मे रे दफ्तर के पास एक दिन सवेरे हादसा हो गया। एक मोटर साइकल पर पीछे बैठी स्कूल जाने वाली लड़की ट्रक की टक्कर में फिंका गयी। उसका देहांत हो गया। आस-पास वाले लोगों ने ट्रक फूंक कर यातायात जाम कर दिया। दफ्तर आते समय करीब चार पांच किलोमीटर लम्बा ट्रैफिक जाम पाया मैने। एक घण्टा देर से दफ्तर पंहुचा। ड्राइवर ने जिस बाजीगरी से कार निकाल कर मुझे दफ्तर पंहुचाया, उससे मेरा रक्तचाप शूट कर गया होगा। हाथ में का अखबार और वह किताब जिसे पढ़ते हुये मैं सीरियस टाइप लगता होऊंगा, हाथ में ही धरी रह गयी। ट्रेफिक जाम पर मन ही मन जवानी के दिनों की सुनी-बोली अंग्रेजी गालियों का स्मरण होने लगा। दांत पीसते हुये; वेलेण्टाइन दिवस पर रूमानियत की बजाय; गालियों के स्मरण से मैं जवान बन गया।
पर गालियां तो डायवर्शन हैं सही रियेक्शन का। गालियां आपको अभिजात्य या चिर्कुट प्रोजेक्ट कर सकती है। पर वे आपके सही व्यवहार का पर्याय नहीं बन सकतीं। सड़कों पर दुर्घटनायें होती हैं। ट्रेन में भी होती हैं।
पूर्वांचल का कल्चर है कि कुछ भी हो - फूंक डाला जाये। यातायात अवरुद्ध कर दिया जाये। जाम-झाम लगा दिया जाये। समय की इफरात है। सो समय जिसको पिंच करता हो उसको परेशान किया जाये।
पूरे कानपुर रोड (जहां दुर्घटना हुई) पर दोनो तरफ दुकाने हैं – सूई से लेकर हाथी तक मिलता है इनमें। दुकानें चुकुई सी (छोटी सी) हैं और बेशुमार हैं। उनका आधा सामान सामने के फुटपाथ पर रहता है। ढ़ेरों दुकाने पोल्ट्री और मांस की हैं – जो अपने जिन्दा मुर्गे और बकरे भी सड़क के किनारे बांधे या जाली में रखते हैं। सर्दी के मौसम में रजाई-गद्दे की दूकान वाले सड़क के किनारे सामान फैलाये रहते हैं। धानुका वहीं फुटपाथ पर धुनकी चलाते रहते हैं। आटो ठीक करने वाले फुटपाथ पर आटो के साथ पसरे रहते हैं। गायें आवारा घूमती हैं। लोग अनेक वाहन पार्क किये रहते हैं। लिहाजा पैदल चलने वाले के लिये कोई जगह नहीं बचती। दुपहिया वाहन वाला एक ओर पैदल चलने वालों से बचता चलता है (जिनमें से कई तो फिदाईन जैसी जुझारू प्रवृत्ति रख कर सड़क पर चलते और सड़क पार करते हैं) और दूसरी ओर हैवी वेहीकल्स से अपने को बचाता है।
मुझे रीयल क्रिमिनल वे लगते हैं जो सड़क के आसपास का फुटपाथ दाब कर यातायात असहज कर देते हैं। यही लोग कोई दुर्घटना होने पर सबसे आगे रहते हैं दंगा-फसाद करने, वाहन फूंकने या यातायात अवरुद्ध करने में। उनकी आपराधिक वृत्ति सामान्य जन सुविधा में व्यवधान पंहुचाने में पुष्ट होती है और उनके विरुद्ध कोई कार्रवाई न हो पाने से उनके हौसले बुलन्द होते जाते हैं।
फुटपाथ बन्द होने से दुर्घटनायें होती हैं। दुर्घटना होने पर फुटपाथ छेंकने वाले ही हंगामा खड़ा करते हैं। हंगामा करने पर उनका फुटपाथ अवरुद्ध करने का अधिकार और पुष्ट होता जाता है। अतिक्रमण और बढ़ता है। फिर और दुर्घटनायें होती हैं। यह रोड मैनेजमेण्ट का सर्क्युलर लॉजिक है – कैच २२।
मैं अगले रोड जाम की प्रतीक्षा करने लगा हूं।
और लीजिये, पण्डित शिवकुमार मिश्र की बताई दिनकर जी की कविता "एनारकी" का अंश:
"और अरे यार! तू तो बड़ा शेर दिल है,
बीच राह में ही लगा रखी महफिल है!
