यात्रा के दौरान मैने यत्र-तत्र-सर्वत्र जन सैलाब देखा। इलाहाबाद से बोकारो जाते और वापस आते लोग ही लोग। सवारी डिब्बे में भरे लोग। यह यात्रा का सीजन नहीं था। फिर भी ट्रेनों में लम्बी दूरी के और हॉपिंग सवारियों की अच्छी तादाद थी। पर अकाल की हॉरर स्टोरीज़ सच नहीं हुईं। और नब्बे के दशक के उत्तरार्ध में तो सुनाई पड़ने लगा कि भारत और चीन का प्लस प्वाइण्ट उनकी युवा जनसंख्या है। अब सुनने में आता है कि अमेरिका के अपनी जिन्दगी में सोच का यह यू-टर्न मुझे बहुत विस्मयकारी लगता है। बहुत कुछ ऐसा ही भारतीय रेलवे की भविष्य को झेल लेने की क्षमता को ले कर भी हुआ था। नब्बे के उत्तरार्ध तक हमें रेल का भविष्य अन्धकारमय लगता था। बहुत से उच्चाधिकारी यह बोलते पाये गये थे कि “पता नहीं हमें अपनी पेंशन भी मिल पायेगी”। लोग अपने प्रॉविडेण्ट फण्ड में अधिक पैसा रखने के पक्ष में भी नहीं थे – पता नहीं रेलवे डिफॉल्टर न हो जाये। पर इस दशक में ऐसा टर्न-एराउण्ड हुआ कि सभी नोटिस करने को बाध्य हो गये। वही नोटिस करना जनसंख्या के साथ भी हो रहा है। हमारे इन बीमारू प्रान्तों की जनसंख्या जिस समय जाति, वर्ग और शॉर्टकट्स की मनसिकता से उबर लेगी, जिस समय साम्य-समाज-नक्सल-सबसिडी वाद से यह उबर कर काम की महत्ता और उसके आर्थिक लाभ को जान लेगी, उस समय तो चमत्कार हो जायेगा बंधु! और अब मुझे लगता है कि यह मेरी जिन्दगी में ही हो जायेगा।
भीड़ मुझे उत्साहित नहीं करती। वह मुझे वह बोझ लगती है। मेरे बचपन के दिनों से उसे कम करने के प्रयास चलते रहे हैं। पहले “हम दो हमारे दो” की बात विज्ञापित होती रही। फिर “हमारा एक” की चर्चा रही। सत्तर के दशक में हमेशा आशंका व्यक्त होती रही कि भारत भयंकर अकाल और भुखमरी से ग्रस्त हो जायेगा। हम कितना भी यत्न क्यों न करें, यह जनसंख्या वृद्धि सब चौपट कर देगी। उसी समय से भीड़ के प्रति एक नकारात्मक नजरिया मन में पैठ कर गया है।
झारखण्ड में राज्य की सरकार का पॉजिटिव रोल कहीं नजर नहीं आया। साइकल पर अवैध खनन कर कोयला ले जाते लोग दिखे। तरह तरह के लोग बंद का एलान करते दिखे। इन सबसे अलग जनता निस्पृह भाव से अपनी दिन चर्या में रत दिखी। मुझे बताया गया कि किसी भी ऑंत्रीपेन्योर का काम का प्रारम्भ घूस और सरकारी अमले के तुष्टीकरण से होता है। बीबी बेबी बूमर्स युग के लोग वृद्ध हो रहे हैं। उसे मन्दी से उबारने के लिये जवान और कर्मठ लोगों का टोटा है। दम है तो भारत के पास। हमारे पास पढ़ी-लिखी और अंग्रेजी-तकनीकी जानकारी युक्त वर्क फोर्स है।
|| MERI MAANSIK HALCHAL ||
|| मेरी (ज्ञानदत्त पाण्डेय की) मानसिक हलचल ||
|| मन में बहुत कुछ चलता है ||
|| मन है तो मैं हूं ||
|| मेरे होने का दस्तावेजी प्रमाण बन रहा है यह ब्लॉग ||
Tuesday, January 20, 2009
जनसंख्या का सैलाब
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आपकी इस बात से मेरी सहमति है कि 'बीमारू' प्रान्तों की जनसंख्या जिस समय जाति, वर्ग, शॉर्टकट्स … साम्य-समाज-नक्सल-सबसिडी वाद से उबर कर काम की महत्ता … उसके आर्थिक लाभ को जान लेगी, उस समय तो चमत्कार हो जायेगा … और … यह मेरी जिन्दगी में ही हो जायेगा।
ReplyDeleteआपके मुँह में घी-शक्कर:-)
जिस ढंग से ये सारे यू टर्न आये हैं..निश्चित ही अब लगने लगा है कि चमत्कार हमारे रहते ही हो लेंगे. बहुत से तो देख भी लिए.
