कुछ सोच कर बोला – अब हम चाही कि हमका इन्द्रासन मिलि जाइ त चाहे से थोरउ मिलि जाये। (मेरी चाहने से मुझे इन्द्रासन थोड़े ही मिल जायेगा।)
पर उस बूढ़े बाबा को मेरे रूप में एक श्रोता मिल गया था। उसके बाद देशज सन्तों की बानी (बाबा कबीर भी उनमें थे) इतने फर्राटे से उन बूढ़े ने धाराप्रवाह बोली कि मैं दंग रह गया। अचानक सड़क के किनारे सामान बेचने वाले से बहुत स्तर ऊपर उठकर मुझे वह संत-दार्शनिक लगने लगे। एक प्रच्छन्न दार्शनिक (दार्शनिक इन डिस्गाइज!)। मेरी सारी एकेडमिक्स और अफसरी लिद्द हो गयी उनके समक्ष।
बन्धुवर, कबीर या सुकरात के साथ भी मुलाकात कुछ इसी तरह की होती रही होगी। ये लोग भी सामने वाले के गर्व कीपहले दोनो बार मैने उन वृद्ध की फोटो बिना उनसे पूछे खींची थी। पर इस बार बाकायदा अनुमति मांगी – एक फोटो ले लूं।
चलते चलते परिचय पूछा। नाम है राम सिंह। आश्रम की वन की पट्टी में वे रहते हैं। उन्हींकी झोंपड़ी के पास दो साल पहले मुझे नीलगाय के दर्शन हुये थे। आप फोटो में राम सिंह जी को और उनकी झोंपड़ी को देखें।
(हमारे प्रच्छन्न दार्शनिक राम सिंह जी बीमार लगते हैं और बुझे से भी। भगवान उन्हें स्वास्थ्य और दीर्घायु दें। … वैसे हम कौन से टिचन्न/टनटनाट हैं; गोड़-मूड़ सब पिरा रहा है!)
एक पुरानी (१८ फरवरी २००८ की) पोस्ट का पुच्छल्ला:
मैने कहा न कि मेरी पोस्ट से ज्यादा बढ़िया टिप्पणियां होती हैं। कल पुराणिक जी लेट-लाट हो गये। उनकी टिप्पणी शायद आपने न देखी हो। सो यहां प्रस्तुत है -
रोज का लेखक दरअसल सेंसेक्स की तरह होता है। कभी धड़ाम हो सकता है , कभी बूम कर सकता है। वैसे, आलोक पुराणिक की टिप्पणियां भी ओरिजनल नहीं होतीं, वो सुकीर्तिजी से डिस्कस करके बनती है। सुकीर्तिजी कौन हैं, यह अनूप शुक्ल जानते हैं।
लेख छात्रों के चुराये हुए होते हैं, सो कई बार घटिया हो जाते हैं। हालांकि इससे भी ज्यादा घटिया मैं लिख सकता हूं। कुछेक अंक पहले की कादम्बिनी पत्रिका में छपा एक चुटकुला सुनिये -
संपादक ने आलोक पुराणिक से कहा डीयर तुम मराठी में क्यों नहीं लिखते।
आलोक पुराणिक ने पूछा - अच्छा, अरे आपको मेरे लिखे व्यंग्य इत्ते अच्छे लगते हैं कि आप उन्हे मराठी में भी पढ़ना चाहते हैं।
नहीं - संपादक ने कहा - मैं तुम्हारा मराठी में लेखन इसलिए चाहता हूं कि सारी ऐसी तैसी सिर्फ और सिर्फ हिंदी की ही क्यों हो।
यह तो सभी मानते हैं कि अनुभव से बहुत बड़ा ज्ञान मिलता है। तो जिसने जीवन का ज्यादा अनुभव किया, उसका जीवन संबंधी ज्ञान भी ज्यादा रहेगा। हमेशा सुख में ही जीनेवालों की अपेक्षा सुख-दु:ख दोनों का अनुभव करनेवालों का अनुभव ज्यादा विविध और विस्तृत रहता है।
ReplyDeleteयह देखकर बहुत प्रसन्नता हुई कि अब आपका मोबाइल कैमरा जंगल की टोह भी लेने लगा है। निश्चय ही हमें अब हलचल में कुछ और उम्दा चीजें मिलनेवाली हैं :)
भाई राम सिंह जी अपना कर्तब्य कितनी मुस्तैदी से कर रहें हैं ,सीख के लिए यही काफी है .इसी बात पर आप के इलाहाबाद के कवि , विश्वविद्यालय के पूर्व आचार्य एवं हिन्दी विभाग के विभागाध्यक्ष रहे डॉ जगदीश गुप्त जी की ये लाइने मुझे याद आ गयी कि-
ReplyDeleteगति से क्या मुक्ति बन्धु-गति ही तो मुक्ति है ||
अभी तक तो प्रछन्न बुद्ध के बारे में जाना था आज यह भी जानकारी हो गयी की प्रछन्न दार्शनिक भी हो सकते हैं !
