विकास के पथ पर पेड़ो का अर्ध्य सबसे पहले चढ़ता है पर बेंगळुरु में हरियाली का आदर सदैव ही किया जाता रहा है। गूगल मैप पर देखिये तो शहर हरा भी दिखायी पड़ेगा और भरा भी। सड़कों के किनारे वृक्ष अपने अन्दर कई दशकों का इतिहास समेटे शान से खड़े हैं। बरगद के पेड़ों की जटाओं में पूरा का पूरा पार्क समाहित है। घरों की संरचना उपस्थित पेड़ों के इर्द गिर्द ही की जाती है।
बेंगळुरु को बागों का शहर कहा जाता है और वही बाग बढ़ती हुयी वाहनों की संख्या का उत्पात सम्हाले हुये हैं। पार्कों के बीचों बीच बैठकर आँख बन्द कर पूरी श्वास भरता हूँ तो लगता है कि वायुमण्डल की पूरी शीतलता शरीर में समा गयी है। यहाँ का मौसम अत्यधिक सुहावना है। वर्ष में ६ माह वर्षा होती है। अभी जाड़े में भी वसन्त का आनन्द आ रहा है। कुछ लिखने के लिये आँख बन्द करके सोचना प्रारम्भ करता हूँ तो रचनात्मक शान्ति आने के पहले ही नींद आ जाती है। यही कारण है कि यह शहर आकर्षक है।
पिछले एक दशक में बेंगळुरु का अनियन्त्रित और अनपेक्षित विस्तार हुआ है। कारण मूलतः दो रहे।कहा जाये तो दो पीढ़ियों ने मकानों की खरीददारी एक समय ही करने की ठानी। पीढियों की दूरियों का निशाना बना इस दशक का बेंगळुरु।
जनसंख्या के विस्फोट का सजीव उदाहरण है बेंगळुरु। चारों दिशाओं में फैल रहा है और साथ ही साथ फ्लाईओवरों व अण्डरपासों ने शहर को एक मंजिला भी बना दिया है। चारों ओर मॉल, वाहन, भीड़ और नौकरियाँ इसी विस्फोट के परिणाम हैं। निसन्देह यह शहर तो सबको समाहित कर लेगा पर जिन पेड़ों पर शहर का पर्यावरण इतराता है, वे क्या इस विस्तार को समेट पायेंगे?
(इस पोस्ट के लिये कुछ जानकारी श्री वाई.एन. बाबू, वरिष्ठ मण्डल परिचालन प्रबन्धक, बेंगळुरु रेल मण्डल ने दी है)
इस आलेख के लिये चित्रों की व्यवस्था के लिये मैने अपने साले जी को अनुरोध किया। श्री धीरेन्द्र दुबे, मेरे ब्रदर-इन-लॉ, बेंगळुरू में रहते हैं। और बड़ी तत्परता से (आश्चर्य में डालने वाली तत्परता! अन्यथा, मुझे मालुम है कि मेरे ब्लॉग के पाठक नहीं हैं धीरेन्द्र) उन्होने फोटो ई-मेल कर दिये। फोटोग्राफ वास्तव में पोस्ट को वैल्यू-ऐड कर रहे हैं। बाजू में देखें धीरेन्द्र का चित्र! यह कई साल पहले के एक फोटो की स्कैन प्रति है।
और जब तक मैं पब्लिश बटन दबाता, प्रवीण ने भी बैंगळुरु की हरियाली के दो अच्छे चित्र भेज दिये! वे नीचे लगे हैं।
'बेंगळुरु को बागों का शहर कहा जाता है और वही बाग बढ़ती हुयी वाहनों की संख्या का उत्पात सम्हाले हुये हैं।'
ReplyDeleteसचित्र बेंगळुरु का इतना जीवंत चित्रण जैसे लगता है कि बेंगळुरु को साक्षात देख रहे है.
अच्छी जानकारी भी
बेंगलूरू भारत का संभवतः सुन्दर और स्वच्छ शहर है -यह बात मैंने १९८१ में वहां जाने पर जानी थी और आज भी मुझे यह सच लगता तमाम बातों के बावजूद भी !
ReplyDelete"जीवन भर सरकारी मकानों में रहने के बाद, नौकरी की जमा पूँजी से अपने लिये यहाँ पर घर खरीदना चाहा। लगभग उसी समय नारायण मूर्ती की आई टी ब्रिगेड जिनके पास अथाह पैसा तीस वर्ष का होने के पहले ही आ गया था, उन्होने पुरानी पीढ़ी की समझ और धैर्य का परित्याग करते हुये अपने वैवाहिक जीवन का प्रारम्भ अपने घरों से ही करना उचित समझा। कहा जाये तो दो पीढ़ियों ने मकानों की खरीददारी एक समय ही करने की ठानी। पीढियों की दूरियों का निशाना बना इस दशक का बेंगळुरु.."
