इन्जीनियरिंग की अस्सी प्रतिशत पढ़ाई मैने स्लाइडरूल और लॉगरिथ्मिक टेबल की सहायता से की गई गणना से पार की थी। पढ़ाई के चौथे और पांचवें साल में कैल्क्युलेटर नजर आने लगे थे। जब मैने नौकरी करना प्रारम्भ किया था, तब इलेक्टॉनिक टाइपराइटर भी इक्का-दुक्का ही आ रहे थे। मुझे याद है कि उस समय मैने पढ़ा था कि दो दशक में सीपीयू का मास प्रोडक्शन इतना होने लगेगा कि उतनी जटिल चिप डेढ़ डॉलर में आने लगेगी।
ब्यूरोक्रेसी इलेक्ट्रॉनीफिकेशन नहीं चाहती। इससे उसका किला ढ़हता है। पावर कम होती है। जनता एम्पावर होने लगती है। जो भ्रष्ट हैं, उनके खेलने खाने के अवसर कम होने लगते हैं।
पर उसके बाद तो कॉर्पोरेट जगत में जबरदस्त विस्तार हुआ। सूचना और दूरसंचार की तकनीकों में तो विस्फोट सा हुआ। नन्दन निलेकनी की पुस्तक “इमैजिनिंग इण्डिया" (Imagining India) पढ़ते समय यह मेरे मन में बारम्बार आया कि यह क्रान्ति मैने केवल साइडलाइन में खड़े हो देखी।यह हताशा अवश्य होती है कि ये लोग जब इन्फोसिस बना रहे थे तब हम दफ्तर की फाइल में नोटिंग पेज और करॉस्पोण्डेंस पेज पर नम्बर डालने और फ्लैग लगाने में महारत हासिल कर रहे थे। याद पड़ता है कि हमारे डिविजनल रेल मैनेजर ने अस्सी के उत्तरार्ध में पांच पन्ने का एक महत्वपूर्ण नोट लिखा था कि फाइल कैसे मेण्टेन की जाये!
और अब भी रेल भवन (रेल मंत्रालय) को जाने वाला मासिक अर्धशासकीय पत्र जिसमें सैकड़ों पेज होते हैं और बीस पच्चीस लोगों को प्रतियां भेजी जाती हैं, कागज पर जाता है। इसका ५ प्रतिशत (मैं ज्यादा आशावादी हूं क्या?) ही पढ़ा जाता होगा। ई-मेल का प्रयोग शायद (?) कुछ जुनूनी करते हैं और पुराना माल परोसती चिरकुट सी सरकारी वेब साइटें मुंह चिढ़ाती प्रतीत होती हैं।
सिवाय बात करने में हाइटेक जाहिर होने की जरूरत के; ब्यूरोक्रेसी (मन से) इलेक्ट्रॉनीफिकेशन नहीं चाहती। इससे उसका किला ढ़हता है। पावर कम होती है। जनता एम्पावर होने लगती है। जो भ्रष्ट हैं, उनके खेलने खाने के अवसर कम होने लगते हैं। रेल की दशा तो फिर भी बेहतर है। बाकी विभागों के एटीट्यूड को देख बहुत मायूसी होती है।
अत: “यूनीक आइडेण्टिटी अथॉरिटी ऑफ इण्डिया” के रूप में नन्दन निलेकनी अगर वह कर गुजरें जो वे अपनी किताब में लिखते हैं तो आनन्द आ जाये!
सन २०१० तक तो शायद बीमारू राज्यों की जनता का नम्बर मल्टीपरपज नेशनल आइडेण्टिटी कार्ड मिलने में नहीं लगेगा। पर जिन राज्यों में लागू होगा, वहां के लाभ देख कर योजना के व्यापक क्रियान्वयन के दबाव बढ़ने की सम्भावनायें बनती हैं।
यह “यूनीक आइडेण्टिटी अथॉरिटी ऑफ इण्डिया” तो एक पक्ष है। इलेक्ट्रॉनिफिकेशन से कई क्षेत्रों में सुधार अपेक्षित हैं। कुछ सुधार तो आरक्षण और सबसिडी के गोरखधन्धे को तर्कसंगत तरीके से खत्म करने हेतु हैं, जिनसे भ्रष्टाचार कम हो और लाभ सीधे टार्गेट वर्ग को मिले। पर वह सब इलेक्ट्रॉनिफिकेशन कौन मांगता है?
