जहां कहीं कतार लगी दिखे तो मान लीजिये कि आगे कहीं बॉटलनेक है। बॉटलनेक माने बोतल की संकरी गर्दन। किसी असेम्बली लाइन या यातायात व्यवस्था में इसके दर्शन बहुधा होते हैं। रेलवे आरक्षण और पूछताछ की क्यू में इसके दर्शन आम हैं। बॉटलनेक कैसे दूर करें?
अगर सिस्टम बहुत जटिल है तो उसमें बॉटलनेक को चिन्हित करना ही कठिन काम है। बड़े बड़े प्रबन्धन के दिग्गज इसमें गलतियां कर जाते हैं। किसी भी शहर के सड़क यातायात प्रबन्धन के सिस्टम मुझे ज्यादा जटिल नहीं लगते। पर नई कालोनियां कैसे आ रही हैं, लोग कैसे वाहन पर चलेंगे आने वाले समय में। नये एम्प्लायर्स कहां सेट-अप कर रहे हैं अपना उपक्रम – यह सब ट्रैफिक प्लानिंग का अंग है। और इस प्लानिंग में चूक होना सामान्य सी बात है।
अभी पढ़ा है कि वर्ली-बान्द्रा समुद्र पर लिंक बना है। यह दूरी और समय कम कर रहा है। यह पढ़ते ही लगा था कि अगर यातायात प्लानर्स ने बॉटलनेक्स पर पूर्णत: नहीं सोचा होगा तो बॉटलनेक दूर नहीं हुआ होगा, मात्र सरका होगा। और वैसा ही निकला।
बिजनेस स्टैण्डर्ड के इस सम्पादकीय पर नजर डालें:
… महाराष्ट्र सरकार ने दोनों बिन्दुओं के बीच 7.7 किलोमीटर की दूरी को 7 मिनट में पूरा करने का वादा किया था। लेकिन सरकार के ज्यादातर वादों की तरह यह भी एक अधूरा सपना होकर रह गया है।
… हालांकि इससे व्यस्त समय में मौजूदा सड़क मार्ग पर लगने वाले जाम में भारी सुधार आएगा, लेकिन समस्या उस जगह पर शुरू होगी जहां सी लिंक वर्ली सीफेस पर 90 अंश के कोण पर मिलता है।
दक्षिण और केंद्रीय कारोबारी जिलों को जोड़ने वाले लव ग्रोव जंक्शन तक 1 किलोमीटर लंबे रास्ते पर गति की अधिकतम सीमा 30 किलोमीटर प्रति घंटा है। इस बीच पांच ट्रैफिक सिग्नल और इतनी ही संख्या में डायवर्जन और मोड़ हैं।
अंतिम दौर में ही 10 से 15 मिनट तक का समय लग सकता है, और इस कारण सी लिंक पर यातायात बाधित हो सकता है।
अब लगता है न कि बॉटलनेक सरका भर है। मैं इसके लिये उन लोगों को दोष नहीं देता। मालगाड़ी के यातायात में मैं भी ऐसी समस्याओं के समाधान तलाशता रहता हूं। और बहुधा बॉटलनेक्स दूर कर नहीं, वरन सरका-सरका कर ही समाधान निकलते हैं। आखिर अकुशल प्रबन्धक जो ठहरा!
इस थियरी ऑफ बॉटलनेक्स/कन्स्ट्रैण्ट्स (Theory of bottleneck/constraints) के बारे में मैं रेलवे में अपने ४० कार्य-घण्टे लगा कर एक प्रवचन लोगों को दे चुका हूं। आप जानकारी की उत्सुकता रखते हों तो यह विकीपेडिया का लिंक खंगालें। मेरे प्रवचन का कभी मैने हिन्दी अनुवाद किया तो प्रस्तुत करूंगा।
मेरी पत्नीजी का कहना है कि बनारस के सड़क के बॉटलनेक्स तो सरकते भी नहीं। बीच सड़क के सांड़ की तरह अड़ कर खड़े रहते हैं। ज्यादा बोलो तो कहते हैं - हम इंही रहब! का तोरे बाप क सड़क हौ!
