पर हम ही केवल हाइपर एक्टिविटी (अत्यधिक क्रियाशीलता) के शिकार नहीं हैं। सवेरे की सैर पर मैं एक खण्डहर में रह रहे दिहाड़ी मजदूरों की हाइपर एक्टिविटी देखता हूं। सड़क के किनारे बन रही दुकानों को कभी डिमॉलिश (demolish – ढहाना) कर दिया गया होगा। उन्हीं के खण्डहरों में ये पन्द्रह बीस मजदूर रहते हैं। सवेरे काम पर निकलने के पहले ये नित्यकर्म से निपट रहे होते हैं। दो-तीन सामुहिक चूल्हों पर कुछ मजदूर अपनी रोटियां बना रहे होते हैं। सड़क के उस पार एक सामुहिक नल पर कुछ कुल्ला-मुखारी-स्नान करते देखे जाते हैं। एक दूसरे की दाढ़ी बनाते भी पाया है मैने उन्हें।
उनके तसले, फावड़े और अन्य औजार बाहर निकाले दीखते हैं। कहीं कोई सब्जी काटता और कोई आटा गूंथता दीखता है। साधन अत्यन्त सीमित नजर आते हैं उनके पास। पता नहीं उनकी वर्क-साइट कितनी दूर होगी। पैदल ही जाते होंगे – कोई साइकल आदि नहीं देखी उनके पास। अपना सामान वहीं खण्डहर में सीमेण्ट की बोरियों में लपेट-लपाट कर काम पर जाते होंगे।
उन्हें सवेरे पास से गुजरते हुये कुछ क्षणों के लिये देखता हूं मैं। उसके आधार पर मन में बहुत कुछ चलता है। कभी कभी लगता है (और मन भी ललचाता है उनकी मोटी रोटियां सिंकते देख) कि उनके साथ कुछ समय बिताऊं; पर तब मेरा काम कौन करेगा? कौन हांकेगा मालगाड़ियां?
अभी कहां आराम बदा, यह मूक निमंत्रण छलना है।
अभी तो मीलों मुझको, मीलों मुझको चलना है।
sahi kaha:
ReplyDeleteजिनका सोचना है कि नौकरशाही केवल ऐश करने, हुक्म देने और मलाई चाभने के लिये है; उन्हें हमारे जैसे का एक सामान्य दिन देखना चाहिये।
hamare pitaji ki bhi yahi stithi hai
यहां मुंबई में भी कई जगहों पर सुबह सुबह यही नजारा देखने मिलेगा। बंद दुकान के बाहर शटर से सटा कर कार्ड बोर्ड, बिस्किट के बडे बक्सों के टुकडों आदि से घेर-घार कर एक स्टोव जलाये कई लोग दिख जायेंगे। कोई आंटा घूथता है तो कोई सब्जी काट रहा होता है। वही दृश्य जैसा आपने इलाहाबाद में देखा वैसा ही कुछ यहां भी देखने मिल जाता है क्योंकि उनकी बिरादरी एक है - कर्मठ मजदूर वर्ग - जो अक्सर दिहाडी पर कहीं काम करते हैं और जैसे तैसे जीवन चलाते हैं, कुछ बचा कर पैसा घर जो भेजना होता है। लेकिन, शायद सरकार को ये सामुहिक अभाव केंद्र भी पसंद नहीं आते तभी तो अक्सर पुलिस या कोई अधिकारी उन्हें तितर बितर कर जाते हैं और शेष रह जाता है एक गत्ता, एक परात, कुछ सफेद आंटा और एक सफेद झूठ कि- इंडिया बदल रहा है।
ReplyDeleteसुबह -सुबह दिल से आपको इतना भावपूर्ण लेखन के लिए धन्यवाद कि " उन्हें सवेरे पास से गुजरते हुये कुछ क्षणों के लिये देखता हूं मैं। उसके आधार पर मन में बहुत कुछ चलता है। कभी कभी लगता है (और मन भी ललचाता है उनकी मोटी रोटियां सिंकते देख) कि उनके साथ कुछ समय बिताऊं; पर तब मेरा काम कौन करेगा? कौन हांकेगा मालगाड़ियां? ""
ReplyDeleteऔर राबर्ट फ्रास्ट की रचना का प्रस्तुतिकरण भी पसंद आया .
