यह कटिंग मैने बीबीसी हिन्दी की साइट से उतारी है। मुझे यह नहीं मालुम कि नेपाल में क्या होने जा रहा है। पर यह अच्छा लगा कि सेना में माओवादी दखलंदाजी को नेपाल की जनता ने सही नहीं माना।
दहाल ने कहा; "मैंने (नेपाल के) प्रधानमंत्री के पद से इस्तीफ़ा दे दिया है। राष्ट्रपति का क़दम असंवैधानिक और लोकतंत्र के ख़िलाफ़ है। देश का अंतरिम संविधान राष्ट्रपति को एक समांतर शक्ति के रूप में काम करने की अनुमति नहीं देता।" अगर राष्ट्रपति असंवैधानिक हैं तो दहाल उन्हे हटाने का उपक्रम करते। इस्तीफा का मतलब तो राष्ट्र उनके साथ नहीं है।
भारत में भी अनेक प्रधानमन्त्री पद के उम्मीदवारों की बात है। साम्यवादी प्रधानमन्त्री भी उसमें चर्चा में हैं। अगर वैसा हुआ तो भारतीय सेना में भी साम्यवादी दखल सम्भव है? कल्पना करना बहुत प्रिय नहीं लगता।
ऐसी अनेकों सम्भावनायें जन्म ले रही हैं जिनके बारे में कल्पना करना भी प्रिय नहीं लगता, उन्हीं में से यह भी एक है.
ReplyDeleteज्ञानदत्त भाई,
ReplyDeleteसेना के नियमित एवं निर्धारित क्रिया कलाप में किसी के भी दखल देने के विरोध में तो बात समझ में आती है लेकिन आपको केवल साम्यवादी दखल की सम्भावना ही अप्रिय क्यों लग रही है?
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
चलो किसी प्रधानमंत्री ने कुछ दिया तो सही
ReplyDeleteचाहे इस्तीफा ही
नहीं तो प्रधानमंत्री हों या मंत्री अथवा संतरी
सब यकीन लेने में ही रखते हैं
चाहे मिलें नोट या लेने हों वोट
लेने नहीं हथियाने।
ज्ञान जी रह रह कर विदेश यात्रा पर चल निकलते हैं ! यह उनकी ख़ास अदा है !
ReplyDeleteआदरणीय पांडेय जी ,
ReplyDeleteभारत में कौन प्रधानमंत्री बनेगा ..कहा नहीं जा सकता .लेकिन मैं भी आपकी इस बात से सहमत हूँ कि सेना में साम्यवादी दखल .........
ईश्वर हे मालिक रहेगा.
हेमंत कुमार
नेपाल में परिवर्तन की प्रक्रिया चल रही है, वर्तमान घटना क्रम उसी का एक अंग है। वहाँ विभिन्न शक्तियाँ संघर्षरत हैं। इन घटनाओं से क्या निकल कर आएगा? यह अभी भविष्य के गर्भ में छुपा है। माओवादी लड़ाकों को सेना में स्थान देने के प्रश्न पर वर्तमान घटनाओं को जन्म दिया है। पर उन्हें क्या बाहर रखा जा सकता है? इन्हें बाहर रख कर क्या देश में सत्ता के दो केंद्र न हो जाएंगे? या फिर इस का विकल्प क्या है?
ReplyDeleteसेना में राजनीतिक दखल देश को अस्थिर और कमजोर कर देता है।
ReplyDeleteभारत में साम्यवाद है ही कहां :)
I am happy Prachanda resigned
ReplyDeleteHis proposal to induct guerillas into the army was absurd to the extreme.
The army in any country is a trained and disciplined force.
Selection is by merit.
Bringing in riff raff from the streets was shocking.
Let this be an example.
No country should agree to such nonsense.
Who knows, tomorrow if this happens in Pakistan, Zardari may be asked to admit Talibanis into the armed forces.
Nepal has been saved.
