घर से बाहर निकलता हूँ तो लगता है कि किसी महासमुद्र में जा रहा हूँ। ट्रैफिक सिग्नल पर वाहनों की कतार में रुका हुआ मेरा वाहन। चेहरे पर जब अधैर्य छलकने लगता है तो हमारे ड्राइवर महोदय मन के भाव पढ़कर ’एफ एम’ रेडियो चला देते हैं। ध्यान तो बट जाता है रेडियो जॉकी की लच्छेदार व लहराती स्वर लहरी से पर समय तो बिना विचलित हुये टिकटिकाये जा रहा है। लगभग २० मिनट वाहन चला और ४० मिनट रुका रहा, तय की गयी दूरी १२ किमी। पैदल चलते तो ५ किमी चल लिये होते और नीरज रोहिल्ला जी जैसे मैराथन धावक होते तो अपने वाहन को पछाड़ दिये होते। कई रास्तों पर चल कर लगता है कि पूरा महानगर पैदल हो गया है। विकास के लक्षण हैं। आइन्स्टीन को ’स्पेस और टाइम डाइलेशन’ के ऊपर यदि कुछ प्रयोग करने थे तो अपनी प्रयोगशाला यहाँ पर स्थापित करनी थी।
कई ट्रैफिक सिग्नलों पर लगे हुये बिलबोर्ड्स के विज्ञापन शुल्क बहुत अधिक हैं। जहाँ पर ’जैम’ अधिक लगता है उनका शुल्क और भी अधिक है। समय का आर्थिक मूल्य है, अब अनुभव हुआ।
रोमांचहीनता की पराकाष्ठा है। किसी वाहन ने पहले पहुँचने के लिये कोई भी ट्रैफिक नियम नहीं तोड़ा। कोई भी दूसरी तरफ से अपनी गाड़ी अड़ाकर नहीं खड़ा हुआ। कानपुर (यदि दुःख हो तो क्षमा कीजियेगा, मेरा भी ससुराल है) होता तो ऐसे दृश्य और तीन चार द्वन्द युद्ध देख चुका होता। यहाँ तो वाक्युद्ध भी नहीं देखने को नहीं मिला। बहुत ही अनुशासित समाज है यहाँ का। अनुशासन के कारण रोमांचहीनता की स्थिति पहली बार अनुभव की जीवन में।
कुछ समाचार पत्र इसे ’जैमालुरु’ कह कर स्थिति पर कटाक्ष कर रहे हैं। शोचनीय है।
ऐसा नहीं है के इस स्थिति से निपटने के लिये कोई प्रयास नहीं हो रहा है। महानगर पालिका ’फ्लाईओवरों’ व ’अन्डरपासों’ का जाल बना रही है। पूरे नगर को ’वन वे’ बना दिया है जिससे सामने दिखने वाले घरों में जाने के लिये पूरा नगर भ्रमण करना पड़ता है। लेकिन बेंगलुरु में ही प्रतिदिन लगभग ६००० वाहनों का रजिस्ट्रेशन इन प्रयासों को धता बता रहा है। तू डाल डाल मैं पात पात ।
इस पोस्ट में कुछ है जो चुप रहने को कहता है - जी हाँ, प्रस्तुति की शैली से उपजा आनन्द।
ReplyDeleteबाकी विमर्श के लिए तो पब्लिक आ ही रही होगी। आज सुबह अम्मा पिताजी वापस गाँव जा रहे हैं। गन्ने की फसल का निस्तारण कराना है। ..कहीं अवसाद है, ढेर सारी बातें- जाने इस पर लेख दे भी पाऊँगा या नही?
अच्छा है प्रवीण जी - इतने नि:संग हो लिख पाना !
स्थितियाँ विकट है. समाधान इतना आसान नहीं. अपनी कार में चलने से स्टेटस का भान है. पब्लिक ट्रांसपोर्ट आदि इस्तेमाल करना शान के खिलाफ.
ReplyDeleteकार पूलिंग, ए ओ वी लाईन, पब्लिक ट्रांसपोर्ट के लिए स्पेशल ट्रेक, मुख्य कार्यालयों का उल्टी दिशा में होना आदि जब तक चलन में नहीं आयेंगे-समस्या का समाधान नामुमकिन सा ही है.
