मेरे बारे में अनूप शुक्ल का पुराना कथन है कि मैं मात्र विषय प्रवर्तन करता हूं, लोग टिप्पणी से उसकी कीमत बढ़ाते हैं। यह कीमत बढ़ाना का खेला मैने बज़ पर देखा। एक सज्जन ने कहा कि यह सामुहिक चैटिंग सा लग रहा है। परस्पर संवाद। पोस्ट नेपथ्य में चली जाती है, लोगों का योगदान विषय उभारता है। ब्लॉग पर यह उभारने वाला टूल चाहिये।
@xyz लगा कर अपनी टिप्पणी दूसरे से लिंक करना कष्ट साध्य है। बहुधा लोग चाह कर भी नहीं कर पाते – टिप्पणियों का क्रॉस लिंकिग करना झंझटिया काम है। लिहाजा मैं डिस्कस (DisQus) के माध्यम से अगली कुछ पोस्टों पर टिप्पणी व्यवस्था बदलने का प्रयोग कर रहा हूं। अगर यह जमा नहीं तो दो-तीन पोस्टों के बाद वापस ब्लॉगर के सिस्टम पर लौटा जायेगा।
अभी इस प्रणाली में आप अपने ट्विटर, फेसबुक, ओपन आई डी, या फिर अपना आइडेण्टीफिकेशन भर कर टिप्पणी कर सकते हैं, दूसरे की टिप्पणी पर प्रतिटिप्पणी कर सकते हैं। बाकी क्या कर सकते हैं – वह आप ही देखें।
देखते हैं यह संवादात्मक ब्लॉगिंग सामान्य पोस्ट और कटपेस्टियात्मक टिप्पणियों का स्थान ले पाती है या नहीं।
छूटते ही Nice ठेल कर मत जाइयेगा!
संवाद की एक मंचीय शैली है। माइक घारी के पास ताकत है। श्रोता मरमर कर सकते हैं। चेलाई में नारा लगा सकते हैं। पर सूत्र रहता है माइक धारी के पास। अगर वह भाषण दे रहा है तब भी और कविता सुना रहा है, तब भी।
हम जो कल्पना कर रहे हैं वह अड्डा या पनघट या चट्टी की दुकान की शैली है। हर व्यक्ति कहता है हर व्यक्ति श्रोता है। ब्लॉग मंचीय शैली के यंत्र हैं। उनका अड्डा शैलीय रूपान्तरण जरूरी हो गया है।
इसमें सिर्फ उनकी मरण है जो गठी हुई, गलती विहीन कालजयी लिखते-कहते हैं। पर मरता कौन नहीं?
निशांत ने मेरी फीड अनसब्स्क्राइब कर दी है। मैं तिक्तता महसूस कर रहा हूं। यह टिप्पणी प्रयोग बन्द। मैं DisQus की टिप्पणियां पोस्ट में समाहित कर दूंगा कुछ समय में।
धन्यवाद।
(वैसे चार घण्टे के इस प्रयोग के दौरान ब्लॉग पर रिटर्न विजिट ४ गुणा बढ़ गई थीं। और एक संतोष मुझे है कि प्रयोग के निर्णय ५४ साल की उम्र में भी ले रहा हूं, करेक्टिव निर्णय भी लेने में दस-पंद्रह मिनट से ज्यादा समय नहीं लग रहा!)
DisQus की टिप्पणियां -
प्रवीण त्रिवेदी -
nice; वैसे जानने की बड़ी इच्छा है कि disqus ही क्यों ?;
हाँ ! यकीनन हिन्दी ब्लोग्स के लिए ......थोड़ा असुविधाजनक के बजाय मुझे कम सुविधा जनक लगा !
disques भी और इंटेंस डिबेट भी !;
रतनसिंह -
टिप्पणियाँ और जबाब देखकर तो बज्ज का सा अहसास हो रहा है |
बढ़िया लग रहा है यह प्रयोग |; वैसे इस टिप्पणी बॉक्स को पहले भी दो एक ब्लॉग पर देखा था वहां अब भी लगा है उन पर कमेन्ट करने के चक्कर में हमने वहां खाता पहले ही बना रखा था | पर आज आपका यह परस्पर संवाद वाला प्रयोग वैसे ही लग रहा है जैसे बज्ज पर लोग बज्ज बजाते रहते है :)
गिरिजेश राव -
एक ठो पोस्ट लिखिए: "हिन्दी ब्लॉगरी में प्रयोगधर्मी और शिक्षा से इंजीनियर ब्लॉगरों का योगदान".
