रट्टाफिकेशन या रोट लर्निंग (rote learning) का इस्तेमाल काफी किया है मैने। और शायद आज की कट-थ्रोट स्पर्धा के जमाने में, जहां एक दो नम्बर से वारे न्यारे हो जाते हैं, यह उत्तरोत्तर बढ़ता गया है। याद रखने के लिये मेमोरी स्ट्रिंग्स बनाने और नेमोनिक्स (mnemonics) का प्रयोग बहुत किया है। नॉलेज (knowledge) की स्पैलिंग “कनऊ-लदगये” से याद रहा करती थी।
रट्टाफिकेशन को बहुत भला-बुरा कहा जाता है। यह कहा जाता है कि रचनात्मक सोच या सीख को यह ब्लॉक करती है। मुझे ऐसा कुछ नहीं लगा, कम से कम व्यक्तिगत स्तर पर।
वैदिक ऋचाओं का पाठ रट्टाफिकेशन के जरीये ही होता था। वेदपाठी ब्राह्मणों को दादुर ध्वनि (मेंढ़क की टर्र-टर्र) कर वेदपाठ करते बताया गया है। मुझे नहीं मालुम कि आदिशंकर ने ऋचायें कैसे याद की होंगी। वे तो विलक्षण मेधा वाले थे। पर बचपन में संस्कृत के श्लोक और हिन्दी की कवितायें तो रट्टाफिकेशन से ही मैने (औसत इण्टेलिजेंस वाले जीव ने) याद की थीं। और उस समय जो याद हुआ, सो हुआ। अब तो याद रखने को बहुत जहमत करनी पड़ती है।
रट्टाफिकेशन की निन्दा करने वाले लोग अगर यह कहें कि उन्होंने रोट लर्निंग नहीं की है; तो मुझे विश्वास नहीं होगा। बल्कि, अब कभी कभी याद करने के लिये रट्टाफिकेशन पर वापस जाने का मन करता है। परीक्षा पास करने का दबाव नहीं है, कम्प्यूटर और कागज-कलम सर्वथा उपलब्ध है, इस लिये रटना नहीं पड़ता। लेकिन न रटने से लगता है कि मेमोरी का एक हिस्सा कमजोर होता जा रहा है।
आप हैं रट्टाफिकेशन के पक्ष में वोट देने वाले?
आप मुझे हर बात में रट्टा लगाने का पक्षधर न मानें। जहां संकल्पना या सिद्धान्त समझने की बात है, वहां आप रट कर काम नहीं चला सकते। पर उसके अलावा लर्निंग में बहुत कुछ है जो याद रखने पर निर्भर है। वहां रटन काम की चीज है।
पर आपके रट्टाफिकेशन का अगर री-कॉल या बारम्बार दोहराव नहीं है तो शायद आप बहुत समय तक याद न रख पायें। मसलन १३-१९ तक के पहाड़े कैल्क्यूलेटर देव की अनुकम्पा के कारण मुझे याद नहीं आते!
रट्टाफिकेशन का मज़ा ही अलग है | मेरे कॉलेज में इसे mugging कहतें थे |
ReplyDelete"याद रखने के लिये मेमोरी स्ट्रिंग्स बनाने और नेमोनिक्स (mnemonics) का प्रयोग बहुत किया है। नॉलेज (knowledge) की स्पैलिंग “कनऊ-लदगये” से याद रहा करती थी"
ReplyDeleteसही कह रहे हैं आप. मुझे भी बचपन में Light को लिगहट पढ़ने की आदत थी. आदत अब छूट गयी पर स्पेलिंग उसी समय जो याद हुई तो अभी भी याद है.
एक उल्लेखनीय पोस्ट के लिये धन्यवाद.
आप मुझे हर बात में रट्टा लगाने का पक्षधर न मानें। जहां संकल्पना या सिद्धान्त समझने की बात है, वहां आप रट कर काम नहीं चला सकते। पर उसके अलावा लर्निंग में बहुत कुछ है जो याद रखने पर निर्भर है। वहां रटन काम की चीज है।
ReplyDelete--यह सही कहा आपने. पूर्ण रट्टाफिकेशन सही नहीं किन्तु टेक्स लॉ, कम्पनी लॉ आदि में सेक्शन वगैरह तो रटना ही होते थे.
