कुछ ब्लॉगर, जिनसे ओरीजिनल* नया अपेक्षित है, थोक कट-पेस्टीय ठेलते पाये गये हैं। ऐसा नहीं कि वह पढ़ना खराब लगा है। बहुधा वे जो प्रस्तुत करते हैं वह पहले नहीं पढ़ा होता और वह स्तरीय भी होता है। पर वह उनके ब्लॉग पर पढ़ना खराब लगता है।
सतत लिख पाना कठिन कार्य है। और अपने ब्लॉग पर कुछ नया पब्लिश देखने का लालच भी बहुत होता है। पर यह शॉर्टकट फायदेमन्द नहीं होता। आप अपने खेत में उगाने की बजाय मार्केट से ले कर या किसी और के खेत से उखाड़ कर प्रस्तुत करने लगें तो देर तक चलेगा नहीं। भले ही आप साभार में उस सोर्स को उद्धृत करते हों; पर अगर आप लॉक-स्टॉक-बैरल कट-पेस्टिया ठेलते हैं, तो बहुत समय तक ठेल नहीं पायेंगे।
लोग मौलिक लिखें। अपने ब्लॉग पर यातायात बढ़ाने के लिये अपने ब्लॉग से कुछ ज्यादा पढ़े जाने वाले ब्लॉगों पर अच्छी टिप्पणियां करें। उनपर गेस्ट पोस्ट लिखने का यत्न करें। अपना नेटवर्क बढ़ायें। यह तो करना होगा ही। किसी अन्य क्षेत्र में वे सेलिब्रिटी हैं तो दूसरी बात है; अन्यथा ब्लॉगरी का कोई शॉर्टकट है – ऐसा नहीं लगता। कोई ओवरनाइट अनूप शुक्ल बन कर दिखाये!
* - वैसे ओरीजिनल लेखन अपने आप में कोई खास मायने नहीं रखता। आप सोचते हैं - उसमें आपका पठन-पाठन और आपके सामाजिक इण्टरेक्शन आदि के रूप में बहुत कुछ औरों का योगदान होता है। पर उसमें आपकी सोच और शैली मिलकर एक फ्लेवर देती है। कट-पेस्टीय लेखन में वह फ्लेवर गायब हो जाता है। आपकी विभिन्न पोस्टों में वह जायका गायब होने पर आपके ब्लॉग की अलग पहचान (यू.एस.पी.) नहीं बन पाती। कई लोग इस फ्लेवर/जायके को महत्व नहीं देते। पर इसे महत्व दिये बिना पार भी नहीं पाया जा सकता पाठकीय बैरियर को!
विषयान्तर: अनूप शुक्ल की यू.एस.पी. (Unique Selling Proposition) है: हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै? और यह अब यू.एस.पी. लगता ही नहीं। असल में हम बहुत से लोग जबरी लिखने वाले हो गये हैं। मसलन हमारी यू.एस.पी. हो सकती है: के रोके हमार जबरी ठेलन!
नोवाऊ (Nouveau – टटके) लोगों की च** टोली है यह ब्लॉगरी और स्थापित साहित्य-स्तम्भ वाले लोग केवल हाथ ही मल सकते हैं ब्लॉगरों के जबरियत्व पर! अन्यथा उन्हें आना, रहना और जीतना होगा यह स्पेस, इस स्पेस की शर्तों पर।
ब्लॉगरी का कोई शॉर्टकट है – ऐसा नहीं लगता। कोई ओवरनाइट अनूप शुक्ल बन कर दिखाये!
ReplyDelete-बिल्कुल सही कहा. हम तो यह चैलेन्ज नहीं स्वीकार सकते. हमारे बस का नहीं.
आपकी इस प्रविष्टि से बहुत बल मिला. मैं तो जल्दी ही विचलन का शिकार होने वाला था. इस पोस्ट से सहारा मिलेगा. मौलिक लिखना ब्लोग और ब्लोगर दोनों की बेहतरी है.
