ब्लॉगिंग अभिव्यक्ति का माध्यम है। पर सार्वजनिक रूप से अपने को अभिव्यक्त करना आप पर जिम्मेदारी भी डालता है। लिहाजा, अगर आप वह लिखते हैं जो अप्रिय हो, तो धीरे धीरे अपने पाठक खो बैठते हैं।
यह समाज में इण्टरेक्शन जैसी ही बात है। भद्दा, भोंण्डा, कड़वा, अनर्गल या प्रसंगहीन कहना आपको धीरे धीरे समाज से काटने लगता है। लगभग वही बात ब्लॉग पर लागू होती है।
सम्प्रेषण का एक नियम होता है कि आप कहें कम, सुनें अधिक। ब्लॉगिंग में समीर लाल यही करते हैं। लिखते संयमित हैं, पर टिप्पणी बहुत करते हैं। टिप्पणियां यह अफर्मेशन है कि पढ़ रहे हैं, सुन रहे हैं।
तीव्र भावनायें व्यक्त करने में आनन-फानन में पोस्ट लिखना, उसे एडिट न करना और पब्लिश बटन दबाने की जल्दी दिखाना – यह निहित होता है। अन्यथा अगर आपमें तीव्र भावनायें हैं, आप पोस्ट लिखते और बारम्बार सोचते हैं तो एडिट कर उसके शार्प एजेज (sharp edges) मुलायम करते हैं। और तब आपसे असहमत होने वाले भी उतने असहमत नहीं रहते। मैने यह कई बार अपनी पोस्टों में देखा है।
एक उदाहरण के रूप में अनिल रघुराज जी की पोस्टें हैं। नरेन्द्र भाई का एक सद्गुण तीव्र प्रतिक्रियात्मक पोस्ट थी। उसमें जल्दबाजी में यह भी ध्यान नहीं रखा गया कि संजय बेंगानी ने पांच नहीं, दस बिन्दु गिनाये थे। यह तीव्र प्रतिक्रियायें आमन्त्रित करती पोस्ट थी, सो आईं। और उसके बाद भी सिलसिला चला अगली पोस्ट दशानन के चेहरे में भी। यह सब करना गहन रिपल्सिव प्रतिक्रियायें दिला सकता है। पर इससे न सार्थक बहस हो सकती है और न ही एक भी व्यक्ति आपके विचारों की ओर विन-ओवर किया जा सकता है।
अपनी तीव्र भावनायें व्यक्त करने के लिये लिखी पोस्टों पर पब्लिश बटन दबाने के पहले पर्याप्त पुनर्विचार जरूरी है। कई बार ऐसा होगा कि आप पोस्ट डिलीट कर देंगे। कई बार उसका ऐसा रूपान्तरण होगा कि वह मूल ड्राफ्ट से कहीं अलग होगी। पर इससे सम्प्रेषण का आपका मूल अधिकार हनन नहीं होगा। अन्तर बस यही होगा कि आप और जिम्मेदार ब्लॉगर बन कर उभरेंगे।
जिम्मेदार ब्लॉगर? शब्दों में विरोधाभास तो नहीं है न?
शायद समाधान स्लो-ब्लॉगिंग में है। स्लो-ब्लॉगिंग क्या है? यह एक अभियान है जो समग्र रूप से विचार के बाद ब्लॉगिंग पर जोर देता है, बनिस्पत अतिरेक में बह कर पोस्ट ठेलने के। सफल ब्लॉगर्स अपना ब्लॉग नियमित अपडेट करते हैं, पर स्लो-ब्लॉगिंग ब्लॉगर्स को स्लो-डाउन करने की सलाह देती है। इसके मेनीफेस्टो में टॉड सीलिंग लिखते हैं कि यह “तुरत लेखन का नेगेशन है। … यह महत्व की बात है कि सभी अच्छी पठनीय सामग्री झटपट नहीं लिखी जा सकती”। ---- के. सविता, हैदराबाद| टाइम्स ऑफ इण्डिया के “ओपन स्पेस” कॉलम में। |
Agree whote heartedly with K.Savitaji's thoughts that
ReplyDeletea Blogger needs to mull over
the thought + contents of Blog Post.
Aapke vichar bhee sahee lage mujhe.
बिना विचारे जो लिखै सो पाछें पछिताय !