हम इंही रहब! का तोरे बाप क सड़क हौ!...हर भारतिय का मौलिक अधिकार है जी!!
ReplyDeleteबोतल की गर्दन तोड़ने की कला सीखनी ही होगी। हमारे यहां बोतल-गर्दन का सबसे प्रखर उदाहरण तो वे 30-40 प्रतिशत अशिक्षित लोग हैं, और वे 30-40 प्रतिशत गरीब लोग हैं जो पिछले 60 वर्ष से लाइन में खड़े हैं कि अब आएगी हमारी बारी, अब आएगी हमारी बारी, पर उनकी बारी अभी तक नहीं आई है। सरकारे बदली हैं, दुनिया इधर से उधर हो चुकी है, और हो रही है, पर वे बेचरे धैर्य से लाइन में अब भी खड़े हैं, बोतल की गर्दन में चिरकाल से और चिरकाल तक फंसे हुए।
ReplyDeleteयह हमारे देश के ऊंचे प्रबधन शिक्षण संस्थाओं (पढ़िए आईआईएम) के लिए एक कभी न मिटनेवाला कलंक है। हमारे लिए तो है ही।
अच्छा ध्यान दिलाया। दूरदृष्टि का अभाव और डीटेल्स पर समय और मन न देने से ऐसे न जाने कितने ही बॉटलनेक हमारे प्लानर्स ने रचे हैं और रचने में लगे हुए हैं।
ReplyDeleteहर शहर में बनते फ्लाई वोवर उदाहरणों की भरमार लगा रहे हैं। कॉलोनियाँ बसा दी जाती हैं लेकिन पार्क, शॉपिंग, मनोरंजन और बढ़ती जनसंख्या का कोई ध्यान नहीं रखा जाता। क्या हम भारतीय हमेशा ऐसे ही रहेंगे?
बोतलें रहेंगे तो गरदनें भी रहेंगे उनकीं। बिन गरदन बोतल कैसे बनेंगी?
ReplyDeleteका तोरे बाप क सड़क हौ!..इहाँ एहई चली .
ReplyDeleteबोटलनेक से आगे ज्यादा चीजें सरकाने के लिए कीप का प्रयोग आप अवश्य करते होंगे। आप एक गलत बात को स्वीकार कर रहे हैं कि आप अकुशल प्रबंधक हैं। प्रबंधक तो आप कुशल हैं, पर निर्माता नहीं। उस की शक्तियाँ आप के पास नहीं हैं। वरना आप बोटलनेक्स को दूर कर सकते थे। एक चौड़े मुंह की बोटल बना कर, जिस में कीप की जरूरत नहीं होती।
ReplyDeleteथियरी ऑफ बॉटलनेक्स/कन्स्ट्रैण्ट्स -अरे वाह !
ReplyDeleteसही कहा आपने ये तो सिर्फ सरके हैं। ट्राफिक प्लानिंग में अभी हमें बहुत सीखना है।
ReplyDeleteनई जानकारी मिली, धन्यवाद!
ReplyDeleteजीवन एक प्रवाह चाहता है । कभी तेज तो कभी धीरे । रोके जाने पर उद्विग्नता बढ़ती है । यही मानसिकता हमारे अन्य निष्कर्षों में परिलक्षित होती है । हमारे पास व्यर्थ करने के लिये कितना भी समय हो पर किसी पंक्ति में खड़े होकर प्रतीक्षा करना अखरता है । कोई फाइल यदि किसी कार्यालय में अधिक देर तक रुकती है तो व्यवस्था के प्रति कुलबुलाहट व व्यक्ति के प्रति भ्रष्टाचार सम्बन्धी विचार जागते हैं ।
ReplyDeleteकुछ बॉटलनेक्स प्लानिंग में रही कमी के कारण होते है तो कुछ बाद में पैदा किये जाते हैं ।
हमारे अपने जीवन में भी जब क्रियाकलाप रूटीन हो जाते हैं तो अन्दर से कुछ बदलाव करने की प्रेरणा जागती है । प्रवाह स्थापित करने के लिये यह आवश्यक भी होता है ।
समीरानंद से सहमत हूँ !