सहमत। रट्टाफिकेशन(स्मृतिकरण) का ढंग,काल एवं उद्देश्य कुछ भी हो, उसके बिना काम चलता नहीं है। कभी-कभी ऎसी रटे हुए पर जब बार बार बुद्धि जाती है तो उसके अंतरंग रहस्य खुलते हैं और विचार को एक नया आयाम देते हैं।
ReplyDeleteज्ञान जी आपने तो मेरे मन की ही बात कह दी है -तोतारटंत एक मनुष्य का अंतर्निहित निहित क्षमता थी जो अब व्यवहार मेंकम आने से क्षय प्राय हो रही है -वेदपाठी ब्राह्मणों ने लंबे काल तक इस मानवीय अप्रतिम क्षमता को बनाये बचाए रखा ! पता नहीं आज के शिक्षाविदों को इससे क्यों इतना परहेज है -मनुष्य का यह एक बेहतरीन अट्रीब्यूट नाहक ही उपेक्षित हो चला है ! कोई इन मतिभ्रमित शिक्षाविदों को समझाए !
ReplyDeleteअब तो रट्टाफिकेशन आवश्यक हो गया है . एक कक्षा मे ६० ,६० बच्चे. टीचर भी इस विधि को बढावा दे रहे है . समझाने का टाइम किसी के पास नही जो लिखा है रट लो लिख दो पास हो
ReplyDeleteमुझे इतिहास के सन् याद रखने का कोई लॉजिक नही मिला आखिर उनके लिये यही टेक्नॉलाजी का यूज किया जिसका जिक्र आपने किया ;)
ReplyDeleteआप मुझे हर बात में रट्टा लगाने का पक्षधर न मानें।
ReplyDeleteसहमति की गुंजाइश छोड़ने का शुक्रिया!
अब लगता है कि आप यहां कन्फ़ेशन करवाकर ही छोडेंगे. :)
ReplyDeleteहमने बिना रट्टाबाजी कभी कुछ किया हो ये याद ही नही आता. और अब तो लगता है कि बहुत कोशिश के बाद भी मेमोरी मे कुछ केमिकल लोचा शुरु हो गया है.
किसके ब्लाग पर टिपिया दिये ये तक भी याद नही रहता. क्या मैने आपके ब्लाग पर टिपणी कर दी है? याद करके बताता हूं. :)
रामराम.
छात्र जीवन के व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर मैं भी इससे सहमत हूं कि रटाई उतनी बुरी चीज नहीं जितनी समझी और प्रचारित की जाती है. कई बार ऐसा चमत्कार होते देखा है कि कोई कठिन बिन्दु कई बार समझने पर भी दिमाग में घुसने को तैयार नहीं हुआ, हार कर रटना पड़ा. फ़िर किसी क्षण अनपेक्षित रूप से अचानक ही दिमाग की बत्ती जली पाई गय़ी. गूढ़ रहस्य अपने आप ही प्रकाशमान हो गया.
ReplyDeleteमस्तिष्क के किसी कोने में मेमोरी की वर्जिश तो होती ही होगी रटाई से. लेकिन इस उम्र में अब मुश्किल लगता है इसका उपयोग कर पाना. नवम्बर में हम भी ३६ पार कर गये.
विद्यार्थी जीवन में यही एक काम (रट्टा मारना) मुझे सबसे कठिन लगता था। इसी कारण मुझे संस्कृत में अत्यधिक रुचि होने के बावजूद इससे दूर होना पड़ा। शब्दों के ‘रूप’ रटने में हमेशा फिसड्डी रहा। परीक्षा के दिन रात में रटता था, अगले दिन शाम होते-होते भूल जाता था। :)
ReplyDeleteकहीं कहीं पर रटंत विद्या की बहुत आवश्यकता होती है ....इसके बिना अपना नंबर काफी पीछे आ जाता है।
ReplyDeleteपता नहीं मैं सही हूँ या गलत.. मगर रटने के पक्ष में मैं कभी नहीं रहा हूँ.. और बिना रेट विद्यार्थी जीवन सफल हो ही नहीं सकता है.. तो इतना अंदाजा लगा ही लिए होंगे कि क्या-क्या जुल्म हुआ होगा मेरे साथ.. :)
ReplyDeleteआप मानें या न मानें, पर मुझे रोट लर्निंग करना नहीं आ पाया। मेरे स्कूल के जमाने में कक्षा आठवीं तक एक विषय "सामाजिक अध्ययन" हुआ करता था जिसके लिये रोट लर्निंग आवश्यक था और इसीलिये मैं उस विषय में बड़ी मुश्किल से पास हो पाता था।
ReplyDeleteआपको लोहडी और मकर संक्रान्ति की शुभकामनाएँ....
