्या जाता है हा हा हा आनंद आ गया
ब्लॉग जगत में कोई "Oldie" क्यों कहा जाए?
ReplyDeleteजब तक लेखक स्वयं अपनी उम्र का जिक्र नहीं करता, किसी को क्या पता चलेगा?
ब्लॉग जगत क्रीडा जगत से भिन्न है।
Age is not a handicap here. Rather it can be an asset.
Old is Gold
ReplyDeleteबेहतरीन -सच है ओल्ड इस गोल्ड ! और जिन मोहतरमा के बारे में आपने बताया है कभी सुना नहीं देखता हूँ !
ReplyDeleteवाकई लाजवाब चिंतन है. हां आपकी पोस्ट मानसिक हलचल पैदा करती है.
ReplyDeleteओल्डीज के बारे में क्या कहें? शायद मैं भी उसी राह पर हूं.:)
रामराम.
हां आपकी पोस्ट मानसिक हलचल पैदा करती है...bilkul..
ReplyDeleteसही कहा है. बीच वाले टेशन से चढ़ने पर जगह नहीं मिलती.!
ReplyDeleteकाहे के ओल्डी जी..अभी तो लिखते चलिये..उस समय संपादित करके संस्करण निकालेंगे. :) बहुत काम पड़ा है पेडिंग में!!
ReplyDeleteआप तो निश्चिंत होकर जारी रहें..ज्ञानपीठ न सही..ज्ञानदत्त तो रहबे करी!!
सच है ओल्ड इस गोल्ड !
ReplyDeleteऔर हां आपकी पोस्ट मानसिक हलचल पैदा करती है...!!
"हम भी इसमे यकीन करते हैं..."old is gold" and "everything which glitters is not gold" और ओल्डीज के पास सारे जीवन का तजुर्बा होता है बाटने के लिए सारे जीवन की जमा पूंजी उनके संस्मरण....अलग अलग बीते लम्हे का पुलिंदा ...अनेको यादगार मौसम और शाम जो वो आज की पीढी के साथ बाँट सकते हैं....ये क्या कम है......????" यानि की अपनी पुरी जिन्दगी के असंख्य पन्नो की एक किताब......"
ReplyDeleteRegards
old is gold तो जग जाहिर है ।
ReplyDeleteआप भी ना ,बीच-बीच मे ऐसा क्यों सोचते रहते है ।
ये ओल्डीज क्या होता है?
ReplyDeletekey board तो एक ही होता है, अंगुलिया भी समान ही है.. फिर क्या यंग और क्या ओल्ड..
टाइपाते रहे.. शब्द लिकलेगें तो वो खुद ही हलचल पैदा करेगें..
ओल्डीज़ तो सठियाए हुए माने जाते है। हम जैसे ओल्डीज़ चूंकि कीबोर्ड चलाना जानते हैं, यहां टैंम पास करने आ जाते हैं। नई जनरेशन तो इन ओल्डीज़ को डिस्कार्ड कर चुकी है इसलिए, कुछ कह भी दिया तो कौन है नोटिस लेने वाला? है ना:) सो डोंट वरी, बी हैपि- बस, मौज करो,..मस्त रहो....
ReplyDeleteकिस बात का ओल्डिस?
ReplyDeleteअस्सी वर्षों की हड्डी में, जागा जोश पुराना था,
सब कहते हैं कुंवर सिंह भी बडा वीर मर्दाना था।
अजी आपके लिए तो घणा स्पेस है...
ReplyDeleteबड़ी" इमोशलाना पोस्ट" है सर जी ....! .मगर तजुर्बे बड़े जालिम है कोंई भेदभाव नही करते ..न उम्र का न जात का ..आप अक्सर बीच बीच में इमोशनल हो जाते है...लगता है किसी ब्लॉग से contagious रोग लगा बैठे है !
ReplyDeleteपिछली कई पोस्ट में आप ने गंभीर विषय उठाये हैं ,जो मानसिक हलचल पैदा करने के लिए काफ़ी हैं ..उन पर विचार विमर्श शुरू करने के लिए पर्याप्त हैं..'हल की तलाश में निकले थे वे सभी विचार , चाहे वह गंगा के किनारे फावडा चलाती लड़की का कथन हो..या फिर सायकिल पर गंगा की रेत में चलने की कोशिश...
ReplyDelete-आप की अब एक जगह बन चुकी है..आप को स्पेस तलाशने की क्या आवश्यकता हुई?
बहुत सुंदर .