ReplyDeleteबोटलनेक को खत्म करने के लिए जैसी प्लानिंग चाहिए वैसी करने की कुशलता और इच्छा है कहाँ?
ReplyDeleteअच्छा चिंतन है.
यही तो है बोतल की गरदन को पार करने का तरीका। भई, गर्दन छोड़ कर आगे बढ जाओ। वो क्या कहते हैं - जम्पिंग द लाइन....ये अंदर का मामला है:)
ReplyDeleteमहत्वपूर्ण सुन्दर पोस्ट. आभार
ReplyDeleteशायद बाटलनेक को तोडने की कोशीश ही नही होती जब जरुरत लगी या सर पर आ पडी तो थोडा गर्म करके काम चला लिया जाता है.:)
ReplyDeleteरामराम.
रायपुर के राजधानी बनते ही एक ही बोतल मे कई गर्दन बन गई है।
ReplyDeleteअंग्रेजी ज्ञान में एक ओर बढोत्तरी ...
ReplyDeleteबोतल की जगह गिलास का प्रयोग करना होगा :)
ReplyDeleteकल तो सबसे पहले पुल पार करने की चाह में हजारों लोगों ने पुल का ट्रेफिक ही जम कर दिया और इ दूरी एक घंटे में पूरी हुई...अब जब बाटल होगी तो नेक होना जरूरी है...बिना नेक की काहे की बाटल...वो तो जार कहलायेगा...
ReplyDeleteनीरज
ट्रेफिक-टाऊन प्लानिंग करते समय क्या इतने पढ़े लिखे लोगों की अकल घास चरने चली जाती है! यहाँ दिल्ली में जहाँ छः ओर से रास्ते आकर एक गोले पर मिलते हैं वहां हर सड़क के किनारे बस स्टाप बना देने का ख़याल किसी जाहिल को ही आ सकता है. इन बस स्टॉप्स के कारण सारा क्षेत्र बोटलनेक बन जाता है. रही सही कसर लोगों की आपसी होड़ और अनियंत्रित ड्राइविंग पूरी कर देती है.
ReplyDeleteबनारस का जिक्र तो आपने कर ही दिया है । प्रासंगिक प्रविष्टि । धन्यवाद ।
ReplyDeleteअगर बोतल से पानी एक दम से उलटा कर के निकालो तो कम निकलता है, टेडा कर के निकालो तो जल्दी निकलता है, ओर जिस दिन हमे सडक पर चलना आ गया उस दिन ९०% समस्या अपने आप हल हो जायेगी,
ReplyDeleteमेने अकसर देखा है जब रेलवे का फ़ाटक बंद होता है, या रेड लाईट पर लोग सामने वाले के बिलकुल सामने खडॆ होते है, जेसे पुराने जमाने मै दो फ़ोजे खडी होती थी लडने के लिये, या किसी छोटे पुल पर भी यही नजारा मिलता है अब कोन निकले सब को जल्दी होती है....
ओर कुछ बोलने पर यही जबाब मिलता है... हम इंही रहब! का तोरे बाप क सड़क हौ!..
राम राम जी की
" अगर बोतल से पानी एक दम से उलटा कर के निकालो तो कम निकलता है, टेडा कर के निकालो तो जल्दी निकलता है, ओर जिस दिन हमे सडक पर चलना आ गया उस दिन ९०% समस्या अपने आप हल हो जायेगी"
ReplyDeleteआज दिन भर में इससे सही बात न सुनी न पढ़ी. जब तक सड़क पे चलने की तमीज नहीं आएगी आप चाहे जो कर लीजिये मुश्किलें आती रहेंगी
आप भी खोज खोज कर लाते हैं।
ReplyDelete-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
एकदम सही कहा आपने....पूर्ण सहमत हूँ....
