अपने जवानी के दिनों में एक काम जो मुझे कर लेना चाहिये था, वह था, एक दिन और एक रात ट्रक वाले के साथ सफर करना। यह किसी ट्रक ड्राइवर-क्लीनर के साथ संवेदनात्मक सम्बन्ध स्थापित करने के धेय से नहीं, वरन उनके रेलवे के प्रतिद्वन्द्वी होने के नाते उनके धनात्मक और ऋणात्मक बिन्दुओं को समझने के लिये होता। अब लगता है कि उनके साथ यात्रा कर उस लेवल का डिस-कंफर्ट सहने की क्षमता नहीं रही है।
ट्रक परिवहन में एक फैक्टर अक्षम ट्रैफिक सिगनलिंग और उदासीन ट्रैफिक पुलीस-व्यवस्था भी है। खैनी मलता ट्रेफिक पुलीसवाला - बड़े टेनटेटिव भाव से हाथ का इशारा करता और उसे न मानते हुये लोग, यह दृष्य तो आम है। अपनी लेन में न चलना, गलत साइड से ओवरटेक करना, दूसरी ओर से आते वाहन वाले से बीच सड़क रुक कर कॉन्फ्रेन्स करने लगना, यह राष्ट्रीय चरित्र है। क्या कर लेंगे आप?
फिर भी, मैं चाहूंगा कि किसी बिजनेस एग्जीक्यूटिव का इस तरह का ट्रेवलॉग पढ़ने में आये।इतने इण्टरस्टेट बैरियर हैं, इतने थाने वाले उनको दुहते हैं। आर.टी.ओ. का भ्रष्ट महकमा उनकी खली में से भी तेल निकालता है। फिर भी वे थ्राइव कर रहे हैं – यह मेरे लिये आश्चर्य से कम नहीं। बहुत से दबंग लोग ट्रकर्स बिजनेस में हैं। उनके पास अपने ट्रक की रीयल-टाइम मॉनीटरिंग के गैजेट्स भी नहीं हैं। मोबाइल फोन ही शायद सबसे प्रभावशाली गैजेट होगा। पर वे सब उत्तरोत्तर धनवान हुये जा रहे हैं।
किस स्तर की नैतिकता रख कर व्यक्ति इस धन्धे से कमा सकता है? वे अपनी सोशल नेटवर्किंग के जरीये काम करा लेते हों, तो ठीक। पर मुझे लगता है कि पग पग पर विटामिन-आर® की गोलियां बांटे बिना यह धन्धा चल नहीं सकता। जिस स्तर के महकमों, रंगदारों, नक्सलियों और माफियाओं से हर कदम पर पाला पड़ता होगा, वह केवल “किसी को जानता हूं जो किसी को जानते हैं” वाले समीकरण से नहीं चल सकता यह बिजनेस।
शाम के समय शहर में ट्रकों की आवाजाही खोल दी जाती है। अगर वे चलते रहें, तो उनकी ४०कि.मी.प्र.घ. की चाल से ट्रेफिक जाम का सवाल कहां पैदा होता है? पर उनकी चेकिंग और चेकिंग के नाम से वसूली की प्रक्रिया यातायात को चींटी की चाल पर ला देते हैं। इस अकार्यकुशलता का तोड़ क्या है? यह तोड़ भारत को नये आर्थिक आयाम देगा।
लदे ट्रक पर एक दिन-रात की यात्रा भारतीय रेलवे ट्रैफिक सर्विस की इण्डक्शन ट्रेनिंग का एक अनिवार्य अंग होना चाहिये – लेकिन क्या रेलवे वाले मेरा ब्लॉग पढ़ते हैं?!
वाह ज्ञानदत्त भाई क्या बिषय उठाया है आपने जिस पर अक्सर लोग कलम नहीं चलाते हैं। सच्चाई से आँखें मिलाती हुई रचना।
ReplyDeleteसादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.