ReplyDeleteअनूप जी वाली बात सही है।
ReplyDeleteऔरिजिनल होना आसान नहीं है।
मुझे भी थोक कट-पेस्ट पसन्द नहीं।
ReplyDeleteज़रूरत पढ़ने पर लिंक (कडी) दी जा सकती है।
अनूप भाई की शैली तो
ReplyDeleteहम सदा से कहते आये हैँ
"पेटन्ट " करवा लेँ -
आप किन पोस्टोँ के बारे मेँ
"कट -पेस्टीय" कह रहे हैँ
वो नहीँ समझी -
-लावण्या
आपका का कहना एकदम सही है.
ReplyDeleteआपका कहना बिल्कुल सही है....हां , ज़रूरत पढ़ने पर लिंक अवश्य दी जानी चाहिए।
ReplyDeletesir aaj to ekdam sahi aur satik bat likh dali hai.
ReplyDeletegood morning and good day
अजी ओवरनआइट तो छोड़ो, कई नाइटों में भी कोई अनूप शुक्लजी बनकर दिखाये। वैसे ये नाइट का मामला आप अनूपजी से क्यों जोड़ रहे हैं। कानपुर में नाइट गतिविधियां भौत डेंजरस हैं, उठाईगिरी से लेकर मर्डर तक कुछ भी हो सकता है। अनूपजी भले आदमी हैं, उनको कानपुर की नाइट गतिविधियों में आप ना घसीटें।
ReplyDeleteअटको मत। चलते चलो।।
ReplyDeleteअटको मत। चलते चलो।। के नाम से जो आपने चित्र लगा रखा है, दरअसल वह सारी बात कह देता है।
कुछ लोग मौलिक पोस्ट का भ्रम पाले रखते हैं पर मौलिकता के नाम पर क्या होता है ................
केसर
hindi.peoplesnewsnetwork.org
तैयार माल अपनी दुकान पर सजाना और फिर टिप्पणी की आशा करना.....भूल जाओ भाई. कुछ ऑरिजनल लाओ...अपनी तो यही प्रतिक्रिया होती है. अब शुक्ल बनना भी बस की बात नहीं, मगर अपना लेखन तो जारी रखना ही चाहिए.
ReplyDeleteये नहीं की पोराणिक और मिश्रजी की तरह दुसरों की डायरियाँ छापते फिरें :) :) :)
मौलिकता का अपना सरूर है। अब तो कई ब्लागर्स की भाषा -शैली से जाना जा सकता है कि लेखक कौन है।
ReplyDeleteब्लॉगरी का कोई शॉर्टकट है – ऐसा नहीं लगता। कोई ओवरनाइट अनूप शुक्ल बन कर दिखाये!
ReplyDelete" बहुत बडा चैलेन्ज है ये तो , उनकी पोस्ट में मोलिकता देखते ही बनती है , आप की बात से हम भी सहमत हैं की कॉपी पेस्ट करके लिखने का कोई न तो फायदा है ना ही आत्म संतुष्टि ....सभी का प्रोत्साहन करने के लिए आभार"
regards
आप के आज के लेख में गंभीरता है..
ReplyDeleteबहुत सही बात कही है...लिखना ऐसा होना चाहिये की पढने वाले यह पूछें...आप की अगली पोस्ट कब आएगी ??
जब एक लेखनी उस व्यक्ति के नाम का परिचय बनने लगे तो समझिये..लिखना सफल हो गया.
Bilkul sahi kaha sir aapne.....
ReplyDeleteआप सही कह रहे हैं शुद्ध काट-पीट (कट-पेस्ट) वाले लेखन मे मेरी समझ से लेखन वाली संतुष्टि नही मिल सकती. हां अगर कहीं उदाहरण के बतौर प्रयोग किया जाये तो उससे आपकी पोस्ट और रोचक बनेगी.
ReplyDeleteयों तो इस जगत मे मौलिक कुछ भी न्है, सब कुछ किसी ना किसी से प्रभावित है. रामायण बाल्मिकि जी ने लिखी, तुलसी दास जी ने भी उनका अनुकरण किया, पर क्या लाजवाब रचना बन गई.