निशान्त -
"ब्लॉग पर यह उभारने वाला टूल चाहिये।"
नहीं चाहिए!;ओह हो!
आप ठेलक!
और हम झेलक!परस्पर संवाद करना चाहते हैं?
चलिए, याहू मैसेंजर पर एक एक्सक्लूसिव चैट रूम बना लिया जाय हिंदी ब्लौगरों के लिए.
पुरानी ब्लौगिंग लौटिये, प्लीज़."इसमें सिर्फ उनकी मरण है जो गठी हुई, गलती विहीन कालजयी लिखते-कहते हैं। पर मरता कौन नहीं?"
ओह हो! तो बात यहाँ तक आ पहुँची!ठीक है. यह व्यवस्था रोचक है और चलाई जा सकती है पर इसमें 'शामिल होने का आग्रह' है.
यदि मैं यह करूं तो मैं खुद को घिरा हुआ सा महसूस करूंगा.
पहले वाला बढ़िया है. पोस्ट चेंप के खिसक लो."ब्लॉग मंचीय शैली के यंत्र हैं। उनका अड्डा शैलीय रूपान्तरण जरूरी हो गया है।"
OK! Let's all join Blogadda! Ha Ha ha!:)
अनूप शुक्ल -
पहले लोग लखेदते होंगे कि शायद कुछ सुधार होगा। बाद में लाइलाज समझकर छोड़ दिया होगा।
अशोक पाण्डेय -
अच्छा है इंटरनेट पर भी चटृटी की चाय-पान की दुकान का जायका मिल जाएगा। लेकिन ध्यान रहे कि उन दुकानों पर तूतू-मैंमैं भी खूब होती है।
मनोज -
nice
दिनेशराय द्विवेदी -
कवि हो या भाषणकर्ता उस के हाथ ताकत तब तक ही रहती है जब तक श्रोता चाहते हैं। जब श्रोता टूट पड़ते हैं तो वह माइक छोड़ भागता है।
कुश वैष्णव -
डायपर वालो से डिस्कस करने के लिए कह रहे है.. आप भी बड़े बहादुर है..
अभी तो झुनझुना बजा लेने दीजिये.. डिस्कस के दिन भी आयेंगे..लोरी हिंदी में होनी चाहिए,, आफ्टर आल वी आर हियर टू प्रमोट हिंदी
यह प्रयोग जमा नहीं । कारण निम्न है ।
मैं ब्लॉग को नदी की तरह मानता हूँ, गंगा की तरह । उद्गम का महत्व है, विचार का उदय, दिशा देने की प्रक्रिया । पहली कुछ टिप्पणियाँ उस नदी में चिन्तन की मात्रा बढ़ा जाती हैं । उस समय नदी का स्वरूप बढ़ जाता है, उसमें स्नान करने वाले पाठकों को आसानी रहती है । जैसे जैसे आगे बढ़ती है नदी, अन्य टिप्पणी सहायक नदियों की तरह मिलती जाती हैं और ब्लॉग का आकार बढ़ता जाता है । यात्रा की समाप्ति पाठक को निष्कर्ष का सुख देती है । सागर में मिलने के बाद भी मानसिक आकाश में उस ब्लॉग के विचार बादल बन बरसने को तैयार रहते हैं ।
बज़, ट्विटर, प्रतिटिप्पणी इत्यादि वह नहरें हैं जो अपने विचार अन्ततः नदी में प्रवाहित करने ही आती हैं । विचार का प्रवाह ही मुख्य है, नहरों से नदी की ओर, निष्कर्ष की ओर ।
यदि इस प्रक्रिया में कोई नया विचार उत्पन्न होता है तो वह भी ब्लॉग के रूप में उत्पन्न हो और अपने निष्कर्ष पर पहुँचे, मुख्य नदी की ऊर्जा का क्षय न करे ।
किसी व्यक्ति के विचार के प्रति की गयी प्रतिटिप्पणी मुख्य प्रवाह का अंग है, कोई नया स्वतन्त्र वक्तव्य नहीं ।
प्रारूप पुराना ही रहे । नहरें अपनी दिशा ढूढ़ें मुख्य नदी में मिलने के लिये
अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी -
देव ,
हमरे पल्ले नहीं पड़ रहा है ई तामझाम !