ReplyDeleteब्लॉग बिगारै आपनो जगमें होत हँसाय
जग में होत हँसाय मिलेंगे थोडे पाठक
सत्य लिखोगे तो भी सब समझेंगे नाटक
विवेक सिंह यों कहें लिखो जी विचार करके
करो तोलकर व्यक्त भाव अपने अंदर के !
मुझे स्लो - ब्लोगिंग का विचार सुंदर लगा | आपको को एवं के. सविता जी को इसके लिए धन्यवाद |
ReplyDeleteबड़े पते की बात बतई आपने ! शुक्रिया !
ReplyDeleteमुझे लगता है कि कुछ लोग आपकी बात को ब्लॉगिंग के मूल से भटकाव या विपरीत मान सकते है.
ReplyDeleteपरिभाषिक तौर पर जब हम ब्लॉगिंग की बात करते हैं तो कहते हैं कि यह अभिव्यक्ति का वह स्वतंत्र माध्यम है जिसमे आप अपने दिल में उठते विचारों को मूल रुप में तुरंत, बिना किसी संपादकीय हस्तक्षेप के, जगत के कोने कोने में बैठे पाठकों तक मात्र एक चटके में पहुँचा सकते है एवं आपके विचारों पर पाठकों की प्रतिक्रिया से बिना रोकटोक रुबरु हो सकते हैं. प्रतिक्रिया के माध्यम से आप अपने पाठकों से एक सीधा संवाद स्थापित कर सकते हैं.
किन्तु मैं आपसे पूर्णतः सहमत हूँ. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता यदि निरंकुश हो (स्व-विवेक भी अंकुश ही लगाता है) तो सामाजिक स्तर पर खतरनाक है और बहुत लघुजीवी है. जो बात समाज में सामन्यतः सार्वजनिक रुप से स्वीकार्य न हो, वह दीर्घजीवी हो ही नहीं सकती, कम से कम सार्वजनिक स्तर पर.
अतः, जिस स्व-विवेक के अंकुश की आप बात कर रहे हैं, वह अति आवश्यक है. भावों के अतिरेक में आकर लिखे गये आलेखों को कूलिंग डाऊन प्रोसेस (बर्फीली भट्टी में तपाना) में डालने के लिए स्लो ब्लॉगिंग का फंडा निश्चित ही स्वागत योग्य है किन्तु शायद सर्व मान्य न हो.
इसीलिये शायद इन्वेस्टमेन्ट की फिल्ड में भी इन्वेटमेन्ट ऑबजेक्टिक चेंज करने में समय लिया जाता है ताकि आप भावना के अतिरेक में, बाजारु प्रतिक्रियाओं के बाहव में बहते हुए गलत निर्णय न ले बैठे और अपने पैसे से बिना सोचे समझे हाथ धो बैठें. (यह भी एक प्रकार से स्लो डाउनिंग प्रोसेस ही है)
फिर, समाज का निर्माण भी तो सभी प्रकार के लोगों से होता है. बस, सामन्जस्य बना रहे.
बेहतरीन चिन्तन एवं मनन योग्य सामग्री परोसने का आभार.
आपको एवं आपके परिवार को गणतंत्र दिवस पर हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाऐं.
सभी अच्छी पठनीय सामग्री झटपट नहीं लिखी जा सकती”।
ReplyDeleteसोलह आना सच बाकि बात भी विचारणीय है।
फ़िर एक बार आपसे सहमत हूँ. मगर यह सलाह तो रही जिम्मेदार ब्लोगेर्स के लिए. हम जिम्मेदार ब्लॉगर भी तभी हो सकते हैं जब हम पहले से एक जिम्मेदार इंसान हों. जब ब्लॉग्गिंग का उद्देश्य ही सार्थक लेखन न होकर भड़काऊ और टिप्पणी-बटोरू लेखन हो तो हालात एकदम पलट जाते हैं. (और हाँ, बर्ग-वार्ता पर आपकी टिप्पणी द्वारा एक बार फ़िर विश्वनाथ जी की याद दिलाने के लिए धन्यवाद)
ReplyDelete'सम्प्रेषण का एक नियम होता है कि आप कहें कम, सुनें अधिक। ब्लॉगिंग में समीर लाल यही करते हैं। लिखते संयमित हैं, पर टिप्पणी बहुत करते हैं। टिप्पणियां यह अफर्मेशन है कि पढ़ रहे हैं, सुन रहे हैं।'
ReplyDeleteयह तो आपके साथ भी लागू होता है :-)
प्रत्येक सिक्के के दो पहलू होते हैं। यह कह देना कि आपका पहलू एकदम सही है दूसरे का गलत - ठीक नहीं है। यह सारा जीवन अनुभव और सुलह पर आधारित है।
गणतंत्र दिवस पर आईए एक बेहतर लोकतंत्र की स्थापना में अपना योगदान दें...जय हो..