ReplyDeletebilkul sahi kaha sir aapne...
ReplyDeletemugging aaj kal ki jarurat ban gayi hai...
खुब याद दिलाया आपने विद्यार्थी जीवन में जब समझ काम नही करती थी तो रट्टाफिकेशन ही एक मात्र उपाय लगता था हमे तो परीक्षा मे पास होने का... हम इसे (cramming) भी कहते थे .
ReplyDeleteregards
वैसे हमें हमेशा कहा गया कि : रटंत विद्या फलंति नाहि
ReplyDeleteपर हम रटते ही रहे . खूँटे से बाँधकर याद करने का मज़ा तो सबसे अलग है . जैसे हमें याद नहीं रहता था कि इलेक्ट्रॉन प्रॉटॉन और न्यूट्रॉन की खोज किसने की तो याद कर लिया ईंट पर नाच
आवर्त सारणी का दूसरा कॉलम याद किया भीख माँग कर शरम बेच रहे
और त्रिकोणमिति का सबसे पहला फॉर्मूला था लाल बटे कक्का
रट्टाफिकेशन वाली बात से सहमत होना कुछ मुश्किल लग रहा है...बरसों पुराने नग़में...जिन्हें मैने नहीं गुनगुनाया...मेरे ज़ेहन में बोल और धुन सहित आज भी जिंदा हैं...आप कहेंगे कि एम्बिएंस फैक्टर काम कर रहा है...सही है ...मगर वहीं एम्बिएंस फैक्टर कथा-कीर्तन का भी है। बचपन से न जाने कितनी बार रामचरित मानस रेडियो से लेकर गली-मोहल्ले में सुनी पर एक चौपाई याद नहीं हो पाई।
ReplyDeleteबाद दरअसल ग्राह्यता की है। अभिरुचि की है। मस्तिष्क उसे ही स्वीकारता है जिसके साथ तादात्म्य हो। मामला भौतिक कम, रासायनिक ज्यादा है। रट्टा लगाने से भी सालों तक कोई चीज़ याद रह जाए, ज़रूरी नहीं। रट्टे के साथ लय हो तो शायद याद रहे।
अजीत जी तो आए और छाए की तर्ज़ पर बाजी मार ले गये...
ReplyDeleteअच्छा हुआ मैं अजीत जी के कमेंट के बाद आया.. उनका कमेंट मेरे बहुत सारे प्रश्नो के उत्तर दे गया...
पांडे जी का आभार उन्होने इस प्रकार के विषय पर पोस्ट लिखी
ज्ञान जी, क्षमा करेंगे मैं आपकी बात से सहमत नहीं हूं। रट्टाफिकेशन अधिकतर लोगों के लिये ठीक होता है पर यह कह देना कि यह सारे कार्यों के उचित है, सही नहीं है। यह उन लोगों के लिये ठीक नहीं है जो कि मूल कार्य करते हैं या जीवन में कुछ नया करते हैं।
ReplyDeleteअधिकतर लोगों को मूल कार्य करने की क्षमता नहीं होती - शायद यह केवल १% या फिर उससे कम लोगों में होती है। हमारी शिक्षा प्रणाली भी मूल कार्य करने को बढ़ावा नहीं देती है यही कारण है कि रट्टाफिकेशन अपने देश में सफल है यही कारण है कि अपने देश में शोद्ध ऊंचे स्तर का नहीं हैं न ही हम मूल रूप से सोच पाते हैं न ही नया कर पाते हैं।
इंजीनियरिंग में खास तौर से रट्टफिकेशन का महत्व है पर विशुद्ध (pure) विज्ञान विषयों में ऊंचे स्तर का काम के लिये अनुचित है। मेरे पुत्र ने आईआईटी कानपुर से इंजीनियरिंग की शिक्षा प्राप्त की है। वह अक्सर वहां की शिक्षा प्रणाली की निन्दा करता है। शायद यह बाते भारत के सारे इंजीनियरिंग विद्यालयों में सच हो। उसके मुताबिक यहां पर पढ़ाई में वही अच्छे नम्बर ला सकता है जो रट सके पर यह कोई जरूरी नहीं कि ऐसे व्यक्ति जीवन में सफल होंगे या नाम कमायेंगे। वह अपनी बात पर बल देने के लिये वहां से निकलने वाली पत्रिका को दिखाता है। जिसमें जिन लड़कों ने प्रवेश करते समय प्रथम या द्वितीय स्थान प्राप्त किया या आईआईटी कानपुर में राष्ट्रपति के मेडल को जीता उन्हें कभी भी २५ साल बाद वहां का सर्वश्रेष्ट पुरातन क्षात्र का पुरुस्कार नहीं मिला।
मेरे साथ बहुत अच्छे पढ़ने में बहुत से अच्छे लोग थे वे रट्टाफिकेसन के कारण अच्छे नम्बर लाते थे। वे सारे सिविल सर्विस के उच्च पद पर हैं पर यह कह देना कि वे सफल हैं शायद ठीक न होगा।
शायद सबसे बेहतरीन छोटी विज्ञान कहानियां की पुस्तक The Nine tomorrows है जिसमें आइज़ेक एसीमोव की नौ कहानियां हैं। इसकी पहली कहानी मुझे Profession है। यह मुझे बहुत अच्छी लगती है। इसे आपने नहीं पढ़ा तो पढ़ कर देखें आपको यह सोचने पर मजबूर करेगी। हो सकता है कि आप मेरी विचारधारा के हो जायें। मैं कोशिश करूंगा कि इसकी पुस्तक समीक्षा अपने चिट्ठे पर करुं।
याद रखना है तो बार बार दोहराएं. इससे बात दिमाग की स्थाई स्मृति में दर्ज हो जाती है.