ReplyDeleteवाकई ७० के दशक में किसने सोचा था कि यह बढती जनसंख्या एक दिन बिगेस्ट एजुकेटेड वर्कफोर्स में तब्दील होकर भारत का नक्शा ही बदल देगी. राह दिख गई है, मंजिल दिख रही है बस, जागरुक प्रयासों की आवश्यक्ता है.
अच्छा चिन्तन.
जनसंख्या पर हमारे विचार वही हैं कि इसका अनियंत्रित होना अच्छा नहीं !
ReplyDeleteहमारे इन बीमारू प्रान्तों की जनसंख्या जिस समय जाति, वर्ग और शॉर्टकट्स की मनसिकता से उबर लेगी, जिस समय साम्य-समाज-नक्सल-सबसिडी वाद से यह उबर कर काम की महत्ता और उसके आर्थिक लाभ को जान लेगी, उस समय तो चमत्कार हो जायेगा बंधु! मजे की बात तो यही है कि सब चमत्कार की ही उम्मीद में हैं। काम-धाम तो ऐसे ही चल रहा है अपने आप!
ReplyDeleteज्यादा बच्चे , ज्यादा हाथ, ज्यादा काम,ज्यादा कमाई , यह स्पष्टीकरण है जनसंख्या बढाने के पक्षधरो के . और आपकी रेलवे को भी इसी मानसिकता के लोगो ने फायदा पहुचाया है . अब तो छोटा परिवार दुखी परिवार सा है .
ReplyDeleteप्रंशसनीय लेख
ReplyDelete---आपका हार्दिक स्वागत है
चाँद, बादल और शाम
समर्थ जन बल तो आवश्यक है, लेकिन जनसंख्या विस्फोट से सतर्क रहने की सदा आवश्यकता है पूरी दुनिया को.भारत के सन्दर्भ में तो यह और भी जरूरी है क्योंकि यहाँ हमारे नेता एक ओर तो परिवार नियोजन पर बल देते हैं दूसरी ओर दूसरे देशों से अवैध घुसपैठ पर चुप्पी साध लेते हैं.
ReplyDeleteज्ञान जी आपका आशावाद आधार हीन नही है ! हमारी तमाम विसंगतियों के बाद भी बहुत कुछ आशाजनक लगता है !