असल में इलेक्ट्रॉनिफिकेशन कोई चाहता नहीं। जनता इसके लाभ की सीधे-सीधे कल्पना नहीं कर सकती। पर इसके लाभ जैसे जैसे उद्घाटित होंगे, वैसे वैसे इसके लागू करने के दबाव बढ़ेंगे। और चाहे मुलायम सिंह जी हों या कोई और; अपने राजनैतिक रिस्क पर भी उसे रोक न पायेंगे। वह जमाना गया जब तर्क होते थे कि कम्प्यूटर आयेगा तो नौकरियां खा जायेगा! रेलवे कम्प्यूटरीकृत टिकट प्रणाली का यूनियनें व्यापक विरोध कर रही थीं कुछ दशक पहले और अब संचार-लिंक थोड़ी देर को बन्द होता है तो कर्मचारी ही शोर मचाते हैं।
श्रीमन, यह पांच सौ पेजों कि किताब एक बार पढ़ लें। होना वही है – जैसे प्रगटित होगा। पर उसे पढ़ने से आप उसे बेहतर समझ सकेंगे और शायद बेहतर स्वागत कर सकें।
अभ्यस्त नहीं होने तक नयी तकनीक को विरोध झेलना ही पड़ता है !!
ReplyDeleteनंदन नीलकेनी जी के लिए - अब आया ऊठ पहाड़ के नीचे . कैसे काम करेंगे वह इन सरकारी करमचारियों के साथ जिनको फईलो से मोहब्बत है
ReplyDeleteजी हाँ एलेक्त्रानिफिकेशन तो बस अब समय का मामला है -देखिये कब तक यह स्वपन साकार होता है !
ReplyDeleteजो आज्ञा ....................
ReplyDeleteअभी आपके पोस्ट को पढ़ने के बाद तुंरत आर्डर कर दिया गया.
रही बात MNIC कि तो कुछ यूपोरियन भी सबसे पहले इस कार्ड को पाएंगे, घबराइए मत. इस लिंक को पढ़ लीजिये
http://www.business-standard.com/india/news/pilot-project%5Csmart-card%5C-for-locals-begins/67797/on
तकनीक को आगे बढ़ने से कोई रोक पाया है? यही तो आगे बढ़ कर इंसान और समाज को बदलती है।
ReplyDeleteइंडिया में चोर पकड़ने वाली मशीन ही चोरी हो जाती है
ReplyDeleteतकनीक से तरक्की के सारे शार्टकट खतम हो जाते है इसलिये सारा झमेला है।
ReplyDeleteधर्म हो या अधर्म (वामपंथ) कोई विकास को रोक नहीं पाया. जो सुविधाजनक है वह लोगो द्वारा अपनाया जाएगा ही.
ReplyDeleteअपने नये पद की पहली पुस्तक मैने कल समाप्त की । यह ’माइक्रोसाफ्ट शेयरप्वाइंट’ पर थी । पढ़ने में पूरा सप्ताहान्त निकल गया पर पढ़कर यह विश्वास और प्रगाढ़ हो गया कि भविष्य ’इलेक्ट्रोनिफिकेशन’ ही है । हमारे आजकल के तरीके बहुत ही गये गुजरे हैं और व्यवस्थायें और विभाग तरीकों का पर्याय बन गये हैं । जिसके लिये विभाग का गठन किया गया था उसपर २०% से अधिक समय नहीं दिया जाता है ।
ReplyDeleteइस पुस्तक का आपने एक से अधिक बार उल्लेख कर दिया है, तो अब लेने के लिये दवाब बढ़ गया है. वैसे इस माह का बुक-बजट हैरी पॉटर श्रंखला को समर्पित करने की योजना थी.
ReplyDeleteस्लाइड रूल पर काम करने में तो काफ़ी समय खर्च होता होगा. मुझे याद है, मेरे बचपन में घर में एक स्लाइड रूल और टी-स्क्वेयर पड़े रहते थे जो कैल्कुलेटर और मिनी-ड्राफ़्टर के आ जाने के बाद अनुपयोगी हो गये थे. और जब हम इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूर्ण कर रहे थे तब 386 और 486 कम्प्यूटरों का स्थान पेंटियम सीरीज़ ले रही थी. बड़ा हल्ला था.