ReplyDeleteबधाई
इस ब्लॉग पर एक नजर डालें "दादी माँ की कहानियाँ "
http://dadimaakikahaniya.blogspot.com/
पहले साफ कीजिये कि आप सच्ची में खुद को क्या मानते हैं ओल्डी, या यंगी, तब ही हम अपना कमेंट बताऊंगा।
ReplyDeleteजी, ओल्डीयों की भी जय जय ... :)
ReplyDeleteजब कोई व्यक्ति अपने मन एवं क्रियात्मकता की अभिव्यक्ति के लिए कोई शौक पा लेता है तो वह एक दम जवान हो जाता है.
ReplyDeleteसस्नेह -- शास्त्री
बहुत बढिया. चिट्ठाकारी क सकारात्मक पक्ष और प्रभाव की इससे बेहतर व्याखया नहीं हो सकती.
ReplyDeleteसोचने को मजबूर करती है आपकी मानसिक हलचल ! लगा कि हमको ओल्डी कह रहे हो ! :-)
ReplyDeleteहम आलोक पुराणिक का सवाल दोहरा रहे हैं।
ReplyDelete'ओल्डीज' कौन है-इस निर्धारण के मानक क्या हैं। 'ब्लागर की आयु' अथवा 'ब्लागिंग में आयु।' यह मालूम हो तो आगे कुछ कहें।
ReplyDeleteओल्डी, यह क्या होता है जी???
ReplyDeleteग्याण जी मै शर्त लगा कर कहता हूं उस साहिब या सहिबा को एक बार पंजा लडा कर या दोड लगा कर देख ले इन ओल्डी मेन से, अजी काहे चिंता करते हो, जमे रहो....
धन्यवाद जी
हमम्......।
ReplyDeleteमूकज्जी को पूरा पढ़ने की इच्छा बलवती हो गई है। आप यहां कौनसे ओल्डीज की बात कर रहे हैं? उम्र के मुहाने पर खड़े या विचारों के मुहाने पर खड़े! हम यंगीज के लिए तो दोनों ही श्रद्धा और सम्मान के पात्र हैं।
ReplyDelete"पर अपने लिये अगर ब्लॉगजगत में स्थान बना लेते हैं तो ये न केवल लम्बा जियेंगे, वरन समाज को सकारात्मक योगदान भी कर सकेंगे"
ReplyDeleteयेही सोच कर पोस्ट पे पोस्ट ठेल रहे हैं भईया...आगे क्या होगा...इश्वर जाने...
मूकज्जी किताब मंगवाने की कवायद शुरू करते हैं...कब मिलेगी कह नहीं सकते...
नीरज
एक न दिन ‘ओल्डीज’ की सूची में तो समय सबको ही घुसाएगा । सवाल यह है कि कौन इतना तरो-ताजा बना रह पाता है जैसे आप ने मेण्टेन कर रखा है। :)
ReplyDeleteसादर!
कितना थोडा मनुज जान पाता
ReplyDeleteआजीवन विद्यार्जन कर
किंतु रहेगा ज्ञान सदा अगम्य
मनुज अबोध शिशु.
- सुमित्रा नंदन पन्त
यही बात सच है , भाषा चाहे कोई सी हो, भाव तो मनुज मन मेँ समानाँतर ही उठते हैँ --
ReplyDelete- लावण्या
मूकज्जी का पूरा तप परिवार की परिधि में -- परिवार की जमीन पर किया गया इहलौकिक तप था . वे तपस्या के लिए किसी जंगल में नहीं गईं . मौन रह जो भोगा और जो किया जीवन-समर में धंस कर किया . और अन्ततः उसी से वाणी पाई .
ReplyDeleteतो ओल्डीज़ को बेचैन क्यों होना चाहिए ? उनका मोक्ष और उनकी सार्थकता भी यहीं है -- इसी लौकिक और रचनात्मक ब्लॉगिंग स्पेस में . ओल्डीज़ से अनुरोध है कि प्रॉविडेण्ट फण्ड और रिटायरमेण्ट का पैसा गिनने और उसका समुचित बंदोबस्त करने के बाद अपना बाकी का सब रामपसारा यहीं ले आइए -- इसी आभासी स्पेस में और बुढापे और उससे जुड़ी अक्षमता को कोसों दूर धकेल दीजिए,बल्कि देशनिकाला दे दीजिए . फिर देखिए मानसिक हलचल कितने दूर-दूर तक और कैसे-कैसे दिलों में दस्तक देती है और उन्हें तरंगित करती है.
गुड़ का स्वाद तो गूंगा भी लेता है पर बता पाने का आनन्द ही कुछ और है, भले ही अटपट बानी में क्यों न हो . बाकी रही बात अनुभव की वाणी की तो उसकी तो तासीर ही और है .
प्रणाम कूरियर करता हूं .