अच्छा आलेख.
थू है टेक्नोलोगी की धीमी प्रगति पर की हमें ऐसे हालात में भी घर से बाहर निकलना पड़ रहा है !
ReplyDeleteट्रेफिक जाम तो हर शहर की नियति बन गए है | अब तो ट्रेफिक जाम की भी आदत भी पड़ गयी है जिस दिन हमेशा जाम मिलने वाली जगह कभी जाम नहीं मिलता तो बड़ा आश्चर्य होता है कि आज यहाँ जाम कैसे नहीं लगा ?
ReplyDeleteवैसे राष्ट्रिय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में ज्यादातर जाम वाहन चालकों की गलती से ही लगता है
लगता है हम सब एक लंबी अंधी सुरंग में फंसे पड़े हैं। चले जा रहे हैं। पता नहीं है कहाँ निकलेंगे। कुछ सामुहिक प्रयास ही इस सुरंग, धुएं और अलक्षित दौड़ दौड़ते रहने से मुक्त कर सकते हैं।
ReplyDeleteजैमालुरू, जैमाबाद, जैमापुर.... सभी शहरों का यही हाल है.
ReplyDeleteदक्षिण भारतीय समाज कई मायनों में अधिक सभ्य है. रोचक शैली में लिखा है प्रवीण जी ने. मजेदार.
पर्यावरण की चिन्ता समेत रोचक पोस्ट।
ReplyDeleteसादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
समय का आर्थिक वैल्यू तो पहले से ही रहा है लेकिन रूके हुए समय की कीमत भी लगाई जाती है विज्ञापनों के ठहराव स्थल के रूप में।
ReplyDeleteवैसे इस विज्ञापन वाले मुद्दे से याद आया कि कल एक ऑटो रिक्शा के पीछे लिखा देखा
Capacity : Three idiots
अब मैं इसे आमिर खान के पब्लिसिटी एजेंसी की खूबी मानूंगा कि उसने अपनी फिल्म थ्री इडियट्स को प्रमोट करने के लिये ऑटो रिक्शे में कानूनी रूप से मान्य सीटों की संख्या का इस्तेमाल किया।
यानि कि समय, जगह और ठहराव....सभी को कैच करने की क्रियेटिवीटी इन Ad agencies में होती है, तभी तो वह इतने उम्दा किस्म के आईडिया लाते हैं।
बढिया पोस्ट और बढिया जाम चर्चा।
हाँ, बनारस को भी देखा है इस तरह के जाम में पैदल-वाहन की सम्पूर्ण उपस्थिति के बाद भी पैदल !
ReplyDeleteजिन्होंने रोमांच (?) अनुभव किया है इन स्थितियों का, उन्हें रोमांचहीनता तो अनुभूत होगी ही ।
सुन्दर प्रविष्टि ! सहज व रोचक ! आभार ।
बढ़ती आबादी ने सारे ढ़ाचे को जाम कर दिया है. आकाश में भी जगह नहीं बची.
ReplyDeleteअनुशासन के कारण रोमांचहीनता की स्थिति पहली बार अनुभव की जीवन में।
ReplyDeleteरचना मर्मस्पर्शी है और मानसिक परितोष प्रदान करता है। अब शिकायत नहीं है इस विज्ञापन से ... उसकी शर्ट मेरी शर्ट से सफेद क्यूं है?
बढ़िया लगा.. अब तो महानगरीय जीवन जीते-जीते ट्रैफिक जाम की आदत सी हो गई है.. जाम ना लगा हो तो कुछ अजीब सा लगता है..
ReplyDeleteकल ऑफिस से निकला तो बाहर पानी बरस रहा था.. मेरे प्रोजेक्ट डायरेक्टर दिख गये.. उन्होंने पूछा कहां रहते हो, और अपने घर के पास ही जान कर बिठा लिया.. रास्ते भर कहीं जाम ना देख कर दोनों रास्ते भर आश्चर्यचकित होते रहे.. शायद पानी बरसने का यह असर था..