@ ट्रक परिवहन में एक फैक्टर अक्षम ट्रैफिक सिगनलिंग और उदासीन ट्रैफिक पुलीस-व्यवस्था भी है। ज्ञान जी, एक तरह से यह अक्षम ट्रैफिक सिग्नलिंग की बात सही है पर इसका एक दूसरा पहलू भी है। फॉलो सिग्नलिंग। ये वो सिग्नलिंग है जो ट्रक वाले अच्छी तरह जानते हैं। मैंने एक ट्रक ड्राईवर से इसकी जानकारी ली है।
ReplyDeleteहोता यह है कि जब कभी कोई ओवरलोडेड या ओवरसाईज माल लदा हो और उसका भाडा लाखों में हो जैसे ट्रांसफार्मर, बॉयलर आदि तो उस ट्रक के तीन चार किलोमीटर के आगे एक बंदा कार में पैसे लिये चलता है कि कहीं कोई ट्रैफिक वाला तो आगे नहीं है। अगर हो तो तुरंत ड्राईवर को खबर की जाती है कि गाडी कहीं साईड में लगा दे। यदि ट्रक पकड लिया गया तो छुडवाने की जिम्मेदारी भी उसी कार वाले बंदे की होती है जो मय नकद हाजिर होता है।
उसी तरह इन ट्रैफिक वालों के भी छोडे हुए भेदिये होते हैं। रात के दो-दो बजे तक सूनसान सडक पर गाडी खडी करके इंतजार करते है कि कोई अनोखा ट्रक आये तो अपने आका ट्रैफिक वालों को इंफार्म किया जाय ताकि आगे जाकर जो मिले पचास साठ हजार तक छुडवाई ( जी हां , ये छुडवाई पचास-साठ तक हो सकती है क्योंकि भाडा ही कई लाख का होता है) उसमें इनका भी दांत गडे।
अब इतनी स्ट्राग सिग्नल प्रणाली तो कहीं देखने से रही :)
वैसे हर धंधे की अपनी स्टाईल-ए-छुडवाई होती है।
पांडेय जी रेल्वे क्रसिंग पर ट्रकों की भीड देखकर सबसे पहले अपनी जान की फिक्र होती है
ReplyDeleteशायद ममता जी पढ़ लें अगर बंगला में लिख दें.
ReplyDeleteवैसे मुद्दा एकदम सही लिया है. मैने खुद एक पूरी रात अपनी फैक्टरी का ट्र्क पूरे पी सी सी पोल लाद कर चलाया है ड्राईवर/क्लिनर की हड़ताली प्रवृति को तोड़ने के लिए और खूब झेला रास्ता रोकुओं को..चाहे वो ट्रेफिक वाले हों या सेल्स टेक्स वाले..जाने कहाँ कहाँ भरपाई करते १५० किमी का रास्ता ७ घंटे में पूरा किया.
एक ट्रक यात्रा राग दरबारी के नायक रंगनाथ ने की थी -सही कहा आपने इस उम्र में वह आपको मुफीद नहीं है ! और नैतिक अधोपतन का क्या कहियेगा -यह सारा देश उसको स्वीकार कर चुका है -नतमस्तक है उसके सामान !जो न्याय के मंदिर हैं वहां भी कुर्सी कुर्सी पर जो उद्धत उत्कोच व्यवहार चल रहा है और बगल ही न्यायाधीश न्याय कर रहे हैं -देख कर घोर कोफ्त होती है .
ReplyDeleteआप ट्रक वालों को ही क्यों कोसें !