मेरे हिसाब से प्रस्तुतिकरण अपनी खुद की अटशंटात्मक शैली मे ही हो तो लाजवाब बन पडेगा. कोई जरुरी नही कि वो उच्च कोटि का ही हो, फ़िर भी नूतन लेखन तो कहलायेगा. और जो संतुष्टि का स्तर होगा, उसकी कोई सीमा नही होगी.
अब जहां तक फ़ुरसतिया जी का सवाल है तो मैं एक बात कहना चाहूंगा कि मुझे अई बहुत कम समय हुआ है इस दुनियां मे आये हुये, ज्यादा लोगो से परिचित भी नही हूं. अगर कभी मुझे किसी दिन घंटे दो घंटे का समय मिल जाता है तो मैं उनके ब्लाग पर उनकी पुरानी रचनाए पढने मे बिताना पसंद करता हूं.
फ़ुरसतिया शैली का विशुद्ध लेखन जो अनूपजी शुक्ल का है वो मेरी नजर मे अभी तक मेरे द्वारा पढा गया सर्वश्रेष्ठ है. दूर दूर तक उनके आसपास भी कोई नही दिखता. शायद कोई दुसरा अनूप शुक्ल जल्दी से पैदा नही होगा. जिस सहजता और तेजी से बात वो कह जाते हैं उसकी कल्पना भी मुश्किल है. काश उनके जैसा लिखने की एक प्रतिशत क्षमता भी मुझमे होती.
ब्लागिंग की वजह से इनको पढने का मौका मिला, यह मेरा सौभाग्य है.
रामराम.
"कुछ ब्लॉग पर......"
ReplyDeleteमैं समझ नहीं सका किसकी बात हो रही है, पर इन जनरल आपकी बात से सौ फ़ीसदी सहमति है कि मौलिक लेखन ही पाठक को ब्लॉग से बांधता है.
बाकि अनूप जी के बारे में ताऊ एकदम सही कह रहे हैं. उनकी स्टाइल लाजवाब है, कोई आस-पास भी नहीं फ़टकता.
"कोई ओवरनाइट अनूप शुक्ल बन कर दिखाये!"
ReplyDeleteअजी मैं तो कहता हूँ कोई रातोंरात ज्ञानदत्त ही बनकर दिखा दे . अनूप शुक्ल तो बहुत बडा टारगेट दे दिया आपने :)
वैसे हमारी सरकार जब बनेगी तो टिप्पणियाँ भी केवल ऑरिजिनल ही ठेली जाएंगी . किसी ने जरा भी कॉपी पेस्ट की कोशिश की बस लगा दो बैन .
बल्कि मैं तो कहता हूँ कि कॉपी पेस्ट का ऑप्शन ही नहीं होना चाहिए ब्लॉगिंग में :)
मौलिकता तो लेखक की सबसे बड़ी पहचान है। हम सभी को मौलिक लिखने का ही प्रयास करना चाहिये।
ReplyDeleteब्लॉगर संसार में खरी-खरी कहने के लिए आप हमेशा याद किए जाएंगे। आप से प्रेरणा मिलती है। धन्यवाद
ReplyDeleteसंतुलित शब्दों में सटीक बात ब्लॅगरस को प्रेरणा लेनी चाहिए।
ReplyDeleteरातों रात क्या वर्षों में भी बनना सम्भव नहीं, सुकुलजी का ब्लॉग लेखन सहज और क्लास अपार्ट हैं.
ReplyDeleteअब जैसे प्रेमचंद जैसा बनने की कितनों ने कोशिश की. पर सम्भव है?
Sou feesadi sahi baat kahi aapne.umeed hai log ispar dhyaan denge!
ReplyDeleteमतलब ये कि कट-पेस्ट लेखन ज्यादा दिन तक नहीं चल सकता?
ReplyDeleteअब मेरा क्या होगा?
