कल कुछ विष्णुकान्त शास्त्री जी की चुनी हुई रचनायें में से पढ़ा और उस पर मेरी अपनी कलम खास लिख नहीं सकी – शायद सोच लुंज-पुंज है। अन्तिम मत बना नहीं पाया हूं। पर विषय उथल-पुथल पैदा करने वाला प्रतीत होता है।
लिहाजा मैं आचार्य विष्णुकांत शास्त्री के पुस्तक के कुछ अंश उद्धृत कर रहा हूं -
पहला अंश -
…. महात्मा गांधी उस मृग मरीचिका (मुस्लिम तुष्टीकरण) में कितनी दूर तक गये थे, आज उसकी कल्पना कर के छाती दहल जाती है। महात्मा गांधी मेरे परम श्रद्धेय हैं, मैं उनको अपने महान पुरुषों में से एक मानता हूं, लेकिन आप लोगों में कितनों को मालुम है कि खिलाफत के मित्रों ने जब अफगानिस्तान के अमीर को आमंत्रित करने की योजना बनाई कि अफगानिस्तान का अमीर यहां आ कर हिन्दुस्तान पर शासन करे तो महात्मा गांधी ने उसका भी समर्थन किया। यह एक ऐसी ऐतिहासिक सच्चाई है, जिसको दबाने की चेष्ठा की जाती है, लेकिन दबाई नहीं जा सकती।
दूसरा अंश -
डा. अम्बेडकर ने उस समय कहा था कि कोई भी स्वस्थ मस्तिष्क का व्यक्ति हिन्दू-मुस्लिम एकता के नाम पर उतनी दूर तक नहीं उतर सकता जितनी दूर तक महात्मा गांधी उतर गये थे। मौलाना मुहम्मद अली को कांग्रेस का प्रधान बनाया गया, राष्ट्रपति बनाया गया। मद्रास में कांग्रेस का अधिवेशन हो रहा था। मंच पर वन्देमातरम का गान हुआ। मौलाना मुहम्मद अली उठकर चले गये। “वन्देमातरम मुस्लिम विरोधी है, इस लिये मैं वन्देमातरम बोलने में शामिल नहीं होऊगा।” यह उस मौलाना मुहम्मद अली ने कहा जिसको महात्मा गांधी ने कांग्रेस का राष्ट्रपति बनाया। उसी मौलाना मुहम्मद अली ने कहा कि नीच से नीच, पतित से पतित मुसलमान महात्मा गांधी से मेरे लिये श्रेष्ठ है। आप कल्पना कीजिये कि हिन्दू-मुस्लिम एकता के नाम पर क्या हो रहा था।
तीसरा अंश -
जो मुस्लिम नेतृत्व अपेक्षाकृत राष्ट्रीय था, अपेक्षाकृत आधुनिक था, उसकी महात्मा गांधी ने उपेक्षा की। आम लोगों को यह मालूम होना चाहिये कि बैरिस्टर जिन्ना एक समय के बहुत बड़े राष्ट्रवादी मुसलमान थे। वे लोकमान्य बालगंगाधर तिलक के सहयोगी थे और उन्होंने खिलाफत आन्दोलन का विरोध किया था परन्तु मौलाना मुहम्मद अली, शौकत अली जैसे कट्टर, बिल्कुल दकियानूसी नेताओं को महात्मा गांधी के द्वारा ऊपर खड़ा कर दिया गया एवं जिन्ना को और ऐसे ही दूसरे नेताओं को पीछे कर दिया गया।
बापू मेरे लिये महान हैं और देवतुल्य। और कोई छोटे-मोटे देवता नहीं, ईश्वरीय। पर हिंदू धर्म में यही बड़ाई है कि आप देवता को भी प्रश्न कर सकते हैं। ईश्वर के प्रति भी शंका रख कर ईश्वर को बेहतर उद्घाटित कर सकते हैं।
बापू के बारे में यह कुछ समझ नहीं आता। उनके बहुत से कार्य सामान्य बुद्धि की पकड़ में नहीं आते।
पुस्तक : “विष्णुकान्त शास्त्री – चुनी हुई रचनायें”; खण्ड – २। पृष्ठ ३२४-३२५। प्रकाशक – श्री बड़ाबाजार कुमारसभा पुस्तकालय, कोलकाता।
आपने आचार्य विष्णुकांत शास्त्री के पुस्तक के कुछ अंश उद्धृत किए, हमने पढ़ लिए. अब?