ReplyDeleteहम तो सुकीर्ति जी से डिस्कस करके टिपियायेंगे।
ReplyDeleteन जाने क्यों हमें तो राम सिंह दादा के प्रति श्रद्धा का भाव पनप रहा है. आपके माध्यम से हम भी मिल लिया करेंगे. उनके अच्छे स्वास्थ्य के लिए इश्वर से प्रार्थना है.
ReplyDeleteडा. अमर कुमार ई-मेल उवाच:
ReplyDeleteसो तो ठीक है, गुरुवर,
पर उसके धाराप्रवाह कथन में जितना पकड़ पाये, वही यहाँ बाँट देते !
न होता, तो एक दिन आराम कर लेते, गोड़ मूड़ का ध्यान रखें,
हम कोई भागे थोड़े ही जा रहे हैं !
यह भाव की सब ईश्वर पर है, नाहक रक्तचाप नहीं बढ़ाता. यही वह कूँजी है जिसने हमारी हस्ती मिटने नहीं दी.
ReplyDeleteबहुत पैनी नजर है आपकी. रामसिंह जी जैसे प्रछन्न दार्शनिक को समझने के लिये नजर भी वैसी ही होनी चाहिये.
ReplyDeleteरामराम.
सर जी !झोपडे का फोटो स्पष्ट नहीं आ रहा है .तनिक नजदीक से लीजियेगा अगली बार.....अनूप जी ने सुकीर्ति का रहस्य अभी तक रखा है जी ..इस मामले को तनिक टॉर्च की रौशनी में लाइयेगा तो
ReplyDeleteऊपर वाले ने भारत में फी किलोमीटर एक हजार दार्शनिक ठेले हैं।
ReplyDeleteयह तो सच्ची के दार्शनिक है।
जाहि विधि राखै राम, ताहि विधि रहिये, से बड़ा पर मुश्किल दर्शन कोई और दूसरा नहीं है।
ये कमेंट जो आपने छापा है, यह तो कल का नहीं है, पुराना है। कल तो शायद भोलू उर्फ सफेद हाथी पर लिखा था।
अनूपजी सुकीर्तिजी का राज खोल नहीं रहे हैं, जरा उन्हे प्रेरित कीजिये।
'जइसे राखत हयें, वइसे रहत हई' भगवान् पर अटूट विश्वास. इस सिद्धन्त पर आधे से ज्यादा हिन्दुस्तान जिन्दा है, ये ना हो तो लोग तो ऐसे ही मर जाएँ !
ReplyDeleteराम सिंह जी के प्रवचन भी मौका देखकर ठेल ही देंगे आप कभी मगर ये सुकीर्ति जी कौन हैं??
ReplyDeleteजिन्दगी मे दुःख के थपेडे ही तो दार्शनिक बना देते है . कष्ट को ईश्वर का प्रसाद मान कर ही तो दिन काट लेते है रामसिंह जैसे लोग और टूटते नहीं . हमारे कमाई का चेक एक दिन भी लेट हो जाए तो न जाने किस किस को दोषी साबित करदेते है .
ReplyDeleteहमारे एक बुजुर्ग कहा करते थे कि "अरे हम पढ़े नहीं गढ़े हैं"। ऐसे बहुत से "गढ़े" लोग हैं जिनकी बातों को सुन कर वास्तव में दार्शनिक अनुभूति होती है। किन्तु कौन ध्यान देता है उनकी बातों को?
ReplyDeleteरोज़ के अनुभव से मिलता है समझ और ज्ञान....इन वृद्ध साहब ने जीवन को बहुत करीब से देखा है इसलिए उनकी बातें दर्शन का ज्ञान लिए लगीं.ईश्वर उन्हें अच्छा स्वास्थ्य दे.
ReplyDeleteकादम्बिनी में छपे' पुराणिक जी और संपादक का चुटकला मजेदार था.
ये प्रच्छन्न दार्शनिक जी स्वस्थ रहें और प्रसन्न भी.. आभार
ReplyDeleteमज़ा आ गया इस प्रच्छन्न दार्शनिक के बारे में पढ़कर. रामसिंह जी का यह पक्ष जानकर तो मुझे लाल मुहम्मद याद आ रहे हैं. लाल मुहम्मद कौन हैं, ये कभी अलग से बताउंगा, पूरी तफ़सील से.
