यह पोस्ट आगे आने वाले समय में पर्यावरण परिवर्तन, ऊर्जा का प्रति व्यक्ति अंधाधुंध बढ़ता उपभोग और उसके समाधान हेतु श्री सुमन्त मिश्र कात्यायन जी के सुझाये सादा जीवन उच्च विचार के बारें में मेरी विचार हलचल को ले कर है।
“सादा जीवन उच्च विचार” – अगर इसको व्यापक स्तर पर व्यवहारगत बनाना हो तो - केवल वैचारिक अनुशासन का मामला नहीं है। इसका अपना पुख्ता अर्थशास्त्र होना चाहिये। कभी पढ़ा था कि बापू को हरिजन बस्ती में ठहराने का खर्च बहुत था। सादा जीवन जटिलता के जमाने में कठिन है।
कहां गयी जीवन की प्रचुरता
मेरे ही बचपन मेँ हवा शुद्ध थी। गंगा में बहुत पानी था - छोटे-मोटे जहाज चल सकते थे। गांव में खेत बारी तालाब में लोगों के घर अतिक्रमण नहीं कर रहे थे। बिसलरी की पानी की बोतल नहीं बिकती थी। ...
एक आदमी की जिन्दगी में ही देखते देखते इतना परिवर्तन?! प्रचुरता के नियम (Law of abundance) के अनुसार यह पृथ्वी कहीं अधिक लोगों को पालने और समृद्ध करने की क्षमता रखती है।.....
मध्यवर्ग का बढ़ना और ऊर्जा का प्रयोग बढ़ना शायद समानार्थी हैं। ज्यादा ऊर्जा का प्रयोग और वायुमण्डल को प्रदूषित करने वाली गैसों का उत्सर्जन अभी कारण-परिणाम (cause – effect) नजर आते हैं। यह सम्बन्ध तोड़ना जरूरी है। उस अर्थ में अमेरिकन जीवन शैली की बजाय अन्य जीवन शैली बन सके तो काम चल सकता है।
समतल होते विश्व में जनसंख्या विस्फोट शायद रुक जाये। पर मध्य-आय-वर्ग विस्फोट नहीं रुकने वाला। मध्य-आय-वर्ग को अक्षम/भ्रष्ट/तानाशाही साम्य/समाजवाद की तरफ नहीं लौटाया जा सकता जिसमें सादा जीवन स्टेट डिक्टेटरशिप के जरीये आता है। अब तो पब्लिक ट्रांसपोर्ट का प्रयोग, कम्यून में रहना, अपना उपभोक्ता का स्तर ट्यून डाउन करना आदि अगर मध्यवर्ग के व्यक्ति को आर्थिक रूप से मुफीद बैठता है, तो ही हो पायेगा। कार्बन सीक्वेस्ट्रेशन (carbon sequesteration) या जंगलों की फाइनेंशियल रिपोर्ट अगर अर्थशास्त्र के अनुसार तत्वयुक्त हुई तो वातावरण सुधरेगा। और अन्तत: ऐसा कुछ होगा ही!