ReplyDeleteगाँधी जी को मैंने उतना ही जाना है जितना कि सत्यनारायण की कथा सुनने वालों ने सत्यनारायण की कथा को जाना है। मैं आज तक इस सत्यनारायण की कथा को समझ ही नहीं पाया हूँ। हाँ, प्रसाद के रूप में मिलने वाले पंचामृत आदि को बडे मन से गृहण करता हूँ। शायद गाँधीजी को जानना भी एक सत्यनारायणी कथा ही हो। उनके नाम पर मिलने वाले पंचामृत को राजनितिक पार्टियां भी मेरी तरह बडे मन से स्वीकार कर रही हैं। पर इस कथा में हाड माँस का एक जिवित पात्र भी है जो कुछ नहीं तो कम से कम अपने दौर में सुदूर देहात तक में एक हलचल पैदा कर सका था। गाँधी बाबा और सत्यनारायण की कथा में मैं गाँधी बाबा को श्रेष्ठ मानूँगा। बाकी, वोटनामी पंचामृत तो बंटता ही रहेगा, लेने वालों की कमी न पडेगी....चाहे अनमने ही सही।
ReplyDeleteमनीषियों के कार्य का कूट समझ में सच ही कहां आता है. गांधी शायद ऐसे ही अन्तर्विरोधों के लक्ष्य किये जाने के कारण आज भी इतनी चर्चा के पात्र हैं.
ReplyDeleteविष्णुकान्त शास्त्री जी की इस पुस्तक का उल्लेख लाजमी है, खास तौर पर एक संयत, संयमित रचनाकार की दृष्टि से गांधी जी को निरखने के लिये.
क्या यह चित्र भी उस पुस्तक में हैं अथवा आपने इन्हें अलग से लगाया है?
हिन्दुस्तान मे महात्मा गाँधी ही एक ऐसे व्यक्तित्व है जिसे जिस रंग के चश्मे से देखे वैसे ही दिखेंगे .शास्त्री जी का चश्मा भगवा प्रायोजित था इसलिए मुस्लिम तुष्टिकरण ज्यादा दिखा . और हरे चश्मे वाले उनके राम भजन से दुखी थे . बेचारे बापू प्राण गवाने के बाद भी घसीटे जाते है बेकार के विवाद मे . अगर उन्होंने भी जात धर्म प्रदेश की राजनीती की होती तो इस किताब की प्रतियाँ जलाई जाती ,दंगे होते ,ट्रेने जलाई जाती .लेकिन बापू तुम तो निरे महात्मा ही रहे
ReplyDelete@ हिमांशु> क्या यह चित्र भी उस पुस्तक में हैं अथवा आपने इन्हें अलग से लगाया है?
ReplyDeleteकेवल पुस्तक का चित्र पुस्तक से है।
शास्त्रीजी महान थे। बहुपाठी थे। दो बार उनको सुनने का मौका मिला और एक बार मिलने का। शास्त्रीजी ने गोस्वामी तुलसीदास की चौपाई "ढोल, गंवार, शूद्र पशु नारी" का के संदर्भ में समझाइश दी थी एक वक्तव्य में कि श्रेष्ठ रचनाकार अपने अनुकरणीय आदर्श अपने श्रेष्ठ/आदर्श पात्र के मुंह से कहलवाता है। यह चौपाई चूंकि राम ने नहीं कही बल्कि समुद्र ने कही जो कि यहां अधम पात्र है इसलिये यह अनुकरणीय आदर्श नहीं है।
ReplyDeleteअब महात्मा गांधी के बारे में जो उन्होंने लिखा वह कब किया गया ,कहा गया इसलिये हम कुछ न कहेंगे लेकिन यह याद रखने की बात है कि शास्त्रीजी महान थे लेकिन आर.एस.एस. से जुड़े थे। गाधी जी के बारे में जो भी कहेंगे वो चश्मा तो लगा देखा ही जायेगा।
ढोल, गंवार, शूद्र पशु नारी
पहली बात तो आपकी फीड आज नहीं मिली . बडी मुश्किल से यहाँ तक पहुँचा हूँ .
ReplyDeleteबापू के बारे में : जब वे अपनी सफाई देने के लिए यहाँ नहीं हैं हमारे विचार से उनकी अच्छी बातों को छोडकर बाकी सब भूल जाना चाहिए !