देख, लग जायें नहीं मोटर के झटके,
नाचना जो हो तो नाच सड़क से हट के।"
"सड़क से हट तू ही क्यों न चला जाता है?
मोटर में बैठ बड़ी शान दिखलाता है!
झाड़ देंगे तुझमें जो तड़क-भड़क है,
टोकने चला है, तेरे बाप की सड़क है?"
"सिर तोड़ देंगे, नहीं राह से टलेंगे हम,
हां, हां, चाहे जैसे वैसे नाच के चलेंगे हम।
बीस साल पहले की शेखी तुझे याद है।
भूल ही गया है, अब भारत आजाद है।"
यह कविता तो दिनकर जी ने आजादी के बीस साल बाद लिखी थी। अब तो साठ साल हो गये हैं। आजादी और पुख्ता हो गयी है! :-)
मैने कहा न कि मेरी पोस्ट से ज्यादा बढ़िया टिप्पणियां होती हैं। कल पुराणिक जी लेट-लाट हो गये। उनकी टिप्पणी शायद आपने न देखी हो। सो यहां प्रस्तुत है -
रोज का लेखक दरअसल सेंसेक्स की तरह होता है। कभी धड़ाम हो सकता है , कभी बूम कर सकता है। वैसे , आलोक पुराणिक की टिप्पणियां भी ओरिजनल नहीं होतीं , वो सुकीर्तिजी से डिस्कस करके बनती है। सुकीर्तिजी कौन हैं , यह अनूपजी जानते हैं।
लेख छात्रों के चुराये हुए होते हैं , सो कई बार घटिया हो जाते हैं। हालांकि इससे भी ज्यादा घटिया मैं लिख सकता हूं। कुछेक अंक पहले की कादम्बिनी पत्रिका में छपा एक चुटकुला सुनिये-
संपादक ने आलोक पुराणिक से कहा डीयर तुम मराठी में क्यों नहीं लिखते।
आलोक पुराणिक ने पूछा -अच्छा, अरे आपको मेरे लिखे व्यंग्य इत्ते अच्छे लगते हैं कि आप उन्हे मराठी में भी पढ़ना चाहते हैं।
नहीं - संपादक ने कहा - मैं तुम्हारा मराठी में लेखन इसलिए चाहता हूं कि सारी ऐसी तैसी सिर्फ और सिर्फ हिंदी की ही क्यों हो।
लेख छात्रों के चुराये हुए होते हैं , सो कई बार घटिया हो जाते हैं। हालांकि इससे भी ज्यादा घटिया मैं लिख सकता हूं। कुछेक अंक पहले की कादम्बिनी पत्रिका में छपा एक चुटकुला सुनिये-
संपादक ने आलोक पुराणिक से कहा डीयर तुम मराठी में क्यों नहीं लिखते।
आलोक पुराणिक ने पूछा -अच्छा, अरे आपको मेरे लिखे व्यंग्य इत्ते अच्छे लगते हैं कि आप उन्हे मराठी में भी पढ़ना चाहते हैं।
नहीं - संपादक ने कहा - मैं तुम्हारा मराठी में लेखन इसलिए चाहता हूं कि सारी ऐसी तैसी सिर्फ और सिर्फ हिंदी की ही क्यों हो।
-रोड मैनेजेमेन्ट के सर्कुलर फंडे से पूर्णतः सहमत हूँ किन्तु अक्सर हाईवे आदि पर जहाँ ऐसी समस्या नहीं है ट्रक आदि के ड्राईवर पीकर बेलगाम दौड़ाते है तब उन पर बहुत कोफ्त आती है. हालांकि उनको जलाना/ चक्का जाम करना इस तरह की दुर्घटनाओं को रोकने का कोई समाधान नहीं है किन्तु प्रशासन भी तो अब इनके बिना नहीं चेतता-तो सब चलता जा रहा है-सच में है तो कैच २२. हाल ही ऐसे ही एक ट्रक दहन/चकाजाम की सुखद परिणीति एक स्कूल के मोड़ पर ट्रेफिक लाईट के रुप में दिखी, जिसके लिये बरसों से प्रयास किये जा रहे थे..किन्तु फिर भी इस तरह की हरकतों का मैं निश्चित विरोध करता हूँ.