Evan Pickett का टर्टल फ्रॉग का फोटो।धरती पर हमारी दशा उस मेंढ़क सरीखी है जिसे बहुत बड़े तवे पर हल्के हल्के गरम किया जा रहा है। गरम होना इतना धीमा है कि मेढ़क उछल कर तवे से कूद नहीं रहा, सिर्फ इधर उधर सरक रहा है। पर अन्तत: तवा इतना गरम होगा कि मेढ़क तवे से कूदेगा नहीं – मर जायेगा। हममें और मेढ़क में इतना अन्तर है कि मेढ़क सोच नहीं सकता और हम सोच कर आगे की तैयारी कर सकते हैं।
मैं जानता हूं कि मैं यहां भविष्य के लिये समाधान नहीं बता रहा। पर मैं यह स्पष्ट कर रहा हूं कि समाधान आत्म नकार (self denial) या अंधाधुंध अमरीकी मॉडल पर विकास – दोनो नहीं हो सकते।
ज्ञानदत्तजी,
ReplyDeleteये बहुत महत्वपूर्ण विषय है। गाँधीजी को हरिजन बस्ती में ठहराने के खर्च के बारे में तो पता नहीं लेकिन गाँधीजी के ही लेखों में कहीं पढा था "Self Imposed Poverty"| भारत में इसके उदाहरण भी मिल जायेंगे, भले ही लोग उनका मजाक बना लें लेकिन उनके जीवन से बहुत कुछ सीखने को मिलता है। अभी विद्यार्थी जीवन है तो ज्यादा पैसे ही नहीं हैं :-)
जब कभी घर जाता हूँ तो वो जबरदस्ती कपडे खरीदवा देते हैं जो कभी पहने नहीं जाते। पिछली बार नये कपडे खरीदे थे जब एक खास डिनर पर जाना था और एक भी जोडी ढंग के कपडे न निकले :-)
पश्चिम के विकास के माडल की भारत में नकल नहीं हो सकती। उसको अपना माडल खुद विकसित करना होगा। विश्व की आधी आबादी को केवल वातावरण का वास्ता देकर ऊर्जा के उपयोग से रोका नहीं जा सकता जबकि वही आधी आबादी विश्व के लिये मुख्य बाजार भी है। बडी विकट स्थिति है कोई हल नजर नहीं आता, लेकिन लगता है विज्ञान से ही कोई हल निकलेगा। मनुष्यों से स्व-अनुशासन की अपेक्षा करने से हल शायद ही निकले। Carbon sequesteration पर हमारी लैब में भी काफ़ी काम चल रहा है। देखिये अगले आने वाले सालों में कुछ ठोस तकनीक सामने आती है कि नहीं।
उम्दा ज्ञान चिंतन -अब ऐसे चिंतन के साथ उच्च जीवन भी चल जाए तो क्या बुरा है !
ReplyDeleteपर्यावरण के प्रति जागरुकता, शिक्षा और अंधाधुंध विकास के बजाये संतुलित विकास को परिभाषित करने से ही दुर्गति की गति कम की जा सकती है-ध्यान रहे सिर्फ कम की जा सकती है. बाकी तो परिणाम हम निर्धारित कर ही चुके हैं.
ReplyDeleteउच्च जीवन स्तर उच्च विचार भी तो हो सकता है, यदि मितव्ययता का मतलब कंजूसी ना हो।
ReplyDeleteसादा जीवन जीना सुनने में जरूर अच्छा लगता है लेकिन व्यवहारिक नहीं है, बदलती उपभोक्तावादी संस्कृति के सामने तो और ।
ReplyDeleteहम एक बार को जरूर सोच सकते हैं कि चलो कुछ खर्चे कम कर दिये जायं....यह न लिया जाय...वह न लिया जाय। लेकिन आगे आने वाली हमारी पीढी ? उसे कैसे मनाया जायेगा जोकि अचानक उठे चकाचौंध को समेटने की कोशिश में ही उछल कूद करती है।
अपने आप को ही यदि देखूं तो मेरे से ज्यादा मितव्ययी मेरे पिताजी हैं। कुछ न कुछ बचाने की कोशिश करते है जैसे जूते यदि फट जांय तो सिलवा लेंगे लेकिन नये नहीं लेंगे। और एक मैं हू जो जूते में सिलाई किया काम इसलिये पसंद नहीं करता कि ऑफिस में लोग क्या सोचेंगे।
उधर मेरे बच्चे औऱ एक कदम आगे :) शायद उन्हें आगे जाकर कई जोडे जूते-चप्पल भी कम पड जांय :)
दरअसल ये मानव मन बडा जोडू है...कुछ न कुछ अगली पीढी में जोडता चला जाता है :) उपभोक्तावाद भी उसकी अगली कडी है।
नीरज रोहिल्ला के बातों से पूरी सहमति के बावजूद कुछ प्रश्न अनुत्तरित रह जायेंगे-
ReplyDelete१ -क्या प्रत्येक व्यक्ति स्व-नकार कर सकेगा ?........तब उसके तथाकथित अमीरी का क्याऔर कैसा प्रदर्शन ?