भारत मे साम्यवाद प्रचंड समस्या है . नेताजी सुभाष बाबु को तोजो का कुत्ता कहने वाले किसी भी हद तक जा सकते है . लेकिन खुदा गंजे को नाखून न दे
ReplyDeleteप्रचंड लोकतंत्र के लबादे में अपना खालिस माओवादी राज चाहते हैं, लोकतंत्र उनके लिए इस्तेमाल से ज्यादा की वस्तु नहीं है। नेपाल की जनता को तय करना है कि फर्जी लोकतंत्र चाहिए या अपने हिसाब का लोकतंत्र।
ReplyDeleteनेपाल के मामले में अभी आगे -आगे देखिये होता है क्या ?
ReplyDeleteप्रचंड के लिए भारत के साम्यवादियों ने अभी तक कुछ नहीं किया, यह आर्श्चय की बात है. वैसे देखा जाय तो करेंगे भी क्या? अब तो सत्ता में भी नहीं है कि गृह मंत्रालय पर दबाव डालकर रा के द्बारा प्रचंड से मिलने का कार्यक्रम दिल्ली में करवाते.
ReplyDeleteनेपाल की सेना में एक बार गोरिल्ला लोग भर्ती हो जाएँ. इससे बहुत लोगों को प्रेरणा मिलेगी.
@ आलोक जी,
नेपाल की जनता को फर्जी लोकतंत्र भी नहीं दे रहे हैं भाई लोग. जो वहां की जनता को मिल रहा है, उसे 'दर्जी लोकतंत्र' कहते हैं. ठीक दर्जी की तरह हैं प्रचंड जी. पहले कपड़ा जगह-जगह आड़ा-तिरछा काट डालो, उसके बाद उसकी सिलाई के लिए धागा खोजते फिरो.
जय 'दर्जी लोकतंत्र.'
संभावनाएं ही एक दिन सच हो जाती हैं, पर फ़िल्हाल शायद घबराने की बात नही है.
ReplyDeleteरामराम.
Prachand garmi me Prachand smasya?
ReplyDeleteलगता है .. अभी कुछ दिनो तक वहां अनिश्चितता ही बनी रहेगी।
ReplyDeleteभगवान न करे कभी वह दिन आए जब चीन के आक्रमण के समय चीन का समर्थन करने वाले देश की सत्ता सम्भाले. भारत को तशतरी में सजा कर चीन को दे देने में इन्हे कोई गुरेज नहीं होगा.
ReplyDeleteतिब्बत को निगलने के बाद अब लाल ड्रेगन नेपाल की ओर बढ़ रहा है. अमेरिका को सम्राज्य वाद की गालियाँ देने वाले लाल विचारक चीन के विस्तारवाद पर मौन है, इसे ही बौद्धिक बेईमानी कहते है.
नेपाल के राष्ट्रपति ने भारत के हितों की एक बार तो रक्षा कर दी मगर कब तक? भारत को नेपाल से माओवादियों का सफाया करना चाहिए.
ज्ञान Sir ,होने को तो बहुत कुछ हो सकता है लेकिन सेना में राजनीति का दखल होने की संभावनाएं बहुत ही कम हैं.अभी वही एक क्षेत्र है जो बचा हुआ है.
ReplyDeleteबहुत से बहस कर सकते हैं इस विषय -पर..सच्चाई यही है..की भारतीय सेना में अभी भी अनुशासन है और रहेगा.
नेपाल का घटना क्रम भारत के लिए अच्छी खबर नहीं है.
ReplyDeleteभारत के पड़ोस में स्थिर सरकारें ही केवल भारत के हित में हैं.
नेपाल वाकई गंभिर स्थिति में है.. और नेपाल ही क्यों भारत के ज्यादातर पडौसी दुखःद स्थिती में है.. हम अभी ठीक लग रहे है.. पर राजनिति का स्तर देख कह नहीं सकते कब तक.. नेता भ्रष्ट, जनता निश्क्रीय..