घोस्ट बस्टर जी से सहमत हूं.. मगर यहां लोग इतने अधिक सौम्य हो जाते हैं कि जहां कुछ कहना भी हो तो नहीं कहते हैं.. जैसे अकारण अगर कोई बीच रास्ते में अपनी कार रोक कर जाम लगा दे तो भी लोग बिना हार्न बजाये उसके आगे बढ़ने का इंतजार करते रहते हैं.. अगर किसी ने हार्न बजाया भी तो 90 फिसदी चांस है कि वह जरूर उत्तर भारतीय ही होगा..
गांव हो या शहर, जब शान्ति के लिये सब गांव की ओर जायेगे तो आबादी के बोझ से गांव भी नरक हो जायेगा।
ReplyDeleteहमने तो जाम को अपना बना लिया.. अब परेशानी नहीं होती.. FM रेडियो के जोकी.. गाना सुनाने के बजाय जोर जोर से चिल्लाते है.. इमोशनल अत्याचार करते है.. तो वो सुनना बंद कर दिया.. अब सुनते है.. AIR FM Gold.. सुबह 8 बजे रसरंग.. फिर गाते गुनाते.. और शाम ५ से ६ अंदाजे बया.. बीच बीच में ५ मिनिट के समाचार..
ReplyDeleteअ
रोमांचहीनता की पराकाष्ठा है। किसी वाहन ने पहले पहुँचने के लिये कोई भी ट्रैफिक नियम नहीं तोड़ा।
ReplyDeleteप्रणाम
ट्रैफिक जाम तो हर जगह कम ज्यादा मिल ही जाता है....लेकिन बैगंलोर के बारे मे जान सुखद आश्चर्य हुआ...... लेकिन दिल्ली में इस का नजारा ही कुछ और होता है....अभी पीली बत्ती हुई नही कि पीछे से होर्नों की पी पी पो पो...का शोर शुरू हो जाता है.....लोग वाहन ऐसे दोड़ाते हैं मानों किसी रेस मे हिस्सा ले रहे हो....
ReplyDeleteइस जैमोलोजी की भी मेथेडोलोजी है... सभी लोग शहर में ही रहना चाहते है... घर, दफ़्तर, फ़ैक्ट्री, घुडदौड, सिलेमा... ना जाने क्या क्या.. सभी शहर में हों तो शहर का मरना निश्चित जानिए। मुम्बई की इसी हालत ने नवी मुम्बई को जन्म दिया।
ReplyDeleteज्ञानजी,
ReplyDeleteप्रवीणजी का बेंगळूरुमें हार्दिक स्वागत है।
कृपया मेरा मोबाइल नंबर उन्हें दे दीजिए और हमारा परिचय करा दीजिए।
यदि प्रवीणजी राजी हैं तो उनका नंबर हमें दीजिए।
उनसे संपर्क करना चाहता हू!
शुभकामनाएं
जी विश्वनाथ
जे पी नगर, बेंगळूरु
"अनुशासन के कारण रोमांचहीनता की स्थिति पहली बार अनुभव की जीवन में।"
ReplyDeleteबहुत रोचक शैली में महानगर की पोल खोलती पोस्ट...आनंद आया पढ़ कर...
नीरज
ट्रैफ़िक जाम तो वर्तमान जीवन शैली का एक हिस्सा है , अगर जाम ना मिले तो अज़ीब सा मह्सूस होता है
ReplyDeleteअभी अनूपजी से मिला था तो उनके एक वीडियो पर चर्चा हुई तो मैंने कहा हाँ देखा है मैंने वही ना पार्क वाला? तो उन्होंने बताया पार्क नहीं उनका घर है वो ! मुझे वो वार्तालाप याद आया. इस ट्रैफिक जाम को पढ़कर.