ReplyDeleteइस रटा सिद्धांत का उपयोग हर उम्र व काम के लिए किया जा सकता....करना चाहिए...गलत क्या है इसमें.
रट्टाफिकेशन की निन्दा करने वाले लोग अगर यह कहें कि उन्होंने रोट लर्निंग नहीं की है; तो मुझे विश्वास नहीं होगा।
ReplyDeleteचाहे आप विश्वास न करें लेकिन अपने विषय में तो यही कहूँगा कि बचपन से लेकर आजतक, मुझसे कभी रट्टे नहीं मारे गए, इस मामले में फिसड्डी रहा हूँ। कह सकते हैं कि इस खामी के कारण भुगता भी है जब स्कूल कॉलेज में कोई सहपाठी रट्टे मार पाने के कारण अधिक अंक ले जाता था, ईर्ष्या भी होती थी कि कमबख्त रट्टे मार नंबर ले गया, लेकिन मन को सांत्वना दे लेता था कि वह २ दिन बाद भूल जाएगा लेकिन मैंने समझा है अच्छे से तो मुझे देर तक याद रहेगा! :)
स्कूल के जमाने मे तो खूब रट्टाफिकेशन किया है पर अब तो ऐसी कोई जरुरत नही पड़ती है । :)
ReplyDeleteरट्टाफिकेशन भाई हमे स्कूल मे ओर घर मै इसी ढंग से पढने को कहा जाता था, लेकिन हम भी नही पढे इस ढंग से,एक बार जो ध्यान से सुन लिया वो याद हो गया, एक बार जो आंखो के आगे से गुजर गया, वो याद हो गया, लेकिन जब डर हो या रट्टाफिकेशन तो कुछ भी याद नही होता था, इस लिये बच्चो को सारा दिन रट्टाफिकेशन के स्थान पर जितना वो अजादी से पढे काफ़ी है,
ReplyDeleteक्योकि इस रट्टाफिकेशन के बाद फ़िर याद ना होने पर जुताफिकेशन ओर पता नही कोन कोन सा फ़िकेशन शुरु हो जाता है, ओर बच्चा डर के मारे कुछ नही याद रखता, ओर फ़िर वो तारा जमीन का बन जाता है, ना बाबा ना
धन्यवाद बहुत सुंदर ओर काम की चर्चा के लिये
@ उन्मुक्त जी !
ReplyDeleteइस मुद्दे पर मुझे केवल इतना ही कहना है उन्मुक्त जी कि रटने की क्षमता कई अन्य मानवीय गुण -क्षमताओं की ही भाति एक मानवीय विशिष्टि है -इसे उपेक्षित कर देना उचित नही है -हाँ इस क्षमता का दुरुपयोग मात्र परीक्षाओं को पास करने में ही न हो यह सुनिश्चित करना होगा ! आज हजारो वर्ष पहले की वाचिक परम्परा का जो कुछ भी ज्ञान बचा और सुरक्षित रह सका है उसमें तोतारटंत मानवीय क्षमता की भी बड़ी भूमिका है ! अब इसका विवेकपूर्ण सदुपयोग कैसे हूँ इसे तय किया जा सकता है -मैंने तो आधुनिक शिक्षाविदों के भ्रमित दावों के चलते अपनी और बच्चों की भी इस क्षमता को एक तरह से विनष्ट ही कर डाला है अतः अब यह चाहता हूँ कि इसमुद्दे पर कोई अतिवादी दृष्टिकोण न अपनाया जाय -गंभीर मंथन हो !