ReplyDeleteजाति, वर्ग और शॉर्टकट्स की मानसिकता को हमारे तथाकथित नेताओं ने ही बढ़ावा दिया है अपने स्वार्थ के लिये। इनका समाप्त होना ही उचित है। सबसे खतरनाक है शॉर्टकट्स की मानसिकता, यदि शॉर्टकट्स की मानसिकता समाप्त हो जाये तो संसार की किसी भी ताकत में सामर्थ्य नहीं कि भारत को सफलता के सर्वोच्च शिखर तक पहुँचने से रोक ले।
ReplyDeleteजनसंख्या वास्तव मे भारत के लिए एक समस्या हो गई है। यदि हमारे यहाँ जनसंख्या वृद्धि की समस्या न हो तो हम दुनिया में अगले दस बरस में सब से अमीर हों।
ReplyDeleteआप की यह कामना बहुत अच्छी है कि हमारी उत्पादक जनता को यह समझ आ जाए कि अनियंत्रित उत्पादकता मंदी पैदा कर ती है और माल की कीमत को शून्य भी कर देती है। अधिक उत्पादित गन्ना जलाना पड़ता है और लहसुन बस्तियों में सड़ांध पैदा करता है कि रहना दूभर हो जाता है।
लेकिन 1980 के बाद से जनसंख्या नियंत्रण पर बोलना अपराध जैसा महसूस किया जा रहा है। अब उस मानसिकता से उबरना जरूरी है। उधर कुछ लोग इसे राजनीति का विषय बना कर मुस्लिम जनसंख्या में वृद्धि के साथ जोड़ देते हैं। मुझे तो लगता है कि जनसंख्या नियंत्रण के विरुद्ध बात करना भारत में एक अपराध घोषित होना चाहिए। इस विषय पर खुल कर विचार व्यक्त करने चाहिए। ब्लागर समुदाय में इस विषय पर पहली बार गंभीर बात देख रहा हूँ।
ब्लागरों को चाहिए कि इस विषय पर आलेख लिखें और खूब लिखें। इस विषय को केन्द्रीय विषय बनाना जरूरी हो गया है। आखिर केवल सद्आकांक्षाओं के भरोसे तो नहीं बैठा रह सकता मनुष्य समुदाय। उसे अक्ल मिली है तो सायास प्रयास भी करने होंगे।
आप को इस विषय पर लिखने के लिए वास्तविक साधुवाद!
मेरे ख्याल से सफर के दौरान दक्षिण भारत की तुलना में उत्तर भारत में भीड अधिक दिखाई पडती है......जनसंख्या को लेकर आपकी चिंता सही है.....पर आप बोकारो आकर वापस चले भी गए....और हमें कोई खबर भी नहीं ।
ReplyDeleteबुरी बातों का भी एकाध उज्ज्वल पक्ष होता है। जनसंख्या का मामला भी कुछ ऐसा ही है। मेरे गाँव के भूमिहीन मजदूर अधिक बच्चों की चाह इसलिए रखते हैं कि घर में श्रमशक्ति बढ़ेगी।
ReplyDeleteअपने देश में भ्रष्टाचार के बाद सबसे बड़ी समस्या पर नया आशावादी नजरिया पेश करने का धन्यवाद।
कुछ यही बात मैंने आपकी पिछली पोस्ट में टिपण्णी करके कही थी... जिस बढती जनसँख्या को हम सब opportunity मान रहे हैं वह हमारी वसुंधरा पर कितनी भारी पड़ रही है यह सोचना बंद कर दिया है हमने.
ReplyDeleteआपके लेख अपने चरम पर है.. निरंतर इनसे कुछ ना कुछ ग्रहण कर ही रहा हूँ.. और महसूस कर रहा हू की आपने ब्लॉग का नाम मानसिक हलचल क्यो रखा..
ReplyDeleteआज के युवा कल वृद्ध होंगे और तब उनका बोझ ढ़ोने वाले युवा कम. तब भारत क्या करेगा. आबादी बढ़ना प्रकृति के लिए भी घातक है.
ReplyDelete"बीमारू' प्रान्तों की जनसंख्या जिस समय जाति, वर्ग, शॉर्टकट्स … साम्य-समाज-नक्सल-सबसिडी वाद से उबर कर काम की महत्ता … उसके आर्थिक लाभ को जान लेगी, उस समय तो चमत्कार हो जायेगा …"
फिलहाल तो ये कर्मठ लोगो को गालियाँ देने में और आबादी बढ़ाने में व्यस्त है.
bahut accha likh ahai sir....aapki ek ek baat se sehmat.....
ReplyDeletelakin ab bhi yaksh prashn hai..jab population hadd se jayada ho jaayega tab kya hoga?
abhi youth brigade ke saahre ham dam bhar sakte hain...lakin ye youth brigade ek na ek din old to hoga hi..
population control bahut jaruri hai...