पर आजकल अच्छी चीजों का मार्केट ही नहीं है . कोई अच्छी बात बैठकर सुनता ही नहीं उठकर चल देते हैं लोग
बुराई को खोद खोदकर पूछते हैं
अब न गाँधी जी है ना ही आचार्य विष्णुकांत शास्त्री . रही चश्मे की बात तो हर आँख पे कोई न कोई चश्मा चढा हुआ है चाहे वो लाल हो , हरा हो, या भगवा. हां एक बात समझ में नही आती की खिलाफत आन्दोलन को भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन से कैसे जोड़ा गया? पता नही गाँधी जी ने क्या सोचा था ? कहा खलीफा और कहा स्वराज्य, इसका जवाब तो कोई वही दे सकता है जिसके आँख पे कोई चश्मा न चढा हो (अगर कोई है, जिसके आँख पे कोई चश्मा ना हो तो समझाए हम भी समझाना चाहते है) खैर तब तक के लिए एक और रंग के चश्मे का आनंद लेना हो तो यहाँ जाए (http://www.storyofpakistan.com/articletext.asp?artid=A033&Pg=1)
ReplyDeleteहूं.....................।
ReplyDeleteपुस्तक तो नहीं पढ़ सके पर कुछ विचार आपके जरीये जाने लिये.. अच्छा लगा..
ReplyDeleteविवेक जी और प्रवीण जी बातों से पूर्ण सहमति।
ReplyDeleteगाँधीजी महान थे।
ReplyDeleteइसमें कोई संदेह नहीं।
महापुरुष भी गलती करते हैं लेकिन जानबूझकर नहीं।
विवेक सिंह और प्रवीण शर्मा की बातों से पूरी तरह सहमत।
ReplyDeleteशास्त्रीजी ने जो कहा है वह एक ऐतिहासिक सच्चाई है. आँखे चुराने से क्या होगा?
ReplyDeleteगाँधीजी महानतम नेता थे. मगर उनके प्रति अहोभाव क्यों?
गाँधीजी से शुरू हुआ तुष्टिकरण आज और भी आगे निकल गया है. देश ने भुगता है, देश भुगतेगा. आपको (यहाँ हर एक को) कट्टरपंथी कहलवाने की परवाह किये बीना इसका विरोध करना चाहिए. देश से बड़ा कोई नहीं.
यहाँ शास्त्रीजी को चश्मा लगा बता कर गाँधीजी की भूल से नजरे फेरने की कोशिश की है. तो क्या जिस चश्मे को पहरने की बात की है वह चश्मा पहने कोई व्यक्ति जिन्ना की प्रशंसा कर सकता है?
श्री विष्णुकांत शास्त्री के विचार जानकर अच्छा लगा। मैंने उनके केवल व्याख्यान और आध्यात्मिक प्रवचन पढे हैं। वे नीर-क्षीर-विवेक आलोचना करते थे। उनके मन में राग-द्वेष के लिए कोई स्थान नहीं था। उनको पढना एक अदभुत आनंद को प्राप्त करना हैं।
ReplyDeleteनिश्चित रूप से गांधीजी महान व्यक्तित्व थे,परन्तु उनके कुछ कार्य व्यवहार ऐसे अवश्य थे जिन्हें किसी कीमत पर सही नही कहा जा सकता.क्योंकि उनके दूरगामी प्रभाव ऐसे निकले जिसने आज भी दो देशों को अस्थिर किया हुआ है और आज हम इस त्रासदी को झेलने को विवश हैं...
ReplyDeleteबहुत से लोग विष्णुकांत जी को हिंदूवादी/संघवादी मान उनकी बातों को खारिज कर सकते हैं,पर इससे इनकार नही किया जा सकता की यदि उन्होंने नेहरू मोह छोड़ दिया होता तो आज हिन्दुस्तान पकिस्तान अलग न होते और यूँ दोनों में हरवक्त ठनी न होती. आख़िर क्या फर्क पड़ जाता अगर जिन्ना को ही प्रधान मंत्री बना दिया जाता.
वस्तुतः मोतीलाल नेहरू के आर्थिक सहयोग का प्रतिदान (जवाहरलाल नेहरू को प्रधानमंत्री बनाकर )चुकाने की तीव्र लालसा ने गांधीजी को देशहित के लिए सोचने नही दिया.