इतना भी प्रयोग क्या करना !
हो सकता हो हम ही नयी 'हलचलों' को न पकड़ पा रहे हों !
पर रुच नहीं रहा है
महावीर सेमलानी -
सर ! ऐसे में तो इस दूकान के गले पर तो मालिक को घंटो बैठना पड़ेगा तभी ग्रहाक संतुष्ट होगा...? और टिप्पणी+ टिप्पणी= प्रतिटिप्पणी के इस व्यापर में बडोतरी सम्भव है. कुछ हजम नही हुआ सर!
आप सही कह रहे है यह झंझटिया वाला काम है!!!
धीरू सिंह -
यह तो अमर सिंह के ब्लाग वाली स्टाइल है . वैसे नयी तकनीकी का ट्राइल तो करना ही चाहिये
Nice :-)
ReplyDeletekuchh palle nahi pada
हमने तो पहले ही कहा था.. डायपर वाले डिस्कस कहाँ से करेंगे..
ReplyDeleteहमारी राय : आपको थोडा टाइम देना चाहिए था.. बढ़िया प्रयोग था.. डेवलप होते होते रह गया..
अच्छा हुआ कि आपने यह प्रयोग बंद कर दिया। जान बची। अपने यहां इंटरनेट की रफ्तार को देखते हुए मुझे पहले से ही इस प्रयोग की सफलता में संशय था।
ReplyDeleteवैसे यह प्रयोग कब किये थे और मैं उस समय क्या कर रहा था?? सोच में पड़ा हुआ हूँ.. :-o
ReplyDeleteसुबह देखा तो मजा आ रहा था.. टिप्पनी नहीं कर पाया.. क्योंकि नए लेपटाप पर हिंदी का ओजार फिट नहीं था.. और अब आया तो देखा.. "असफल...".. कुश से सहमत समय तो दिया होता बेचारे को..
ReplyDeleteवैसे डिस्कस होता तो भी हम कोई तीर मारने वाले थोड़ी थे.. आप अब कोई नया प्रयोग लाना.. शुभकामनाए....
यह प्रयोगवादी निष्कर्ष इतना शीघ्र निकाल लिया, निर्णय लेने का आभार । नरसिंहा राव का अनिर्णयात्मक निर्णय किसी के लिये सीख न बने ।
ReplyDeleteमुझे 'डिस्कस थ्रो' किये जाने का खेद है लेकिन इसकी पूरी सम्भावना थी.
ReplyDeleteएक पाठक के तौर पर वह सब मेरे लिए बहुत उलझन भरा था. आज छुट्टी का दिन है इसलिए बराबर पोस्ट पर निगाह बनी रही. काम का दिन होता तो रात को ही देख पाता कि मुक्त प्रवाह ने कितने तटबंधों को तोड़ दिया है.
फीड हटानेवाली बात के बारे में तो आपको बता ही दिया है. तिक्तता मत रखिये.
आपने प्रयोग करके देखा, हमें ठीक नहीं लगा. आपको शायद इसलिए ठीक नहीं लगा कि हमें ठीक नहीं लगा, कोई बात नहीं. देखिये कल को कितने ही विकल्प आते हैं ब्लौगिंग में.
यह प्रयोग जारी रहता तो आपको पढ़ना कम थोड़े ही कर देते!
कुश said...
ReplyDelete"हमने तो पहले ही कहा था.. डायपर वाले डिस्कस कहाँ से करेंगे.."
