सन 1867 में स्थापित बैंगळुरु की सैंण्ट्रल जेल अब फ्रीडम पार्क में तब्दील हो गयी है। प्रवीण पाण्डेय के सवेरे के भ्रमण का स्थान। इसने ट्रिगर की है यह पोस्ट - जेल से स्वतंत्रता तक की यात्रा की हलचल बयान करती। यह पोस्ट श्री प्रवीण पाण्डेय की बुधवासरीय अतिथि पोस्ट है। प्रवीण बेंगळुरू रेल मण्डल के वरिष्ठ मण्डल वाणिज्य प्रबन्धक हैं। |
जब कभी भी अपने गृहनगर (हमीरपुर, उप्र) जाता हूँ तो घुसते ही सबसे पहले जेल के दर्शन होते हैं। हमीरपुर डकैतों का इलाका रहा है, इस तथ्य को शहर के इतिहास में स्थायी रूप से सत्यापित करती है यह जेल। जेल अन्दर से कभी देखी नहीं पर उत्सुक मन में जेल के बारे में एक रोमांचपूर्ण और भय मिश्रित अवधारणा बनी रही।
जेल का नाम सुनते ही किसी को कृष्ण की याद आती होगी। जेल के बन्धन में जन्म अवश्य लिया पर शेष जनम किसी भी बन्धन में नहीं रहे, चाहे वह समाज का हो या स्थान का या धर्म का। किसी के मन में मुगलों के अशक्त व असहाय पिताओं का चित्र कौंधेगा, जिनको शिखर से सिफर तक पहुँचाने का कार्य उनके ही पुत्रों ने किया। कुछ को क्रान्तिकारियों की जीवटता याद आयेगी, जिन्होने वतन को मुक्त कराने के लिये जेल को अपना नियमित आवास बना लिया था। आज के परिवेश में भी जेल यात्रा राजनैतिक अवरोहण के रूप में प्रतिष्ठित है।
मेरा जेल के बारे में ज्ञान “पैपिलॉन” (Papillon) नामक पुस्तक से प्रभावित है। जिन परिस्थितियों में लोग पूर्णतया टूट जाते हैं, उन परिस्थितियों में स्वयं को सम्हाले रखने की जीवटता इस पुस्तक के नायक की विशेषता है। जेल में “तनहाई” का दण्ड शाररिक, मानसिक व आध्यात्मिक कष्ट का चरम है। इन परिस्थितियों में लोग या तो पागल हो जाते हैं या आत्महत्या कर लेते हैं।
निर्देशक मधुर भण्डारकर जिन्हे फिल्म जगत का “आर्थर हीले” भी कहा जा सकता है, ने जेल के जीवन के ऊपर एक अच्छी और सार्थक फिल्म बनायी है। जैसे आर्थर हीले किसी एक क्षेत्र के ऊपर पूर्ण अध्ययन कर के कोई उपन्यास लिखतेजेल के अन्दर एक पूरा का पूरा संसार बसता है पर “पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं” का कष्ट हर समय लोगों को कचोटता रहता है। स्वतन्त्र रूप से जीने का उन्माद कदाचित जेल को देखने के बाद हमको होना चाहिये।
थोड़ी सी जेल हम सभी के जीवन में है। हमारी परिस्थितियाँ व आदतें प्रतिदिन इस “छिन्न जेल” की एक एक ईँट रखती जाती हैं। समय पड़ने पर हम बहुधा ही अपने आप को घिरा पाते हैं।
जेलें अब नगरों की मुख्यधारा का हिस्सा नहीं रहीं। रियल स्टेट वालों की नजर पड़ गयी या स्मारक स्थापित करने के लिये जगह की आवश्यकता। जेलें नगर से बाहर जा रहीं हैं। बेंगलुरु में 1867 में स्थापित सेन्ट्रल जेल को भी नगर से बाहर ले जाया गया है।
इक्कीस एकड़ के 15 एकड़ में एक हरा-भरा व सुन्दर सा पार्क बनाया गया है बाकी 6 एकड़ रैलियों और प्रदर्शनों के लिये छोड़ दी गयी है। जेल की किसी भी बैरक को तोड़ा नहीं गया है केवल छतें हटाकर एक खुला स्वरूप दिया गया है। बच्चों के खेलने का स्थान है व एम्फी थियेटर में सप्ताहान्त में सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं। इसका नाम दिया गया है फ्रीडम पार्क। मेरे घर से सौ मीटर की दूरी पर है और बच्चे कभी भी साथ जाने को तैयार रहते हैं।
सुबह टहलने जाता हूँ तो बैरकों के पास से निकलते हुये मन में ईश्वर प्रदत्त स्वतन्त्रता का आनन्द उठाने का उन्माद जग उठता है।
ज्ञानदत्त पाण्डेय जी, आज नींद नही आर रही थी, तो लेपटाप ले कर बेठ गया, ओर आप का लेख पढ कर तो मेरी नींद सारी की सारी उड गई, मैने यहां हिटलर की जेल देखी, अगर पत्थर दिल भी उसे देख ले तो रोंगटे खडे हो जाये,भगवान बचाये, राम राम जी की
ReplyDeleteएक किताब आई थी शांताराम written by Gregory David Roberts...