अभी कहां आराम बदा, यह मूक निमंत्रण छलना है।
अभी तो मीलों मुझको, मीलों मुझको चलना है।
वस्तुतः कर्म ही प्रधान है -बहुत सारे लोग हैं जिनकी पूजा केवल उनके कर्मों के आधार पर ही होती है ,समाज की जो तस्वीर आपने दिखाई है वह सुबह -सबेरे हर महानगर की तस्वीर है .
सब जगह यह नजारा दिखाई देता है। आप फोरलेन बना रही किसी बड़ी निर्माण कंपनी के काम को देखें तो पाएंगे कि सब से पहले स्टोर और मजदूरों के अस्थाई आवास बनते हैं। पता नहीं सब जगह कब ऐसा व्यवस्था बन पाएगी।
ReplyDeleteकाम स्वयं में समाहित कर ले, और निगल ले; इसमें थोड़ा अन्तर देखता हूँ । समाहित कर लेने में एकमेक हो जाने का भाव है शायद ।
ReplyDeleteलेखन आपका न तो आक्रामक बनाता है, और न ही निरुत्साहित करता है । यह बैलेन्स कैसे हो पाता है !
आप सुबह सुबह व्यस्त हो जाते हैं।
ReplyDeleteहमारे लिए सुबह आराम का समय है।
५:३० को उठ जाते हैं, और ई मेल चेक करते हैं, documents/drawings वगैरह download करते हैं और यदि समय मिला तो आपका ब्लॉग पढ़ते हैं, और फ़िर योग / प्राणायम क्लास के लिए चले जाते हैं. क्लास से लौटकर, आराम से अखबार पढ़ते हैं, नहाते हैं, नाशता करते हैं सब बिना घड़ी देखे।
समय की कोई पाबन्दी नहीं होती। कभी ९ बजे, कभी ९:३० और कभी कभी तो दस बजे निकलते हैं दफ़्तर के लिए।
क्या मैं भाग्यशाली हूँ?
पता नहीं. आप ही निश्चय कीजिए।
मेरा काम तो शाम को ही शुरू होता है।
जब आप सब ५ बजे घर जाने की तैयारी कर रहे हैं मैं व्यस्त हो जाता हूँ।
तीन बजे से लेकर पाँच बजे तक सभी ई मेल भेजकर तैयार हो जाता हूँ।
पाँच बजे से लेकर ई मेल आने लगते हैं, और मुझे Skype पर Conference Calls के लिए तैयार रहना पढ़्ता है। दफ़्तर के कर्मचारी तो ६:३० से लेकर ७ बजे तक निकल जाते हैं पर मुझे अकेले कभी कभी रात १० बजे तक इन अमरीकी वालों से निपटना पढ़ता है। उनके लिए सुबह का समय होता है और वे सब fresh रहते हैं जब मैं थका हुआ होता हूँ।
बस रात के दस के बाद घर के लिए रवाना होता हूँ और कभी कभी तो गाड़ी चलाते चलाते मोबाईल पर उन लोगों का फ़ोन आ जाता है कुछ urgent पूछताछ के लिए।
हमारे व्यवसाय में किसी एक व्यक्ति को अपना शाम का समय त्यागना पढ़ता है।
किसी एक को contact person का रोल अदा करना पढ़ता है और मेरे देफ़्तर में वह व्यक्ति मैं ही हूँ।
बस शनिवार और इतवार को कोई हमें disturb नहीं करता।
सोमवार भी शान्ति का दिन होता है। मंगलवार और शुक्रवार सप्ताह के सबसे व्यस्त दिन रहते हैं।
"...जिनका सोचना है कि नौकरशाही केवल ऐश करने, हुक्म देने और मलाई चाभने के लिये है; उन्हें हमारे जैसे का एक सामान्य दिन देखना चाहिये।..."आह! आपने तो हमारे पुराने दिनों की याद ताजा कर दी. इसीलिए विभाग में वीआरएस की स्कीम आने पर सबसे पहले आवेदन करने वालों में से एक मैं भी था. बदमिजाज, नाकारा, अज्ञानी मगर बड़े ओहदों पर चल रहे अफसरों - जो टारगेटों को आउट आफ द ब्लू पूरा करने के लिए चौबीसों घंटे छड़ियाँ घुमाते फिरते थे - उनसे छुटकारा पाने का भी ये सबसे बढ़िया जरिया था...