दिल के खुश रखने को गालिब ये ख़याल अच्छा है
ReplyDeleteअगर जनसंख्या में इतनी बड़ी बढोत्तरी नही हुई होती तो शायद और बेहतर परिणाम होते.
खैर अब समस्या बहुत बड़ी यह भी है कि इस जनसंख्या को स्किल्ड बनाया जाय जिससे अवसरों का सही फायदा मिल सके
@ Kuhasa - यह अवश्य नोट करने योग्य बात है कि विनाश की भविष्यवाणी करने वालों के बावजूद अधिक जनसंख्या न केवल चल गयी, बिना भुखमरी के, वरन देश की हालत पहले से खराब नहीं है।
ReplyDeleteकितनी जनसंख्या यह धरती संभाल सकती है, उसका सही आकलन अभी नहीं हो पाया है।
हम भी इसी इंतज़ार में हैं की कब अमरीका और ऑस्ट्रेलिया में हम लोगों की आबादी उनसे अधिक होती है. आभार.
ReplyDeleteभाई हमारी तो समझ मै कुछ नही आता, यह आबादी, यह जनसख्यां. यह भीड....शायद हो जाये कोई चमत्कार...
ReplyDeleteधन्यवाद
देश में दो धाराएँ बह रही है...... जहाँ मध्यम और उच्च शिक्षित तथा आय वर्ग जनसँख्या नियंत्रण के प्रति जागरूक है,वहां निम्न आय वर्ग तथा मुस्लिम समुदाय की अनियंत्रित जनसँख्या वृद्धि चिंता का विषय है.
ReplyDeleteपढी लिखी समर्थ भीड़ अवश्य ही देश की उन्नति का सहभागी है ,परन्तु निरक्षर अयोग्य भीड़ देश की अधोगति का ही कारक होता है.
बात तो वही है जी कि लोगों को स्वयं उन्होंने ही रोक रखा है, जिस दिन यह सब बाँध वे तोड़ डालेंगे तो उस दिन जगरनॉट बन जाएँगे! :)
ReplyDeleteऑंत्रीपेन्योर का काम का प्रारम्भ घूस और सरकारी अमले के तुष्टीकरण से होता है। jharkhand kya kisi bhii rajya men unstable sarkar yahi paristhitiyaan upjaati hain ..vaisey aap steel township ki photo post kartey ..to kitna accha lagta humey bhi:)
ReplyDeleteसमाज का एक अंग जन संख्या वृद्धि पे तुला है और ओवर पापुलेसन को रोकने कुछ समाज सेवी वर्ग और सरकारे प्रयास कर रही है . ओवर पापुलेसन की समस्या से निजात पाना मुझे अभी सम्भव नही लगता है . जनता को इस मामले में स्वयम जागरुक होना पड़ेगा .
ReplyDeleteजनसंख्या के मुताबिक साधनों को जुटाना .शायद बिना सामूहिक प्रयास के सम्भव नही है...वैसे भी इस देश में धन का बँटवारा असंतुलित रूप में है....पर एक बात ओर है की जनसँख्या प्रबंधन में सरकार को कदा रुख अपनानाना चाहिए .बिना किसी धर्म -जाति की परवाह किए बगैर
ReplyDeleteचिंता ना करें, आपके सामने ही हो जायेगा। उम्मीद पे दुनिया कायम है. इस जनसंख्या पे कई कंपनियां कायम हैं। भारत में मोबाइलधारी पापुलेशन ही करीब पैंतीस करोड़ हैं. यानी करीब सत्रह आस्ट्रेलिया तो यहां मोबाइल पापुलेशन के ही हैं। यह उपलब्धि जनसंख्या के बूते ही हो पायी है। बीमारु भी सुधरेगा, नहीं तो पिटेगा। अब तो सुधरो या पिटो,के अलावा रास्ता नहीं है जी।
ReplyDeleteभगवान योगेश्वर ने जब महाभारत संग्राम के मृतकों की संख्या बतलाई तो वह आज की विश्व जनसंख्या से भी अधिक थी। अर्थात उस समय की वह जंग लाज़मी थी। प्रकृति अपना संतुलन बना लेगी। आपने एकदम बजा फ़रमाया सर।
ReplyDelete'आप के लेख में 'बीबी बूमेर्स 'के स्थान पर बेबी बूमेर्स होना चाहिये. .:)शायद टंकण त्रुटी है.