ReplyDeleteयह विश्लेषण रोचक है और सोचने के और कई तार देता है. मोहक सी हरी-भरी जानकारी...प्रवीण भाई आपको पढ़ना बेहद अच्छा लगता है..थोड़ा और लिखा करिये ना...!
बागों के शहर बंगलोर जाना हुआ था कुछ साल पहले ...सच ही बहुत हरियाली है ...!!
ReplyDeleteबहुत सुंदर जानकारी मिली .. पर जिस हरियाली और जिस मौसम के कारण यह सबका प्यारा बना .. आबादी के निरंतर तेजी से बढते जाने से उसमें कमी नहीं आनी चाहिए .. उस प्राकृतिक विशेषताओं को बनाए रखना भी हमारी जबाबदेही ही है !!
ReplyDeleteबेंगलूरु और वंहा के निवासी बधाई के पात्र है जो प्रकृति के उपहार हरियाली को संजो कर रखने मे सफ़ल हुये हैं,वरना यंहा तो सडको को चौड़ा करने के नाम पर सालों पुराने पेड़ काट ड़ाले गये हैं।रायपुर से नागपुर के लिये बन रहे फ़ोर लेन पर तो हरियाली का जो सत्यानाश किया गया है उसे प्रकृती कभी माफ़ नही करेगी।लाखों पेड़ काट दिये गये हैं,अब किया भी क्या जा सकता है विकास शायद पेड़ों की बलि ही चाहता है।
ReplyDeleteनम्मा बेंगलुरु
ReplyDeleteबढ़िया आलेख। जानकारी और विश्लेषण। वह भी गागर में सागर। चित्र तो सचमुच ऐसे हैं मानों पाण्डे जी ने ही खींचे हों इस आलेख के लिए। धन्य है धीरेन्द्रजी।
ReplyDeleteबेंगलुरु के विषय में अच्छी जानकारी मिली!
ReplyDeleteआदिकाल से ही हरियाली मनुष्य के मन को मोहती रही है। हरियाली है वृक्षों से और वृक्ष हैं तो पक्षियों का कलरव है, वानरादि पशुओं की अठखेलियाँ हैं। कवियों के लिये तो यह हरीतिमा सदैव ही प्रेरणास्रोत रही है तभी तो आदिकवि वाल्मीकि लिखते हैं:
मार्ग में उन्होंने नीवार (जलकदम्ब), कटहल, साखू, अशोक, तिनिश, चिरिविल्व, महुआ, बेल, तेंदू तथा अन्य अनेक जंगली वृक्ष देखे। विचित्र वनों, मेघमाला सदृश पर्वमालाओं, सरिताओं तथा सरवरों के नयनाभिराम दृश्यों को निरखते हुये तथा दो दिन महर्षि अगस्त्य के भाई के आश्रम में विश्राम करने के पश्चात् वे अगस्त्य मुनि के आश्रम के निकट जा पहुँचे। उस वन का वातावरण अत्यन्त मनोहर था। सुन्दर विशाल वृक्ष खिली हुई लताओं से शोभायमान हो रहे थे। हाथियों द्वारा तोड़े जाकर अनेक वृक्ष पृथ्वी पर पड़े थे। वानरवृन्द वृक्षों की ऊँची-ऊँची शाखाओं पर अठखेलियाँ कर रहे थे। पक्षियों का मधुर कलरव चहुँ ओर सुनाई दे रहा था। हिंसक पशु भी हिरण आदि के साथ, बैरभाव को छोड़कर, कल्लोल कर रहे थे।
उद्धरण स्रोत - अगस्त्य का आश्रम
अच्छा लगा जानकर कि अभी भी हरियाली बची है.