नई प्रौद्योगिकी तमाम तरह की अड़चनों के बावजूद अपना मार्ग बना ही लेती है. इस बारे में पूर्ण आशावान हैं.
सही कहा है आपने सरकारी काम में इ-मेल (?) का प्रयोग...सबूत नहीं रहता न !
ReplyDeleteवैसे मैंने देखा है भारतीय क्लर्क भी ठीठ है ...कुछ नया न सीखने को तत्पर....खास तौर से एक उम्र के बाद वाले ..कोई महकमा देख लो .पोलिस विभाग को देख लो ....जहाँ इस वक़्त हाई टेक होने की सबसे ज्यादा जरूरते है...
ReplyDelete"जनता एम्पावर होने लगती है। ."
ReplyDeleteजनता एम्पावर होने लगेगी तो पावर साहब कहाँ घास खोदेंगे :)
मुझे तो लगता है कि भारत महान के इलेक्ट्रॉनिफिकेशन न होने में ही भला है. क्योंकि इसका सारा लाभ घपलेबाजों को मिलना है. बिलकुल वैसे ही जैसे ईवीएम का. भला बेचारे शेषन ने क्या सोचा होगा कि उनकी सोच का ऐसा भयानक दुरुपयोग होगा. यक़ीन मानिए, यह यूनिक आइडेंटिफिकेशन भी सिर्फ आने तक ही अच्छा लग रहा है. आने के बाद इसका भी हाल वही होगा जो बाक़ी योजनाओं का हुआ है.
ReplyDeleteजो उपयोगी होता है उसको आगे बढने से कोई नही रोक पाया. शुरुआत मे तकलीफ़ आती ही है.
ReplyDeleteरामराम.
Badlaav men samay o lagta hi hai.
ReplyDelete-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
अब तो रूलर भी डिजिटल बन जायेंगे...
ReplyDeletehttp://design-milk.com/digital-ruler/
वैसे ब्यूरोक्रेसी बहुत कुछ नहीं चाहती है. पता नहीं कैसे मानसिकता ही बदल जाती है... सारे आदर्श धरे के धरे रह जाते हैं. ! खेलने खाने के अवसर ढूंढने वाले भरे पड़े हैं ब्यूरोक्रेसी में.
हमने पाया है की अधेड़ उम्र के अधिकारी या कर्मी ही किसी भी संस्थान में प्रौद्योगिकी का विरोध करते है.युवा वर्ग तो इसे आत्मसात करने के लिए आतुर दिखता है
ReplyDeleteदेखिये यह सपना कब पूरा होता है.
ReplyDelete'ब्यूरोक्रेसी इलेक्ट्रॉनीफिकेशन नहीं चाहती। इससे उसका किला ढ़हता है। पावर कम होती है। जनता एम्पावर होने लगती है। जो भ्रष्ट हैं, उनके खेलने खाने के अवसर कम होने लगते हैं।'
ReplyDelete- आपने मुद्दे की बात जाहिर कर दी
श्री. निलेकनी को दी गयी जिम्मेदारी वे पूरी ईमानदारी से निभायेंगे इसमें कोई शक नहीं.लेकिन सरकारी तंत्र को वे काबू में कर लेंगे या इससे आजिज़ आ कर तोबा कर लेंगे, यह देखना है.
बहुत कुछ लीडर पर निर्भर करता है. एक विभाग को बहुत नजदीक से परखा है एक लम्बे समय तक. कभी उसके अध्यक्ष आई ए एस, कभी टेक्नोक्रेट और कभी पदोन्नत उसी विभाग का क्लर्क नेताओं के तलुए चाटता...सब के कार्यकाल में उनके अनुभवो और योग्यता की अलग छाप स्पष्ट दिखाई देती थी और परिवर्तन भी त्वरित.
ReplyDeleteलीड लेने की बात थी.
नंदन नीलकेनी जी से अनेक आशाऐं है. पूरी उम्मीद है कि सफलतापूर्वक निकल कर आयेंगे.
अगर अभी अभी के दो हादसे के एक दिन पहले का सीन देखें तो मैट्रो के निर्माण की कार्य प्रणाली भी अपने आप में एक अलग श्रेणी है.
Nandan Nilekani ji se koi shikayat nahin hai lekin infosys se pahle bhi humare paas IT companies thin. Tata ka apna R&D center tha jo abhi bhi IIT Delhi campus mein hai...