वैसे बात तो आप बिल्कुल सही कह रहे है ।
ReplyDeleteकिस की तरफ़ इशारा है ? :)
शिव कुमार मिश्र> मतलब ये कि कट-पेस्ट लेखन ज्यादा दिन तक नहीं चल सकता?
ReplyDeleteअब मेरा क्या होगा?
-----------
मैने ऊपर कट-पेस्ट लेखन की बात की है। डायरी-पार लेखन की नहीं। उसे सहर्ष जारी रखा जाये! :)
अरे बाप रे आप तो डरा रहे है, अब कहा कहा से ढुढ कर लाये नये नये आईडेये..... लगता है अब हमे अपना बोरी बिस्तर गोल करना ही पडेगा.
ReplyDeleteधन्यवाद
आप तो डरा रहे है जी..
ReplyDeleteलगता है डा. अमर कुमार जी से शिकायत करनी पड़ेगी..
मै मान कर चलता हूँ (कुछ ब्लॉगर, जिनसे ओरीजिनल* नया अपेक्षित है कुछ ब्लॉगर, जिनसे ओरीजिनल* नया अपेक्षित है) की इसी बहाने मै अपना अनुभव है ( ज्यादा बेहतर "विचार" कहना होगा ) कि लेखन हमेशा से अपनी मूल प्रवत्ति पर स्थिर नहीं रह सकता है कहने का आशय यह कि आप एक निश्चित लाइन में हमेशा लिखते रहे यह हमेशा हर आम के लिए क्या ख़ास के लिए सम्भव नहीं !!!!
ReplyDeleteफ़िर अधिकतर व्यक्तियों के लिए यह क्रमिक प्रगति और अन्य क्षमताओं का केवल अगला क्रमशः विकास ही माना जाना चाहिए
!!
वैसे उनसे आपकी अपेक्षा उम्दा स्तरीय मौलिक लेखन की ??? यह तो उनके लिए आपका स्नेह ही माना जाना चाहिए !!
सतत लिख पाना कठिन कार्य है। और अपने ब्लॉग पर कुछ नया पब्लिश देखने का लालच भी बहुत होता है। पर यह शॉर्टकट फायदेमन्द नहीं होता। आप अपने खेत में उगाने की बजाय मार्केट से ले कर या किसी और के खेत से उखाड़ कर प्रस्तुत करने लगें तो देर तक चलेगा नहीं। भले ही आप साभार में उस सोर्स को उद्धृत करते हों; पर अगर आप लॉक-स्टॉक-बैरल कट-पेस्टिया ठेलते हैं, तो बहुत समय तक ठेल नहीं पायेंगे।
यह तो बिल्कुल सच्ची बात है जी!! पर अधिकतर लोगों को यह बात काफी ब्लॉग्गिंग परिपक्वता के बाद में ही समझ में आ सकती है !! पर यह उस मौलिकता के बराबर कभी भी नहीं हो सकती जिसकी बात अनूप जी करते है!!
आगे टिपण्णी लम्बी हो तो उसके पहले घोषित रूप से ताऊ के टिप्पणी के एक -एक शब्द से मै पूरी तरह से सहमत हूँ!
ये नहीं की पोराणिक और मिश्रजी की तरह दुसरों की डायरियाँ छापते फिरें :)
ReplyDeleteहाँ जी, हम संजय भाई की बात से सहमत हैं, दूसरों की डॉयरी बिना अनुमति छापना एक तो वैसे ही गलत बात है, दूसरे चाहे अनुमति लेकर छापे या बिना अनुमति के, वह ओरिजिनल माल तो नहीं ही हुआ! :D
गुरुदेव, ये कट-पेस्ट से ब्लॉग-पोस्ट कैसे तैयार होती है? मैं समझ नहीं पाया। यह एक उदाहरण से समझाते तो अनजाने ही डोपिंग में धरे जाने का खतरा नहीं रहता।
ReplyDeleteलिखते समय जो शब्द या विचार मन में आते हैं, उनका कु्छ अंश (या अधिकांश ही) तो मस्तिष्क में इनपुट के रूप में बाहर से ही आया रहता है। रचनात्मक प्रतिभा अधिक न हो तो भी दिमाग इस कट-पेस्ट के व्यापार में लग जाता है।
ओरिजिनलिटी और नकलनवीसी का फ़र्क करना सबके वश की बात नहीं। अकलमन्द नकलची ओरिजिनल का बाप बन जाता है। लेकिन दूसरी ओर मौलिक प्रतिभा का धनी भी यदि लापरवाह हुआ तो दूसरों का खजाना भरता है।
बड़ा आसान है जी......बस एक लाल स्वेटर खरीदना पड़ेगा !