ReplyDeleteनिस्सन्देह सुन्दर पोस्ट। किन्तु पढकर लगा कि महज पौने तीन लाख की आबादीवाला मेरा कस्बा भी जामलुरू हो गया है।
ReplyDeleteवाह ये टिप्पणी बंगलौर के नाम,
ReplyDeleteलम्बी टिप्पणी के लिये पहले से माफ़ी मांग लेते हैं।
बेंगलूरू! हमारे समय में बैंगलोर होता था अगर कोई बंगलौर कहे तो लगता था इन्होने केवल किताब में पढा है कभी गये नहीं, ;-)
२००२-२००४ तक भारतीय विज्ञान संस्थान (Indian Institute of Science) में अपनी पढाई के दौरान क्या जीवन जिया। घने पेडों से आच्छादित कैम्पस, स्कालरशिप के बावजूद साईकल की सवारी और मैस के Approximate उत्तर भारतीय खाने के साथ ३ रूपये की दो इडली और ५ रूपये का मसाला डोसा। शहर में बाहर कम ही जाना होता था, जब जाना हुआ तो या तो बस/आटो में जाना होता था।
उस समय भी ऐयरपोर्ट रोड पर जो जाम लगता था उससे आत्मा त्रस्त हो जाती थी। कैम्पस से बाहर निकलते ही प्रदूषण से सामना और ३-४ डिग्री तापमान में अचानक बढोत्तरी, तब बसें सीएनजी से नहीं चलती थीं और खूब प्रदूषण करती थी, अब का पता नहीं।
मैजेस्टिक का वो बस अड्डा, मल्लेश्वरम में फ़ुटपाथ पर बिकते फ़ूल और कालेज के पास कावेरी थियेटर से ९ से १२ का शो देखकर पैदल कालेज वापिसी।
बंगलौर में पहली बार देखा कि ३ से अधिक लोग होने पर अपने आप पंक्ति में खडे होकर अपनी बारी का इन्तजार करते हैं। पोस्ट आफ़िस में पहली बार देखा कि कैसे कम्प्यूटर की सहायता से सरकारी आफ़िस में काम फ़टाफ़ट हो सकता है, बशर्ते कम्प्यूटर की ट्रेनिंग दी जाये और कर्मचारियों में सीखने का जज्बा हो। बंगलौर में ही पासपोर्ट बनवाने के दौरान देखा कि बिना रिश्वत दिये आसानी से काम होता है। हमारे फ़ार्मे में गडबडी थी, और GRE के इम्तिहान की तारीख नजदीक, हमने सोचा कि गये काम से या फ़िर खूब पैसे खर्च करने पडेंगे (कम्बख्त उत्तर भारतीय सोच)। पासपोर्ट आफ़िस गये, रिसेप्शन पर २ घंटे बाद का Appointment मिला, दो घंटे बाद पासपोर्ट अधिकारी से मिले, फ़ार्म ठीक किया गया और २ हफ़्ते बाद स्पीड पोस्ट से पासपोर्ट घर आ गया। वाह!!!
प्रवीणजी को कहिये कि कभी समय हो तो IISc अथवा टाटा इन्स्टीट्यूट जरूर घूम के आयें, तबीयत हरी हो जायेगी।
और प्रवीण जी भी तो दौडना शुरू कर सकते हैं, बंगलौर में शुरूआत के लिये यहाँ देखें:
http://www.livemint.com/articles/2009/12/14210640/Getting-together-for-a-run.html
नीरजजी की टिप्पणी पढ़कर दिल खुश हुआ।
ReplyDeleteहम यहाँ पैंतीस साल से रह रहे हैं।
माना कि आज बैंगलौर, वो बैंगलौर नहीं रहा, जो हमने १९७४ में अनुभव किया था, पर जो हाल ही में यहाँ आये हैं, उनका कहना है, जो भी हो, प्रदूषण, ट्रफ़्फ़िक जैम, भीड़ - भाड़ सभी होते हुए भी, यहाँ की जिन्दगी अन्य शहरों से अच्छी है।
हम मुंबई से यहाँ आए थे, और अब यहीं बस गए हैं।
प्रवीणजी से कल टेलिफोन पर बात हुई।
आशा है कि जल्द ही उनसे मुलाक़ात भी हो जाएगी।