ReplyDelete"...जिनका सोचना है कि नौकरशाही केवल ऐश करने, हुक्म देने और मलाई चाभने के लिये है; उन्हें हमारे जैसे का एक सामान्य दिन देखना चाहिये।
ReplyDelete" और ये सामान्य दिन सच में ही ऐसे तथ्य उजागर करेगा जहाँ मेहनत है भाग दौड़ है और तनाव है.."
Regards
sirji aapko to journalist hona chahie tha. aapke sochne ki shaili ham jaise patrakaro ko bhi naya najariya deti hai. hyperactivity ko naye andaj me jana. bahut khoob.
ReplyDeleteअन्य लोगों मे अपने को देखना शायद आत्मिक ज्ञान की उन्नति का परिचायक है. शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
Attention Deficit Hyperactivity disorder?
ReplyDeleteदूर के ढोल सुहाब्ने होते है . जितनी समस्या बिल गेट्स को होगी उतनी ही रामू जो सडको पर रहता है उसको होगी .
ReplyDeleteऔर नौकरी वाले को लिखा ही गया है निक्ख्द चाकरी भीख निदान
कुछ इसी तरह की हाइपर एक्टिविटी कस्बाई रेलवे स्टेशनों के बाहर मौजूद चाय मठरी वाले ढाबों में देखने को मिलती है। उनके संचालक भोर में आनेवाली ट्रेन के यात्रियों से कमाई की आशा में अंधेरे में ही अंगीठी सुलगाने और झाड़-पोंछ करने की जुगत में लग जाते हैं।
ReplyDelete@ Realty Bytes - Attention Deficit Hyperactivity disorder?
ReplyDelete----------
आप को क्या लगता है?! वैसे जब मैने हाइपर एक्टिविटी लिखा था तो यह जरूर मन में था कि लेम्पूनिंग (lampooning) के लिये मसाला दे रहा हूं! :)
कभी कभी लगता है (और मन भी ललचाता है उनकी मोटी रोटियां सिंकते देख) कि उनके साथ कुछ समय बिताऊं; पर तब मेरा काम कौन करेगा? कौन हांकेगा मालगाड़ियां?
ReplyDeleteइलाहाबाद के दिनों में मैंने सड़क कूटनेवालों के साथ कई बार रोटियाँ खाई हैं....हथपोई रोटियाँ। कभी बैठ लीजिए। आनन्द आएगा।
वास्तव में संपूर्ण विश्व कर्मप्रधान ही है ... सुबह अधिकांश लोग व्यस्त होते हैं ... इसमें अपने अपने स्तर के अनुसार लोग काम करते हैं ... इन सबका अलग अलग महत्व है ... बहुत अच्छी पोस्ट है।
ReplyDeleteखाली बैठ कर मख्खियाँ मारना कितना मुश्किल काम है ये आप उन से पूछिए जिनके पास काम नहीं है...ज़िन्दगी में हाईपर एक्टिविटी होनी ही चाहिए...उसके बिना सब कुछ नीरस है...सब की अपनी समस्याएं और उनसे झूझने के तरीके हैं...ज़िन्दगी यदि आसान हो जाये तो फिर ज़िन्दगी ही क्या...रोचक पोस्ट.
ReplyDeleteनीरज
किसी दिन कोई आप से फोटू खीचने के पैसे मांग लेगा...हरेक की सुबह सक्रिय है .पहले बेडमिन्टन ,उसके बाद छोटू को स्कुल छोड़ना ,फिर पत्नी को कॉलेज .घर आकर स्नान ,ओर कभी कभी नाश्ता भी बनाना ...पहले कुछ रेफरेंस ...फिर काम पे...तभी तो हम कहते है सन्डे सुबह का सबसे शानदार दिन है....अलबत्ता इन मजदूरों का कोई सन्डे नहीं होता ..सबसे ज्यादा शारीरिक काम के बावजूद शायद अस्सी रुपये दिहाडी .