एक और टिप्पणी !
ReplyDeleteमुझे तो यह भी लगता है कि उम्र का एक काल खंड-बचपन और किशोरावस्था के अस पास तक ही रटने के लिए पीक अवधि होती है फिर यह क्षमता उत्तरोत्तर ह्रासोन्मुख हो जाती है -मुझे बचपन के कुछ श्लोक ,वाक्यांश आज भी शब्दशः याद है भले ही उनके अर्थ बाद में समझ में आए हो और जब वे समझ में आए तो मानों मेमरी और भी रीइन्फ़ोर्स हो गयी ! अतः इस क्षमता के बड़े उपयोग हो सकते हैं ! इस कुदरती क्षमता को कूडे में फेक देना बहुत नासमझी लगती है मुझे !
मगर अब कई शिक्षाविद् इसके ख़िलाफ़ ब्रेन वाश में लगे हैं ! मैं ख़ुद उसका शिकार हुआ ! ऐसी बातों के चक्कर में थोड़ी राहत मिल जाने से मैंने १० वीं के बाद रटना छोड़ दिया और अब पछतावा होता है -अब तो कुछ याद ही नही होता ! मगर अब पछताए होत क्या ,,,,,,,
......सही कहा आपने.....
ReplyDeleteकई बातों/डाटा को बार बार दुहराने /रटने से वे दिमाग में स्थाई रूप से दर्ज हो जाती है.
सरजी रट्टाफिकेशन के सिद्धांत बाकी और जगह चलें, तो चलें, इस खाकसार ने एकाऊंटिंग के सवालों में चलाये हैं जी। कक्षा 13 की एकाउंटिंग में इनवेस्टमैंट नामक टापिक तब समझ ना आया करै था। पिछले दस सालों के सवाल देखकर यह समझ में आया कि एक खास तरह का सवाल उन्ही आंकड़ों के साथ तीन बार पूछा गया है। सवाल को मय आंकड़ों समेत घोंट लिया जी। वोईच की वोईच सवाल फिर आ लिया। बगैर समझे, जी उतार दिया , विशेष योग्यता आ गयी एकाउटिंग में। बंदा संकल्प वाला हो, तो रट्टाफिकेशन से गणित तक में विशेष योग्यता हासिल कर सकता है।
ReplyDeleteपढ़ाई में कई बार /विषय विशेष में rattafication भी जरुरी है..परिभाषाएं...इतिहास में संवत--काल--विज्ञानं मेंजंतुओं और वनस्पतियों का classification ,spellings--वर्ड meaning..एटक--के लिए रटना ही जरुरी है .गाने -कविता भी तो बार बार दोहराए बिना कहाँ याद होती हैं.अरे--पहाडे!वो तो बिना रटे कहाँ याद हुए कभी!
ReplyDelete'नॉलेज (knowledge) की स्पैलिंग “कनऊ-लदगये” से याद रहा करती थी। ' ऐसे तो हमने भी बहुत स्पेलिंग रटे हैं. अब भी काम आ जाते हैं कभी-कभी. ऐसी कई चीजें रटी बचपन में जो समझा बाद में... जिनमें पहाडा ही एक है.
ReplyDelete'जहां संकल्पना या सिद्धान्त समझने की बात है, वहां आप रट कर काम नहीं चला सकते।'इस बात में दम है. दोनों का अपना महत्तव है. गणित में रट के काम नहीं चलाया जा सकता. अलोकजी की गणित तक में विशेष योग्यता लाने वाली बात परीक्षा के सिस्टम की कमजोरी और प्रश्नपत्र सेट करने वाले का आलस दिखाता है न की गणित में रट्टा की उपयोगिता. गणित में पहाडे के आगे कहीं रट्टा काम नहीं आता. परीक्षा में अंक आ जाना विशेष योग्यता तो नहीं ?
अजितजी की ये बात 'बचपन से न जाने कितनी बार रामचरित मानस रेडियो से लेकर गली-मोहल्ले में सुनी पर एक चौपाई याद नहीं हो पाई। ' अपने साथ उल्टा हुआ... घर पे होने वाले दैनिक पूजा-पाठ और चर्चा में सुन कर जितने श्लोक और चौपाई याद हुए उतने पढ़ के नहीं हो पाये !