Objectionable.
@ Kush & Nishant - हिन्दी ब्लॉगिंग की शैशवावस्था सुनते सुनते कान पक गये हैं। मजे की बात है कि ब्लॉगर भी उसी मनस्थिति में रहने के आदी हो गये हैं। उनकी (मेरे समेत) प्रतिभा खास रीडरशिप बना ही नहीं पाई है।
ReplyDeleteलिहाजा कुश सही हैं, पर सीधे ताना कसने का ऑब्जेक्शन तो लिया ही जा सकता है।
देखते हैं यह संवादात्मक ब्लॉगिंग सामान्य पोस्ट और कटपेस्टियात्मक टिप्पणियों का स्थान ले पाती है या नहीं।
ReplyDeleteछूटते ही Nice ठेल कर मत जाइयेगा! ...
यह तो चलता ही रहेगा ,रुकेगा नहीं.
टूटे सुजन मनाइए जो टूटे सौ बार ।
ReplyDeleteरहिमन फिर फिर पोहिए, टूटे मुक्ताहार ।।
यह प्रयोग छीलते छीलते एकदम से छील डालने वाला
ReplyDeleteजान पड रहा है :)
लेकिन दाद तो देनी पडेगी कि प्रयोग करना जारी है।
तकनीक के धरातल में देखें ...तो यह प्रयोग उस उद्देश्य की ओर दिशा केन्द्रित था ....कि संभावित आने वाले हर पाठक के पास हर उपलब्ध प्रोफाइल द्वारा वह ब्लॉग की ओर केन्द्रित किया जा सके !
ReplyDeleteपर मैंने स्वयं disques और intense debate को इसी सोच के तहत लगाया और कुछ दिक्कतों के आधार पर हटा दिया था |
तकनीकी आधार पर तीन चार दिक्कतें हैं
१- कमेन्ट ब्लॉगर के डिफौल्ट सिस्टम से बाहर रहते हैं ...सो उनका पुराने ब्लॉग कमेंट्स के साथ कोई जुड़ाव ना रहता है ...और ना ही यह किया जा सकता है |
२-स्पीड को धीमा करने के कारण अभी लोडिंग टाइम अधिक होता है |
३-बार बार प्रोफाइल चेंज करने की स्थिति में ब्लॉग रीलोड होता है |
४-ब्लॉगर प्रोफाइल के पाठकों के लिए यह कमेंटिंग सिस्टम अभी भी बिलकुल अनुकूल नहीं हैं| क्योंकि इसी के सहारे वह अपनी ब्लॉग की रीडरशिप भी तो बढ़ाना चाहता होगा ?
@नामराशि पाण्डेय जी से इस मामले में पहली बार असहमति है कि ऐसे प्रयोगों में वह त्वरित रूप से कुछ और गंभीरतम ढूँढने दिखे हैं ...जबकि मामला केवल तकनीकी का मुझे समझ आता है |( या तो मुझे कुछ और समझने की जरुरत है?)
@ज्ञानजी पूरे 100 आउट ऑफ़ 100
(कारण आप जानते ही हैं)
और हमें लगा नाईस महोदय के आतंक से केवल हम ही त्रस्त हैं :)
ReplyDeleteहमें तो बढ़िया प्रयोग लग रहा है
पता नहीं जो इसमे दुबकी माँरे थे उनको पसंद काहे नहीं आया
@निशांत
ReplyDeleteएग्री विद यु.. लेकिन क्या करे.. ये व्यंग्य है खुद पर ही.. क्योंकि मैं भी इसी सिस्टम का एक पार्ट हूँ.. डायपरिज्म को हमने पतली गली से खिसकने के लिए अपना लिया है..
तुम ही बताओ क्या किया जाए.. ? क्या अब डायपर उतारने का समय नहीं ?