ReplyDeleteआपने उनकी व्यस्तता का काफी बारीक नजर से देखा है।
ReplyDeleteनौकरशाही के पास ताकत है, मगर सही अर्थों में वे ही देश को चलाते है. यह ऐसी जंजीर है जिससे देश जकड़ा हुआ है, अन्यथा अब तो टूट जाता.
ReplyDeleteतो मै तो नहीं मानता नौकरशाही में ऐश ही ऐश है.
चलिए मान लिया 'केवल' ऐश करने, हुक्म देने और मलाई चाभने के लिये नहीं है. पर इन सब के लिए भी तो है ही :-)
ReplyDeleteहमारे लिए तो सुबह की कोई हाईपर एक्टिविटी नहीं है। रात भर काम करने के बाद सुबह पांच बजे तो सोने जाते हैं।
ReplyDeleteजीवन की विद्रूपताओं का इतना सूक्ष्म अवलोकन अपनी अनुभूति की तीव्रता को दर्शाता है।
ReplyDelete----------
तस्लीम
साइंस ब्लॉगर्स असोसिएशन
5:30 बजे उठना फिर जिम जाना..
ReplyDelete7:30 बजे तक आना.. और नाश्ते की तैयारी में लगना.. नहाना नाश्ता करना 9 :45 होते ही जूते पहनना और ऑफिस के लिए निकलना अगर 10 बजे के बाद जितने मिनट लेट जाए उसका डबल काम करना पड़ता है ऑफिस में.. सोफ्टवेयर हाजरी लेते है तो एक एक सेकेण्ड का हिसाब रखते है.. सुबह की इन हाइपर एक्टिविटीस में तीन अखबार और हनुमान चालीसा पढना भी शामिल है..
मजदुर भी इंसान ही है और शायद हमारी तरह ही जीते है.. जैसा मैंने अपनी पिछली पोस्ट में भी लिखा "ज़िन्दगी में अपनी डेन सबको खुद ही लानी पड़ती है "आपकी अंतिम दो लाईनों को देखकर मुझे अंग्रेजी कविता की याद आ गयी..
'miles to go before i sleep...'
चाहकर भी सुबह हाइपरएक्टिव नहीं हो पा रहा। लेकिन, कभी-कभी जब सुबह की शिफ्ट में हाइपरएक्टिविटी का कुछ अंश रहता है तो,लगता है अभी तो हाइपरएक्टिविटी का ह भी नहीं हो पाया है।
ReplyDeleteसमय की दौड़ भी सापेक्षवाद को सच साबित करती है.किसी सुदूर रेगिस्तानी गाँव की सुबह दिन चढ़ने तक अलसाई रहती है, वहीं शहर की सुबह ऐसे जगती है जैसे किसी बिच्छू ने काट खाया हो.
ReplyDeleteबेहद अफ़सोस है की आज भी हिंदुस्तान में गरीबों का कोई हिमायती नहीं इतने साल की आजादी के बाद भी...खंडरों में रहकर गुजरा करने वाले इन का कहीं ठिकाना नहीं -दिहाडी पर जीने वाले लोगों कि स्थिति दयनीय है.
ReplyDeleteहाल ही में 'गरीब 'राज्य के कुछ नेताओं की घोषित जमापूंजी [३८ करोर-१२० करोर!....]की खबर सुन कर यही लगता है कि दुनिया के सब से अमीर नेता भारत में ही हैं जिन्हें इन गरीबों कि नहीं सिर्फ अपने बैंक बैलेंस को सँभालने की फिकर रहती है.क्यों यह लोग कुछ पैसा इन के उत्थान में लगा देते..क़र्ज़ में डूबे किसानो की आत्महत्या रोक पाते?
