Saturday, April 3, 2010

अभिव्यक्ति का स्फोट

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सांझ घिर आई है। पीपल पर तरह तरह की चिड़ियां अपनी अपनी आवाज में बोल रही हैं। जहां बैठती हैं तो कुछ समय बाद वह जगह पसन्द न आने पर फुदक कर इधर उधर बैठती हैं। कुछ एक पेड़ से उड़ कर दूसरे पर बैठने चली जाती हैं।

क्या बोल रहीं हैं वे?! जो न समझ पाये वह (मेरे जैसा) तो इसे अभिव्यक्ति का (वि)स्फोट ही कहेगा। बहुत कुछ इण्टरनेट जैसा। ब्लॉग – फीड रीडर – फेसबुक – ट्विटर – बज़ – साधू – महन्त – ठेलक – हेन – तेन! रात होने पर पक्षी शान्त हो जाते हैं। पर यहां तो चलती रहती है अभिव्यक्ति।

फलाने कहते हैं कि इसमें अस्सी परसेण्ट कूड़ा है। हम भी कह देते हैं अस्सी परसेण्ट कूड़ा है। पर क्या वाकई? जित्तू की दुकान पर समोसा गटकते लड़के पारिवारिक सम्बन्धों की गालियों की आत्मीयता के साथ जो कहते हैं, वह जबरदस्त स्टिंक करता कचरा भी होगा और नायाब अभिव्यक्ति भी। अभिव्यक्ति क्या सभ्य-साभ्रान्त-भद्र-एलीट की भाषाई एलिगेंस का नाम है या ठेल ठाल कर मतलब समझा देने का?

एक बात और। लोग इतना अभिव्यक्त क्यों कर रहे हैं इण्टरनेट पर। क्या यह है कि अपने परिवेश में उन्हे बोलने के अवसर नहीं मिलते? क्या अड्डा या पनघट के विकल्प शून्य हो गये हैं। आपस में मिलना, चहमेंगोईयां, प्रवचन, कुकरहाव, जूतमपैजार क्या कम हो गया है? लोग पजा गये हैं धरती पर और सब मुंह पर टेप लगाये हैं? ऐसा तो नहीं है!

मैं तो बहुत प्रसन्न होऊं, जब मेरा मोबाइल, फोन, दफ्तर की मीटिंगें और कॉन्फ्रेंस आदि बन्द हो जायें – कम से कम कुछ दिनों के लिये। यह विशफुल थिंकिंग दशकों से अनफुलफिल्ड चल रही है। वह अगर फुलफिल हो जाये और रचनात्मकता के अन्य क्षेत्र मिलें तो शायद यह ब्लॉग-स्लॉग का चार्म कम हो। शायद अपनी सफलता के क्षेत्र का सामान्य ओवर-अभिव्यक्ति का जो हाई-वे है, उससे इतर आदमी अपनी पगडण्डी बना चलना चाहता है। पर शायद ही – निश्चित नहीं कह सकता। 

यह स्फोट समझ नहीं आता। पता नहीं समझशास्त्री क्या कहते हैं इस बारे में!   


33 comments:

  1. मसला बड़ा कन्प्यूजिंग है...लेकिन ये तो सही है कि अगर जिंदगी (पेशेवर) मोहलत तो दे शायद हम कोई और शगल इख्तियार कर ही लेते...हां भी और शायद नीं भी...तब शायद यह एकमात्र मजबूरी नहीं रह जाती...

    आलोक साहिल

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  2. हमें नहीं मालूम किन्तु हमारे पास अड्डा पनघट वाला विकल्प वाकई नहीं है. घर बैठे खिड़की से बाहर ताकें या माईक्रो सॉफ्ट वाली खिड़की से अन्दर...ये अन्दर ताकना ज्यादा भाता है. जबाब आता है न!!

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  3. आपस में मिलना, चहमेंगोईयां, प्रवचन, कुकरहाव, जूतमपैजार क्या कम हो गया है? लोग पजा गये हैं धरती पर और सब मुंह पर टेप लगाये हैं? ऐसा तो नहीं है!'
    ऐसा ही है, कम से कम जो लोग इंटरनेट पर अभिव्यक्त कर रहे है, क्योंकि यहाँ भी वो सब कुछ उपलब्ध है.

