उस दिन मेरे रिश्ते में एक सज्जन श्री प्रवीणचन्द्र दुबे [1] मेरी मेरे घर आये थे और इस जगह पर एक मकान खरीद लेने की इच्छा व्यक्त कर रहे थे। मैं घर पर नहीं था, अत: उनसे मुलाकात नहीं हुई।
टूटी सड़क, ओवरफ्लो करती नालियां और सूअरों से समृद्ध इस जगह में वह क्यों बसना चाहते हैं तो मेरी पत्नीजी ने बताया कि “वह भी तुम्हारी तरह थोड़ा क्रैंकी हैं। पैसा कौड़ी की बजाय गंगा का सामीप्य चाहते हैं”।
अब देखें, पत्नीजी भी हमारी क्रैंकियत को अहमियत नहीं देतीं, तो और लोग क्या देंगे! श्री प्रवीणचन्द्र दुबे की पत्नी से नहीं पता किया – शायद वहां भी यही हाल हो!
खैर, शायद यह “बैक ऑफ द माइण्ड” रहा हो - कल सवेरे सवेरे गंगा किनारे चला गया। पांव में हवाई चप्पल डाल रखी थी। गनीमत है कि हल्की बारिश हो चुकी थी, अन्यथा रेती में चलने में कष्ट होता। भिनसारे का अलसाया सूरज बादलों से चुहुल करता हुआ सामने था। कछार में लौकी-नेनुआ-कोंहड़ा के खेत अब खत्म हो चुके थे, लिहाजा गंगामाई की जलधारा दूर से भी नजर आ रही थी।
गंगा स्नान को आते जाते लोग थे। और मिले दो-चार कुकुर, भैंसें और एक उष्ट्रराज। उष्ट्रराज गंगा किनारे जाने कैसे पंहुच गये। मजे में चर रहे थे – कोई मालिक भी पास नहीं था।
गंगा किनारे इस घाट का पण्डा स्नान कर चुका था। वापस लौट कर चन्दन आदि से अपना मेक-अप कर तख्ते पर बैठने वाला था। एक सज्जन, जो नहा रहे थे, किसी जंगली वेराइटी के कुकुरों का बखान कर रहे है - “अरे ओन्हने जबर जंगली कुकुर होथीं। ओनही के साहेब लोग गरे में पट्टा बांधि क घुमावथीं” (अरे वे जबर जंगली कुत्ते होते हैं। साहेब लोग उन्ही को पालते हैं और गले में पट्टा बांध कर घुमाते हैं)। शरीर के मूल भाग को स्नानोपरान्त गमछा से रगड़ते हुये जो वे श्वान पुराण का प्रवचन कर रहे थे, उसे सुन मेरा अवसाद बेबिन्द (पगहा तुड़ा कर, बगटुट) भागा!
गंगामाई में थोड़ा और जल आ गया है और थोड़ा बहाव बन गया है। अच्छा लगा। मैं तो ग्रीष्मकाल की मृतप्राय गंगा की छवि मन में ले कर गया था; पर वे जीवन्त, अवसादहारिणी और जीवनदायिनी दिखीं।
जय गंगामाई!
[1] मुझे बताया गया; श्री प्रवीण चन्द्र दुबे रीवां में चीफ कंजर्वेटर ऑफ फॉरेस्ट हैं। मैं उनसे आमने सामने मिला नहीं हूं (अन्यथा यहां उनका चित्र होता जरूर)। वे अब इन्दौर जायेंगे स्थानान्तरण पर। उनके प्रभाव क्षेत्र में इदौर-झाबुआ-धार के जंगल रहेंगे। और मैं वह मालव क्षेत्र एक बार पुन: देखना चाहूंगा!
प्रवीण, जैसा मुझे बताया गया, एस्ट्रॉलॉजी में गहरी दखल रखते हैं। किसी को प्रभावित करने का ज्योतिष से कोई बढ़िया तरीका नहीं!
गंगा जी के प्रति आपका आत्मीय भाव बार-बार आपको तट की ओर ले जाता है । गंगा माई को गाहे बगाहे आप ही तो याद करते हैं यहाँ ।
ReplyDeleteसवेरे-सवेरे गंगा स्मरण । आभार ।
गंगे तव दर्शनार्थ मुक्तिः।
ReplyDeleteइलाहाबाद में रहने का यह लाभ तो है ही कि जब चाहें मुक्तिदायिनी भागीरथी का दर्शन कर लें। पतित पावनी गंगा का सानिध्य निश्चित ही सुखकर है।
जय गंगे।
भारतीय संस्कृति (और वाराणसी) के मूल में आनंद (परमानंद) ही है. जहां मरण भी एक उत्सव हो वहां सब कुछ अवसादहारी ही होना चाहिए. हमारे एक (गौर) अमेरिकी मित्र जब बहुत खुश होते हैं तो "गंगम्मा, माँ गंगे" का उच्चार करते हैं जो उन्होंने भारत के बारे में किसी वृत्तचित्र में सुना था.