कवन ससूर का नाती कहत हव कि सरकारी नौकरी मलाई चाभने का जरिया है। इस भारत में तो ऐसे-ऐसे उदाहरण मिल जाएंगे कि देखने के बाद सुबह का जोर से लगा पाखाना भी सरकारी नौकरी के नाम से सटक जाएगा। बकचोथी करने के लिए कुछुओ का दरकार नहीं पडता। जिस पर पडता है वहीं जानता है। अगर सब सरकारी नौकरी वाले बेइमान हो जाएं या रहते तो इंडिया ससुर का नाती अब तक तिब्बत बन गया होता। क्यों गलत कह रहे हों तो बताइये-----
ReplyDeleteऊपर नीरज गोस्वामी जी की बात से इत्तेफ़ाक है। व्यस्त रहना अपने को तो बहुत भाता है, यही प्रयास रहता है कि कभी खाली न बैठूँ!! :)
ReplyDeleteहमारे शहर में सुबह की बेला में हाइपर एक्टिविटी न के बराबर है. केवल स्कूल जाते बच्चों में दिखाई देती है. हमलोग बड़े आलसी टाइप होते हैं. मैं खुद सुबह साढ़े आठ बजे आफिस पहुँचता हूँ लेकिन जल्दी करनी पडी ऐसा नहीं होता.
ReplyDeleteरही बात अफसरों के बारे में धारणा बनाने की तो धारणा बनाने में कितना समय लगता है. दुनिया के सबसे आसान कामों में है धारणा बनाना.
नौकरशाही केवल ऐश करने, हुक्म देने और मलाई चाभने के लिये है , मेरे पिता जी का कहना भी यही होता है . कहते है बैंक की नौकरी अच्छी होती है . पिछले २ वर्षो से एक बैंक मनेजर के साथ रह रहा हूँ और मेरे बॉस ( वि आर एस ले चुके ) भी पहले मनेजर रह चुके है , उनका कहना है की बैंक की नौकरी कुत्ते की नौकरी है कभी मत करना और किसी को भी सलाह मत देना . इन बातों से अब जान गया हूँ की "दूर से सब हरा-हरा दिखता है" , पास जाने पर असलियत पता चलती है .
ReplyDeleteकितना भिन्न है ये नज़ार उस गांव के दृष्य से जहां सुबह-सवेरे किसान कांधे पर अपना हल लिए बैलों की जोडी की रस्स्सी हाथ में थामे किसी लोकगीत की तान साधे खेत की ओर निकल पडता है!
ReplyDeleteबहुत सही बात. रेलवे में आप जिस पोस्ट पर हैं उसपर काम के दबाव का मुझे खूब पता है. मैं स्वयं एक महकमे में अनुवादक हूँ और बहुतों को यह लगता है कि हिंदी से जुड़े पदों पर कुछ काम नहीं होता... सही है, लेकिन मुझ जैसे कुछ लोगों को उसके एवज में इतनी तरह के ढेर सारे काम करने पड़ जाते हैं कि बस! यहाँ दिल्ली में मैंने ऐसे दफ्तर भी देखे हैं जहाँ लोग आराम से १२ बजे तक आते हैं और ४:३० बजे चले जाते हैं.
ReplyDeleteऔर सब मुझसे उम्मीद करते हैं कि मैं extra mile चलूँ... ऐसे ही सबको खुश करने के चक्कर में extra mile चलते-चलते मैंने खुद का कितना नुक्सान कर डाला.
नौकरशाही ऐश करने के लिए तो कतई नहीं है, हाँ नाजायज सुविधाओं का लाभ नौकरशाही जरूर ले लेती है - जैसे मातहत कर्मचारी से घरेलू काम करवा लेना.या सरकारी गाड़ी निजी उपयोग में लाना आदि.जितना बड़ा अफसर है उसे उतनी ही उलझन है. ऊपर का दबाव भी झेलना है और मातहतों को भी साथ ले कर चलना है. वैसे ऐश करना या अति व्यस्तता हो जाना बहुत कुछ कार्य के स्वरूप पर भी निर्भर करता है. कुछ लोग ऐसे पदों पर भी हैं जहां कोई काम नहीं.वे ऐश कर रहे हैं.
ReplyDeleteसुबह की व्यस्तता जिम्मेदार अफसर की ज्यादा रहती है. आप गौर से देखें मजदूर की व्यस्तता कम नहीं है, लेकिन वह तनाव में नहीं दिखता, उस व्यस्तता के बेच भी वह आनंद के क्षण चुरा लेता है, जबकि सफ़ेदपोश ऐसा नहीं कर पाता.
हम कुछ नही कर सकते.सिवाय पुराने फुर्सत के दिनों को याद करने के ...
ReplyDeleteहरिवंश जी का अनुवाद और रॉबर्ट फ्रोस्ट की मूल कविता दोनों ही बहुत पसंद है मुझे.