ReplyDeleteरोचक लेख।
ReplyDeleteविशेषकर हमारे लिए जो यहाँ पैंतीस साल पहले आए थे और यहीं बस गए हैं।
येदि प्रवीणजी को बेंगळूरु आज भी अच्छा लगा, तो सोचता हूँ, यदि प्रवीणजी यहाँ तीस - चालीस पहले आते, तो लेख नही, बल्कि कविता लिख रहे होते।
मानता हूँ कि अन्य शहरों से यहाँ जीवन सुलभ है पर फ़िर भी बार बार पुराने दिनों की याद आती रहती है।
मैं यहाँ १९७४ में आया था। अपनी मर्जी से नहीं। नौकरी लगी थी बिहार में, पर कंपनी ने यहाँ नया कार्यालय खोला था और मुझे यहाँ भेजा गया।
आने के कुछ ही महीने बाद मेरा विवाह भी हुआ था। ७५० रुपये की तनख्वाह थी, उन दिनों। हम दोनों के लिए काफ़ी था।
शहर की आबादी करीब ३५ लाख थी उस समय, (आज ८० से भी अधिक होगी)। १८० रुपये में किराये का घर मिला था, दूध १.१५ प्रति लिटर, बस का किराया पच्चीस पैसे (घर से कार्यालय तक - ६ कि. मी की दूरी थी, जो कुछ ज्यादा समझा जाता था उन दिनों!) बिजली का खर्च केवल २० रुपये प्रति महिना। होटल में चाय / कॉफ़ी केवल पैंतीस पैसे और पेट भर भोजन केवल १.५० या २ रुपये के अन्दर उपलब्ध था। ऑटो का किराया था केवल पैंतालीस पैसे प्रति किलोमीटर. ट्राफ़िक आज की ट्राफ़िक का केवल १० प्रतिशत. सारे शहर में एक भी one way रास्ता नहीं था। लोग ज्यादातर साइकल या स्कूटर चलाते थे। अच्छे और वातानुकूल सिनेमा घर में टिकट केवल ३.५० ! टी वी था ही नहीं। महीने के अंत तक मेरी पत्नी मेरी तन्ख्हाह से सौ रुपये बचा भी लेती थी! वो भी क्या जमाना था!
उन दिनों ओपन मार्केट में पच्चीस - तीस हजार में घर बनाने के लिए 60 ' X 40 ' प्लॉट मिल सकता था। हम तो महामूर्ख थे। इस रकम को अत्यधिक समझकर हमने कुछ नहीं किया और सोते रहे। आखिर किराया देते देते और बार बार मकान खाली करते करते थक गए। १९८४ तक रेट बहुत ही बढ़ गया था और आखिर हमें १९८५ में पाँच लाख खर्च करनी पड़ी अपना घर बसाने में।
१९८० के बाद यह IT Industry ने बेंगळूरु का चेहरा पूरा ही बदल दिया है।
अब यहाँ इसके कारण कुछ high wage islands बन गए हैं, इनके कारण कीमतें बढ़ गई हैं और जो IT उद्योग से नहीं जुडे हैं, उनके लिए जीना दूभर हो गया है।
साथ साथ, ऐसा लगता है कि सबके पास पैसा है। जिनके पास नहीं है, वे आसानी से loan का इन्तजाम कर सकते हैं नतीजा यह कि आजकल युवा पीढी भी अपने लिए घर / कार वगैरह खरीद रहे हैं। गाडियाँ यहाँ बहुत हैं लेकिन पार्किन्ग के लिए जगह कहाँ। शहर के अन्दर कभी कभी तो पार्किन्ग के लिए एक किलोमीटर चक्कर लगाना पढ़ता है।
वायु प्रदूषण बहुत ही बढ़ गया है। यह वही लोग जानेंगे जो यहाँ पहले रह चुके हैं।
और बहुत कुछ लिख सकता हूँ पर आज के लिए बस इतना ही।
प्रवीणजी का इस शहर में फ़िर से स्वागत करना चाहता हूँ। आशा है के जल्द ही उनसे मिलने का सौभाग्य हमें प्राप्त होगा
शुभकामनाएं
जी विश्व्नाथ, जे पी नगर, बेंगळूरु
मुझे याद है सबसे पहले मैं अपने कालेज के ट्रिप में शायद सन १९७१ में बेंगलुरु तब का बैंगलोर, गया था...गाडी से उतारते ही लगा जैसे किसी हिल स्टेशन पर आ गया हूँ...ठण्ड और कोहरा...और स्टेशन इतना खूबसूरत की क्या कहूँ...तब के भवन और सिनेमाघर अभी याद हैं...वहां के थियेटर ब्लू डायमंड (शायद) में देखी फिल्म मेकेनाज़ गोल्ड अभी तक याद है... लालबाग की ख़ूबसूरती भूली नहीं है...उसके बाद नौकरी के दौरान कई बार जाना हुआ....और हर बार पहले से अधिक निराशा हाथ लगी...प्रकृति जो उस शहर पर मेहरबान थी अब रूठने लगी थी...अब तो बैंगलोर जाने के नाम से ही डर लगता है...ट्रेफिक से जी घबराता है...विकास की बहुत बड़ी कीमत चुकाई है इस शहर ने...