२-क्या entropy मॉडल पर अगर हम यकीन करें तो धरती का गर्म होना हर प्रक्रिया की उपज है ........फ़िर यह प्रक्रिया केवल धीमी ही की जा सकती है ।
३-आज हर व्यक्ति अपने ग्रामीण दिनों की याद करते हुए भी मन बहलाव करते दिखता है ....... कहीं सच में यदि उस परिवेश में पहुँच जाए तो ........कितनी समस्याएं ??
हाँ ..... हम सब शायद किसी तकनीकी चमत्कार के ही इन्तजार में ही बैठे हैं..........पक्का इसे जान लीजिये!!
ReplyDeleteजीवन चलने का नाम है, चलता रहेगा, हमारी मजबूरी है कि हमको हमारे जीने लायक प्रकृति चाहिए. एवोलुशन (का विज्ञान) बताता है कि प्रकृति हमेशा से बदलती रही है, और बदलेगी ही. अगर कोई निदान है तो वो ये है कि हम इस प्राकृतिक परिवर्तन को धीमे करे. मनुष्य के पास एक दिमाग है, जिसके दम पर वो इस प्रकृति के साथ खेल रहा है,तमाम अलग तरह के नाम से (विज्ञान, तकनीक, विकास, कुछ भी कह ले ). रही बात कार्बन सेक्वेस्तारिंग कि तो अगर कोई प्राकृतिक तरीका है तो ठीक है नहीं तो मनुष्य का दिमाग तो समस्या ही खड़ी करेगा.
ReplyDeleteकुछ विज्ञान के पुराने नियम है (उर्जा हमेशा नियत रहती है ,केवल उसके रूप बदल जाते है) पता नहीं आज कल के तकनीकी लोग जानते है कि नहीं, मुझे लगता है उर्जा के रूप बदलने के चक्र को धीमा करना ही एक उपाय है प्रकृति के परिवर्तन को धीमा करने के लिए. बाकी विद्वानों कि मर्जी. हमारा क्या है आये है चले जायेंगे, ये विशेष किस्म के तकनीक विशेषज्ञ ही है जो सोचते है कि दुनिया में वो कुछ स्थाई बना सकते है.
हम मेंढ़्क नहीं है... सोच सकते है.. सही है.. सोचो और करो..
ReplyDeleteसादा जीवन तो अपनाना ही होगा। मध्यवर्ग का जीवन वैसे भी सादगी से परिपूर्ण ही है। हाँ, दिखावे के लिए कभी कभी कुछ अतियाँ अवश्य करता है, लेकिन उस का आर्थिक स्तर बहुत अतियों की अनुमति भी नहीं देता।
ReplyDeleteजबरन मनुष्य से कुछ भी नहीं कराया जा सकता। प्रेरणा से सब कुछ कराया जा सकता है। आज भी भारतीय पुरुषों के परिधान में श्वेत रंग की बहुलता है।
सही कहा आपने। गांधी जी की बात याद आ गई - इस दुनिया में सबकी जरूरतों के लिए सामग्री है, पर एक के भी लालच के लिए नहीं (There is enough for every man's needs, but not for one man's greed)।
ReplyDeleteआप सायकिल से बाज़ार जायेंगे तो समय ज्यादा लगेगा और पड़ोसी खुसुर-फ़ूसुर करने लग जायेंगे कि आजकल इनकी हालत खराब है पेट्रोल एफ़ोर्ड नही कर पा रहे।सरकारी स्कूल मे बच्चो को नही पढा सकते,सरकारी अस्पताल मे इलाज़ नही करा सकते सब जगह स्टेटस के मुताबिक नाम चाहिये।कैसे सादा जीवन जिया जाए ये भी तो सोचना पड़ेगा,इस दिखावे की दुनिया मे?
ReplyDeleteबहुत सार गर्भित पोस्ट...आपके ज्ञान और लेखन का एक बार फिर लोहा मनवाती हुई...
ReplyDeleteनीरज
बेहद सारगर्भित और सोचने को विवश करती पोस्ट. शायद मेंढक के उदाहरण से सटीक उदाहरण हो ही नही सकता. काश समय रहते हम कुछ कर पायें.
ReplyDeleteरामराम.