इंसान एक
ReplyDeleteचश्मे हजार
टिप्पणियों से जाहिर होता है किसके पास कैसा चश्मा है
खाकिर हमर भी चश्मा नोटिस करें!
१९२२ में तो खैर आजादी की सोचना अभी दूर था कोई एक नेता १९४७ में किसी और देश के शासक के हाथ में भारत का नेतृत्व देने का पक्षधर था
जो हमारे चश्मे का नंबर जान सकें उन्हें पता होगा इशारा किसकी ओर है
वैसे चश्मा हटा देन तो विवेक भाई की बात का समर्थन हम भी करते हैं
गाँधीजी की सभा में मुस्लिम आते थे, मगर अंत में रघुपति राघव...शुरू होने से पहले उठ कर चले जाते थे.
ReplyDeleteइस बात से कोई इनकार करे तो वह झूठ बोलता है और नारायण भाई जैसे सच्चे गाँधीवादी जो झूठ नहीं बोल सकते वे इस बात का जिक्र करेंगे नहीं.
मैंने चश्मा लगा कर ही इतिहास पढ़ा है. भारत नाम का चश्मा.
आचार्य विष्णकांत शास्त्री देश के महान विचारको में से एक रहे है। गांधी विषयक चर्चा होना आवाश्यक है, आज के दौर हम जब कानून बदल गया है कि लड़की/लड़का अपनी मर्जी से शादी कर सकता है तो हम गांधी ''देश का पापा'' आँखे मूँद कर क्यो माने।
ReplyDeleteगांधी के कृत्यो की समीक्षा आवाश्यक है।
ऊपर धीरू सिंह जी और विवेक जी ने सब कुछ कह दिया
ReplyDeleteसोचता हूँ की एक छोटे से (या, ह्त्या करके ज़बरदस्ती छोटा कर दिए गए) जीवन में इतनी सारी गलतियां
ReplyDeleteइतनी सारी गलतियाँ कर पाने के लिए गांधी जी को कितना सकारात्मक काम करना पडा होगा? आज जो लोग भूत की सारी गलतियां उनके सर मढ़ देना चाहते हैं उन्हें यह तो मानना ही पडेगा कि, "गिरते हैं शहसवार ही मैदाने जंग में, वो सिफत क्या गिरेंगे जो घुटनों के बल चलें."
अफ़सोस, इतने बड़े देश में इक वही शहसवार निकला.
और हाँ - यह चश्मे अंधों को मुबारक (बरेली की भाषा में - इन चश्मों की ऐसी की तैसी!)
लेकिन यह तो देखिये अपनी बात कितने सलीके और सयम से कही है शास्त्री जी ने !
ReplyDeleteगांधी जी की कुछ बातो को छोड कर ,मुझे गांधी जी की कोई भी बात अच्छी नही लगी.
ReplyDeleteओर बहुत बहस भी हुयी दोस्तो मे, इस बारे कालेज के जमाने मै.
धन्यवाद
इस देश में किताब पढ़कर खामोश रहने का रिवाज है सर जी.
ReplyDeleteअब शाश्त्री जी आर.एस.एस से हैं तो बात चश्मे की तो उठेगी ही. फ़िर भी मैं समझता हुं कि अभी ये आरोप प्रत्यारोप लगते ही रहेंगे. गाम्धी जी को गुजरे अभी ज्यादा समय नही हुआ है.
ReplyDeleteअभी हम उनको जिस चश्मे से देखना चाहते हैं यानि कि उनमे कोई भी मानविय कमजोरियां ना हो, और वो एक सम्पुर्ण अवतारी पुरुश हों, तो यह अभी सम्भव नही है.
हो सकता है काफ़ी समय बाद ऐसा हो.फ़िलहाल तो यही कम नही है कि हम गांधी जी को इस रुप के समतुल्य आंकने की कोशीश तो करते हैं? यानि हम अपेक्षा तो करते हैं. आपने बहुत लाजवाब विषय उठाया आज. बहुत धन्यवाद.
रामराम.
रामरम.