ReplyDeleteTata hi IBM ko lekar India aaye the aur tab wo Tata-IBM ke naam se jani jaati thi. Lekin humare kuch politicians ko laga ki usse naukriyan chali jayengi, kaafi virodh hua aur IBM ko india se jana pada....
Unique ID India ke vikas ke liye meel ka patthar hogi..US mein aise hi Social Security Number hote hain jo har nagrik ka pehchan patra hote hain. Internet par bhi ek 'Open Id' ka concept hai..Ek id -kahin bhi use kariye..
Corporates mein ek id hoti hai jise 'Single Sign On' bolte hain..kahin bhi use karen. Isliye ye idea naya nahin hai..
Jarrorat hai isse acche se implement karne ki. Mera pehla sawal hoga ki kya is id se hum bangladeshiyon ko west bengal se nikaal payenge aur agar haan to phir UP, Bihar walon ko Bombay ya Delhi se nikalna bhi utna hi asaan hoga......
Kya humare state oriented politicians iska durupyog karenege???
Thoughts??
दफ़्तरों में हम लोग अधकचरे युग से गुजर रहे हैं। बाहरी पार्टियों से ई-मेल प्रयोग पर भी कोई नियम है कि ऐसा नहीं होगा। अभी फ़ैक्स युग से ऊपर नहीं उठे। हर एक के पास पेन ड्राइव हैं जो कम्प्यूटरों में वायरस फ़ैला रही हैं। नये लोग जो कम्प्यूटर का प्रयोग जानते हैं उनको कम्प्यूटर नहीं दिये गये। बुढऊ लोग दो-दो कम्प्यूटर रखे हैं जो इसका प्रयोग नहीं करते। हालत बस ऐसी ही है। :)
ReplyDeleteबात यह नहीं है कि इसके क्या फायदे हैं, बात यह है कि क्या इस गाय का दूध दुहा जा सकेगा? जिस तरह काम होते हैं मुझे नहीं लगता। वोटर आईडी कार्ड कितनी ही बार बने, लेकिन बनवाने में लोगों को दिक्कत ही आती है। जब मुहीम चलती है तो हर मोहल्ले आदि में चुनाव आयोग के लोग पहुँच जाते हैं बनाने के लिए लेकिन मुहीम खत्म होने के बाद यदि किसी को बनवाना हो या पता बदलवाना हो तो क्या यह सरल है? संभव ही नहीं है जी, सरलता को तो तेल लगाया जाए! जब अगली बार पुनः बुखार चढ़ेगा चुनाव से पहले तो तभी बनेंगे!!
ReplyDeleteबन भी जाए तो क्या लाभ? कितने लोग वोटर आईडी कार्ड लेकर वोट डालने आते हैं? अधिकतर तो ऐसे ही आ जाते हैं, कार्ड को आराम देने के लिए घर पर छोड़ आते हैं और मुस्कुरा के कहते हैं कि घर पर पड़ा है। अब कोई पूछे कि अमां घर पर पड़ा अंडे दे रहा है क्या!!
फिर आयकर के लिए अलग कार्ड है, पर्मानेन्ट अकाऊंट नंबर वाला कार्ड! कितने कार्ड संभालते फिरें यह समझ नहीं आता, हर 5-6 साल में एक नया कार्ड ले आएँगे तो कैसे चलेगा? क्या यही टैक्सपेयर्स के पैसे का सदुपयोग है?
अब यह नया कार्ड बनेगा, लाभ तो तब है जब हर वयस्क (18 वर्ष और उससे ऊपर) का बने और सिर्फ़ एक ही कार्ड हर जगह चल सके, वन कार्ड टू रूल ऑल! वोटिंग के लिए भी यही कार्ड प्रयोग हो सके, आयकर भरने के लिए भी यही प्रयोग हो सके, कहीं बैंक अथवा सरकारी विभाग में अपनी पहचान प्रमाणित करनी हो तो उसके लिए भी यही प्रयोग हो सके।
यदि ऐसा नहीं होता है तो यह भी एक कबाड़ रूपी प्लास्टिक का कार्ड बनकर रह जाएगा जिसका भुगतान टैक्सपेयर्स करेंगे और इस योजना से जुड़े सरकारी बाबू और प्राईवेट पर्सन नोट कमा जाएँगे!!