जो भी हो रट्टे का अपना महत्त्व है... कुछ मामलो में तो है ही. कई मामलों में दिमाग लगाने की जरुरत नहीं होती है (लगा के कभी कुछ फायदा नहीं) वहां बिना रट्टा कैसा काम चल सकता है !
आपका मेरी नई पोस्ट पर स्वागत है
ReplyDeleteजितेन्द्र चौधरी जैसा सर्मपण कहां से लाए
आपका मेरी नई पोस्ट पर स्वागत है
ReplyDeleteजितेन्द्र चौधरी जैसा सर्मपण कहां से लाए
आपका मेरी नई पोस्ट पर स्वागत है
ReplyDeleteजितेन्द्र चौधरी जैसा सर्मपण कहां से लाए
रट्टे से शुरू से ही नफरत सी रही। उस का बहुत नुकसान उठाया। पर बाद में लगा कि यह बहुत जरूरी चीज है। इस के भरोसे गीता कंठस्थ करने का प्रयत्न किया। पहला अध्याय याद भी हो गया। पर वकालत के साथ आगे अभ्यास नहीं कर पाया। लेकिन कोई कठिन काम नहीं है। मेरे मामा जी कहा करते थे कि तुम हरिद्वार गंगा किनारे साल भर रह कर रामचरित मानस के 108 अभ्यास कर लो तुम्हें कंठस्थ हो जाएगी। इस के बाद तु्म्हें सभी सिद्धियाँ भी स्वतः ही मिल जाएंगी। उन की बात बिलकुल सच थी। वह कर लिया होता तो रोज न जाने कितने लोग चरण छू रहे होते, लक्ष्मी भी घऱ में बिराज रही होती।
ReplyDeleteआपकी पोस्टें कई बार गोष्ठियों का अहसास कराती हैं। एक बार आप विषय प्रवर्तन कर देते हैं, फिर पाठक गण बारी-बारी से अपना व्याख्यान प्रस्तुत करते जाते हैं। इसीलिए जब मेरे पास इंटरनेट उपलब्ध होता है, मैं दिन में एक कई बार आपके ब्लॉग से गुजरता हूं। आज भी कुछ वैसा ही अहसास हो रहा है।
ReplyDeleteरटंत विद्या पर अरविन्द मिश्र जी के विचारों से मेरी पूर्ण सहमति है।
काहे को दुखती रग पे हाथ रखते हो सर जी.........हम रोल नंबर एक थे .....
ReplyDeleteरट्टाफिकेशन भी सभी की जरुरत है ये न रहे तो परीक्षा में फट्टाफिकेशन होने की संभावना अधिक हो जाती है हा हा हा
ReplyDeleteकिसी ने सही कहा कि आपने दुखती रग पर हाथ रख दिया। हमे तो आज भी "TOGETHER" लिखने के लिये याद है "टु गेट हर" जो की कक्षा चार मे मास्टर जी ने बताया था।
ReplyDeleteरट्टे का मूल्य बढता जा रहा है , यही कर कर के हिमेश रेशमिया नामक प्राणी गा कमा रहा है, कमबख्त को गाते सुनने पर कान पकने लगते हैं, फिर भी ये नाम तेरा-तेरा गा कर महबूबा तक को पटा लेता है। और हमारे नेताओं का क्या जो साठ साल से विकास की रट लगा कर खा रहे हैं, कम्बख्त डकार भी रटते हुए ले रहे हैं और फिर खा रहे हैं।
ReplyDeleteनाम तेरा ,.......तेरा ....नाम तेरा तेरा :)
हमारे गुरूजी समझाते थे,
ReplyDeleteरटंत विद्या अवंत नाही,
ठुसंत भोजन पचंत नाही|
आजतक उन्ही की बात सुनते आए हैं| ज्यादातर फायदा ही हुआ है|
अच्छी पोस्ट रही .कई महानुभावोँ ने अपनी अपनी बातेँ रखीँ ..सभीको सँक्रात की शुभकामनाएँ
ReplyDeleteभारतीय स्कुलोँ मेँ 'रट्टाफिकेशन" के सुवा कोई विध्यार्थी कहीँ पास हुआ है ? या अच्छे नँबर लाया है ?
शिक्षा प्रणालि ही वैसी है ..पर जिनके दिमाग अलग चलते हैँ उनमेँ
हीटलर भी थे और कार्ल मार्क्स भी थे
और गाँधी बापू भी हैँ ..न्यूटन भी हैँ ..