अच्छा उदबोधन !
ReplyDeleteहमारी हायपर एक्टिविटी तो शिफ्टों के हिसाब से बदलते रहती है। ज़्यादातर यह शिफ़्ट खतम होने के समय नज़र आती है।
ReplyDeleteये मालगाड़ियाँ हाँकने वाला ज़ुमला खासा पसंद आया।
हमारी सुबह ही सभी की तरह व्यस्तता भरी होती है....लेकिन सारे दिन की व्यस्तता के बाद कई बार बल्कि अक्सर रात भी हायपर एक्टिव हो जाती है! जो दूर बैठे सोचते हैं की ऐश की जिंदगी है वे नज़दीक आयेंगे तो धारणा बदल जायेगी!
ReplyDeleteअत्यधिक विलम्ब से टिप्पणी करने का सुख - बहुत सुख हुआ यह देख/जान कर कि हर कोई दुखी है।
ReplyDeleteमेरी तरह खुदा का भी खाना खराब हे।
सहमत = सह + मत हूँ, जी !
ReplyDelete>
ज्ञान भैया मैने दोनो ही पक्ष को बहुत करीब से देखा है,यंहा राजधानी मे अफ़सरो की भी ज़िंदगी के तनाव को महसूस किया है तो450 किमी दूर ननिहाल मे राहत काम मे जुते छतीसगढ के मज़दूरो को भी करीब से देखा है।एक बात ज़रूर है पता नही क्या बात होती है उनके खाने मे जो पकते समय उठने वाली खूशबू मुंह मे पानी ला देती है।मैने गांव के मज़दूरो के साथ खेतो मे खाना खाकर देखा है ,उसका आनंद ही कुछ और है। आपके लिखे की क्या तारीफ़ करू कुछ कह्ते हुये भी दिल डरता है कहीं भूल से तू न समझ बैठे कि मै चम्मच्गिरी करता हूं। हा हा हा हा
ReplyDeleteअपने आस पास के माहौल का सूक्ष्म निरीक्षण किय है आपने।
ReplyDelete-----------
तस्लीम
साइंस ब्लॉगर्स असोसिएशन
नौकरशाही वाले परिवार में पला बड़ा हुआ हूं-ऐश है इस बात को तो कतई नहीं मानता,
ReplyDeleteआपकी पोस्ट विचारणीय है एवं कविताई का अंदाज सराहनीय. :)
सच्ची में भौत कष्टों वाली है नौकरी अफसरी की।
ReplyDeleteमालगाड़ी हांकना घणा महत्वपूर्ण काम है। मालगाड़ियों का देश के आर्थिक सामाजिक च सांस्कृतिक जीवन में महत्वपूर्ण योगदान है।याद करें, शोले पिच्चर में डाकू जिस गाड़ी को लूटने आते हैं, वह कोई राजधानी, शताब्दी टाइप नहीं थी। खालिस मालगाडी़ को लूटने आते हैं। मालगाड़ी ना होती, तो शोले ना होती, शोले ना होती तो हाय हाय इस मुल्क में कितना कुछ ना होता। चलाये रहिये मालगाड़ी।
हमको तो लगता है कि अब हम लोग इतने कामी हो चुके हैं कि भविष्य में अगर कभी मौक़ा मिले भी आराम करने का तो नहीं कर सकेंगे. मेरे एक मित्र हैं, वह कहते हैं कि अब आराम इकट्ठे ही होगा. पर मुझे उनकी बात पर भी भरोसा नहीं है. आख़िर ख़ाली हम लोग कैसे बैठ सकेंगे. आराम कर सकें इसके लिए ज़रूरी है कि पहले भरपूर काम कर लें और काम कर सकें इसके लिए ज़रूरी है कि थोड़ी देर भरपूर आराम कर लें. तो यह आराम भी काम ही जैसा हो कर रह जाता है. और बड़ी अच्छी बात है कि ऐसे ही कामी बने रहें.
ReplyDeleteपेट के लिए...
ReplyDeleteबस इतना ही कहूँगा इस बारे में.
sabkuchh achcha laga aapki is post me....balki yah kahun ki bhavuk ho gayi to yah jyada sahi hoga.