ReplyDeleteबांग्ला देश के बाद नई फ़ुंसी उगी है नेपाल मे।यही हाल रहा तो आगे चल कर ये भी फ़ोड़ा और नासूर बन जायेगा।
ReplyDeleteनेपाल के हालात पर ज्यादा अपडेट नहीं हूँ. जिन मित्र से चर्चा होती है इन मामलों पर कल से वो बधाई सन्देश का जवाब देने में ही व्यस्त हैं. सिविल सर्विस की परीक्षा पास कर ली उन्होंने (१०५). वैसे प्रचंड का इस्तीफा स्वागत योग्य कदम है.
ReplyDeleteदिनेश राय द्विवेदी जी ने इस दिशा में बड़ी ही सटीक बातें कही है,कि "नेपाल में परिवर्तन की प्रक्रिया चल रही है, वर्तमान घटना क्रम उसी का एक अंग है। वहाँ विभिन्न शक्तियाँ संघर्षरत हैं। इन घटनाओं से क्या निकल कर आएगा? यह अभी भविष्य के गर्भ में छुपा है।"किन्तु जहां तक सेना में राजनीतिक दखल का प्रश्न है तो यह किसी भी राष्ट्र के लिए शुभ नहीं माना जा सकता !नेपाल वाकई गंभिर स्थिति में है.. !
ReplyDeleteलोकतंत्र की स्थिति ग़रीब की जोरी वाली हो गई है. अगर आप मेरे किसी ग़लत फ़ैसले का विरोध करते हैं तो यह अलोकतांत्रिक है और मैं आपकी सही बात का विरोध करूं - आप उसका जवाब भी दें तो यह भी अलोकतांत्रिक है. यही हाल हर जगह है.
ReplyDeleteफिलहाल तो हमें नवम्बर की अपनी प्रस्तावित यात्रा टलती नजर आ रही है......
ReplyDelete.बाकी सोचिये सारे पडोसी निकम्मे है हमारे देश के.....
यह सच है की नेपाल परिवर्तन की प्रक्रिया से गुजर रहा है ....पर इस पूरे प्रकरण में सबसे महत्त्वपूर्ण बिंदु था ..... सेना में माओवादी चरमपंथियों की भर्ती !!
ReplyDeleteजैसा जी विश्वनाथ जी ने कहा है ....... सेना की अनुशासन में इस तरह की राजनैतिक भर्ती बाद में ही सही पर कुछ दूसरी समस्यायों से सामना कराती ..... इससे बेहतर था कि प्रचंड ने इस्तीफा दे दिया !!
प्राइमरी का मास्टरफतेहपुर
भारत में भी अनेक प्रधानमन्त्री पद के उम्मीदवारों की बात है। साम्यवादी प्रधानमन्त्री भी उसमें चर्चा में हैं। अगर वैसा हुआ तो भारतीय सेना में भी साम्यवादी दखल सम्भव है? कल्पना करना बहुत प्रिय नहीं लगता।वाकई, बहुत क्या थोड़ा भी प्रिय नहीं लगता। उनके बंदे के प्रधानमंत्री बनने के कोई आसार नहीं। चांस उतने ही है जितना बहन जी के प्रधानमंत्री बन जाने के हैं। यदि खुदाई मार के चलते ऐसा हो गया तो वाकई लफ़ड़ा हो जाएगा!!
ReplyDeleteadarniya..gyanji....sadar pranam...mere blog par niyamit tippani ...yani ke shubhashish...ke liye dhanyawad..jis baat ki kalpana buri lage...uski kalpana hi kyun karna...
ReplyDelete"कल्पना करना प्रिय नहीं लगता" कितनी संतुलित प्रस्तुति है यह. बहुत उथल पुतल होने कि संभावनाएं बन रही हैं.