ReplyDeleteअनुभव से आई आपकी ये सलाह वाकई उपयोगी है... क्षणिक आवेश में आई कोई बात शायद हमें ही कुछ समय बाद अच्छी नहीं लगे.. थोड़ा थम ले तो बेहतर..
ReplyDeleteगणतंत्र दिवस की शुभकामनाऐं..
कुछ लोग बिलकुल सोच समझ कर कीचड़ में पत्थर फेंकते हैं, और तमाशा देखते हैं। कुछ बिना विचारे इस काम को करते हैं। कीचड़ का उन्मूलन दोनों से नही होता। दोनों ही अनुचित कृत्य हैं।
ReplyDeleteमैं धीमी ब्लागरी से सहमत नहीं, हाँ नियमित ब्लागरी से सहमति है।
यदि कोई ब्लागर नियमित, गंभीर और तेज ब्लागरी करने में सक्षम है तो अवश्य की जानी चाहिए, पर यह काम पूर्णकालिक प्रोफेशन के रुप में ही किया जा सकता है। जिस की संभावनाए हिन्दी ब्लागरी में अभी आय की संभावना नहीं होने से नहीं है। लेकिन इन संभावनाओं को हासिल किया जा सकता है।
गणतंत्र दिवस की आपको ढेर सारी शुभकामनाएं.
ReplyDeleteशायद इसीलिये हमारे डैशबोर्ड के ड्राफ़्ट में १५ लेख पडे हैं जो अब आऊट आफ़ काण्टेक्स्ट हो चुके हैं। जोश में लिखा फ़िर छापने में परहेज कर गये।
ReplyDeleteआदरणीय भाई ज्ञान्दत्त जी
ReplyDeleteआपको गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं.
इससे न सार्थक बहस हो सकती है और न ही एक भी व्यक्ति आपके विचारों की ओर विन-ओवर किया जा सकता है।
बिलकुल सही बात है. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ज़रूरी है, पर उसकी एक सीमा तो है. सच तो यह है कि इसकी सार्थकता भी इसकी सीमाओं के सम्मान में निहित है.
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ब्लाग विधा को लेकर अच्छा विमर्श है।
ReplyDeleteयदि संयम,विवेक और जिम्म्ेदारी की भावना न हो तो,लिखना हो या बोलना अन्तत: सबेक लिए घातक होता है।
लिख/बोल कर सोचने की अपेक्षा सोच कर लिखना/बोलना ही श्रेयस्कर है-फिर भले ही 'स्लो' हो या 'फास्ट'।
यदि आप प्रतिदिन नजर नहीं आते हैं तो लोग भूलने लगते हैं-'आउट आफ साइट, आउट आफ माइण्ड' को चरिर्ता करते हुए। सम्भवत: इसीलिए, अचेतन में व्याप्त चिन्ता के अधीन नियमितता के साथ ही साथ 'फास्टनेस' अपने आप चली आती होगी।
बहरहाल, मुद्दा प्रासंगिक और सामयिक होने के साथ ही साथ औचित्यपूर्ण भी अनुभव होता है।
आपने अच्छी बात उठाई।
कल मैं अपने एक मित्र से इसी स्लो ब्लोगिंग का ज़िक्र कर रहा था,सन्डे टाईम्स के इसी ओपन स्पेस स्तम्भ में आए एक प्रश्नोत्तर को पढ़ कर. अपने बिल्कुल सही कहा की पब्लिश बटन दबाने की ज़ल्दी नही करें.इसे मैं अपने लिए भी सीख मानकर ध्यान रखूँगा.मेरी ताज़ा पोस्ट में एसा ही हुआ जो मुझे बाद में पता चला.
ReplyDeleteजोधपुर में महेश शिक्षण संस्थान आज जोधपुर का प्रतिष्ठित संस्थान है जो उच्च और व्यावसायिक शिक्षण में भी आज यहाँ शीर्ष दर्जा रखता है.जोधपुर में अपने स्कूलिंग के दिनों को आप आज भी मोह से याद करते है ऐसा अनुभव कर अच्छा लगा.