ReplyDeleteमुझे आपका ब्लोग बहुत अच्छा लगा ! आप बहुत ही सुन्दर लिखते है ! मेरे ब्लोग मे आपका स्वागत है !
ReplyDeleteबेहद अफ़सोस है की आज भी हिंदुस्तान में गरीबों का कोई हिमायती नहीं इतने साल की आजादी के बाद भी...खंडरों में रहकर गुजरा करने वाले इन का कहीं ठिकाना नहीं -दिहाडी पर जीने वाले लोगों कि स्थिति दयनीय है.
ReplyDeleteहाल ही में 'गरीब 'राज्य के कुछ नेताओं की घोषित जमापूंजी [३८ करोर-१२० करोर!....]की खबर सुन कर यही लगता है कि दुनिया के सब से अमीर नेता भारत में ही हैं जिन्हें इन गरीबों कि नहीं सिर्फ अपने बैंक बैलेंस को सँभालने की फिकर रहती है.क्यों यह लोग कुछ पैसा इन के उत्थान में लगा देते..क़र्ज़ में डूबे किसानो की आत्महत्या रोक पाते?
5:30 बजे उठना फिर जिम जाना..
ReplyDelete7:30 बजे तक आना.. और नाश्ते की तैयारी में लगना.. नहाना नाश्ता करना 9 :45 होते ही जूते पहनना और ऑफिस के लिए निकलना अगर 10 बजे के बाद जितने मिनट लेट जाए उसका डबल काम करना पड़ता है ऑफिस में.. सोफ्टवेयर हाजरी लेते है तो एक एक सेकेण्ड का हिसाब रखते है.. सुबह की इन हाइपर एक्टिविटीस में तीन अखबार और हनुमान चालीसा पढना भी शामिल है..
मजदुर भी इंसान ही है और शायद हमारी तरह ही जीते है.. जैसा मैंने अपनी पिछली पोस्ट में भी लिखा "ज़िन्दगी में अपनी डेन सबको खुद ही लानी पड़ती है "आपकी अंतिम दो लाईनों को देखकर मुझे अंग्रेजी कविता की याद आ गयी..
'miles to go before i sleep...'
किसी दिन कोई आप से फोटू खीचने के पैसे मांग लेगा...हरेक की सुबह सक्रिय है .पहले बेडमिन्टन ,उसके बाद छोटू को स्कुल छोड़ना ,फिर पत्नी को कॉलेज .घर आकर स्नान ,ओर कभी कभी नाश्ता भी बनाना ...पहले कुछ रेफरेंस ...फिर काम पे...तभी तो हम कहते है सन्डे सुबह का सबसे शानदार दिन है....अलबत्ता इन मजदूरों का कोई सन्डे नहीं होता ..सबसे ज्यादा शारीरिक काम के बावजूद शायद अस्सी रुपये दिहाडी .
ReplyDeleteखाली बैठ कर मख्खियाँ मारना कितना मुश्किल काम है ये आप उन से पूछिए जिनके पास काम नहीं है...ज़िन्दगी में हाईपर एक्टिविटी होनी ही चाहिए...उसके बिना सब कुछ नीरस है...सब की अपनी समस्याएं और उनसे झूझने के तरीके हैं...ज़िन्दगी यदि आसान हो जाये तो फिर ज़िन्दगी ही क्या...रोचक पोस्ट.
ReplyDeleteनीरज
Attention Deficit Hyperactivity disorder?
ReplyDelete"...जिनका सोचना है कि नौकरशाही केवल ऐश करने, हुक्म देने और मलाई चाभने के लिये है; उन्हें हमारे जैसे का एक सामान्य दिन देखना चाहिये।..."आह! आपने तो हमारे पुराने दिनों की याद ताजा कर दी. इसीलिए विभाग में वीआरएस की स्कीम आने पर सबसे पहले आवेदन करने वालों में से एक मैं भी था. बदमिजाज, नाकारा, अज्ञानी मगर बड़े ओहदों पर चल रहे अफसरों - जो टारगेटों को आउट आफ द ब्लू पूरा करने के लिए चौबीसों घंटे छड़ियाँ घुमाते फिरते थे - उनसे छुटकारा पाने का भी ये सबसे बढ़िया जरिया था...
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