उधेड़ बुन लगातार चलती रहती है. मगर व्यक्तिगत स्तर पर ही संयम को सम्भव पाता हूँ, कोई सुनने को तैयार नहीं होंगे. कोई दौड़ से बाहर होना नहीं चाहेगा. हम अपनी बर्बादी को अपने ही हाथों लिख रहें है.
ReplyDeleteहर पीढी स्वार्थी है जो सिर्फ अपना सोचती है .आने वाली नस्लों का नहीं.....
ReplyDeleteसादा जीवन उच्च विचार सिर्फ पढने में अच्छा लगता है . और पर्यावरण के लिए जागरूकता तो बड रही है लेकिन धीमी गति से
ReplyDeleteमेंढक के उदाहरण ने तो मेरे रोंगटे खड़े कर दिए !
ReplyDeleteयह सब तो होना ही है, जब हम बिना सोचे समझे आज भी वोही कर रहे है, जब की पता है इस से हमारे आने वाली पीडीयो को नुकसान है, लेकिन जीवन फ़िर भी रहेगा,फ़िर से सब दोवारा पनपेगे,जिसे कल युग कहते है वो यही है, इस का अन्त होना ही है, फ़िर चिंता केसी??
ReplyDeleteसरजी मेढक का उदाहरण देकर तो डरा सा दिया। पर बात सच है। वैसे मसला पूरी जीवन शैली का है। यह जीवनशैली, उपभोग की उद्दाम असीमित लालसा कहां ले जायेगी। सिवाय अंत के इसका कोई अंत नहीं है। कहीं ना कहीं रास्ता आध्यात्मिक तत्वों से नियंत्रित जीवनशैली का है जिसमें तन मन और धन तीनों के उपभोग के बारे में सोचा जाता है। पर उस बारे में सोचने वाले लोग बहुत कम हैं।
ReplyDeleteअमरीकी जीवन शैली की सिर्फ चकाचौँध ही क्यूँ अपनाना चाहती है पूरी दुनिया ?
ReplyDeleteभारतीय मीडीया मेँ,
अमरीका मेँ पर्यावरण सँरक्षण व हरियाली के लिये जो सजगता है उसे क्योँ हाई लाईट नहीँ किया जाता ?
आपने जो द्रश्य दीखलाया है वैसे घने पेड
मैँ मेरी खिडकी के बाहर देख रही हूँ -
अमरीकी वन विभाग और पब्लिक पार्क्स को भी कितने जतन से , सँजोये हुए हैँ ये भी अनुकरणीय है -
मध्य वर्ग यहा भी सँतुलित है -
हाल मेँ आर्थिक मँदी के चलते
कई नये उपाय और सीमित आय से डालर को स्ट्रेच करना
यहाँ का नया चलन है -
भारत मेँ राजनेता कुछ नहीँ करते
ये दुखद है -
- लावण्या
बहुत ध्यान आकर्षित करती हुई पोस्ट .काश ऐसा ही हो जाय जो की आपके लिखने का मंतब्य है तो ,आनंद ही आ जाय .
ReplyDeleteअधिक तो इस विषय पर नहीं पता है लेकिन जितना पढ़ा जाना है उसके अनुसार यही पता चला है कि आम अमेरिकी जनमानस की अर्थव्यवस्था अधिकतर क्रेडिट पर चलती है, आज खरीदते हैं और कल या परसों चुकाने में विश्वास रखते हैं। इसलिए इस मॉडल को पूरी तरह नहीं अपनाया जा सकता, व्यक्ति को थोड़ा तो संयम रखना ही होगा लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि कंजूसों की तरह व्यवहार किया जाए!।
ReplyDeleteआपके शब्द मेरे मन में भी हलचल मचा देते हैं. हमारा कल कैसा होगा!?
ReplyDeleteजब छोटा था तब तथाकथित गन्दी बस्तियों में रहता था और खेल-खेल में ही दूर-दूर तक दोस्तों के साथ हो आता था. न कोई रोक-टोक, न कोई फ़िक्र. सब कुछ कितना सहज और सरल था. मेरे बड़े होते बच्चे कभी यह सोच भी नहीं पायेंगे की उनके पिता ने बहुत बचपन में खेल-खेल में ही कितना जान-परख लिया. अब तो वे कचरे के डिब्बे के पास से गुज़रते ही बोलते है - "इट्स सो डर्टी, पापा!" वे न तो बारिश की कीचड़ में खेलेंगे न कभी साइकिल का पंचर बनते देखेंगे.