ReplyDeleteघोस्ट बस्टर के साथ हूँ !
ReplyDeleteकट और पेस्ट ये दो चीजें एसी है जिनका इस्तेमाल कंप्यूटर पर ज्यादा होता है । लेकिन हिन्दी ब्लोगो मे भी होता है यह कोइ नयी बात नही है । एक समय था जब हिन्दी का कोइ शब्द गुगल पर सर्च किया जाता था तो दो ही लिन्क ज्यादा मिलते थे एक धडा धड महाराज का और दूसरा आपके इस ब्लोग का लेकिन अब आने वाला समय हिन्दी ब्लोगो के विस्तृत होने का है इसलिये यह कट पेस्ट तो चलने ही वाली है । जब सीमा मे रहेगी तो पता नही चलेगा लेकिन सीमा से बाहर होने लगेगी तो पता ल ही जायेगा ।
ReplyDeleteज्ञान जी, आपने इस लेख में एक महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया है. जो लोग चाहते हैं कि गमले जमाकर "बगिया" बनाई जाये उनको यह समझ लेना चाहिये कि वहां का बचा खाना खाने के लिये सिर्फ काकराज और परिवार ही पधारेंगे.
ReplyDeleteसस्नेह -- शास्त्री
==================================
पुनश्चर: टांग खिचाई तो रह गई. ये लीजिये हाजिर है.
"शिव कुमार मिश्र> मतलब ये कि कट-पेस्ट लेखन ज्यादा दिन तक नहीं चल सकता?
अब मेरा क्या होगा?
-----------
मैने ऊपर कट-पेस्ट लेखन की बात की है। डायरी-पार लेखन की नहीं। उसे सहर्ष जारी रखा जाये! :)"
ओहो! अब समझ में आया कि शिव भईया गजब के आलेख कहां से "खींचते" है.
सबेरे-सबेरे पोस्ट पढ़ी। दिन भर इसका मतलब समझने का प्रयास करते रहे। मतलब से मुलाकात शाम को हुई।
ReplyDeleteसब मिलकर हमें मामू बनाने में लगे हैं। यह तो अच्छा हुआ हम शाम तक सोच लिये वर्ना गये थे काम से।
ऐसा हमेशा से होता आया है। करोड़ों का स्टैम्प घोटाला होता है, पकड़ा बेचारा तेलगी जाता है। सरकार, सिस्टम, बैंक ,एकाउंटेंट के गठबंधन से सत्यम घोटाला होता है पकड़ा अकेला राजू जाता है। ज्ञानजी को कट-पेस्ट करने वालों को हड़काना था सो कन्धा हमारा इस्तेमाल कर लिया।
सरकारी दफ़्तरों में यह आम बात है। हमारे बास हमको रोज किसी न किसी बहाने हड़काते थे कि ऐसे काम करना चाहिये, वैसे काम करना चाहिये। एक दिन किसी और को हड़काने का मन किया तो उसको हड़काते हुये बोले- आओ देखो शुक्ला साहब दफ़्तर में बैठे होंगे उनसे पूछ के आओ। तुम्हारे जैसे वो शाम होते ही घर भागने के लिये बेताब नहीं होते। उनके एक तीर से पटापट कई शिकार हो गये।
देखा जाये तो ज्ञानजी ने हमारे बारे में लिखते हुये यह कहीं नहीं कहा कि अनूप शुक्ल मौलिक लेखन करते हैं या फ़िर बहुत अच्छा लिखते हैं। उन्होंने सिर्फ़ यही कहा - कोई ओवरनाइट अनूप शुक्ल बन कर दिखाये! इसका मतलब यह भी या कहें यह ही हो सकता है कि कोई अनूप शुक्ल जैसा चौपट लेखन करके दिखाये। आदमी सोने में ही इत्ता मशगूल रहता है कि स्तर चौपट करने की सोच ही नहीं सकता।