ReplyDeleteमुंबई और बनारस जैसी जगह में हो तब तो फिर भी समझ में आता है. लेकिन जहाँ खाली पड़ी जगह पर नए शिरे से निर्माण होता है वहां भी ऐसा होता है तो फिर क्या कहा जाय !
ReplyDelete"हम इंही रहब! का तोरे बाप क सड़क हौ!"
ReplyDeleteअसल में यह जो मामला है यही तमाम जगहों पर बॉटलनेकों की बुनियादी वजह है. बनारस ही क्यों, दिल्ली वाले भी रोज़ यही मुसीबत झेलते हैं. अगर यही हटा दी जाए तो कई जगह तो सरकाने की भी ज़रूरत नहीं पड़ेगी. और जब तक इस मुसीबत से पिंड नहीं छुड़ाया जाता, बाक़ी कोई भी इंतजाम करने का कोई अर्थ नहीं है.
खुशी हुई कि आपने मेरे अखबार का संपादकीय पढ़ा। वैसे आपकी पत्नी जी ने जो कहा, बहुत बढ़िया कहा। आपने बॉटलनेक के बारे में जो बताया, अद्भुत है।
ReplyDeleteBanaras ke sambandh mein rakhi rai se purnatah sahmat hun. :-)
ReplyDelete"...हम इंही रहब! का तोरे बाप क सड़क हौ..."
ReplyDeleteबहुत सही.. वैसे मेरे समझ के परे है ये कैसी इंजिनियरिंग जो इतनी बेसिक चीज का ख्याल न रख सके.. दिल्ली मे भी कई जगह एसा भुगतना पड़ता है..
क्या करे अभी हमारे शहर में रेल ओवर ब्रिज बना है उसे ठीक चौराहे पर उतारा गया है जो इतना कष्टकर हो गया है की पुल पर चड़ने के लिए ही आधा घंटा चाहिए .
ReplyDeleteका करे हमारी किस्मत में ही है इंतज़ार
जनसँख्या के बढ़ते दबाव के चलते पूरा देश ही बोटल नेक्क हुआ पड़ा है...अब तो बस उन्हीं से कुछ उम्मीद बची है जो 'समलैंगिकता अधिनियम' को परिवार नियोजन का विकल्प जता रहे हैं..
ReplyDeleteऔर बोटल नेक सरकानेवाले इस बान्द्रा / वरली पुल के नामकरण पर भी लोगोँ का गुस्सा बढ रहा है :)
ReplyDeleteबम्बई की यातायात समस्या
अगले २० बरस मेँ बढेगी ही
..कम होती नहीँ जान पडती ..
उसके पीछे
भी यही सुनियोजित लम्बी सोच का अभाव है -
- लावण्या
जिस दिन ये बांद्रा वर्ली सी लिंक चालू हुआ था उसी शाम एक जन ने कहा , चलो उधर से ही चलते हैं, मुझे आज वीटी में ही काम है। तब निकट खडे सज्जन ने कहा - पागल हो गया है क्या उधर से जायेगा......उससे पहले तो अपना Usual जो रास्ता है उधर से तू पहुंचेगा....उधर से कायेको जाता है ......पूरा जाम होएला है :)
ReplyDeleteये है 1600 करोड खर्चे पर आम राय.....।
Mansik halchal ho rahi hai..
ReplyDeleteसुन्दर पोस्ट. आभार...
ReplyDeleteसवाल बॉटलनेक सरकाने का नहीं है। सारा खेल बॉटलनेक तैयार करने का है। वो, तो हम छोड़ने वाले नहीं हैं। हम बॉटलनेक बनाने के अभ्यासी हैं क्या करिएगा। ये एकाध बॉटलनेक की बात भी नहीं है।
ReplyDeleteहमें ’बॉटलनेक’ सरकाने में महारत हासिल है,उन्हें दूर करने में नहीं . एक किस्म की ’मायोपिक’ और तदर्थवादी नियोजन नीति के तहत अधिकांश निर्णय लिए जाते हैं . अगर कहीं उसमें भ्रष्टाचार और जुड़ जाए, जो जुड़ता ही रहता है, तो कोढ़ में खाज .