आपके इस लेख को पढ़ कर सोचने पर मजबूर हो गया कि ट्रक ओनर्स अपना भाड़ा तय करने के लिये अवश्य ही जटिल गणना करते होंगे। अलग अलग चेक पोस्ट का खर्च, रास्ते के पुलिस थानों का खर्च, आरटीओ खर्च, ड्राइव्हर क्लीनर का खर्च जैसे समस्त खर्चों को जोड़ने के बाद अपना मुनाफा जोड़ कर ही भाड़ा तय किया जाता होगा।
ReplyDeleteजय हो। शानदार ठेला। ट्रक वाले बेचारे हलकान रहते हैं। सबसे कम खर्च ड्राइवर ,क्लीनर का होता है। आजकल RTO वाले भी महीने भर की वसूली करके एक गुप्त टोकेन नम्बर दे देते हैं जिसके बाद फ़िर महीने भर की खिचखिच से छुट्टी।
ReplyDeleteआप ने बहुत महत्वपूर्ण विषय उठाया है। बावजूद इस सब के ट्रक ऑनर मुनाफा बना रहे हैं। लेकिन वहाँ भी बहुत प्रतियोगिता है। मौका मिलते ही बड़ी मछली छोटी मझली को खा जाती है। लेकिन इस मुनाफे और विटामिन आर ® के का सारा खर्च चालकों और अन्य मजदूरों की मजदूरी नाम मात्र की देने के कारण निकलता है। आप रेलवे के कर्मचारियों और ट्रक व्यवसाय में काम कर रहे कर्मचारियों के वेतनों की तुलना कर के देखें।
ReplyDeleteअत्यन्त कठिन जीवन जीते है ट्रक चालक। मशहूर गीत/संगीतकार सी,रामन्द्र ने स्वय एक गीत गाया था ‘न मिला है न मिलेगा मुझे आराम कहीं, मेरी इस जिन्दगी में ठहरनें का काम नहीं’।
ReplyDeleteपहले परिवहन पशुओं को माध्यम बना कर होता था, चालक गाड़ीवान पशुओं के व्यवहार को बारीकी से समझता था। अब जबकि पशु का स्थान यांत्रिक वाहनों ने ले लिया है तो पशुओं की संगत में सीखी पाशविकता, मानों उन्हीं में प्रवेश कर गयी है। ट्रक,टैम्पो, टैक्सीवाले यात्रियों और सड़्क पर चलनें वालों के साथ जैसा व्यवहार करते हैं उसमें यह पशुता स्पष्ट झलकती है। घर-परिवार, बीबी-बच्चों से दूर खानाबदॊश जीवनशैली और हाडतोड मेहनत के बाद भी हाथ आती है तरह-तरह की शारीरिक-मानसिक अशांति। अपनीं आजीविका में पल-पल छिपे के खतरे तथा असुरक्षित परिवार ही शायद उन्हें ऎसा बना देता है। रही-सही कसर गाड़ी देखते ही पीछे भागनें वाले कुत्तों की तरह-खाकी वर्दी वाले मांई-बाप पूरी कर देते हैं। कभी-कभी सॊंचता हूँ कि ये कुत्ते, पिछले जनम में कहीं ट्रैफिक पुलिस में तो नहीं थे?
मार्ग पर चलते-देखते और बहुधा महसूस भी करते, सभी हैं किन्तु अपनें चिन्तन में स्थान देनें की संवेदनशीलता शायद ही कोई दिखाता हो। आपनें २-३करोड़ ड्राइवर्स और उनके आश्रितों को अपनें विचार का केन्द्र बनाया यह बड़ी बात है। इस पूरी बिरादरी की शिक्षा,ट्रेनिंग,रहन-सहन,आय आदि तमाम ऎसे मुद्दे हैं जिनको लेकर बहुत कुछ किया जाना चाहिये/किया जा सकता है। विशेषकर जब इनके हाथ में स्टियरिंग ही नही जीवन भी थमा आँख-मुँद् कर हम रिलैक्स्ड़ महसूस करते हों!