ReplyDeleteइसे इनमेट्स की लाईफ के बारे में, आर्थर रोड जेल, मुम्बई का संस्मरण आदि पढ़्कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं. कभी मौका मिले तो पढ़ियेगा.
Papillon पर तो फिल्म भी बनाई गई थी हालीवुड में, जैसा मुझे याद पड़ता है. यदि आप उसी फ्रेन्च ऑथर की बात कर रहे हैं..(शायद हैनरी...कुछ)
बढ़िया आलेख.
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यह अत्यंत हर्ष का विषय है कि आप हिंदी में सार्थक लेखन कर रहे हैं।
हिन्दी के प्रसार एवं प्रचार में आपका योगदान सराहनीय है.
मेरी शुभकामनाएँ आपके साथ हैं.
नववर्ष में संकल्प लें कि आप नए लोगों को जोड़ेंगे एवं पुरानों को प्रोत्साहित करेंगे - यही हिंदी की सच्ची सेवा है।
निवेदन है कि नए लोगों को जोड़ें एवं पुरानों को प्रोत्साहित करें - यही हिंदी की सच्ची सेवा है।
वर्ष २०१० मे हर माह एक नया हिंदी चिट्ठा किसी नए व्यक्ति से भी शुरू करवाएँ और हिंदी चिट्ठों की संख्या बढ़ाने और विविधता प्रदान करने में योगदान करें।
आपका साधुवाद!!
नववर्ष की अनेक शुभकामनाएँ!
समीर लाल
उड़न तश्तरी
टहल लिया। काला पानी पर बनी एक फिल्म याद आ गई - नाम भूल रहा हूँ।
ReplyDeleteअपने यू.पी मे तो जेले बेची जा रही है बीच शहर मे आ जाने के कारण .
ReplyDelete“पैपिलॉन” पर इसी नाम से, पुस्तक जितनी ही प्रभावशाली फ़िल्म भी बनी थी.
ReplyDeleteसमय के साथ जेलों का स्वरूप बदला है। पुरानी जेलें सिर्फ संग्रहालय या स्मारक ही हो सकती हैं।
ReplyDeleteमेरे घर के बगल में भी जेल है .. अलीपुर जेल। यह भी ऐतिहासिक है। एक अच्छे आलेख के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद
ReplyDeleteआपको नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं।
जानकारी बढ़ी। पैपीलॉन के बारे हमारे चिरंजीव भी बता रहे हैं कि इसका उच्चारण फ्रैंच में पैपियाँ होता है। शानदार फिल्म है...
ReplyDeleteआज आपने मुझे शर्मिन्दा कर दिया!
ReplyDeleteआप तो अभी अभी आए हैं यहाँ।
मैं तो पिछले पैंतीस साल से यहाँ रह रहा हूँ।
फ़्रीडम पार्क के बारे में कई बार सुना हूँ लेकिन अब तक वहाँ जाने की फ़ुर्सत नहीं मिली।
अब तो जाना ही पडेगा इसे देखने के लिए।
इसी जेल के पास शहर का रेसकोर्स (race-course) भी है जिसे शहर से बाहर ले जा रहें हैं।
जेलों के बारे में मेरे मन में एक और विचार आता है और वह यह कि कई उत्तम और विख्यात पुस्तकें जेलों में लिखे गए हैं।
नव वर्ष की अग्रिम शुभकामनाएं
जी विश्वनाथ, जे पी नगर, बेंगळूरु
"जैसे आर्थर हीले किसी एक क्षेत्र के ऊपर पूर्ण अध्ययन कर के कोई उपन्यास लिखते हैं,"
ReplyDelete"जैसे आर्थर हीले किसी एक क्षेत्र के ऊपर पूर्ण अध्ययन कर के कोई उपन्यास लिखते थे",
Arthur Hailey का निधन २४ नवम्बर २००४ को हुआ।
निश्चय ही जानकारी में वृद्धि हुई | सुन्दर प्रविष्टि |
ReplyDeleteबहुत अद्भुत पोस्ट है...आपके लिखने का अंदाज़ बहुत दिलचस्प है...पैपियाँ (अजीत जी के अनुसार) फिल्म और पुस्तक अपने कालेज समय में देखी पढ़ी थी...
ReplyDeleteनव वर्ष की अग्रिम हार्दिक शुभकामनाएं
नीरज
बहुत रोचक होने के साथ ही जानकारी देने वाली पोस्ट----नववर्ष की अग्रिम शुभकामनायें ।
ReplyDeleteहेमन्त कुमार
कम से कम लोग बार बार जानेगें कि आजादी यूँ ही नहीं मिली. किसी ने जेल भोगी थी, कोई फाँसी पर चढ़ा था और उसका खानदान सत्ता सुख भी नहीं भोग रहा.
ReplyDeleteकितना अच्छा हो कि बंगलूरु से सबक लेकर भारत के अन्य नगर भी जेलें बाहर ले जाकर नगर में स्वातंत्र्य उद्यान बनाएं.