साथियों ने अपने हिसाब से ज्ञानजी के लिखे का मतलब निकाला और प्रतिक्रियायें दीं। हम उनके प्रति आभार व्यक्त करते हैं।
सच तो यह है कि हमें अपने लिखे में ऐसा कुछ नहीं लगता कि यह भ्रम पालें कि हमारे जैसा कोई नहीं। इस बारे में काफ़ी पहले आलोक पुराणिक कह चुके हैं लेखन का हिसाब-किताब और स्तर तो सालों बाद तय होता है। अभी तो लिखते रहना चाहिये।
स्थापित साहित्य वाले नियमित ब्लागिंग में बहुत नखरे के साथ आयेंगे। सच तो यह है कि वे लेखन में अपने रिसाइकिल्ड मैटेरियल को पेश करते हैं। जो पहले छप चुका उसे अपने प्रचार और ताकि सनद रहे के रूप में पोस्ट करते हैं। लेकिन यह सच है कि रोज हिंदी में दस-पन्द्रह ब्लाग जुड़ रहे हैं। उनमें से कुछ ऐसे हीं जिनको पढ़कर लगता है कि क्या धांसू लिखा है।
बाकी हरेक का अपना कहने का अंदाज होता है। और यह मैं बदले की भावना से नहीं कह रहा लेकिन सच है कि बहुत लोग ऐसा लिखना वाले हैं जैसा प्रिंट मीडिया में बहुत कम लिखते हैं। आने वाला समय हिंदी ब्लागिंग की दशा-दिशा करेगा लेकिन यह सच है कि अभी जितने भी ब्लागर हैं वे आगे आने वालों के लिये जमीन की जुताई-गुडाई कर रहे हैं ताकि महान और स्थापित लोग आयें और छा जायें।
वैसे एक बात सीरियसली यह भी सोच रहे हैं कि जब अनूप शुक्ल इत्ता धांसू च फ़ांसू लिखते हैं तो अभी तक साहित्य-फ़ाहित्य अकादमी वगैरह अभी तक कोई इनाम-उनाम काहे नहीं दिये। क्या सूचना के अधिकार के तहत जानकारी मांगी जा सकती है। क्या नोबेल प्राइज वालों पर मान-हानि का दावा ठोका जा सकता है। :)
लोग मौलिक लिखें........अच्छी टिप्पणियां करें। उनपर गेस्ट पोस्ट लिखने का यत्न करें। -
ReplyDeleteसबकुछ कितना मुश्किल है, सच में:)
बात तो सच्ची कह रहे हैं भईया...कहीं आपका इशारा हमारी और तो नहीं...चोर की दाडी में तिनका...आज कल हम भी पुस्तकों की समीक्षा दे रहे हैं लेकिन उसमें कट पेस्ट वाला काम नहीं है...नहीं है ना?
ReplyDeleteनीरज
अनूप शुक्ल यदि कोई और बनने में लग जाते तो अनूप शुक्ल नहीं बन पाते। जाहिर है, आदमी को अपने काम से काम रखना चाहिए।
ReplyDeleteजरूरी नहीं कि प्रतिदिन लिखा ही जाए। यह भी जस्री नहीं कि प्रतिदिन लिखने के लिए कोई विषय हो ही। ऐसे में केवल टिप्पणी करना कम आनन्ददायी नहीं होता।
ब्लाग लेखन हमारी अभिव्यक्ति का माध्यम बने-व्यसन नहीं। किसी चिकित्सक ने नहीं कहा कि प्रतिदिन लिखे बगैर स्वस्थ नहीं रह पाएंगे।
और हर कोई अनूप शुक्ल बन गया तो अनूप शुक्ल की 'वेल्यू' क्या रह जाएगी? :)
ब्लाग विधा पर नहीं और खुद पर भी नही तो कम से कम अनूप शुक्ल पर तो दया की ही जानी चाहिए। वर्ना लोग कहेंगे-कैसे कैसे लोग अनूप शुक्ल बन गए?