आपका सोचना सही है कि लोकोमोटिव की ही तरह, ट्रक यात्रा भी भारतीय रेलवे ट्रैफिक सर्विस की इण्डक्शन ट्रेनिंग का एक अनिवार्य अंग होनि चाहिये. लेकिन यह तय है कि RSC बडोदा से तो आपका ब्लॉग निश्चित ही कोई नहीं पढता होगा. रेलवे की इतनीं सारी तो सर्विसेस हैं किसे पड़ी है अपने प्रतियोगी के प्लस पॉइंट जानने की.
ReplyDeleteट्रकवालों की दुनिया ही निराली है, हमें वह रोमैंटिक लग सकता है, पर है उनकी जिंदगी बहुत कठिन। ये पैसे तो जरूर ही बनाते होंगे, वरना इस व्यवसाय में टिके कैसे रहते।
ReplyDeleteपर्यावरण की दृष्टि से देखा जाए, तो रेल ही ट्रक से बेहतर है। उतने ही ईंधन पर रेल ट्रकों से कहीं ज्यादा सामान ढो सकती है, इससे कम प्रदूषण होता है। पर सुविधा के लिहाज से ट्रक बेहतर हैं। रेल सामान घर तक नहीं पहुंचा सकती, ट्रक पहुंचा सकते हैं।
एक अन्य पहलू भी है, ट्रकरों से संबंधित। ऐड्स बीमारी को देश के कोने-कोने तक फैलाने में उनकी भी अहम भूमिका रही है!
सही है ,आज -कल ट्रक वाले परिवार बहुत आर्थिक संकट में चल रहें है .एक तो मंदी की मार से माल नहीं मिल रहा है दूजे जगह -जगह धन उगाही .मेरे गाँव में एक परिवार इस सब कारणों से तबाही के कगार पर पहुंच चुका है .उम्दा पोस्ट /रिपोर्ट के जरिये इस गंभीर विषय पर ध्याना कर्षण के लिए आभार .
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर आलेख. टिप्पणीकारों में हम श्री अनिल पुसदकर जी को ढूँढ रहे थे. वे इस व्यवसाय से शायद जुड़े हैं
ReplyDeleteमुझे तो टिप्पणी का तरीका ही नहीं मिल रहा । रेल परिवहन से ट्रक परिवहन तक पर पैनी नजर !
ReplyDeleteसही है. मैं कल्पना कर सकता हूं. रात का एक बजा है, हाइवे पर तेज रफ़्तार से एक ट्रक भागा जा रहा है. नशे में धुत्त ड्राइवर दायां हाथ स्टीयरिंग पर और बायां अपने कान पर टिका कर तान छेड़ता है...
ReplyDeleteगड्डी जांदी है छलांगा मार दी s s s ....
पीछे की सीट पर सींकिया सा क्लीनर आंखें बंद किये गाने पर झूम रहा है और ड्राइवर की बगल सीट पर विराजमान अनुभवोत्सुक आप दोनों हाथ जोड़े ईश्वर को याद कर रहे हैं. विकट सीन बनता है.
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गम्भीर मुद्दे को ट्रिवियलाइज्ड करने के लिये क्षमा चाहता हूं.
हां इस धंधे मे विटामिन R तो अत्यंत जरुरी है यानि आप कह सकते हैं कि यह तो कैटेलिक एजेंट है.
ReplyDeleteहमने एक नया ट्रक १९७३ मे ब्रांड न्यु खरीदा था..सारे प्रयत्नों के बावजूद भी इसको ड्राईवर को ही देना पडा. घाटा हुआ पर इससे इस धंधे की नई लाईन मिली जो हम यहां नही लिख स्कते.
इस धंधे मे जो लोग सफ़ल कहलाते हैं वो कुछ अलग कारणों से सफ़ल हैं. जिनमे कुछ अवांछनिय वस्तुओं का परिवहन एवम अन्य कारण भी है.
वैसे इतनी लूटमार के बाद इस ट्रकबाजी के धंधे मे अगर कोई अपने बीबी बच्चों को पाल ले तो गनीमत है. और वो भी हाडतोड मेहनत के बाद.