ReplyDeleteनीरज
हम जंगल युग की ओर नहीं लौट सकते, इस बात को ध्यान में रख कर हरियाली को कैसे बढ़ा सकते है इस ओर नगर-विकास कर्ताओं को ध्यान देना है.
ReplyDeleteसड़क के बीच में पेड़ लग सकते है, मकानों की छतों पर या उँचे भवनों में किनारों पर पेड़ लग सकते है. यानी ऐसे रास्ते निकालने होंगे, जहाँ प्रकृति और मानव विकास साथ साथ चले....
हरा बैंगलुरू; भरा बैंगलुरू
ReplyDelete"यह शहर तो सबको समाहित कर लेगा पर जिन पेड़ों पर शहर का पर्यावरण इतराता है, वे क्या इस विस्तार को समेट पायेंगे?"
चिंता जायज है जी
प्रणाम
फोटो अच्छी हैं जी, धन्यवाद
ReplyDeleteकभी जायेंगें जी घूमने, बैंगलुरू
प्रणाम
ये सब जानना हमारे लिए नया था.. और काम का भी था..
ReplyDeleteअपने लिए तो नयी जानकारी है...बैंगलुर के बारे मे जान कर अच्छा लगा.....लेकिन पता नही यह कब तक ऐसा बना रहेगा....आज जो हमारे चारों ओर हो रहा है उसे देख लगता नही कि यह हरियाली रह भी पाएगी या नही....अपने महोल्ले मे तो यह हरियाली गमलो में ही नजर आ रही है...
ReplyDeleterochak aalekh. Achchhi jankari.
ReplyDeleteबेंगळुरु को बागों का शहर कहा जाता है बहुत सुंदर लगा, पढ कर, ओर चित्र भी बहुत सुंदर लगे, कभी दिल्ली भी ऎसा ही हरियाली से भरा होता था. धन्यवाद
ReplyDelete२ महीने बैंगलोर में रहा हूँ,. लेकिन आइआइएम कैम्पस में रहा (जो कि बहुत ही हरा भरा है) और बाहर कभी गया भी तो रात में. बैंगलोर शहर की हरियाली देखी तो नहीं लेकिन मौसम बड़ा पसंद आया था.
ReplyDeleteहाल तक मेरे पड़ोस में एक आई.ए.एस. प्रोबेशनर रह रही थीं जो बंगलौर से हैं। उनके मम्मी-पापा आए थे तो मैने उनसे अनौपचारिक बात-चीत में बंगलौर की हरियाली की चर्चा की थी। मैने सुन रखा था कि यह बागों का शहर है। उस दम्पति ने छूटते ही कहा कि यह बात अब पुरानी हो गयी। वहाँ जंगल तो है लेकिन कंक्रीट का। पेड़ पौधे तो विकास की भेंट चढ़ गये। कह रहे थे कि बंगलौर का प्रसार हो रहा है और सड़कों को चौड़ा किया जा रहा है इसलिए पेड़ ताबड़तोड़ काटे जा रहे हैं। वे वहाँ सिविल इन्जीनियर हैं और उनकी पत्नी सरकार में सचिव का पद सम्हाल रही हैं। मैं तब आवाक रह गया था और मायूस भी।
ReplyDeleteआज प्रवीण जी की पोस्ट पढ़कर थोड़ी राहत मिली।
हम भाग्यशाली हैं कि बैंगलोर देख चुके हैं। बहुत अच्छा लगा ये सब पढ कर और तस्वीरें तो लाजवाब हैं धन्यवाद्
ReplyDeleteएक दशक से बेंगलूरू नहीं देखा मगर उससे पहले लगभग एक दशक तक वहां नियमित आवागमन और प्रवास रहा है, अपना करीयर वहीं शुरू किया, अपनी पत्नी से पहली बार वहीं मिला था. अनेकों मित्र अभी भी वहां हैं. हरा-भरा, स्वच्छ और सुसंस्कृत बेंगलूरू अभी भी यादों में बसा है. वैसे न्यूयॉर्क नगर में गगनचुम्बी इमारतों, चौड़ी सड़कों और सुरंगित सड़कों और रेल मार्गों से लगभग सटा हुआ ही विशालकाय सेंट्रल पार्क है. मेरे ख्याल से नगर विकास का वह मोडल हमारे भीड़ भरे नगरों के लिए ठीक रहेगा.