और सफलता की मापदँड भी कई अलग बाबतोँ पे निर्भर हैँ -
चर्चा खूब लम्बी हो सकने की गुँजाइश है :)
'रट्टा' तो जन्म घुट्टी में ही पिला दिया जाता है। किन्तु अजित भाई कि बात अधिक तार्किक और स्वानुभूत है कि रुचिकर बातें बिना रट्टे के भी याद रह जाती हैं। मुझे मेरे कई बीमाधारकों के फोन नम्बर और पते याद हैं, केवल इसलिए कि मेरी रुचि उनमें है।
ReplyDeleteमजेदार पोस्ट रही। टिप्पणियां धांसू। इस पोस्ट को समझा जा सकता है, रट्टा नहीं मारा जा सकता!
ReplyDeleteकम्प्यूटर में मदर बोर्ड़ से लेकर रैम इत्यादि सब टनाटन हो किन्तु डाटा कुछ भी न फीड़ किया गया हो तो आपकी दी हुयी कमाण्ड़ वह एनालाइज़ या सर्च क्या करेगा? ड़ाटा को फीड़ करनें की क्या ज़रुरत है? क्या उसके बिना भी काम लिया जा सकता है? बेस मेमोरी और कैच मेमोरी के कार्य क्या एक हैं? हम क्या करते हैं? कंठस्थ किया हुआ कहाँ जाता है? बुद्धि क्या एनालाइज़ करती है? सब कुछ जो मस्तिष्क में होता है क्या बुद्धि हरदम उसे एनालाइज़ करती रहती है? संकल्प,विकल्प एवं निश्चय ये बुद्धि के कार्य कहे गये हैं-बिना ड़ाटाबेस के इनका य़ूज एण्ड़ एप्लीकेशन कैसे होगा? Rote,Rut,Root,Route आदि एक ही परिवार के शब्द हैं,स्कैड़ेनेविया से वाया जर्मनी अंग्रेजी मे शामिल हुए हैं। ‘ऋत’ वैदिक शब्द ही नहीं फिनामिना है,विज्ञान परक है।
ReplyDelete१९७६ में जब मैनें वकालत छोड़ी, मेरे गुरु स्व० आद्याप्रसाद अस्थाना से उनके कज़िन उ०प्र०हा०कोर्ट में मुख्य न्यायाधीश रहे कुँवरबहादुर अस्थाना अक्सर फोन पर कोई न कोई रूलिंग पूँछा करते थे और वे आँख बंद कर कुछ सेकेण्ड्स में कहते थे A.I.R. 1923 के पेज़ फलाँ पर देखो, और मनचाही रूलिंग मिल जाती थी। कानपुर के वकील तो कायल थे ही।
क्या मौलिक कुछ होता है? जैसे जैसे हमारी सूचना का क्षेत्र ज्ञान की विभिन्न विधाओं मे बढता है हम जान पाते हैं कि उस विचार या विषय पर पहले से ही कुछ न कुछ सामग्री मौजूद है, भले ही वह कितनी प्राचीन क्यों न हो। खाली दिमाग,भुस भी न भरा हो क्या गांधी,हिट्लर आदि बना सकता है? क्या जन्म जन्मान्तर की स्मृतियों के अनुशय जो चित्त में रहते हैं इस कथित मौलिक को प्रकट करनें में सहायक नहीं होते?हाँ,जो पुनर्जन्म नहीं मानते उनके लिए तो नीम का पेटेन्ट भी मौलिक हो सकता है।
मन,बुद्धि,चित्त एवं अहंकार यह मिलकर मस्तिष्क बनाते हैं,पागल या कोमा ग्रस्त में क्या विकृति आती है? O.B.E.(Out of Body experiences) एवं E.S.P.(Extra Sensory Perception) को लेकर पश्चिम में इतनीं उधेड़्बुन क्यों चल रही है? अर्धचेतन,अवचेतन चेतन आदि क्या स्मृति से सम्बन्ध नहीं रखते? ग्राह्य नहीं ग्राहकता स्मृति सबल होंने के लिए आवश्यक है। अमेरिकी समाज में भारतीयों की बुद्धि विशेषकर स्मृति को लेकर काफी चर्चा,विवाद एवं खोजबीन १९९० से जारी है। लावण्या अन्तर्मन जी ठीक ही कह रही हैं कि चर्चा विस्तार माँगती है।
लाजवाब प्रस्तुति ...बधाई !!
ReplyDeleteकभी हमारे ब्लॉग "शब्द सृजन की ओर" की ओर भी आयें.
