लोग जैसा सोचते हैं वैसा हो तो न जाने कितना बेहतर हो जाये यह समाज, यह देश। अपनी सोच या अपने लेखन में जितना आदर्श दिखाते हैं हम, वह अगर कार्य रूप में परिणत हो रहा हो तो न जाने कितनी तेज तरक्की कर जाये मानवता। भले ही हम धुर समाजवादी, साम्यवादी या पूंजीवादी (या किसी अन्य वादी) सोच के हों। अगर हम उन्मुक्त हैं सोचने और सोच के क्रियान्वयन में ; तो भारत में 700-800 विराट दृष्टि और इस्पाती इच्छा शक्ति वाले व्यक्तियों का पुख्ता इंतजाम हो गया मानिये! स्वामी विवेकानन्द तो मात्र कुछ प्रतिबद्ध लोगों की कामना करते थे इस देश के उद्धार के लिये।
पर शायद मामला इतना सीधा नहीं है। हमारे लेखन, हमारी सोच और हमारे काम काज में तालमेल नहीं है।
समाज में अनेक कुरीतियां हैं। हममें से बहुत हैं जो अपने आप को वचन देते हैं कि विवाह की मण्डी में बिकेंगे नहीं। पर उस वचन को निभाने में जितनी ऊर्जा लगती है, जितना मान अपमान मिलता है, जितना अपने आप में छीजन महसूस होती है; उस सब का आकलन किया जाये तो प्रण बेवकूफी प्रतीत होता है। पग-पग पर समाज आपको चुगद साबित करने में लग जाता है। पता नहीं पत्नी की निगाह में भी कीमत बढ़ती है या नहीं। बाकी लोग सर्व सुविधा सम्पन्न घर में रहते हैं, दहेज में मिली कार में चलते हैं और आप स्कूटर खरीदने की योजना बनाने के लिये अपने रिकरिंग डिपॉजिट की पासबुक बार-बार देखते हैं; तब पत्नी आपके आदर्शवाद पर गौरवांवित होती होगी? मुझे सन्देह है! सब निर्भर करता है कि भगवान ने कैसा परफेक्ट मैच किया है। अगर आपमें आदर्शवाद है तो पत्नी में भी होना चाहिये। आपमें और आपकी पत्नी में अभाव में जीने का बराबर का माद्दा भी होना चाहिये।
यही बात ईमानदारी को लेकर रहती है । पहले पहल अपनी सोच और ईमानदारी बहुत चिर्कुट स्तर की होती है । किसी की चाय पीने पर भी लगता है कि यह तो बेइमानी हो गयी। चाय पीकर उस बन्दे को चाय के पैसे देने का यत्न करते हैं । मूलत: वह विज्ञापन होता है कि हमारी ईमानदारी बिकाऊ नहीं है। पर दिखाई वह उज्जड्ड व्यवहार जैसा देता है । सस्तउआ विज्ञापन कम्पनी द्वारा बनवाये विज्ञापन जैसा। ईमानदारी रूखा-सूखा अव्यवहारिक कॉंसेप्ट नहीं है। आप भग्वद्गीता का वह श्लोक पढ़ें1 – " जो यज्ञ में अपनी आहुति दिये बगैर फल ग्रहण करता है – वह चोर (पढ़ें बेइमान) है।" ईमानदारी का यही टचस्टोन होना चाहिये।
आदर्श आपके व्यक्तित्व को नये आयाम देते हैं। नयी फ्रीडम। नयी ऊचाइयां। वे आपको ककून (cocoon) नहीं बनाते – खुद के बुने जाले में फंसे लाचार लारवा कीड़े जैसा। आदर्श परीक्षा में नकल कर पाये गये गोल्ड मैडल सरीखा नहीं है। वह गोल्ड मैडल जिसे आप हर जगह फ्लैश तो करते फिरें; पर उसकी असलियत से अपराधबोध ग्रस्त भी रहें।
यह समाज आदर्शवादियों को खोज रहा है। ग्रेटनेस की तलाश में छटपटा रहा है। चालक और धूर्त लोग यह छटपटाहट जानते हैं। इसलिये उन्होने आदर्श का भी बड़ा बाजार बना लिया है। ढ़ेरों गॉडमेन छितराये हुये हैं। ढ़ेरों मानवतावादी, ढ़ेरों गरीबों के मसीहे, ढ़ेरों पंचमढ़ी में काटेज में रहते बिसलरी की बोतलों से लैस नर्मदा के परकम्मावासी --- सब आदर्श के बाजार को भुना रहे हैं। क्या करेंगे स्वामी विवेकानन्द? अभी भी उनके आदर्श का भारत बहुत दूर की कौड़ी है।
1.भग्वद्गीता (३.१२)।
सत्य है और बहुत कड़वा भी . आप ने सब कुछ लिख ही दिया है.