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  4. अभिव्यक्ति तो कर ही रहे हैं लोग..वैसे तो हमरे हियाँ की गोरी पनघट पर मिलती नहीं, ई लोग जाड़ा में घट होतीं हैं, नज़रे नहीं आतीं और गर्मी में घाट पर होती हैं इसीलिए ...ई ऑप्शन तो हइये नहीं है हमरे लिए....
    बाकि अभिव्यक्ति कोई भी हो माध्यम होना ही चाही...और इन्टरनेट से बेहतर कौन माध्यम है भला, हींग लगे न फिटकिरी रंग आये चोखा....जो मर्ज़ी अभिव्यक्त कीजिये और पोस्टिया दीजिये....सबसे अच्छी बात, आप खुल के पाहिले अभिव्यक्त कर देते हैं कोई टोकने वाला नहीं ....बाद में फिर किसी को बोलने का मौका मिलता है....जबकि बात-चीत में आप कहेंगे फिर दूसरा कहेगा फिर आप कहेंगे...और अगर जो सामने वाला पार्टी तगड़ा हुआ तो आप सिर्फ सुनेंगे...तो चल गयी न अभिव्यक्ति तेल लेने...हाँ नहीं तो...!!!
    और वो बात जो आप कभी कहीं किसी से नहीं कह पाए आप कह देते हैं, अंजाम कि चिंता किये बगैर...दूसरी बात स्कोप तो देखिये ....आपकी बात कितनी दूर तक जाती है...और instant reward ...है टिप्पणी, और आप वही करते हैं जो आपको सबसे ज्यादा पसंद है...बिना किसी हील हुज्ज़त के....जरूरी नहीं कि कविता, कहानी ही होवे, खाना-पकाना, पहलवानी, कोई भी कलाकारी होवे कि करतब ..सब कुछ समाहित हो सकता है इसमें...तो काहें कोई अपन पैसा, समय और मगज कहीं और लगावेगा...
    देखा जाए तो सब अपनी पगडण्डी ही बना रहे हैं....बस एक जैसी पगडंडियाँ, जुडी हुई लगती हैं जो हाई वे का भ्रम देती हैं...
    बहुत अच्छा लगा आपको पढना...
    आभार..

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  5. सुबह सुबह सुनने को मिलती हैं बीबी की बतियाँ
    फिर कोई टेलीफोन
    घऱ से निकलते ही
    नुक्कड़ पर गाड़ियों का जमघट
    ट्रेफिक में हॉर्न की आवाजें
    पान की दुकान पर दो-दो बाबूलाल
    एक पान बनाता
    दूसरा हवा में झाँकते हुए
    दुनिया के शत्रुओं को कोसता
    फिर अदालत दिन भर काम
    काम के बीच फुरसत के वक्त में
    कॉफी के साथ दुनिया भर की बातें
    बीच में लड़ते, झगड़ते,
    समझौता करते लोग
    खूब सुनता हूँ
    खूब बोलता हूँ
    अभिव्यक्ति मोहताज नहीं
    केवल इंटरनेट की
    पर यहाँ का आनंद कुछ और है
    कुछ काम की बातें
    कुछ तसल्ली बख्श
    कुछ कुछ उत्तेजनापूर्ण
    बेमतलब कुछ लोगों से आदानप्रदान
    बाकी दुनिया तो बहुत मतलबी है।

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  6. चुप्पै चाप ऐसे ही बने रहिये ज्ञान जी -यद्याचरेत श्रेष्ठः तद्देवो इतरो जनः .....आपके पगडंडी पकड़ लेने से ब्लॉग गलियाँ वीरान हो जायेगीं माई बाप -ऐसा जुल्म मत धारो महराज!

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  7. बकधुन बात के अवसर बढ़े हैं तो लोग सरेआम उसका फायदा ले रहे हैं - इंटर्नेट ही क्यों नए भी जुड़े हैं जैसे माल । एयर कंडीशंड माहौल में फोकट की बकधुन ... बकधुनें हर जगह चल रही हैं । बस कुछ जगहों पर हमने जाना छोड़ दिया है। कल ही बात हो रही थी कि ट्रेनों में अब उस तरह की गरमागरम बहसें नहीं होतीं। मैंने उनसे कहा, अमाँ तुम अपग्रेड हो कर ए सी क्लास में आ गए हो। जरा स्लीपर में जाओ - लंडूरे सानिया की शादी से लेकर बाबा रामदेव की जवान काया के राज तक पर गुत्थमगुथ्था हो रहे होंगे।
    .. उसने मुंह बिचका दिया, उसे 'सर्वहारा की पाद' से अब परेशानी होती है।

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  8. प्रस्फोट, विस्फोट और प्लेन 'स्फोट' में अंतर बताइए।

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  9. अपने विचारों को अभिव्‍यक्ति देने की बेचैनी तो होती ही है .. जहां भी जो साधन मिल जाए .. उसका फायदा उठाते ही आए हैं हम !!