ReplyDelete-दिनकर जी की कविता के लिये आभार.
-आलोक जी-सच में मराठी में लिखिये न!! राज ठाकरे से थोड़ा बदला भी निकल जायेगा हिन्दी वालों का. :)
अब क्या कहूं , उड़नजी की एक एक बात से सहमत हूं।.......
ReplyDeleteआप इलाहाबाद दिखा रहे थे मुझे कोटा नजर आ रहा था। फिर यकायक ही भारत में तब्दील हो गया।
ReplyDeleteफिर मैं विज्ञान के उस मुहावरे को याद करने लगा 'व्यवस्था अव्यवस्था में से जन्म लेती है'
पता नहीं कब जन्मेगी यह?
जाम, बलवा, आगजनी किसी भी प्रतिक्रिया में शायद सही न हो। लेकिन, जब सिस्टम तय करके बैठा हो कि इसके पहले सुनेंगे नहीं, सुधरेंगे नहीं तो, ऐसी जगह कई बार अराजकता काम कर जाती है। और, तो ये डबल नुकसान कि किसी की जान गई या दुर्घटना हुई उसके बाद घंटों उसी जाम में फंसकर किसी मरीज की हालत और खराब हो जाए।
ReplyDeleteदिनेश जी, मैं तो विज्ञान का मुहावरा किसी और तरह से जानता हूं। यह मुहावरा second law of Thermodynamics है जो कहता है कि 'Entropy increases.'
ReplyDeleteयदि इसे समान्य भाषा में परिवर्तित करें तो यह इसी प्रकार से समझाया जा सकता है कि 'प्रकृति को न छेड़ें तो, वह व्यवस्था से अव्यवस्था की तरफ चलती है'। हमारे समाज में तो कुछ उल्टा हो रहा है। हम इसे छेड़ कर अव्यवस्था की तरफ ले जा रहें हैं।
हर शहर में हर शहर है। या कहा जाए कि शहर की आत्मा एक है, बस शरीर अलग-अलग है। हमारी नगरपालिकाएं और निगम ही इन समस्याओं को सुलझा सकते हैं और उन्हें इसके लिए सक्षम बनाने की ज़रूरत है।
ReplyDeleteजनमानस को लगता है जो वे जो कर रहे है वो सही है किन्तु वह उनकी भूल होती है।
ReplyDeleteबिना ताम झाम के सरकारी गाड़ी गुजरगई जानकर सुखद एहसास हआ, बधाई। :)
धन्यवाद । ट्रैफिक जाम की बात सुनाकर आपने हमारी दो पोस्ट का जुगाड़ कर दिया । अब हम बैठकर लिखते हैं ।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
मै आपसे पूरी तरह से सहमत हूँ। फुटपाथ का अतिक्रमण करने वाले ही सबसे ज्यादा दोषी है। मुझे याद है कानपुर मे पी.रोड में दोनो तरफ़ का का फुटपाथ काफी बड़ा था। लेकिन थोड़े ही दिनो मे लोगो ने अपने दुकाने फुटपाथ तक बढानी शुरु कर दी। परेशानी इतनी हो गयी थी, फुटपाथ पर दुकाने उग आयी थी, सड़क किनारे रिक्शों की भरमार थी, पैदल लोग चले तो चले कहाँ? नागरिको की शिकायत पर नगर महापालिका वालो ने कार्यवाही की तो व्यापारी लामबंद हो गए, जलसे जलूस निकालने लगे, धरने, हड़ताले होने लगी, ये कहाँ की शराफ़त है?