रामराम
माल ढूलाई में रेल का भ्रष्टाचार देख अपने को तो अजीब लगा था. वहीं जो माल रेल को यहाँ वहाँ ले जाना होता है वह भगवान भरोसे पड़ा रहता है. गोदामें देखी है.
ReplyDeleteव्यवसायिक रूख अपना कर जिम्मेदारी निभाए तो रेल्वे का माल ढूलाई का काम सोना उगले और यह देश के लिए भी शुभ है. वैसे आज भी काम तो होता ही है, मगर प्रतियोगिता ट्रक से है तब....
आज के समय में ट्रक व्यवसाय करने में पसीना आ जाता है तरह तरह की झंझटो से निपटना पड़ता है .
ReplyDeleteमुझे न तो ट्रक पर विश्वास है .. न ट्रक ड्राइवरों पर .. उनके सामने रास्ते पार करते मेरे तो होश ही गुम रहते हैं .. इसी कारण कभी उनकी समस्याओं के बारे में न सोंच सकी।
ReplyDeleteएक सीक्रेट फार्मूला ब्लागर भाई के पास है। सफल ट्रांसपोर्टर होने के लिये पत्रकार संघ का अध्यक्ष होना जरुरी है और वाइसे-वरसा। अरे अनिल भाई आप कहाँ हो? आपकी टिप्पणी का इंतजार है----
ReplyDeleteहमारी कंपनी के निजी चार सौ से अधिक ट्रक हैं...कभी आयीये खोपोली आपकी ये हसरत भी पूरी कर देंगे...
ReplyDeleteनीरज
ज्ञानदत्त जी, मेने तो हमेशा इन ट्रक वालो को हंसते खेलते देखा है लेकिन इस हंसी के पिछे दुख कितना होता है यह एक ट्रक वाला या उस का परिवार ही जानता है.
ReplyDeleteज्यादा तर ट्रक ड्राईवर पंजाबी (सरदार )होते है, लेकिन कभी इन से इन की निजी लाईफ़ के बारे पुछो तो आंखे खुल जाये. आप का धन्यवाद
बड़ा ही महत्वपूर्ण विषय उठाया है आपने.....
ReplyDeleteकृपया इसकी कुछ और परतें खोलिए....विषय विस्तृत परिचर्चा से कुछ और स्पष्ट होगी..
विटामिन R तो आजकल सबको चाहिये बिना गुप्त विटामिन R के तो सरकारी महकमे में कुछ होता ही नहीं है और फ़िर इस विटामिन की आदत ऊपर मंत्रालय से लेकर नीचे वाले बाबू तक को है । वैसे भी भ्रष्टाचार में भारत का नंबर और ज्यादा हो गया है पिछले साल की तुलना में। ट्रक वालों के साथ हमारी हमदर्दी है।
ReplyDeleteलदे ट्रक पर एक दिन-रात की यात्रा भारतीय रेलवे ट्रैफिक सर्विस की इण्डक्शन ट्रेनिंग का एक अनिवार्य अंग होना चाहिये – लेकिन क्या रेलवे वाले मेरा ब्लॉग पढ़ते हैं?! ऐसे विचार को तो ब्लॉग रीडर समुदाय के बाहर तक भी तो ले जाया जा सकता है ! और एक सीनियर अधिकारी पहल करे तो शायद कुछ हो भी जाय !