गांधी पर अधिकारपूर्वक कहने की स्थिति में, देश में गिनती के लोग होंगे। सामान्यत: जो भी कहा जाता है वी अत्यल्प अध्ययन के आधार पर ही कहा जाता है। गांधी की आत्म कथा, महादेव भाई की डायरी और गांधी वांगमय पूरा पढे बिना गांधी पर कोई अन्तिम टिप्पणी करना सम्भवत: जल्दबाजी होगी और इतना सब कुछ पढने का समय और धैर्य अब किसी के पास नहीं रह गया है। ऐसे में गांधी 'अन्धों का हाथी' बना दिए गए हैं। विष्णुकान्तजी शास्त्र की विद्वत्ता पर किसी को सन्देह नहीं होना चाहिए किन्तु उनकी राजनीतिक प्रतिबध्दता उनकी निरपेक्षता को संदिग्ध तो बनाती ही है।
ReplyDeleteऐसे में यही अच्छा होगा कि हममें से प्रत्येक, गांधी को अपनी इच्छा और सुविधानुसार समझने और तदनुसार ही भाष्य करने के लिए स्वतन्त्र है।
किन्तु कम से कम दो बातों से इंकार कर पाना शायद ही किसी के लिए सम्भव हो। पहली - आप गांधी से असहमत हो सकते हैं किन्तु उपेक्षा नहीं कर सकते। और दूसरी, तमाम व्याख्याओं और भाष्य के बाद भी गांधी न केवल सर्वकालिक हैं अपितु आज भी प्रांसगिक भी हैं और आवश्यक भी।
चश्मा निकाल कर , आंख खोलकर आज की सरकार को देखिए - सब समझ जाएंगे:)
ReplyDeleteसिर्फ़ भारत में ही ऐसा है कि यदि कोई बड़ा व्यक्तित्व है तो उसे मर्यादा पुरषोत्तम बनना ही पड़ेगा! उसमें कोई कमी नही हो सकती! और अगर किसी ने कमी की तरफ़ देखा भी, तो उसके बड़े बड़े चश्मे लगे हैं :)
ReplyDeleteअगर गाँधी जी जीवित होते तो शायद स्वयं बता देते कि तुष्टिकरण किया| अपने जीवन के विवादास्पद पन्नो को भी उजागर कर देते| यदि ऐसा होता, तो क्या हम उन्हें उतना ही सम्मान देते? गाँधी जी पर मेरी कोई विशेषज्ञता नही, लेकिन ऐसा प्रतीत होता उन्होंने स्वयं कभी कुछ छुपाया नही [हाल में उठे सारे प्रश्नों का उत्तर स्वयं गाँधी जी के लेखों या उस समय के लिखे लेखों से मिल जाता है], ये तो उनके आस पास के लोगों ने ही उन्हें महात्मा बनाया और बनाये रहने का बीडा उठा लिया|
अंत में कुछ टिप्पणीकारो से यह प्रश्न - 'आर एस एस' को ले के इतना द्वेष क्यों?
आदमी को पहचानने में कई बार भूल हो जाती है और हर किसी से होती है, उनसे भी हो गयी थी
ReplyDeleteईसा मसीह अगर स्वयम ईश्वर की एकमात्र सँतान हैँ तब उन्हँने, अपने आप को क्योँ सूली पे चढने से बचाया नहीँ ?
ReplyDeleteमुहम्मद पैयगम्बर ने क्यूँ हुसैन की शहादत के वक्त, फरीश्तोँ को उनके बचाव के लिये ना भेजा ?
गाँधी जी ने क्यूँ हद से ज्यादा मुसलमान नेताओँ की तरफदारी की और उन्हेँ नेतृत्व सौँपने की इच्छा की थी ?
कई सारे ऐसे ही, प्रश्न हैँ, जिनके उत्तर, कभी ना मिल पायेँगे...
- लावण्या
जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी।
ReplyDeleteगाँधी के बारे में मेरा ज्ञान..
ReplyDeleteनाम मोहनदास कर्मचंद गाँधी
पत्नी कस्तूरबा
पेशे से वकील
आज़ादी की लड़ाई में योगदान
2 ऑक्टोबर को जन्मदिवस
नाथूराम गोडसे ने गोली मारकर हत्या की..
इनके नाम से जोधपुर में एक अस्पताल है..
जयपुर में बापू नगर है..
भारतीय मुद्रा पर फोटो छपी होती है..
इसके अलावा थोडा बहुत और जानता हू.. फिर गाँधी को जानना ज़रूरी भी तो नही.. जान लिया तो और टेंशन लोगो की शंकाओ का जवाब देते फ़िरो..