ReplyDeleteरंजना जी की टिप्पणी:
ReplyDeleteबिलकुल सही कहा है...हमने भी बेंगलुरु का इतना नाम सुना था,लेकिन जब वहां जाना हुआ तो बड़ी मायूसी हुई वहां कि हालत देखकर...
बैगळुरु को तो वातनकुलित शहर के रूप में जानते थे हम लोग .लेकिन अब तरक्की की कीमत तो चुकानी ही पड रही है .
ReplyDeleteहमारे देश का यही दुर्भाग्य रहा है कि शहर का विस्तारीकरण होता है, नया शहर बसाने की ओर कम ध्यान जाता है। आखिर कम्पनियां बेंगलोर, हैदराबाद, कलकत्ता जैसे बडे़ शहरों में ही क्यों? बडे़ संस्थान दुर दराज स्थानों पर भी खोले जा सकते हैं जिससे स्थापित शहरों पर दबाव न पडे॥
ReplyDeletebanglore mebahut se mitra aur mitrani hai, unhe is post kalink bhejta hu, aur puchhta hu ki unhone is shahar ko is arth me kiitna jana aur samjha, tabhi shayad sahi bat ve aur mai samajh payenge.
ReplyDeletebaki jo haqikat hai vo to hai hi ki
hariyali bina chain kahi nahi hai.
प्रवीण जी !
ReplyDeleteकिसी नगर में आप से निरीक्षक घुस जांय तो
एक साथ कई चीजें सामने आने लगती हैं ..
इंसानियत के घटने और पेड़ों के कटने को
अलग - अलग रख कर नहीं देखा जा सकता ,
'' पेड़ों का अर्घ्य '' कितना घातक है !
This is the kind of post (plus comments) for which I rate this blog the number one Hindi blog.
ReplyDelete@Ghostbuster
ReplyDeleteI too love this particular blog.
Gyan jee is not a Scholar, or expert in any specialised field.
Blogs on special topics unnerve me. I am unable to venture to post comments on such blogs as I do not know the subject well enough to be able make a knowledgeable comment.
He writes on just about any subject that appeals to a common reader like me
Commenting on his blogs comes easily and naturally to me even in Hindi in which I am not so proficient.
He is unpredictable as regards the subject of the next posting.
You never know what he is going to write next.
He picks apparently insignificant events, happenings, or objects and turns them into a bloggable item.
I have noticed his skill in being able to post a small blog entry where there is no subject at all.
The sheer variety I see here is what attracts me.
He is also prolific, regular, has been chugging along like the Indian Railway train.
I belive his blog beats all others in the race against time.
His blog appears early in the morning even before dawn and I find it pleasurable to sip my morning coffee while reading his early morning blog entry. At times I have attempted to be the first to comment on his post but in this I have never succeeded. Some one some where is quick to post the first comment within minutes of his post making an appearance.
I have now given up this attempt. It's so much better to wait for the comments of others to come in. I enjoy reading the comments and that makes it even easier to post my comment later in the day when the dust has settled.
I have visited several blogs of friends and relatives.
Most do not have staying power.
Like butterflies they attract initial attention but their lifetime is short.
They sprout suddenly, are initially prolific, and gradually thier posts become irregular, and one fine day before any one notices they have faded away.
The blog world is littered with the graves of many would be bloggers.
I am sure this is one blog which will be with us for a long long time.
Gyanjee is also not a Hindi fanatic. He is not a pedantic pandit either.
He uses simple everyday Hindi and is prepared to face flak from Hindi purists for improvising words and expressions.
I love his coinage of new words and slyly borrow them in many of my own writings without giving him credit for which I beg to be forgiven!
He is also hospitable to his guest bloggers and graciously accommodates them.
I too have have availed of his hospitality with a few postings now and then.
May his tribe increase.
We share a common bond. We are both alumnii of BITS Pilani, a fact I discovered accidentally.
I look forward to meeting him and his family one day.
G Vishwanath
JP Nagar, Bangalore
पॉंच-सात बरस पहले बेंगलुरु जाना हुआ था। हरियाली सचमुच ही मनमोहक है। सडकों पर बिजली के खम्भे तो हैं किन्तु तार आसमान में नजर नहीं आते। बिजली के तारों को धरती के नीचे बिछाया गया है।
ReplyDeleteइस पोस्ट ने वह सब याद दिला दिया।