ReplyDeleteआपने समस्या को सही चिह्नित किया है .
फिर हमारे ’हम इंही रहब! का तोरे बाप क सड़क हौ’ वाले ऐटीट्यूड का तो कहना ही क्या . सिविक सेंस से -- नागरिक बोध से -- तो हमारा सहज बैर है .
Mansik halchal ho rahi hai..
ReplyDeleteजिस दिन ये बांद्रा वर्ली सी लिंक चालू हुआ था उसी शाम एक जन ने कहा , चलो उधर से ही चलते हैं, मुझे आज वीटी में ही काम है। तब निकट खडे सज्जन ने कहा - पागल हो गया है क्या उधर से जायेगा......उससे पहले तो अपना Usual जो रास्ता है उधर से तू पहुंचेगा....उधर से कायेको जाता है ......पूरा जाम होएला है :)
ReplyDeleteये है 1600 करोड खर्चे पर आम राय.....।
Banaras ke sambandh mein rakhi rai se purnatah sahmat hun. :-)
ReplyDeleteजीवन एक प्रवाह चाहता है । कभी तेज तो कभी धीरे । रोके जाने पर उद्विग्नता बढ़ती है । यही मानसिकता हमारे अन्य निष्कर्षों में परिलक्षित होती है । हमारे पास व्यर्थ करने के लिये कितना भी समय हो पर किसी पंक्ति में खड़े होकर प्रतीक्षा करना अखरता है । कोई फाइल यदि किसी कार्यालय में अधिक देर तक रुकती है तो व्यवस्था के प्रति कुलबुलाहट व व्यक्ति के प्रति भ्रष्टाचार सम्बन्धी विचार जागते हैं ।
ReplyDeleteकुछ बॉटलनेक्स प्लानिंग में रही कमी के कारण होते है तो कुछ बाद में पैदा किये जाते हैं ।
हमारे अपने जीवन में भी जब क्रियाकलाप रूटीन हो जाते हैं तो अन्दर से कुछ बदलाव करने की प्रेरणा जागती है । प्रवाह स्थापित करने के लिये यह आवश्यक भी होता है ।
नई जानकारी मिली, धन्यवाद!
ReplyDeleteमुंबई और बनारस जैसी जगह में हो तब तो फिर भी समझ में आता है. लेकिन जहाँ खाली पड़ी जगह पर नए शिरे से निर्माण होता है वहां भी ऐसा होता है तो फिर क्या कहा जाय !
ReplyDelete" अगर बोतल से पानी एक दम से उलटा कर के निकालो तो कम निकलता है, टेडा कर के निकालो तो जल्दी निकलता है, ओर जिस दिन हमे सडक पर चलना आ गया उस दिन ९०% समस्या अपने आप हल हो जायेगी"
ReplyDeleteआज दिन भर में इससे सही बात न सुनी न पढ़ी. जब तक सड़क पे चलने की तमीज नहीं आएगी आप चाहे जो कर लीजिये मुश्किलें आती रहेंगी
बोतल की गर्दन तोड़ने की कला सीखनी ही होगी। हमारे यहां बोतल-गर्दन का सबसे प्रखर उदाहरण तो वे 30-40 प्रतिशत अशिक्षित लोग हैं, और वे 30-40 प्रतिशत गरीब लोग हैं जो पिछले 60 वर्ष से लाइन में खड़े हैं कि अब आएगी हमारी बारी, अब आएगी हमारी बारी, पर उनकी बारी अभी तक नहीं आई है। सरकारे बदली हैं, दुनिया इधर से उधर हो चुकी है, और हो रही है, पर वे बेचरे धैर्य से लाइन में अब भी खड़े हैं, बोतल की गर्दन में चिरकाल से और चिरकाल तक फंसे हुए।
ReplyDeleteयह हमारे देश के ऊंचे प्रबधन शिक्षण संस्थाओं (पढ़िए आईआईएम) के लिए एक कभी न मिटनेवाला कलंक है। हमारे लिए तो है ही।