वैसे गाँधी की यू एस पी बढ़ रही है इन दिनो..
कल पोस्ट और उस समय तक की टिपण्णीयां पढ़ी थी. आज फिर टिपण्णीयां पढ़ी. कुछ कहने को है नहीं इस मुद्दे पर.
ReplyDeleteदरअसल एक व्यक्ति के व्यक्तित्व के इतने पहलु होते हैं की ठीक तरह से उन्हें जान पाना और उनकी व्याख्या कर पाना संभव नहीं है....फिर गांधी जी तो ऐसे इंसान हैं जिनके बारे में हर कोई जानना चाहता है और अलग अलग किताबों में पढ़कर अलग अलग लोगो की नज़र से गांधी को समझने की कोशिश में मतभेद उत्पन्न हो जाते हैं.....आज गांधी नहीं हैं तो क्यों न उनके वे कार्य जिनकी हम प्रशंसा करते हैं ,उन्हें सराहें ! बाकी बातें जो गलत हैं ,या हमारी द्रष्टि में उचित नहीं हैं उन पर अब बहस करने से क्या होगा? गांधी जी अब हैं नहीं जो उन्हें सुधार सके! आखिर वे भी एक इंसान ही थे और हम सब की तरह उनमे भी गलतियां और बुराइयां थीं! तमाम गलतियों के बाद भी उनकी अच्छाइयों को कभी नहीं नकारा जा सकता ये अटल सत्य है!
ReplyDeleteबात निकलेगी तो दूर तलक जायेगी... इस बहस का कोई सार नहीं।
ReplyDeleteनिशांकजी की बात से सौ प्रतिशत सहमत।
आश्चर्य हुआ! दुःख भी...
ReplyDeleteशास्त्री जी के बहाने आपने गांधी जी के योगदान पर चर्चा करके अच्छा किया। अभी हाल ही में डा. रामविलास शर्मा की किताब, "गांधी, आंबेडकर, लोहिया और भारतीय इतिहास की समस्याएं", वाणी फ्रकाशन, दिल्ली, पढ़ रहा था। गांधी जी के संबंध में काफी बातें इस किताब से स्पष्ट होती है। काफी मोटी किताब है, समय मिले तो अवश्य उलट-पलट कर देखें।
ReplyDeleteडा. शर्मा का मानना है कि गांधीजी सुधारवादी नेता थे, और अंग्रेज और देशी पूंजीपति (बिड़ला, साराभाई, बजाज, आदि) उन्हें इसलिये पसंद करते थे क्योंकि वे कम्युनिस्ट क्रांति के फूट निकलने से रोके हुए थे। गांधीजी दो कदम आगे, चार कदम पीछे वाली नीति बारबार अपनाते थे, और बातबात पर अनशन पर बैठ जाते थे, जिससे क्रांति की अग्नि ठंडी पड़ जाती थी!
पर गांधीजी की अनेक बातें बहुत पते की हैं। भाषा के मामले में उनकी नीति बहुत सही थी। केवल गांधीजी राष्ट्रभाषा हिंदी के प्रबल समर्थक थे। बाकी सब नेता, नेहरू आदि, इस मामले में घोर अंग्रेजी-परस्त थे। देश की राजनीति में गरीब किसानों और गांव की अर्थव्यवस्था को केंद्र में रखना भी गांधी जी की महान उपलब्धि है। यदि अंग्रेज यहां से भागे तो इसी वजह से। इतने विशाल जन-आंदोलन का दमन उनके लिए कठिन और खर्चीला हो गया था। ऊपर से सुभाष चंद्र बोस और उनकी इंडियन नेशनल आर्मी के कारण अंग्रेजों को भारतीय सेना की उनके प्रति वफादारी पर भी भरोसा नहीं रह गया था। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद वे वैसे भी कंगाल हो चुके थे।
खैर गांधीजी आंवले की तरह हैं, खट्टे भी हैं, मीठे भी। हमें उन्हें वार्ट्स एंड ऑल स्वीकार करना चाहिए। यह उन्हें चबूतरे पर बैठाकर साल में एक बार उनकी पूजा कर लेने से कहीं बेहतर है।
मैं ये सब पढ़ कर दंग सा रह गया | गाँधी जी इस हद तक निचे गिर चुके थे पता ही नहीं था |