जैसा प्रत्याशित था, अधिकतर लोगों ने कहा कि वे कभी रट्टा नहीं लगा पाये :-)
ReplyDeleteहमने सब कुछ किया है, रट्टा भी लगाने का प्रयास किया है । अच्छा रट्टा लगाने की सबसे पुरानी याद कक्षा ७ की है जब हमारे नये प्रधानाचार्यजी (सरस्वती विद्या मन्दिर) ने कहा कि इस बार एक नाटक अंग्रेजी में किया जायेगा । हमें होनहार समझकर एक बडा रोल दिया गया और २ दिन में रट्टा मारकर सारे डायलाग तैयार भले ही ठीक से उनका अर्थ नहीं पता था ।
फ़िर ११वी कक्षा में Electrochemical Series/Periodic Table (आवर्त सारणी) याद करी । लिकबा (Li K Ba) सरका (Sr Ca), नामगल (Na Mg Al), मनजिनकफ़ी (Mn Zn Ca Fe) आदि आदि । Sin/Cos/Tan भी लाल बटा कका (lal/kka) से याद किया था, लम्ब/कर्ण, आधार/कर्ण, लम्ब/आधार । वैसे "लाला अधारी लाल काम करने आये" भी प्रचलित था ।
उससे पहले कक्षा ९ में जीव विज्ञान में ग्लाईकोलिसिस/क्रेव्स साईकिल का भी रट्टा लगाया । मेढक की अंशमेखला (शायद कंधे की हड्डी) के अडौस पडौस की हड्डियों के नाम भी रट्टा लगाकर ही तो याद किये थे लेकिन अब एक भी याद नही रहे ।
विज्ञान में उत्कृष्ट काम करने वालों के बारे में देखा है कि उनके क्षेत्र में उनकी स्मृति लाजवाब होती है । अब इसे रट्टा कह सकते हैं क्या? शायद रट्टा और विभिन्न तथ्यों के आपस में सम्बन्ध को समझ लेने को ही Concept बनाना कहते हैं ।
आपने वेदों के रट्टाफ़िकेशन के बारे में जो तर्क दिया उससे बहुत कुछ सोचने को मिला । क्या वेदों के अपरिवर्तित रूप में सैकडों वर्ष बिना लिखे Transmit होने का कारण रट्टा था । अगर सभी इसे समझने का प्रयास करते तो सम्भवत: उसमें यथाचेष्ट बदलाव/जोड तोड का प्रयास भी होता ।
इसी से सम्बन्धित एक और विचार मन में आ रहा है । अब चूँकि अधिकतर काम कम्प्यूटर पर होता है, स्मृति धोका दे जाती है । गूगल पर टाईप करते समय कुछ भी Approximate सा लिख दो, पता है गूगल अपने आप गलती सुधार देगा । इससे अंग्रेजी की वर्तनी (Spelling) की समस्या उत्पन्न हो जाती है, बहुत से शब्द जिनका अरसे से इस्तेमाल नहीं लिखा उनको लिखते समय अधिकतर आलस्य और गूगल पर विश्वास के चलते वर्तनी की गडबडी हो जाती है ।
आपकी पोस्ट एवं उस पर मिली टिप्पणियों से निष्कर्ष निकलता है कि रटने की प्रक्रिया को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता.किंतु केवल रटने पर ही निर्भर नहीं रहा जा सकता. मेरा मत है कि विषय को समझने पर ज्यादा ध्यान दिया जाना चाहिए. अपरिहार्य परिस्थिति में ही रटने की प्रक्रिया अपनानी चाहिए.
ReplyDeleteरट्टाफ़िकेशन के हम भी पक्षधर हैं । 13 से 19 तक के पहाड़े हमें भी अब तक याद नहीं। बीस का याद है फ़िर उसके आगे के नहीं।
ReplyDeleteदुर्भाग्यवश ..काफी देर से यहाँ पहुंचा ...
ReplyDeleteपर पूरी पोस्ट ..और टिप्पणियाँ लाजवाव लगीं |
रट्टा को मैंने भी मारा है ....उनमे से कई ट्रिक्स यहाँ बता भी दिए गए हैं |
जैसे Sin/Cos/Tan भी लाल बटा कका (lal/kka) से याद किया था आदि |
पर अब ..रट्टा नहीं ..एक दूसरा तरीका अपनाता हूँ ..खुद अधिक अधिक बार लिखने का प्रयास करता हूँ | पता नहीं सही तरीका है या नहीं ..पर दिमाग में बात फीड हो जाती है |