और सदा जीवन जीना कठिन है, सर! कुछ समय से पढने-लिखने का प्रभाव है या अपना ही कोई गहन संस्कार, अपने जीवन को कम-से-कम की ओर ले जा रहा हूँ, लेकिन यह कठिन है.
शायद विषय से बहक गया हूँ.
आपनें कुछ क्षण ठहर कर सोंचा और दूसरों को भी सोंचने पर विवश किया, अतः बधाई। विषय समय की माँग है और बहुविधि विस्तृत विमर्श आवश्यक है। कृपया कुछ स्फुट विचार मेरे ब्लाग पर देखें।
ReplyDeletesaargarbhit lekh!
ReplyDeleteआपकी इस मानसिक हलचल ने तो मेरे दिमाग में भी हलचल मचा दी. आज की इस दिखावे की दुनिया में जब हर कोई चमक-दमक के पीछे भाग रहा है, सादा जीवन उच्च विचार नामुमकिन तो नहीं, पर मुश्किल जरूर है. और जहाँ तक पर्यावरण संरक्षण की बात है तो मुझे एक खबर याद है, अभी कुछ महीने पहले चंडीगढ़ को "The Most Walkable City In India" का खिताब मिला था. आप खुद-ब-खुद अंदाजा लगा सकते हैं क्यों... सारे शहर इसी तरह के हो जाएँ तो कितना अच्छा हो....
ReplyDeleteसाभार
हमसफ़र यादों का.......
पूर्णतः सहमत हूँ आपसे.
ReplyDeleteगर्म होती धरती और आदमी की तुलना तवे ओर मेढक से पढकर इस समस्या की गम्भीरता का एहसास होता है। इस चिंतनीय विषय पर समाज में अलख जगाने की आवश्यकता है।
ReplyDelete-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
विचारणीय सामयिक पोस्ट. बढ़िया आलेख प्रस्तुति के लिए आभार. पर्यावरण को प्रदूषित और वायुमंडल को गर्म करने के लिए नैतिक रूप से हम सभी जुम्मेदार है.
ReplyDeleteहिंदी चिट्ठाकारों का आर्थिक सर्वेक्षण में अपना सहयोग दें
ReplyDeleteSaada jeevan to nahi lekin bhartiya mansikta dikhave ke jeevan ki aur unmukh hoti ja rahi hai.....
ReplyDeleteTarun
एक अत्यंत अच्छा मुद्दा है ज्ञान जी !!
ReplyDeleteपहली बात तो आदमी का जीवन सादा होना चाहीये मगर गरिबी का (गरिबो का नही )सम्मान बिल्कुल नही होना चाहीये ...हम जब गरिबी का सम्मान ही करते रहेंगे तो गरीबी को क्या खाक दुर करेंगे ...
हाँ यह सही है कि हमे प्रकृति के साथ जीना सीखना होगा ...अगर जिंदा रहना चाहते है तो ?
भारतीय समाज गरीब है क्योकि लोग यहा बाँट नही पाते इसलिये यहा गरीब और अमीर का अंतर बहुत बडा है अमेरीका मे भी गरीब और अमीर है मगर वहा अंतर इतना बडा नही है ।
ReplyDeleteहमारी कंजुसी हमारी गरीबी को बढा रही है ...उस पर विडंबना यह कि लोग दुसरे कि गरीबी देखकर खुद गरीब बनकर जीने को तैय्यार तो हो जाते है मगर यह नही कि उसे भी खींच गर अपनी तरह थोडा अमीर ही बना दे ...गरीबी को आदर नही मिलना चाहीये ...कई लोग अपनी इसी गरीबी को आध्यात्मीकता कहते है ..इसी गरीबी को अगर हम अपनी आध्यात्मीकता कहे तो कल नपुसंकता ब्रहमचर्य होगी ?