आपने बहुत सु्दर सलाह दी है. काश सभी इसको थोडा बहुत भी माने तो यह स्वरुप काफ़ी कुछ बदल सकता है. पर समाज मे जिम्मेदार हैं तो तुनक मिजाजों की भी कमी नही है.
ReplyDeleteवैसे आप यह बिल्कुल सही कह रहे हैं कि अपने लिखे को बार बार पढा जाये तो कटुता मित्रता मे बदल जाती है. ऐसा ही एक वाकया मै्ने स्वेट मार्डन के बारे मे पढा था कि कैसे उन्होने जिस महिला को तल्ख पत्र लिखा था औए एडिट करते २
मूल तल्खी अलग रह गई और उसको निमंत्रित कर बैठे..अंतोतगत्वा शादी..:)
गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाऎं, और घणी रामराम.
केवल जय जय और वाह वाह करती पोस्ट लिखना ब्लॉगिंग की मूल भावना के विरूद्ध है.
ReplyDeleteमुझे सदा अफसोस रहेगा कि हाय-हल्ले में मैं पोस्ट के माध्यम से जो बात कहना चाहता था, वह संप्रेषित ही नहीं हुई.
यह बात बहूत बार लिखी गई है कि लिखने के बाद तुरंत प्रकाशित न करें. कुछ देर या एक दिन ठहर कर पूनः पढ़े व पोस्ट करें. मगर मैं भी ज्यातर समय ऐसा नहीं करता.
आपने सीधे सीधे लूहार का हथौड़ा मानी गई रघुरायजी की पोस्ट का जिक्र कर आपनी बात कही है. किसी को बूरा लग सकता है. :)
हॉस्टल में या किसी चाय के ढाबे पर अक्सर होता है कि बात की बात में बात कटने पर कुछ मित्र तमतमा जाते हैं. ब्लॉगर्स के बीच, बीच-बीच में मचने वाला बवाल भी कुछ ऐसा ही. कुछ समय नाराजगी फिर ताल ठोंक कर जुट जाते है ब्लॉगरी के बांके. जैसे स्लम डॉग पर आपके मित्र से कई जगह सहमत नहीं हूं. तमतमाने या तिलमिलाने के बजाय, ताली बजाने का मजा ही कुछ और है. स्लम डॉग पर मेरी राय....
ReplyDeleteस्लम, शिट, स्मेल...जय हो
आई एम प्राउड ऑफ स्लमडॉग मिलिनेयर, जय हो! आई एम प्राउड आफ इंडियन सिनेमा, जय हो! एक सच्चे भारतीय की तरह मुझे भी खुशी हो रही है कि भरतीय परिवेश पर बनी फिल्म स्लमडॉग मिलिनेयर ने गोलडेन ग्लोब अवार्ड जीत लिया. एक पेट्रियाटिक इंडियन की तरह इस खबर से और एक्साइटेड हूं कि ऑस्कर अवार्ड की दस कैटेगरीज के लिए इस फिल्म को नॉमिनेट किया गया है और इसमें तीन कैटेगरीज में एआर रहमान है. कैसा संयोग है कि रिपब्लिक डे मना रहे हैं और किसी भारतीय संगीतकार का डंका ऑस्कर अवाड्र्स के लिए बज रहा है. ये देख कर अच्छा महसूस हो रहा है मीडिया में २६/११ की खौफनाक खबरों के बाद नए साल में कुछ अच्छी खबरें आ रही हैं. इंडियन मीडिया में अब स्लमडॉग् मिलिनेयर की धूम मची हुई है. अखबार-टीवी पर इसकी जय हो रही है. होनी भी चाहिए. लेकिन एक बात थेाड़ी खटकती है. देश में अच्छी फित्म बनाने वालों की कमी नहीं है. रंग दे बसंती, चक दे इंडिया, तारे जमीं पर, गज़नी.. इधर बीच कई अच्छी फिल्में आईं. इनके रिलीज होने से पहले इन पर काफी चर्चा हुई, शोर हुआ हर कोई जान गया कि फलां फिल्म बड़ी जोरदार. इनमें से कुछ ने ऑस्कर में नॉमिनेशन के लिए दस्तक भी दी लेकिन सफलता नहीं मिली. लेकिन स्लमडॉग मिलिनेयर एक बहुत ही शानदार फिल्म है, इसका म्यूजिक लाजवाब है, इसका पता हमें बाहर से तब चलता है विदेशों में इसकी जय होती है. ठीक है