ReplyDeleteअगर सरकारी अफ़सर अपने प्रतिद्वंदी के बारे में सोच रहे हैं तो ये बहुत ही शुभ लक्षण हैं। ट्रकों से होने वाली कमाई की वजह से ही शहर के अंदर घुसने के पहले जो टोल नाका आता है वहां की पोस्टिंग पाने के लिए लोग लाखों रुपये घूस में देते हैं और कई सालों से जनता और ट्रकों की अपीलों को दरकिनार कर सरकार टोल नाका अबोलिश कर किसी और रूप में कर वसूलने को तैयार नहीं।
ReplyDeleteरेलवे के बदले ट्रकों से माल ढोने का एक फ़ायदा जो मुझे दिखता है वो ये कि ट्रक माल मेरे दरवाजे तक पहुंचा देगें जब कि रेलवे से आये माल को स्टेशन से मुझे फ़िर ट्रक की ही मदद से लाना होगा अपनी फ़ैकटरी में। रेलवे में माल की सुरक्षा की भी समस्या है।
लेकिन ये आप की बेहतरीन पोस्टस में से एक है, ऐसे इशुय्स डिस्कस होने चाहिए, This can be a way of brain storming on important issues where people from variety of fields can give their opinions and totally unexpected but effective solutions may emerge. This type of posts can do a yeoman service to railways.
लेकिन क्या रेलवे वाले मेरा ब्लॉग पढ़ते हैं?!
ReplyDelete...
पढ़ते हैं जी जरूर पढ़ते हैं जी.
रेलवे वाले ना सही, "रेल वे" वाले तो हैं. वैसे बड़ी ही भयानक समस्या के बारे में लिख दिया है आज.
जिस स्तर के महकमों, रंगदारों, नक्सलियों और माफियाओं से हर कदम पर पाला पड़ता होगा, वह केवल “किसी को जानता हूं जो किसी को जानते हैं” वाले समीकरण से नहीं चल सकता यह बिजनेस।
ReplyDeleteबिज़नेस की तो नहीं पता लेकिन इन भ्रष्ट पुलिस वालों आदि से बचने में "पहचान" या नेम ड्रॉपिंग बहुत काम आ जाती है। दो-तीन बार तो मैं भी ऐसे पुलिसियों के फंदे में पड़ने से बचा हूँ जो मुझे खामखा लपेटने के चक्कर में थे लेकिन फिर "पहचान" सुन के आराम से जाने दिया!!
शाम के समय शहर में ट्रकों की आवाजाही खोल दी जाती है। अगर वे चलते रहें, तो उनकी ४०कि.मी.प्र.घ. की चाल से ट्रेफिक जाम का सवाल कहां पैदा होता है? पर उनकी चेकिंग और चेकिंग के नाम से वसूली की प्रक्रिया यातायात को चींटी की चाल पर ला देते हैं। इस अकार्यकुशलता का तोड़ क्या है?
पूरा सिस्टम ही भ्रष्ट है, ऊपर से लेकर नीचे तक सभी ऐसे हैं, कोई क्या करे। इसका तो यही उपाय है कि ऊपर वाले सुधरें, वही फिर नीचे वालों को सुधार सकते हैं। एंटी करप्शन विभाग बढ़ाए जाने चाहिए, उसमें ईमानदार लोग डाले जाएँ और यदि कोई ट्रैफिक पुलिस वाला या अन्य सरकारी कर्मचारी विटामिन आर लेते पकड़ा जाए तो उसने न केवल विटामिन आर की वापसी करवाई जाए वरन् साथ ही जितना विटामिन आर ले रहा था उसका 50% जुर्माने के रूप में भरवाया जाए (एक निश्चित न्यूनतम के तौर पर मासिक वेतन का 25% रखा जा सकता है, दोनों में से जो ज़्यादा हो वह जुर्माने की रकम)। क्योंकि सज़ा का डर कर्मचारियों में खत्म होता जा रहा है इसलिए वे अधिक सीनाजोर होते जा रहे हैं।
gyan ji sadar pranam....apki post hamesha ki tarah.....shandar...aap railway wale hain aur mein bhi....grandfather railway mein the...uske baad father ne bhi railway ki seva ki...bade bhai ...railway se retire hue...ek bhai ne panch sal railway kiu naukri kar ke resign kar diya ....aaj..kal army mein hain..colonel ki post par...sach kahoon meri bhi dili icha thi ke railway join karoon ..written exam pass bhi kiye par hamesha interview mein fail ho gaya...truck [transport] aur railway ki life mein jameen asman ka antar hai...dono mein koi comparison ho hi nahi sakta ...kisi bhi angle se...