ReplyDeleteसही है... अब जेल जेल न रहे... बिरियानी खाने के अड्डॆ हो गए... यकीन न हो तो कसाब से पूछिये:)
ReplyDeleteNaye saal kee anek shubhkamnayen!
ReplyDeleteअब जेलों का स्वरुप भी बदल रहा है जयपुर सहित कई जगह खुली जेले भी है जहाँ अच्छे आचरण वाले सजायाप्ता कैदी अपने परिवार सहित रहते है व रोजगार के लिए जेल से बाहर मजदूरी करने भी जा सकते है
ReplyDeleteजेल पर लिखी इस पोस्ट से मुझे जवाहरलाल नेहरू की जेल डायरी याद आ रही है जिसमें लिखा है कि - यहां जेल में रहते हुए हम बहुत सी चीजों का अभाव महसूस करते हैं.....मैंने बहुत दिनों से किसी कुत्ते के भौंकने की आवाज नहीं सुनी है.....
ReplyDeleteइन बातों से लगता है कि जेल कैसी कैसी बातों को याद करवा देता है।
बढिया पोस्ट।
pura padha, sammha bhi lekin dikkat yah hai ki 2 din pahle hi mataji alahabd gain hai kalpwas kliye , so apke blog par aate hi sara dhyan vaha chala gaya alahapad aur kalpwas par, blore wala mudda to sideho gaya. mataji mobile handle nahi kar sakti, lekin fir bhi unhe mobile lekar bheja tha. aaj subah call kiya to mobile band. unke group leader ko call kiya to maloom chala ki battery khatm hai ,sham me light aayegi to charge hoga. uske bad samay aisa vyasta hua ki abhi raat k 1:20 bake to mai yah padhkar comment kar raha hu.....
ReplyDeletejai ho.........
अगर मैं गलत न हूँ तो पेपिलाँ पढ़्ना उचित होगा फ्रेन्च में बजाय कि पैपियाँ...Meridian को मेरीडियाँ कहना ठीक है.
ReplyDelete“थोड़ी सी जेल हम सभी के जीवन में है। हमारी परिस्थितियाँ व आदतें प्रतिदिन इस “छिन्न जेल” की एक एक ईँट रखती जाती हैं। समय पड़ने पर हम बहुधा ही अपने आप को घिरा पाते हैं।”
ReplyDeleteवाह क्या बात है...! इसमें एक खास दर्शन के दर्शन हुए।
आज तक अन्दर से कोई जेल नहीं देखी। बस, फिल्मी जेल ही देखी। यह पोस्ट पढ कर भी कोई अनुमान नहीं लगा पाया।
ReplyDeleteNaye saal kee anek shubhkamnayen!
ReplyDeleteआज आपने मुझे शर्मिन्दा कर दिया!
ReplyDeleteआप तो अभी अभी आए हैं यहाँ।
मैं तो पिछले पैंतीस साल से यहाँ रह रहा हूँ।
फ़्रीडम पार्क के बारे में कई बार सुना हूँ लेकिन अब तक वहाँ जाने की फ़ुर्सत नहीं मिली।
अब तो जाना ही पडेगा इसे देखने के लिए।
इसी जेल के पास शहर का रेसकोर्स (race-course) भी है जिसे शहर से बाहर ले जा रहें हैं।
जेलों के बारे में मेरे मन में एक और विचार आता है और वह यह कि कई उत्तम और विख्यात पुस्तकें जेलों में लिखे गए हैं।
नव वर्ष की अग्रिम शुभकामनाएं
जी विश्वनाथ, जे पी नगर, बेंगळूरु
एक किताब आई थी शांताराम written by Gregory David Roberts...
ReplyDeleteइसे इनमेट्स की लाईफ के बारे में, आर्थर रोड जेल, मुम्बई का संस्मरण आदि पढ़्कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं. कभी मौका मिले तो पढ़ियेगा.
Papillon पर तो फिल्म भी बनाई गई थी हालीवुड में, जैसा मुझे याद पड़ता है. यदि आप उसी फ्रेन्च ऑथर की बात कर रहे हैं..(शायद हैनरी...कुछ)
बढ़िया आलेख.
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यह अत्यंत हर्ष का विषय है कि आप हिंदी में सार्थक लेखन कर रहे हैं।
हिन्दी के प्रसार एवं प्रचार में आपका योगदान सराहनीय है.
मेरी शुभकामनाएँ आपके साथ हैं.
नववर्ष में संकल्प लें कि आप नए लोगों को जोड़ेंगे एवं पुरानों को प्रोत्साहित करेंगे - यही हिंदी की सच्ची सेवा है।
निवेदन है कि नए लोगों को जोड़ें एवं पुरानों को प्रोत्साहित करें - यही हिंदी की सच्ची सेवा है।
वर्ष २०१० मे हर माह एक नया हिंदी चिट्ठा किसी नए व्यक्ति से भी शुरू करवाएँ और हिंदी चिट्ठों की संख्या बढ़ाने और विविधता प्रदान करने में योगदान करें।
आपका साधुवाद!!
नववर्ष की अनेक शुभकामनाएँ!
समीर लाल
उड़न तश्तरी