फिल्म वल्र्ड के लोग और क्रिटिक इसके बारे में जानते होंगे लेकिन आम आदमी को इसके बारें में बहुत नहीं पता था. न इंडियन मीडिया में इसका कोई शोर था. लोगों का ध्यान तब गया जब इसने गोल्डेन ग्लोब अवार्ड जीता. मैंने स्लमडॉग मिलिनेयर देखी, एक फिल्म की तरह बहुत अच्छी लगी. कुछ लोगों अच्छा नहीं लगा कि भारत के स्लम, शिट, स्मेल को सिल्वर फ्वॉयल में लपेट कर वाह वाही लूटी जा रही है. फिल्म देखते समय मुझे कभी अमिताभ, कभी दीवार, कभी कभी जैकी श्राफ याद आ रहे थे और तो कभी मोहल्ले की बमपुलिस (सुलभ शौचालय का पुराना मॉडल...अमिताभ बच्चन ने यह नाम जरूर सुना होगा) के बाहर क्रिकेट खेलते बच्चे. मुझे तो फिल्म में गड़बड़ नहीं दिखी. बाकी तो लोकतंत्र है. यह आप पर है कि स्लम के स्मेलिंग शिट और गारबेज पर नाक दबा कर निकल जाएं या उसके कम्पोस्ट में कमल खिलाने का जतन करें.
बहुत सुंदर.... गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं...!
ReplyDeleteहम सब जानते है की क्या सही है क्या ग़लत ...पर उसे व्यवहार में नही उतारते ? विषय का अल्पज्ञान भी टिप्पणी की गुणवत्ता पर असर डालता है ओर लेखक के प्रति बना पूर्वाग्रह भी....ऐसे बहुत से उदारहण सामान्य जीवन में भी है ओर ब्लॉग जगत में भी ..हम सब इस बात को जानते भी है
ReplyDeleteजो कुछ भी सार्वजनिक हो, वह सुचिंतित हो, सार्थक हो। यह बेहद ज़रूरी है। चाहे वह विचार हो या आपका व्यक्तित्व। बाहर निकलने से पहले खुद को संवारने जैसी प्राथमिकता ही पब्लिश बटन दबाने से पहले भी होनी चाहिए। फड़फड़ाती, फुंफकारती,बौखलाती हुई पोस्टें अक्सर ब्लागों पर ज्यादा नज़र आने लगी हैं। लोग इनसे बचकर निकलना चाहते हैं क्योंकि विचारों के अतिरेक की वजह से तत्काल संदर्भ समझ में नहीं आता।
ReplyDeleteधीमी ब्लागिंग की सलाह ऐसे लोगों के लिए एकदम सही है। यूं भी हफ्ते में औसतन तीन से पांच पोस्ट लिखने वाले को नियमित ब्लागर कहा जा सकता है। रोज़ एक पोस्ट लिखनेवाले को बेहद अनुशासित और सतर्क रहना ज़रूरी है। अगर वह समसामयिक विषयों पर लिख रहा है तो और भी ज़रूरी क्योंकि तात्कालिक आवेग में ही अतिरेकी पोस्ट लिखी जाती हैं।
चिंतनशील सामग्री पेश करने के लिए शुक्रिया ज्ञानदा।
मैं आपकी राय से इत्तफाक रखता हूं। भद्दा, भोंण्डा, कड़वा, अनर्गल या प्रसंगहीन कहना तो सर्वथा अनुचित है और ऐसे कमेण्टस को हमेशा डिलीट किया जा सकता है। बदलती परिस्थितियों में ब्लागिंग का आयाम/क्षितिज आज बहुत विस्तॄत हो गया है। कुछ लोग हैं जो केवल रचनाएं कर रहे हैं, कुछ लोग हैं जो केवल टिप्पणियां कर रहे हैं । कुछ हैं जो लिखते कम हैं टिप्पणियां ज्यादा करते हैं। कुछ हैं जो अपने ब्लॉग पर बेनाम टिप्पणियां करके कमेण्टस की संख्या बढाते हैं। सम्प्रेषण का एक नियम जो आप बता रहे हैं कि कहें कम, सुनें अधिक नि:संदेह बहुत अच्छा है पर बहुत से लोग तो लगभग बिना पढे ही स्ंवय के एक ही कमेण्ट को “COPY, CUT & PASTE” से दुनिया भर में चिपका देते हैं और सर्वप्रिय बनने का प्रयास करते हैं इसे हम क्या कहेंगें?