ReplyDelete"अचानक सड़क के किनारे सामान बेचने वाले से बहुत स्तर ऊपर उठकर मुझे वह संत-दार्शनिक लगने लगे"
ReplyDeleteहिन्दुस्तान में कहीं भी चले जाईये, भारतीय संस्कृति ने काफी दार्शिनिक तय्यार कर दिये हैं. मैं अकसर ऐसे लोगों के दर्शन करता रहता हूँ.
सस्नेह -- शास्त्री
देश के जिस कोने मे आप जाएंगे ये मिल जाएंगे। मुझे हरीश भादानी जी ने सुनाया था कि साक्षरता कार्यक्रम के अंतर्गत एक गोष्ठी गांव में रखी। सांख्य पर बोलने को कहा तो एक बूढ़ा सामने आया और उस ने पूरी क्लास ले डाली। हमने उसे मानदेय़ देना चाहा रसीद बना कर उस से हस्ताक्षर करने को कहा तो बोला वह अंगूठा लगाएगा। उस ने अंगूठा लगा कर पैसा लिया और तुरंत गांव की धर्मशाला को दे डाला।
ReplyDeleteये भारत की मिट्टी है,
ReplyDeleteजो दार्शनिकता को,
घुट्टी मेँ डाले डाले,
माँ के अमृत मेँ घोल,
सदीयोँ से,हर एक,
भारतीय को,यूँ ही,
चुपचाप, पिलाती आई है
- लावण्या
मकोय वाले बूढ़े बाबा राम सिंह को सेलिब्रिटी बना दिया आपने. दर्शन और आध्यात्म तो यहाँ की मिटटी में ही रचा बसा है. बस देखने वाले की नियत और नजर चाहिए.
ReplyDeleteदर्शन और अध्यात्म ही ज्ञानजी की दृष्टि में भी रचा-बसा है। असली ब्लागिंग का मज़ा भी...
ReplyDeleteबहुत बढ़िया ज्ञानदा...
राम सिंह जी की तरह ही ब्लॉग जगत में भी बहुत से प्रच्छन ब्लॉगर घूम रहे हैं।
ReplyDelete----------
सावधान हो जाइये
कार्ल फ्रेडरिक गॉस
तभी तो स्वामी विवेकानंदजी ने कहा था कि भारत के किसी भी गांव के कोने में भी लोग दार्शनिकता की बातें करते मिल जाएंगे। हम हमारी अंगेज़ी दम्भता में उन्हें पहचान नहीं पाते:)
ReplyDeleteनमस्ते!
ReplyDeleteइस पोस्ट के लिये बहुत आभार....
एक श्वेत श्याम सपना । जिंदगी के भाग दौड़ से बहुत दूर । जीवन के अन्तिम छोर पर । रंगीन का निशान तक नही । उस श्वेत श्याम ने मेरी जिंदगी बदल दी । रंगीन सपने ....अब अच्छे नही लगते । सादगी ही ठीक है ।
आप तो लगता है कि इन बाबा पर अटक गए हैं, कभी मकोय तो कभी बेर! ;)
ReplyDeleteपुराणिक जी की बात से सहमति है कि दार्शनिक भारत में एक से बढ़कर एक मिल जाएँगे, क्या ठेले वाले, क्या खोमचे वाले। वो तो इन लोगों को कभी मौका नहीं मिला नहीं तो दुनिया के बड़े पर्दे पर ये भी स्टॉर होते। इनकी जगह जो लोग बैठे हैं दार्शनिक बन उनमें आधे तो पांडू होते हैं जिनको दर्शन का "द" न पता होता!
बहरहाल, आप फोटू तो ले लिए, पहली वाली में राम सिंह जी नज़र भी आ गए, लेकिन दूसरी में जंगल ही दिखे है कुटिया नाही! :)
आदरणीय पांडेय जी ,
ReplyDeleteकहा जाता है की जहाँ न जाये रवि वहां पहुंचे कवि....ये बात बिलकुल सही है .
आखिर आपसे पहले भी तो राम सिंह जी से लोगों ने सौदा लिया होगा ,उनसे मिले होंगे ..पर और किसी को उनके अन्दर के कबीर नहीं दिखे ...आपको दिखे ....आपने उन्हें समझा.
सर ,ऐसे बहुत से कबीर छिपे हैं ..पर उन्हें खोजने वाली दृष्टि तो हो ....
शुभकामनायें
हेमंत कुमार