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  10. मेरी समझ में अभिव्‍यक्ति मतलब समझा देने का ही नाम है, चाहे ठेल-ठाल के ही सही।

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  11. @ गिरिजेश राव > प्रस्फोट, विस्फोट और प्लेन 'स्फोट' में अंतर बताइए।

    हम तो मात्र शब्द इस्तेमालक हैं। अर्थ बतायेंगे अजित वड़नेरकर। आजकल शायद हरिद्वार गये हैं पुण्य लाभ करने को!

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  12. @ अशोक पाण्डेय - कहां रहे बन्धु? गेहू की कटाई कर के लौट रहे हो क्या ब्लॉग पर?

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  13. बहुत अच्छा है । अभी तक अभिव्यक्ति का आकाल था, अब स्फोट है । इसको दिशा देने की आवश्यकता है । यह कार्य बड़ों का ही है । गुणवत्ता व अनुनाद तो उसी से ही आयेगा ।

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  14. तुम्हे गैरोन से कब फुर्सत, हम अपने गम से कब खाली
    चलो अब हो चुका मिलना, न हम खाली न तुम खाली.
    वक़्त किस्के पास है मिल्ने जुलने के लिये. इसीलिये अप्नी अप्नी सुविधा के अनुसार कम्प्यूटर बाबा के सामने बैठ कर बतिया लेने मे क्या हर्ज़ है. वैसे भी दफ्तर मे बास बोल्ता है और घर मे बीवी. बीवी चुप तो टीवी चालू. मज़बूरी है की दोनो को ही सुनना ज़रूरी है.
    पुराने पंघटिया मित्र अब एस एम एस से काम चला रहे है. मीटिंग के बीच मे मेसैज आ जाता है तो मज़ा आ जाता है. आप पंघट की सोच्ने लग्ते हैन और बास समझता है कि लड़्का चक्का चेस कर रहा है.
    हम लोग खुशनसीब है कि कम से कम पंघट और अड्डे के बारे मे जानते है. अग्ली पीढी का पनघट और अड्डा सब कम्प्यूटर बाबा की ही शरण मे है.
    जबान का काम अब धीरे धीरे उंगलियोन के जिम्मे जा रहा है. प्रक्रिति परिवर्तन करवाती है. देख्ते रहिये किस किस अंग का काम किस अंग पर जाता है.
    बहर्हाल आप तो मीडिअम की चिंता किये बगैर लगे रहिये ब्लोग लेखन पर.

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  15. आस पड़ोस रहा नहीं, है तो बतियाने का समय नहीं. अतः हम ट्विटिया कर समय जाया कर रहे हैं.

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  16. मैं तो ठेल-ठाल कर भी समझा ही नही पाता हूं। क्या ये भी अभिव्यक्ति का स्फोट है?

    प्रणाम

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  17. मुझे तो इस पीपल पेड़ की तस्वीर बहुत अच्छी लगी । यह तो चुप ही रहता है । शायद इन पक्षियों से अपने विचारों का आदान-प्रदान करता हो ।

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  18. गुरू जी क्षमा सहित बता रहे है कि अपना इश्टाईल वो जित्तू की दुकान पर समोसा गटकने वालों लड़कों जैसा ही है,फ़िर अभिव्यक्ति चाहे धर्म के नाम पर हो या बापू के हथियार अहिंसा पर।अपनी अभिव्यक्ति की क्लास लगती है और एक दो दिन न जाओ तो चेले-चपाटी फ़ोन करके बुला लेते हैं आओ न गुरूएव बिना आपकी गाली खाये कुछ पचता नही है।अपन सभ्य-संभ्रांत-भद्र-एलीट क्लास की भाषाई एलिगेंस से इत्तेफ़ाक नही रखते बल्कि ठेल-ठाल के समझा देते हैं।अपनी अभिव्यक्ति ठीक तो है ना गुरूदेव्।

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  19. @ Anil Pusadkar > अपनी अभिव्यक्ति ठीक तो है ना गुरूदेव्।

    सही साट अभिव्यक्त कर रहे हैं। जमाये रहिये ऐसे ही! :)

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  20. साइबर में सबका ब्‍लॉग उनके घर के समान है
    लोग अपना कूड़ा अपने घर के डस्‍टबीन में डालें तो कि‍सी को क्‍या तकलीफ होगी।

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  21. इसमें तो कोई शक नहीं,अभिव्यक्ति के माध्यम कम से कमतर होते जा रहें हैं. सब लोग सिमटते जा रहें हैं, उसपर यह ब्लॉग एक बढ़िया ऑप्शन लेकर आया है. कुछ सृजनात्मक लेखन भी हो जाता है,क्यूंकि पढनेवाले मिल जाते हैं.