ReplyDeleteज्ञानदत्त जी सत्य से आपने रु-बा-रु करवाया ... आभारी हूँ आपका | भविष्य मैं भी ऐसे आलेख पढ़वायें तो अच्छा रहेगा |
आपके प्रयासों की सराहना करता हूँ |
यह विचित्र देश है जहाँ भगवान राम पर ऊँगली उठायी जा सकती है लेकिन गाँधी पर नहीं गोया गाँधी भगवान से भी बड़े हो गये। गाँधी कैसी छुईमुई हैं कि उनके बारे में अच्छा ही बोलना है, उनकी कमियाँ, गलतियाँ चाहे सच भी हों बोलनी नहीं हैं।
ReplyDeleteलोग कह देते हैं छोटी-मोटी गलतियाँ हर किसी से हो जाती हैं, गाँधी जी की गलतियाँ छोटी नहीं थी। नेहरु को प्रधानमन्त्री बनाने के लिये भारत का विभाजन स्वीकार किया, विभाजन हो भी गया था तो जनसंख्या का बंटवारा न होने देकर हमेशा के लिये नासूर छोड़ दिया। भारतवासियों को क्रान्तिकारियों, आजाद-हिन्द-फौज का साथ न देने के लिये कहकर अंग्रेजों की सहायता की। पटेल की बजाय नेहरु को प्रधानमन्त्री बनावाया जिनकी कश्मीर और चीन नीति का परिणाम देशवासी भुगत रहे हैं, पाकिस्तान को अनशन करके ५५ करोड़ दिलवाये जिसका उपयोग उसने हिन्दुस्तानियों का खून बहाने में किया, क्या उन मृतकों की आत्मा गाँधी के प्रति श्रद्धा रखती होगी?
एक-दो नहीं सैकड़ों गलतियाँ हैं गाँधी जी की, सभी लिखने बैठो तो पता नहीं कितनी पोस्टें बन जायें। फिर भी गाँधी महान हैं, क्या महापुरुष इतनी गलतियाँ करते हैं?
भारत में कॉंग्रेसी, कम्युनिष्ट का झूठ भी सच है और संघ से जुड़े लेखक का सच भी झूठ है।
यह पुस्तक कहाँ से प्राप्त हो सकती है या मंगाई जा सकती है, कोई फोन नम्बर है?
ReplyDeleteआपने खण्ड-२ लिखा है, क्या पुस्तक दो खण्डों में है?
@ ePandit - यह पुस्तक दो खण्डों में है। प्रतिखण्ड ३०० रुपये। सन २००३ में छापी है - श्री बड़ाबाजार कुमारसभा पुस्तकालय, 1-C मदन मोहन बर्मन स्ट्रीट, कोलकाता - ७००००७ ने. ईमेल - kumarsabha@vsnl.vet
ReplyDeleteविवेक सिंह और प्रवीण शर्मा की बातों से पूरी तरह सहमत।
ReplyDeleteपहली बात तो आपकी फीड आज नहीं मिली . बडी मुश्किल से यहाँ तक पहुँचा हूँ .
ReplyDeleteबापू के बारे में : जब वे अपनी सफाई देने के लिए यहाँ नहीं हैं हमारे विचार से उनकी अच्छी बातों को छोडकर बाकी सब भूल जाना चाहिए !
पर आजकल अच्छी चीजों का मार्केट ही नहीं है . कोई अच्छी बात बैठकर सुनता ही नहीं उठकर चल देते हैं लोग
बुराई को खोद खोदकर पूछते हैं
हिन्दुस्तान मे महात्मा गाँधी ही एक ऐसे व्यक्तित्व है जिसे जिस रंग के चश्मे से देखे वैसे ही दिखेंगे .शास्त्री जी का चश्मा भगवा प्रायोजित था इसलिए मुस्लिम तुष्टिकरण ज्यादा दिखा . और हरे चश्मे वाले उनके राम भजन से दुखी थे . बेचारे बापू प्राण गवाने के बाद भी घसीटे जाते है बेकार के विवाद मे . अगर उन्होंने भी जात धर्म प्रदेश की राजनीती की होती तो इस किताब की प्रतियाँ जलाई जाती ,दंगे होते ,ट्रेने जलाई जाती .लेकिन बापू तुम तो निरे महात्मा ही रहे
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