ReplyDeleteहम किसी भी गलती पर त्वरित प्रतिक्रिया करते है, लेकिन कभी भी मूल समस्या की तरफ़ नही देखते।
एक अच्छा लेख।
ये अग्रेजी मे कौन कौन सी गालिया दी ,ये भी बताये हिंदी गालियो का तो हमारा ज्ञान कोश भडास से पूरा होता रहता है,हम नई नई गालिया वही से पढ कर प्रयोग करते है ,(दिल्ली फ़रीदाबाद,गुडगाव,रोज आधा दिन नियम से जाम रहता है ना)बाकी अग्रेजी की गालिया भी सिखा दे तो हमारा भी स्टेटस थोडा बहुत बढ जायेगा ना..:)
ReplyDeleteमृतक की आत्मा को शांति मिले, सच में कभी मैं सोचता हूं कि अगर साठ पार कर जाऊं, तो किसी किताब की भूमिका ये लिखूंगा-
ReplyDeleteधन्यवाद आगरा बाईपास से गुजरे करीब पांच लाख ट्रकों के ड्राइवरों का, जिन्होने मुझे स्कूल जाते वक्त मार नहीं गिराया, सो मैं लिख पाया।
धन्यवाद उन अनगिनत गाड़ियों के ड्राइवरों का,, जिनमें मैंने सफर किया औऱ सफर करने के बाद भी इंसान योनि में कायम रहा।
धन्यवाद उन ब्लू लाइन ड्राइवरों का, जिन्होने दिल्ली में इत्ते सालों बाद भी मुझे बचाये रखा।
ये सब पहले धन्यवाद के पात्र हैं।
पुनश्च-इस कमेंट पर किसी कारीगर का कमेंट यह भी हो सकता है-
हम बिलकुल धन्यवाद नहीं देते, उन ड्राइवरों को,जिन्होने आलोक पुराणिक को मार नहीं गिराया। और हमें रोज उनके व्यंग्य झेलने पड़ रहे हैं।
ये सिर्फ पूर्वांचल में ही नही शायद भारत में सभी जगह होता है, इस तरह की घटना से हुए कई ट्रैफिक जामों से दो चार होना हुआ है।
ReplyDeleteआलोक जी की टिप्पणी आ गयी अब तो लिखने को कुछ बचा ही नहीं.
ReplyDeleteहे मुझसे "वरिष्ठ युवा", तनिक अपनी अंग्रेजी गाली ज्ञान कोश को हम कनिष्ठ युवाओं को उपलब्ध करवाईए ताकि हम भी अपने को चिर युवा बना सकें उनके प्रयोग और स्मरण से ;)
ReplyDeleteवैसे उड़नतश्तरी जी को हम ऐवें ही गुरु नई कहते, गुरु हैं इसलिए उनकी बात से हम सहमत हैं।
देखौ साब आदमी को का है,जो ऐहै सो जैहै . सो जायबे वारेन के संगै हमरीउ सहानुभूति है .बाकी तौ साब जी संसार फ़ानी है, दुनिया आनी-जानी है . तुलसी बब्बा नै नइं कही हती 'है धरा को प्रमान यही तुलसी जो फरा सो झरा जो बरा सो बुताना'.