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  22. अभिव्यक्ति तो कर ही रहे हैं लोग..वैसे तो हमरे हियाँ की गोरी पनघट पर मिलती नहीं, ई लोग जाड़ा में घट होतीं हैं, नज़रे नहीं आतीं और गर्मी में घाट पर होती हैं इसीलिए ...ई ऑप्शन तो हइये नहीं है हमरे लिए....
    यह कमबखत पनघट हमारे यहां है ही नही जी घर मै नल लगा है . लेकिन यहां गोरिया तो गले पडती है खुब चाहे जाडा हो या गर्मी जी

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  23. बहुत अच्छी प्रस्तुति। सादर अभिवादन।

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  24. अभिव्यक्ति क्या सभ्य-साभ्रान्त-भद्र-एलीट की भाषाई एलिगेंस का नाम है या ठेल ठाल कर मतलब समझा देने का?..
    इसकी व्याख्या तो तो काफी दुष्कर है सर जी.

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  25. सुबह से दो बार टिप्पणी लिखने की सोची, लेकिन समझ ही नहीं आया कि क्या लिखूं।

    कम्बख्त अभिव्यक्तियां भी कभी कभी गच्चा देने लगती है :)

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  26. देव ,
    @ क्या बोल रहीं हैं वे?
    --------- यही तो रहस्य है , अबूझ और बूझनीय दोनों !
    @ अभिव्यक्ति क्या सभ्य-साभ्रान्त-भद्र-एलीट की भाषाई एलिगेंस का नाम है
    या ठेल ठाल कर मतलब समझा देने का?
    --------- कौन कहता है कि कुरूपता(?) का सौन्दर्य नहीं होता ! '' जेहि मुख देखा
    तेहि हंसा '' वाले जायसी को लीजिये !
    काशी नाथ सिंह के असी घाट का वर्णन भी तो कुछ सच ही कहता है , कोई देखे चाहे
    न देखे !
    @ यह स्फोट समझ नहीं आता।
    '' जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा
    कुरेदते हो जो अब राख, जुस्तुजू क्या है | '' ( ग़ालिब )
    ...... सबको पता है कि यह राख ही कुरेद रहा है पर वह ऐसा न करे तो क्या करे !
    जाने कौन कुदरती जुस्तजू है जिसे ले कर पिला रहता है ! ..
    और यह सवाल बार बार उठता है , और कह लीजिये जवाब भी ---
    ''हर एक बात पे कहते हो तुम के 'तू क्या है ?
    तुम ही कहो के यह अंदाज़-ए-गुफ्तगू क्या है ?'' ( ग़ालिब )

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  27. अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम बनता जा रहा है अंतर्जाल |मुझे तो लगता है शाम ७ब्जे से रात दस बजे तक बिजली ही चली जाय|तो घर में नये नये व्यंजन बनाने कि विधिया तो आदान प्रदान कर लेगी घर से बाहर निकलकर हम लोग ,कम से कम षड्यंत्रों के रचने कि क्लास में तो नहीं बैठना पड़ेगा |
    कही मेरे अभिव्यक्ति ब्लॉग पर तो नहीं है ये आपकी पोस्ट ?हाहाहा ..

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  28. आजकल आपके ब्लौग में लगाये जा रहे चित्रों के बारे में कहना था. ये पूरे ब्लर दिखाई देते हैं जब तक इनपर माउस पॉइंटर नहीं ले जाएँ. खुली-खुली पोस्ट में इनका ब्लर दिखना सुहाता नहीं.
    क्या कारण है इसका?

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  29. मैं तो बहुत प्रसन्न होऊं, जब मेरा मोबाइल, फोन, दफ्तर की मीटिंगें और कॉन्फ्रेंस आदि बन्द हो जायें
    सत्य वचन! ठलुआई का अलग ही आनंद है.

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  30. मै क्यू इन जगहो पर हू नही जानता? शायद घर और दोस्तो से दूर होना इसका एक कारण हो..

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  31. आपकी 'विशफुल थिंकिग' अकेले आपकीक नहीं है। तय कर लीजिए कि एकाधिकार भंग होने पर खिन्‍न होंगे या जमात बढने पर प्रसन्‍न।

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  32. "लोग इतना अभिव्यक्त क्यों कर रहे हैं इण्टरनेट पर।"

    मैं तो कही नहीं करता ।
    देखा है आपने मुझे अभिव्यक्ति करते हुये ?

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  33. Gajabai abhibyakti ba !

    32 jane teep dihin, kuchh bachau nahi humre khaatir !

    @km mishra-

    Internet naahi to kehar abhibakat keen jaaye?

    Tohre mobile pe?

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--- सादर, ज्ञानदत्त पाण्डेय