ReplyDeleteआपके विचारों से शत-प्रतिशत सहमत.. आभार
ReplyDeleteअब नेपाल वैसा नहीं रहा जैसा हम जानते थे। अब यहाँ सीधे-सादे सेवाधर्मी (बहादुर)टाइप लोग नहीं बल्कि खूँखार और मार-काट पर उतारू जंगली लोग उग आये हैं। जय हो लोकतंत्र की।
ReplyDeleteभारत में तो सेना में राजनीतिक दखल कब का होगया ! क्या सचमुच आपको पता नहीं ? सेना में हिन्दू मुसलमानों की गिनती कराना और क्या था ?
ReplyDelete@दिनेशराय द्विवेदी जी राय दे रहे हैं “नेपाल में परिवर्तन की प्रक्रिया चल रही है, वर्तमान घटना क्रम उसी का एक अंग है। वहाँ विभिन्न शक्तियाँ संघर्षरत हैं। इन घटनाओं से क्या निकल कर आएगा? यह अभी भविष्य के गर्भ में छुपा है। माओवादी लड़ाकों को सेना में स्थान देने के प्रश्न पर वर्तमान घटनाओं को जन्म दिया है। पर उन्हें क्या बाहर रखा जा सकता है? इन्हें बाहर रख कर क्या देश में सत्ता के दो केंद्र न हो जाएंगे? या फिर इस का विकल्प क्या है?”
ReplyDeleteऔर रवीन्द्र प्रभात जी असल इशारा समझे बिना उनकी बात का समर्थन कर रहे हैः
@“दिनेश राय द्विवेदी जी ने इस दिशा में बड़ी ही सटीक बातें कही है,कि "नेपाल में परिवर्तन की प्रक्रिया चल रही है, वर्तमान घटना क्रम उसी का एक अंग है। वहाँ विभिन्न शक्तियाँ संघर्षरत हैं। इन घटनाओं से क्या निकल कर आएगा? यह अभी भविष्य के गर्भ में छुपा है।"किन्तु जहां तक सेना में राजनीतिक दखल का प्रश्न है तो यह किसी भी राष्ट्र के लिए शुभ नहीं माना जा सकता !नेपाल वाकई गंभिर स्थिति में है.. !”
द्विवेदी जी की टिप्पड़ी का यह भाग गौर करनें लायक है “माओवादी लड़ाकों को सेना में स्थान देने के प्रश्न पर वर्तमान घटनाओं को जन्म दिया है। पर उन्हें क्या बाहर रखा जा सकता है? इन्हें बाहर रख कर क्या देश में सत्ता के दो केंद्र न हो जाएंगे?”
द्विवेदी जी जो एक खतरनाक बात कह रहे है,से एक प्रश्न है भारत की आजादी की लड़ाई में क्रान्तिकारियों को और विशेषकर सुभाष की इण्डियन नेशनल आर्मी को सेना में स्थान देंना चाहिये था? क्या एक देशज राष्ट्र्वादी भावना रखनें वाले सिपाही और एक अन्तर्राष्ट्रीय गठजोड़ रखनेंवाली माओवादी भावना के सिपाही आपस में टकरायेंगे नहीं? विशेषकर तब जब कि १९४९ में बनीं नेपाल कम्यूनिस्ट पार्टी आज १-१/२ दर्जन धड़ों में बँटी हुई है और मूल पार्टी सोवियतसंघ से प्रेरणा लेती थी जब कि मोहन बैद्य धडे के पुष्पकमल दहल प्रचण्ड चीन के इशारे पर काम कर रहे हैं। क्या द्विवेदी जी को यह मालूम है कि प्रचण्ड नें अपना एक अलग दर्शन प्रचारित किया है जिसे वह “मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओवाद-प्रचण्ड पाथ” कहते हैं? क्या उन्हें मालूम है कि इस बार के चुनाव मे केरल मे चे ग्वेरा के पोस्टर लगे हैं? क्या कम्यूनिस्टों को भारत के किसी भी महापुरुष में आस्था है जिसका वो सम्मान करते है?
सहमत हूं सुमन्त मिश्र ‘कात्यायन’ से
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