ReplyDeleteब्लॉग विधा को लेकर आपके विचार अत्यन्त उपयोगी है ,पर क्या करेंगे सबकी डफली सबका राग अपना - अपना है .हम जानते हुए भी इन चीजों को व्यवहार में नही उतारते !.... गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं...!
ReplyDeleteबहुत सुंदर....बेहतरीन चिन्तन एवं मनन योग्य! कुछ लोगों के पास समय होता है , टिपण्णी कर सकते हैं और कुछ लोगों के पास नही होता , मेरा तो समय पोस्ट पढ़ने में ही बीत जाता टिपण्णी के लिए समय ही नही बचता , क्या करू ?
ReplyDeleteगणतन्त्र दिवस की शुभकामनाएँ।
ReplyDeleteमेरा अनुबव रहा है कि अपनी सबसे अधिक पसन्द (मुझे)आने वाली कविताएँ व लेख मैंने एकबार में ही बिना अधिक विचार किए लिखे हैं। परन्तु यदि विषय गम्भीर हो, बहस का हो तो झटपट प्रतिक्रिया करने पर एक बार बहुत पछताना पड़ा है। तबसे जहाँ तक हो सके प्रतिक्रिया यदि भावुक हो तो थोड़ा समय रुक जाती हूँ। जिन्हें अपनी गल्ती पर सालोंसाल पश्चात्ताप होता है उनके लिए यह आवश्यक है। मैं यदि किसी का दिल दुखाऊँ तो कभी भी भूल नहीं पाती। अतः मुझ जैसे को थोड़ा रुककर ही टिपियाना या प्रतिक्रिया में लिखना चाहिए। अन्यथा भाव जब बहते हैं तभी बेहतर लिखा जाता है।
घुघूती बासूती
बहुत अच्छा लेख..स्लो ब्लॉग्गिंग का सुझाव अच्छा है.
ReplyDeleteगणतंत्र दिवस की शुभकामनायें.
स्लो, कर लो कि तेज एक बात बहुत पहले समझ ली थी कि किसी को समझाने की कोशिश नहीं ना करनी चाहिए। किसी को कन्विन्स करने की कोशिश भी नहीं करनी चाहिए। समझदार को समझाने की जरुरत नहीं ना होती, और नासमझ को समझा भी लो, तो फर्क नहीं पड़ता।
ReplyDeleteसो समझाने में टाइम खोटी नहीं ना करना चाहिए। समझने में टाइम लगाना चाहिए।
अनुकर्णीय्भव्नओन को व्यक्त करते समय संयमित रहना अति आवश्यक है. अनावश्यक कटुता क्यों उत्पन्न करें. आभार.
ReplyDeleteसुन्दर ब्लॉग...सुन्दर रचना...बधाई !!
ReplyDelete-----------------------------------
60 वें गणतंत्र दिवस के पावन-पर्व पर आपको ढेरों शुभकामनायें !! ''शब्द-शिखर'' पर ''लोक चेतना में स्वाधीनता की लय" के माध्यम से इसे महसूस करें और अपनी राय दें !!!
सभी अच्छी पठनीय सामग्री झटपट नहीं लिखी जा सकती और स्लो ब्लॉगिंग- क्या एक दूसरे के पूरक बन सकते हैं?
ReplyDeleteशायद कुछ के ही बस की बात है।
Thanks Pandey Jee. Dr. Radhakrishnan once said "We must avoid pass-on Passion, and wisdom never go together."