ReplyDeleteबाकी हम बड़े दिनन सै देख रए हैंगे . आप 'एनक्रोचर-फेनक्रोचर' औरउ न जानै का का कह कै हम फुटपाथी दुकनदारन के खिलाफ़ अशोभनीय टिप्पणी कर रए हैंगे . जे बात ठीक नइऐं .रिटायरमेंट के बादउ आपकै याई जघां रहांव है . अरे आप चलौ अपईं गाड़ी में काहे फ़िजूल में टांग अड़ाय रए हौ .जब फ़ुटपाथ के ना हुएबे सै पैदल चलन वारेन कै कौनौ तकलीफ़ नइऐं तौ आप काए खाली-पीली अपओं टैम भेस्ट कर रए हौ .
हम लोगन को कोई बिलॉग नइऐं जाइ मारे तै इत्तो बोल पाय रए हौ . आपके आंख की किरकिरी हुय गए हैं हम लोग . लगत एक सामूहिक बिलॉग खोलनेइ परयै . तभइं आप हम लोगन को चरित्र हनन बंद करयौ . छेकक यूनिटी ज़िंदाबाद !
बळदप्रसाद
सचिव,फुटपाथ छेकक संघर्ष समिति
ना ना आलोक पुराणिकजी से मराठी में न लिखवाईयेगा... राज ठाकरे पंगा कर देगा. :)
ReplyDeleteकमोबेश पूरे देश मे यही स्थिति है। और समाधान है कि सूझता नही। आगे शायद स्थिति विस्फोटक होगी तो समाधान भी निकाला जायेगा। तब तक खीझा ही जा सकता है।
ReplyDeleteई फुटपाथ छेकक लोग फुटपाथ नहीं छेकेगा तो का छेकेगा? ओईसे, अस्सी के दशक के मध्य में इलाहबाद में मकान-वोकान छेकने का प्रोग्राम बहुते होता था. हमरे कुछ सीनियर मित्र थे जो पिस्तौल-उस्तौल चलाते थे और मकान-ओकान छेक लेते थे. अल्लापुर से लेकर झूंसी तक, कम से कम १० मकान छेके थे ई लोग. अब लगता है मकान छेकक कार्यक्रम बैकसीट पर चला गवा. एही वास्ते ई लोग फुटपाथ छेक रहा है.
ReplyDeleteजब तक आपने पूर्वांचल शब्द का प्रयोग नहीं किया, तब तक हम यही सोच कर परेशान हुए जा रहे थे कि; 'क्या बात है, आज भइया कलकत्ते के फुटपाथों पर पोस्ट क्यों लिख रहे हैं?'
और जहाँ तक गाडी और ट्रक दोहन कार्यक्रम की बात है, तो सब सामूहिक विवेकगाथा की बात है. सामूहिक विवेक सभी जगह दिखाई देता है, क्या बंगाल और क्या यूपी........
कोई भी हादसे मे ट्रैफिक जाम करना और तोड़-फोड़ करना तो जनता का जन्मसिद्ध अधिकार है।
ReplyDeleteक्या पूर्वांचल क्या उत्तरांचल हर जगह ऐसा ही होता है ।
एक समस्या और है. दूर्घटना होने पर दोषी बड़े वाहन वाले को ही माना जाता है.
ReplyDeleteआपने आलोक जी की टिप्पणी दोहराई तो हम भी अपनी बात दोहरा रहे हैं , टिप्पणी हो तो उनके जैसी और कोई अगर जवाब दे सकता है तो अनूप जी लगता है आज फ़िर उनका नेट खराब है।
ReplyDeleteकुछ गालियाँ संजीत के साथ बैठ हम भी सीख लेंगे दो कारण हैं - एक तो जब संजीत अपनी नयी नयी विध्या का प्र्योग करें तो अपने को समझ आना चाहिए( नहीं तो ऑस्ट्रेलियन और हममें क्या फ़र्क रह जाएगा) दूसरे ये मुसीबत हमें भी रोज झेलनी पढ़ती है