ReplyDeletegyan ji ....kuch aur likna chahta hoon...pehli tippani mein batana bhool gaya ki mujhe aaj bhi railway se bada lagav hai...apni gadi se kabhi safar mein nikalta hoon aur raste mein train dikh jaye to gadi rok use dekne lag jata hoon...railway ke prati pyar ko meine cartoons ke madhyam se pura kiya...western central railway ke liye jahar khurani par meine cartoons ki series banayi jo ki jabalpur se chalne wali gadiyon ke dibbon mein lagayee gayee thi ...aaj bhi jabalpur railway station ke bahar mera banaya hua cartoon poster [ jahar khurani]laga hua hai....i still love indian railways n will always
ReplyDeleteट्रक वालो को दर्द न जाने कोय
ReplyDeleteभ्रष्टाचार जिंदाबाद!!!
ReplyDeleteएक स्टडी के अनुसार भारत में ट्रकवाले प्रतिवर्ष १०० अरब रूपये पुलिसवालों को रिश्वत में देते हैं. यह तो सिर्फ मोटा-मोटा अनुमान है. वास्तविक राशि इससे अधिक भी हो सकती है. इसमें यदि आप अन्य वाहनों द्वारा दी जानेवाली रिश्वत को जोड़ लें तो!
ReplyDeleteकोई आर्श्चय नहीं क्यों प्रत्येक पुलिसवाला गर्मी-सर्दी की परवाह किये बिना चुन्गीनाके पे ड्यूटी करने के लिए इच्छुक होता है.
राज्य बनने से पहले यंहा के एक चेक पोस्ट से सालाना 4 लाख रूपये की टैक्स वसूली होती थी अब उसी बैरियर से बीस करोड़ रुपये से ज्यादा सरकारी खज़ाने मे जमा हो रहे हैं।ट्रक वाले यंहा आज भी घण्टो परेशान होते हैं।
ReplyDeleteभारतीय ट्रकीँग से जुडा गाना याद आ गया,
ReplyDelete" मैँ निकला गड्डी ले के,
सडक पे ,
एक मोड आया..
मैँ उत्थे दिल
छोड आ..या "
सामान पहुँचा दिया
और बीच रास्ते मेँ
पूरी ज़िँदगी का
महाभारत भी घट गया ..
- लावण्या
दुबई से साउदी बॉर्डर पर मीलों तक ट्रक और ट्रेलर खड़े देखे..पता चला कि कई दिनों तक इंतज़ार करने के बाद ही ट्रकों से सारा सामान निकाला जाता है....चैक किया जाता है...फिर अन्दर रखा जाता है... उस दौरान तेज़ गर्मी हो या सर्दी ड्राइवर और क्लीनर वहीं चाय पानी का इंतज़ाम करते हैं...फिर भी हँसते हुए दिख जाते है,,,
ReplyDeleteनेताओं और पुलसियों की ऐश और ऐंठ दोनो ही ट्रकवालों के बूते हैं। ट्रक ड्राइवरो की जिंदगी सचमुच मुश्किल है।
ReplyDeleteबेहतरीन पोस्ट ...
विटामिन-आर® !!
ReplyDeleteसत्य वचन महाराज, अभी भी उम्र ज्यादा नहीं ना हुई है, कभी ट्रक पर बनाया जाये प्रोग्राम और फिर वहां से ब्लाग भी ठोंक दिया जाये।
ReplyDeleteमें ट्रक ड्राइवर हु
ReplyDeleteALOK PURANIK जी में ट्रक ड्राइवर कभी बनाओ प्रोग्राम चलते है घुमाने
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