आपका लाया हुआ मुद्दा विचारणीय है मगर उस पर टिप्पणियाँ पढने में वाकई आनंद आया.
ReplyDeleteजब अंगद और हनुमान जैसे महाबली विशालकाय पत्थर दाल रहे हों तो बेचारी नन्हीं गिलहरी को थोड़ी सी रेत भी डालने देना चाहिए. उस गिलहरी की पीठ पर भगवान् राम ने भी स्नेह से हाथ फेरा था.
मैं चोरी के माल की तरफदारी नहीं कर रहा मगर व्यक्ति अपनी सीमाओं के भीतर ही कुछ करता है और धीरे-धीरे बेहतर होता जाता है गाँवों में चिट-फंड चलाने वाले जहाजों के मालिक हो जाते हैं. उठाईगीरे "भाई" हो जाते हैं. जेबकतरे मुजाहिद बन जाते हैं, डाकू सांसद बन जाते हैं. आप देखेंगे कि इसी परम्परा को आगे चलाते हुए सारे कटपेस्टकर लोग भी एक दिन इतने बड़े साहित्यकार बनेंगे कि उनकी किताबें विश्वविद्यालय के कोर्स में पढाई जायेंगी (अन्दर की बात - कईयों की तो पहले से ही कोर्स में लगी हुई हैं)
अनूप जी अपने में एक हैं।
ReplyDeleteशायद इसके पीछे समय की किल्लत और पोस्ट का दबाव हो।
ReplyDeleteमौलिक लेखन और मौलिक चिंतन सदैव ही सराहा जाता रहेगा.
ReplyDeletepandeyji sadar namaskar , apki baat se puri tarah sehmat hoon, mere blog par tipanniyon ke liye dhanyawad , isi tarah housala afjai karte rahiye .regards
ReplyDeleteपरम आदरणीय सर,
ReplyDeleteआपकी बातों से बातमाम मज़्मून १०० फ़ीसदी इत्तेफ़ाक रखना लाज़मी है। फ़ुरसतिया जी ब्ला॓गजगत के इन्शाँ और परसाई हैं, रातोंरात उन तक पहुँच पाना बड़ा मुश्किल है । रही बात कट और पेस्ट की की तो जो काटेगा उसके दाँत तो खराब होंगे ही अत: ऐसे लोगों को का पेस्ट करना ज़रूरी समझ मॆं आ रहा है आजकल ।
भइया, ये कट पेस्ट क्या होती है? प्रशिक्षु ब्लागरों के हित में उदाहरण सहित समझाऎं।
ReplyDeleteआप चैन से न जीने दोगे, :-)
ReplyDeleteये तो हमारा इलाका है, इत्ते दिनों से इंटरनेट से कबाडा बटोर रखा है तो पोस्ट बना देते हैं । किसी की कहानी पेस्ट करके किसी और की आवाज में सुनवा दी । तो कभी कोई पुराना दुर्लभ सा नग्मा जरा से विवरण से छाप कर लोगों को खुश कर दिया । लगता है हमारी "सादा जीवन तुच्छ विचार" वाली नीति अब बदलनी पडेगी ।
सोच लीजिये हमने आस्था चैनल चालू किया तो पंगा हो जायेगा । आपके "इनीशियल एडवांटेज" वाले संवाद पर पोस्ट बना रखी है, बटन दबाने की देर है :-)
अनूप जी की तो बात निराली है...मगर ज्ञानदत्त पांडे बनकर दिखाना भी किसी के बस की बात नहीं ...कहां से बात शुरू करनी है, कहां खत्म करनी है और क्या सम्प्रेषित करना है। हैरत होती है इन सब कामों को होते देख कर।
ReplyDeleteअनूपजी को तब से पढ़ते आये हैं जब ब्लॉगिंग में अपनी पहली पोस्ट भी नहीं लिखी थी...उनसे बहुत कुछ सीखा....हमेशा कुछ न कुछ लिखने को प्रेरित करते रहते हैं
ReplyDeleteचलिए आपके बहाने उनकी एक फुरसतिया इस्टाईल टिप्पणी भी पढ़ने मिल गई
सुकुल जी की यू.एस.पी. भी ठीक है और उनका यू.पी.एस. भी ठीक . तभइं कपिलदेव की तरहां घुआंधार लप्पेबाजी भी कर लेते है और गावस्कर की तरह लम्बे समय तक क्रीज़ पर भी टिके रहते हैं . टिके रहते क्या हैं , टिके हैं .