ReplyDeleteगंगा मैया की जे . सच है जब मन संतुष्ट नहीं होता तब हरिद्वार या प्रयाग जाने का मन करता है
ReplyDeleteअवसाद को अपने पास पगहे से बाँधकर तो मत रखिए कि उसकी जाने की इच्छा हो तो भी न जा सके !
ReplyDeleteअब समझ में आया महाभारत में भीष्म पितामह क्यों बार बार गंगा किनारे पहुँच जाते थे !
जय गंगे !
पतित पावनी गंगा अवसादहारिणी तो है हीं। हमारे यहां से वाराणसी नजदीक है। जब भी गंगा मैया के घाट पर जाने का सुअवसर मिलता है, हटने का जी नहीं करता।
ReplyDeleteआदरणीया रीता पाण्डेय जी से अनुरोध है की जब भी कभी कभार आप गंगारोहण को निकलें वे भी साथ हो लें -यह वैराग्य के अर्ली सिम्टम लग रहे हैं -कहीं ऐसा न हो की एक दिन कहीं उधर फाफामऊ से उतर ज्ञान जी एवेरेसटाभिमुख न हो जाएँ !
ReplyDeleteमुझे तो बनारस के घाटों तक ही जाने की जबर्दस्त मनाही है -अब इधर समीर जी की हुक्म पर एक अनुष्ठान के लिए सुबह गंगा स्नान के लिए क्या जा रहा हूँ कुहराम मचा हुआ है ! (संदर्भ साईंस ब्लॉगर असोसियेशन नवीनतम पोस्ट )
इलाहाबाद में तो जगह -जगह प्रोफ.दीनानाथ शुक्ल का लिखा हुआ यह नारा दीखता है कि -
ReplyDeleteगंगा नदी नहीं है
गंगा नहीं हैं पानी ,
गंगा हमारी माँ है
गंगा है जिंदगानी |
अच्छा लगा यह जानकर कि मां गंगा मे अब जीवन प्रवाह (पानी) बढना शुरु होगया है.
ReplyDeleteआपका और दुबेजी का मालवा धरा पर स्वागत है, कभी भी पधारिये, आपका घर है. शुभकामनाएं.
रामराम.
अवसादहारिणी लोगों का अवसाद हर हर कर अब अवसादधारिणी हो चुकी है, उस अवसाद की सांद्रता को वर्षा का जल ही कुछ कम कर पाता है।
ReplyDeleteबड़ी नदियां मनुष्यों को हमेशा ही आकर्षित करती रही हैं।
ReplyDeleteबहता जल मन के अन्दर जीवन्तता उत्पन्न करता है । यदि बहाव गंगा का हो तो पवित्रता और ऐतहासिक तथ्य भी मनस पटल पर उभर आते हैं । भूपेन हजारिका का ’गंगा बहती हो क्यों’ आज भी सुनता हूँ तो शरीर और मन में रोमांच आ जाता है । यही हमारी श्रद्धा का उत्कर्ष है ।
ReplyDeleteभिनसारे का अलसाया
ReplyDeleteसूरज बादलों से चुहुल करता हुआ
सामने था।
कछार में लौकी-नेनुआ-कोंहड़ा के खेत
अब खत्म हो चुके थे...
और मैं
मैं क्रेंकी!!!
--यह तो काव्य है..कैसे क्रेंकी कवित्त रच गया..हद है!!
हर हर गंगे।ले देकर दो बार ही दर्शन कर पाया हूं गंगा मैया के दोनो ही बार पंडो ने दिमाग खराब कर दिया था।बाल मूंछ और दाढी,तब दढियल हुआ करता था मै,दिखा-दिखा कए सफ़ाई देते-देते थक गया कि मेरे घर मे सब ठीक है भैया,मेरा पिछा छोड़।वैसे गंगा मैया के दर्शन की और इच्छा है।
ReplyDeleteगंगा का आरंभ से अंत तक प्रवाह चंचलता से लेकर स्थैर्य औए गंभीरता को समेटे है....