शुभकामनाएं
जी विश्वनाथ, जे पी नगर, बेंगळूरु
@ नीरज एवं विश्वनाथ जी - यह हाल सिर्फ बैंगलोर का ही नहीं है.. लगभग ऐसा ही कुछ अनुभव मुझे चेन्नई में भी हुआ है.. मेरा पासपोर्ट बिना एक पैसा खर्च किये बना.. मैंने भी कुछ गलतियां फार्म भरने में की थी जिसे सुधारने का अनुभव नीरज जैसा ही मेरा भी रहा.. समय दिया गया और ठीक समय पर अधिकारी से मिलना भी हो गया जिसने एक-एक जगह गलतियां भी सुधार दी.. मैं अमूमन कई बार रात को 12 बजे के बाद घर लौटता हूं, और आज तक कभी भी ये भय नहीं हुआ कि इतनी रात में मेरे साथ कुछ अनहोनी होगी.. कुछ भाषाई समस्या तो आई मगर वह इतनी नहीं की मैं यहां की खूबियों को भूल जाऊं.. कई मित्र कहते हैं कि उत्तर भारत में शिफ्ट हो जाओ, मगर मैं दक्षिण भारत छोड़ कर नहीं जाना चाहता हूं.. चाहे चेन्नई में रहूं, या बैंगलोर में या हैदराबाद में.. मगर उत्तर भारत से कानून व्यवस्था हो या कोई अन्य सरकारी कार्य, यह उत्तर भारत से बेहतर है..
ReplyDeleteप्रवीण जी !
ReplyDeleteअनुशासन में रोमांचहीनता दिखी :) वाह !
सच कहा आपने , रोमांच की नदी बंधन को नहीं मानती ,,,
तकनीकी का क्या कहा जाय ? समय तो फुंकता ही है ...और जायका भी ...
@PD,
ReplyDeleteप्रशान्त,
बहुत दिन बाद फ़िरसे मिल रहे है!
इस ब्लॉग जगत में।
यह सुनकर अच्छा लगा कि अब चेन्नै में तुम खुश हो। बस अब सीधी साधी बोलचाल की तमिल भी सीख लो। ज्यादा कठिण नहीं है। जीना और आसान हो जाएगा।
करीब एक साल पहले हम बेंगळूरु में मिले थे।
अगली बार यदि बेंगळूरु आना हुआ तो अवश्य सम्पर्क करना। मुझे याद है कि तुम्हें अपनी रेवा गाड़ी में सैर कराया था। अब प्रवीणजी की बारी है।
वैसे रात के दस बजे के बाद यहाँ अकेले बाहर निकलकर सुनसान इलाकों में भ्रमण करना safe नहीं समझा जाता। खून खराबा तो नहीं होता पर अपना जेब खाली होने का डर अवश्य रहता है।
chain snatching की घटनाएं होती रहती हैं।
देर रात को केवल सुरत में मैने अपने आप को सुरक्षित महसूस किया। १९८९ में एक साल सुरत में गुजारा था।
संपर्क जारी रखना। कई महीनों बाद हिन्दी ब्लॉग जगत में फ़िरसे प्रवेश कर रहा हूँ।
शुभकमनाएँ
जी विश्वनाथ
मजेदार! शानदार बिंदास लेख! एक दिन बाद बांचने का फ़ायदा मिला कि सब टिप्पणियां भी बांच लीं।
ReplyDeleteचिंतन चलता ही रहेगा..ये गज़ब बात है..प्रवीण जी को आगत की शुभकामनायें...शहर मे रहने वाले हम अभागों को भी अब बहुमूल्य सुझाव मिला करेगा..चलो ये अच्छा हुआ...!
ReplyDeleteअनुशासन रोमांचहीनता की स्थिति उत्पन्न करता है ।वन वे मे सामने वाले घर मे जाने पूरे शहर का चक्कर और छ: हजार बाहनों का प्रतिदिन रजिस्ट्रेशन ।जहा जैम लगा करता है वहां पर लगे विग्यापन का शुल्क ज़्यादा है ।बाहन बन्द करने के सुझाव को लोग बचकाना मानते है =लेखन शैली की तारीफ़ या लिखने वाले की ?
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