@पाण्डेय जी
सहमति के लिए शुक्रिया...आप ही के यहाँ ऐसा डिस्कशन एक्स्पेक्ट कर सकता हूँ.. और बोल भी सकता हूँ..
apan taqniq ke mamle me zeeo bate sannata, anda bate paraatha hain, ;)
ReplyDeleteaapki post din me dekho, disques ka naam dekha( pahli baar dekha) socha muddaa sahi hai jakar udhar join kar lein, kiya bhi.
ab join karne ke baad kya karein.... samajh me nahi aaya, aapke blog ke nam and link ke sahare udhar ise dhundhne ki asfal koshish ki aur safal nahi hue, time tha kam; disques se log-out mar liye....
ab ye bataiye, mere jaisa haal kitno ka hua hoga?
संवाद को लेकर कुश की वैषण्वी वृत्ति उज़ागर हुई. ग्यान जी आज कल हल चल साफ़ साफ़ समझ नही आती क्या बात है.....? पाड्कास्ट के लिये तैयार हैं ..........?
ReplyDeleteहम एकदमें चुप!!
ReplyDeleteविचारों की ऐसी उन्मुक्तता कहाँ दिखेगी ।
ReplyDelete@ एक संतोष मुझे है कि प्रयोग के निर्णय ५४ साल की उम्र में भी ले रहा हूं, करेक्टिव निर्णय भी लेने में दस-पंद्रह मिनट से ज्यादा समय नहीं लग रहा!
ReplyDelete&
@ डायपर
मुझे लगता है मैं बुढ़ाने लगा हूँ।
यह कौन सी रेसिपी है? कुछ समझ नहीं आया। इतनी ज्ञानवर्द्धक बाते समझ कम ही आती हैं आप तो ले-मेन की भाषा में लिखो तो समझ आए।
ReplyDeleteडा. महेश सिन्हा -
ReplyDeleteउम्र और प्रयोग का क्या संबंध ?
उम्र हो पचपन की लेकिन दिल रहे बचपन का :)
श्रीमती गुप्त से सहमत। इतना भारीभरकम भाषा का प्रयोग कि पल्ले ही कुछ नहीं पड़ रहा। वैसे भी हम तो डायपर वाले ज़माने के तो हैं नहीं। हमारे ज़माने में या तो बिस्तर या मां की गोद गीला हुआ करता था।
ReplyDelete@ कुश...
ReplyDeleteएग्री विथ यू.
डायपर उतारने का वक़्त आ गया है. एडल्ट डायपर उतारने का.
"हिन्दी ब्लॉगिंग की शैशवावस्था सुनते सुनते कान पक गये हैं।"
ReplyDeleteअभी पिछले महीने की बात है. अमर सिंह जी ने जेनेटिक इंजीनियरिंग पर एक लेख लिखा था. वो भी हिंदी में. पिछले हफ्ते दिल्ली में अलबेला खत्री जी ने हिंदी ब्लागिंग के भविष्य पर चिंतन कर डाला. उसके बावजूद क्यों लोग कहते हैं कि हिंदी ब्लागिंग अभी भी शैशवावस्था में है?
अजी आज तो चारो ओर नाईस ही नईस लग रहा है जी, इस से ज्यादा कुछ समझ मै नही आ रहा जी
ReplyDeleteनहीं पता था कि हम भी डायपरधारी हैं।
ReplyDeleteमुझे 'डिस्कस थ्रो' किये जाने का खेद है लेकिन इसकी पूरी सम्भावना थी.
ReplyDeleteएक पाठक के तौर पर वह सब मेरे लिए बहुत उलझन भरा था. आज छुट्टी का दिन है इसलिए बराबर पोस्ट पर निगाह बनी रही. काम का दिन होता तो रात को ही देख पाता कि मुक्त प्रवाह ने कितने तटबंधों को तोड़ दिया है.
फीड हटानेवाली बात के बारे में तो आपको बता ही दिया है. तिक्तता मत रखिये.
आपने प्रयोग करके देखा, हमें ठीक नहीं लगा. आपको शायद इसलिए ठीक नहीं लगा कि हमें ठीक नहीं लगा, कोई बात नहीं. देखिये कल को कितने ही विकल्प आते हैं ब्लौगिंग में.
यह प्रयोग जारी रहता तो आपको पढ़ना कम थोड़े ही कर देते!