ReplyDeleteइस बार एक और गंभीर समस्या से रूबरू कराया जो किसी के लिए भी नयी नहीं लेकिन बीच बीच में इस और ध्यान दिलाते रहना जरुरी है.हल तलाशने तो हैं मगर आर्थिक रूप से निम्न वर्ग में जागरूकता की अधिक आवश्यकता है .क्योंकि वहां जितने ज्यादा बच्चे /घर के सदस्य होंगे उतने कमाने वाले माने जाते हैं.उन्हें इस बारे में समझाना होगा.क्योंकि पढ़ा लिखा वर्ग अब ख़ुद ही समझदार है क्यूंकि आज के मंगाई के समय में परिवार का बहुत अच्छे से लालन पोषण ,बच्चों की हर मांग को पूरा करना आदि कितना कठीन है वह जानता है..
पाण्डे जी, नमस्कार
ReplyDeleteभीड तो रेल मे हर जगह पर ही मिलती है. मुझे लगता है कि रेलवे के पास इसका कोई हल भी नही है.
हमारे इन बीमारू प्रान्तों की जनसंख्या जिस समय जाति, वर्ग और शॉर्टकट्स की मनसिकता से उबर लेगी, जिस समय साम्य-समाज-नक्सल-सबसिडी वाद से यह उबर कर काम की महत्ता और उसके आर्थिक लाभ को जान लेगी, उस समय तो चमत्कार हो जायेगा बंधु! और अब मुझे लगता है कि यह मेरी जिन्दगी में ही हो जायेगा।
ReplyDeleteबिल्कुल होगा जी. हमने जनसंख्या वाले अनुमानों को भी झुठला दिया है और मैं तो आशावादी हूं कि वाकई ये चमत्कार होकर रहेगा.
रामराम.
चमत्कार ही हो सकता है... वरना बहुत बड़ी समस्या ही लगती है मुझे तो.
ReplyDeleteआमीन !
ReplyDelete- लावण्या
भईया बहुत सार गर्भित लेख लिखे हैं आप...क्या टिपण्णी करें?
ReplyDeleteनीरज
काम की महत्ता और उसके आर्थिक लाभ को नकारा नहीं जा सकता, मगर क्या परिवर्तन ला सकनेवाला मध्यम वर्ग बिना किसी राजनैतिक सामाजिक चिंतन के,चलना प्रारंभ करे तब अराजक स्िथति पैदा नहीं हो जायगी? मैं किसी वाद का समर्थन यहॉं नहीं कर रहा, पर क्या वादरहित समाज की कल्पना संभव है?
ReplyDeleteजनसंख्या पर आपके विचार से सहमत हूं।
आपकी मनोकामना में मैं अपनी मनोकामना देखता हूं।
ReplyDeleteआमीन।
सम्मा आमीन।
आशा ही जीवन है, आपकी आशाएं फलीभूत हों, यही हर देशवासी की कामना है।
ReplyDeleteवास्तविक समस्या सिस्टम की नहीं है, अपितु लोक की बीमार मानसिकता है. जनता ख़ुद ही विकसित नहीं होना चाहती. पुरबिया गाँवों में आज भी ज्यादा बच्चे-ज्यादा वर्क-फोर्स का सिद्धांत चलता है. जितने खेत उससे ज्यादा हाथ उसे जोतने के लिए... कलाम साहब कहते हैं यह जनसँख्या समस्या नहीं अपितु जन्संसाधन(रिसोर्स) है.. कैसे? अभी वर्तमान दशा-दिशा को देखकर कोई सुनहरा दृश्य तो नहीं उभरता....!
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