ReplyDeleteअगर भावना वाक़ई तीव्र है, तो ब्लॉगर 'पब्लिश' पर क्लिक करने से पहले नहीं सोचेगा। और अगर क्लिक करने से पहले पुनर्विचार करता है, तो भावना तीव्र कभी थी ही नहीं।
ReplyDeleteऐसी पोस्टें और चर्चाएं पढ़-पढ़कर ही समझदार होता जा रहा हूँ। :)
ReplyDeleteआलोक पुराणिक और अजितवडनेरकरजी से सहमत हूं लेकिन उनकी बात मानता नहीं हूं जी। आदत है।
ReplyDelete“तुरत लेखन का नेगेशन है। … यह महत्व की बात है कि सभी अच्छी पठनीय सामग्री झटपट नहीं लिखी जा सकती”। यह सच होगा लेकिन दूसरा सच है कि हमने जित्ती भी सबसे पठनीय च पापुलर पोस्टें लिखीं सब हड़बड़ी में लिखीं। लिखी और पोस्ट कर दीं। दुबारा पाठक की तरह ही पढ़ा। बदलाव भी केवल वर्तनी का किया। बस्स।
गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ।
ReplyDeleteआपकी बात तो सही है. बिना विचारे पोस्ट नहीं करना चाहिए.
ReplyDelete"if you write something embarrassing on the Internet under your own name, it's your own fault if your missive lives forever on Google's (GOOG) search engine."
(इस पते से: http://www.alleyinsider.com/2009/1/google-street-view-captures-your-shame-goog)
Good advice for a blogger.
ReplyDeleteBut commenters like me may please be exempted!
The best comment is one that is spontaneous.
None of my comments (including this one) was planned, thought out and prepared, reviewed, reconsidered and then posted.
What you feel and express on the spur of the moment is a genuine comment. Well thought out comments do not have spice in them!
Regards
G Vishwanath
परिभाषिक तौर पर जब हम ब्लॉगिंग की बात करते हैं तो कहते हैं कि यह अभिव्यक्ति का वह स्वतंत्र माध्यम है जिसमे आप अपने दिल में उठते विचारों को मूल रुप में तुरंत, बिना किसी संपादकीय हस्तक्षेप के, जगत के कोने कोने में बैठे पाठकों तक मात्र एक चटके में पहुँचा सकते है एवं आपके विचारों पर पाठकों की प्रतिक्रिया से बिना रोकटोक रुबरु हो सकते हैं.
ReplyDeleteसमीर जी, कबीर का एक दोहा है जिसमें वे व्यक्ति को तोल के बोलने की सलाह देते हैं क्योंकि मुँह से निकला शब्द लौटाया नहीं जा सकता। यानि कि संयत रह बोलने की सलाह वे देते हैं। यहाँ उसी सलाह को ब्लॉगिंग के मामले में फिट कर देख सकते हैं। मेरे ख्याल से ज्ञान जी जिस आनन फानन बिन सोचे समझे ठेलने की बात कर रहे हैं उसको शूटिंग द माउथ ऑफ़ भी कहा जा सकता है जहाँ बिन विचार किए कुछ भी कहा जाता है। अभिव्यक्ति दोनों की रूप में हो रही है, जब सोच-समझ कर बोल/लिख रहे हैं तब भी और जब स्पॉनटेनियसली बोल/लिख रहे हैं तब भी। तो मैं समझता हूँ कि दोनों में से कोई भी ब्लॉगिंग की विधा के खिलाफ़ नहीं है, दोनों ही तरह से ब्लॉगिंग होती है और ब्लॉगिंग ही कहलाती है - फर्क सिर्फ़ मत का है कि सोच-विचार कर स्वयं अपने विचारों को संपादित कर व्यक्ति संयत विचार प्रकट कर सकता है और चाहे तो स्पॉनटेनियस रहकर भी विचार प्रकट कर सकता है जो संयत भी हो सकते हैं और नहीं भी। :)
बहुत सही कहा आपने...आपसे शब्दशः सहमत हूँ......
ReplyDeleteआपकी बात काफी हद तक अनुकरणीय हो सकती है ...... पर इंसटैंट पब्लिसिंग का जो मजा या कहे कि प्रथम दृष्टी में ईमानदारी भरी अभिव्यक्ति से भी हाथ धोना पड़ सकता है / जहाँ तक मैं समझता हूँ कई बार व्यक्ति अपनी प्रथम प्रतिक्रिया में दिल खोल देता है ...जबकि सोच विचार के उपरांत अपने आप को आवरण में छिपा लेता है /
ReplyDeleteजहाँ तक एक सफल ब्लॉगर होने के सन्दर्भ में आपकी बात का सन्दर्भ है .... वह अपनी जगह पूरी तरह से उचित हो सकता है और शायद उचित ही है ......लेकिन प्रथम प्रतिक्रिया की उर्जा से भी मेरा स्नेह अवश्य बना रहेगा !!!!!