ReplyDeleteआपका गागा तट का चिंतन भी अवसाद हरने वाला है.
pehla chitr sundar hai..baaki sameer ji se ittefaq mujhey bhi :)poori kavita ban sakti hai
ReplyDeleteनदी किनारे वास्तव में ही अच्छा लगता है.
ReplyDelete"प्रवीण, जैसा मुझे बताया गया, एस्ट्रॉलॉजी में गहरी दखल रखते हैं। "
ReplyDeleteजब प्रवीण जी आए तो बता देना, हम गंगा में हाथ धो कर आएंगे ताकि वे हाथ धोकर पढे़:)
ये लीजिए, अरविंद जी अपना अवसाद मिटाने के लिए यहां चले आए।
ReplyDelete-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
मेरी भी जीवन की तमाम अभिलाषाओं में से एक यह है कि गंगा किनारे एक आश्रम टाइप कुछ हो, उसमें ब्लागिंग हो, ध्यान हो, मस्ती हो।
ReplyDeleteगंगा का दर्शन भर टेंशन फ्री करता है.
आप सच्ची में सौभाग्यशाली हैं कि गंगा के करीब हैं।
मेरे मन में गंगा की छवि देव प्रयाग से हरिद्वार वाली ही है...उसके आगे की गंगा को गंगा कहना अखरता है...पता नहीं क्यूँ...इलाहबाद कभी गया नहीं लेकिन इतना जानता हूँ जिसने गंगा को हरिद्वार या उस से पहले देखा है उसे निराशा ही होगी...
ReplyDeleteनीरज
गंगा तेरा पानी अमृत जैसा गीत अब नहीं गा सकते ...गंगा का दोहन तो हमने कर ही दिया है ..कुछ फोटू बाकी असल कहानी कह रहे है
ReplyDeleteमनमोहक चित्रांकन।
ReplyDeleteकल कल करती गंगा तो अब शायद ऋषिकेश और हरिद्वार तक ही सिमट गयीं हैं. पर गंगा मैया तो गंगा मैया हैं.
ReplyDeleteगंगा किनारे जाना अवसाद शमन करता है। उत्फुल्लता लाता है।
ReplyDeleteयह मैंने गंगा किनारे ही नहीं वरन् अन्य नदियों के किनारे भी महसूस किया है। बहते पानी को देख मन में एक अलग ही शांति का आभास होता है, मन हल्का सा हो जाता है - like a person lays down his burdens - जैसे व्यक्ति अपने हर प्रकार के बोझ से हल्का हो गया हो। :)
गंगा वर्णन ही गंगा स्नान है
ReplyDeleteमन चंगा तो कठौती में गंगा
जे गंगे
वीनस केसरी
आदरणीय पांडेय जी ,
ReplyDeleteमैं तो बरसों से गंगा मैया से दूर गोमती किनारे पडा हूँ ...आपका लेख पढ़ कर अपने उन दिनों की यIद् करने लगा जब ममफोर्ड गंज से पैदल रसूलाबाद नहाने जाता था .बहुत खुशनसीब हैं आप जो गंगा माता के दर्शन रोज करते हैं .शुभकामनाएं .
हेमंत कुमार
गंगा के प्रति अपार श्रद्धा देख बहुत बार लगता है, गंगा में डुबकी लगानी है, देखें कब यह होता है.
ReplyDeleteजे गंगा मैया की | वाकई में गंगा किनारे मन को अजीब सी शांति मिलती है .
ReplyDeleteज्ञान काका वो उष्ट्रराज हमारे पड़ोस के यादवजी के यहां गुलामी करते हैं । कभी वो बेचारा मिट्टी, बालू ढोता है तो कभी कछार से साग-तरकारी । सवेरे सवेरे चला गया होगा वो भी मां गंगा से अपनी मुक्ति की गुहार लगाने ।
ReplyDeleteहम तो अपनी छत से ही रोज सवेरे मां गंगा के दर्शन कर लेते हैं । कहते हैं न गंगा दर्शन से भी नहाने का पुण्य मिल जाता है । गंगे तव दर्शनार्थ मुक्तिः।
माता गंगा का सामीप्य इतना अद्भुद आनंददायी हुआ करता है की मानना ही पड़ता है की इसमें ऐसा कुछ विशेष अवश्य है जिसे मन तो जान ही लेता है भले मस्तिष्क देख गुण पाए या नहीं....
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