ReplyDeleteवे तो बस आपसे खौफ़ खाए रहते हैं . 'नावक के तीर' तो आपइ के तरकश में हैं . फ़ुरसतिया हैं पक्के राग के पुराने गायक हैं . शुरुआत में विलम्बित में गाते हैं, द्रुत में बाद में आते हैं .
बिन्नै सुर और सन्तुलन साध लिया है जी . हमने उन्हें 'वाग्गेयकार' कुछ सोच-समझ कर ही घोषित किया था .
नीरज जी की बात से सहमत हूँ , अब जब इतनी मुशकिल से कबाड इकठ्ठा किया है तो कही तो डालेगें ही :) वैसे कम से कम मैने तो बचपन मे कभी निबंध तक न लिखा पोस्ट की तो बात दूर ही है :)
ReplyDeleteमौलिक लेखन ही टिक पायेगा , ये सच है और अनूप जी की लेखन शैली , परिपक्व सोच दा ते जवाब नहीं। कोई दूसरा उनके जैसा हो ही नहीं सकता। आलोक पुराणिक जी की टिप्पणी भी मजेदार हमेशा की तरह्।
ReplyDeleteनीरज जी की बात से सहमत हूँ , अब जब इतनी मुशकिल से कबाड इकठ्ठा किया है तो कही तो डालेगें ही :) वैसे कम से कम मैने तो बचपन मे कभी निबंध तक न लिखा पोस्ट की तो बात दूर ही है :)
ReplyDeletesir aaj to ekdam sahi aur satik bat likh dali hai.
ReplyDeletegood morning and good day
शायद इसके पीछे समय की किल्लत और पोस्ट का दबाव हो।
ReplyDeleteआपका लाया हुआ मुद्दा विचारणीय है मगर उस पर टिप्पणियाँ पढने में वाकई आनंद आया.
ReplyDeleteजब अंगद और हनुमान जैसे महाबली विशालकाय पत्थर दाल रहे हों तो बेचारी नन्हीं गिलहरी को थोड़ी सी रेत भी डालने देना चाहिए. उस गिलहरी की पीठ पर भगवान् राम ने भी स्नेह से हाथ फेरा था.
मैं चोरी के माल की तरफदारी नहीं कर रहा मगर व्यक्ति अपनी सीमाओं के भीतर ही कुछ करता है और धीरे-धीरे बेहतर होता जाता है गाँवों में चिट-फंड चलाने वाले जहाजों के मालिक हो जाते हैं. उठाईगीरे "भाई" हो जाते हैं. जेबकतरे मुजाहिद बन जाते हैं, डाकू सांसद बन जाते हैं. आप देखेंगे कि इसी परम्परा को आगे चलाते हुए सारे कटपेस्टकर लोग भी एक दिन इतने बड़े साहित्यकार बनेंगे कि उनकी किताबें विश्वविद्यालय के कोर्स में पढाई जायेंगी (अन्दर की बात - कईयों की तो पहले से ही कोर्स में लगी हुई हैं)