ReplyDeleteसमाज को बदलने की जो छटपटाहट आप ने प्रदर्शित की है। वह बहुतों में है। लोग अपने अपने तरीकों से काम भी कर रहे हैं. समाज की आवश्यकता उन्हें वक्त पर मिलाएगी भी। तब वे बड़ी ताकत के रुप में उभरेंगे। तब तक प्रतीक्षा तो करनी पड़ेगी अपने अपने तरीके से समाज में इण्टरेक्ट करते हुए। यह छटपटाहट तो अनेक विपरीत धुरियों को मिला देती है।
ReplyDeleteफिर आदर्श खुद नहीं कहता कि वह आदर्श है और कहे तो फिर आदर्श नहीं रहता।
तलवार की धार पे चलने जैसा है ये आदर्श और सत्य का रास्ता !
ReplyDeleteसबसे मुश्किल !
ज्ञान जी ,विचारोत्तेजक किंतु अत्यल्प ,आपकी निबब्धात्मक शैली साम्मोहक लगती है पर सहसा ही ब्रेक लगने से धका सा लगता है .सच है इमानदारी प्रदर्शन की वृत्ति नही है यह एक जीवन दर्शन है मगर अपनाने मे जोखिम भरा ,हरिश्चंद्र का मानक हमारे सामने है .....
ReplyDeleteयह ठीक है कि ईमानदारी और सच कम दिखायी देता है। पर बिल्कुल लुप्त नहीं है। कब व्यवहार के हवा-पानी से गदराया जाए ऐसी आशा के साथ कोशिश अपने-अपने तरीक़े करते रहना चाहिए।
ReplyDelete-premlata
"लोग जैसा सोचते हैं वैसा हो तो न जाने कितना बेहतर हो जाये यह समाज, यह देश।"
ReplyDeleteलोग जैसा सोचते हैं नहीं, होना चाहिए लोग जैसा बोलते हैं. सोच में घटियापन तो होता ही है. सोच ही कर्म को दिशा दिखाती है.
वचन से यह देवता पर कर्म से यह नीच
राष्ट्रकवि ने यही लिखा था. रही बात आदर्शवाद के बाज़ार की, तो बाज़ार तो बहुत बड़ा है ही. लोगों के वचन और कर्म में कितना बड़ा फासला है, यह इस शब्द, आदर्शवाद से ही पता चलता है. आख़िर आदर्श तो केवल आदर्श होना चाहिए, आदर्शवाद नहीं.
बहुत अच्छा लिखा है आपने.. कड़वी ही सही पर यही सच्चाई भी है..
ReplyDeleteवो है ना कि डिमांड क्रियेट्स सप्लाई।
ReplyDeleteकालगर्ल, हशीश, चरस की डिमांड है, तो सप्लाई भी हो जाती है, तमाम जोखिमों के बावजूद। पईसे ज्यादा खर्चने पड़ते हैं बस।
बस यही मामला ग्रेटनेस का है, डिमांड है, तो सप्लाई भी हो रे ली जमकर।
शब्द, शब्द, लफ्फाजी, यही सब तो ठेलना है।
धंधा चकाचक है। सारे टीवी चैनलों पर चल रहा है। फिर मामला दूसरा भी है कि जो एक दौर में ग्रेट होते थे, पांच दस बीस सालों में वो भी सेनसेक्स की तरह धड़ाम हो लेते हैं। मनुष्य का पतन तो स्वाभाविक है, ग्रेटनेस ओढ़नी पड़ती है।
अगर आपमें आदर्शवाद है तो पत्नी में भी होना चाहिये।
ReplyDeletekya jabardast baat kahi hai, Waise imaandaari thori bahut hi sahi abhi bhi hai.
Ab hum aapko kyon batayen ki aaj hum bhi thori imandaari dikha ke aayen hain
अनोनीमस जी से सहमति है.
ReplyDelete" आदर्श आपके व्यक्तित्व को नये आयाम देते हैं। नयी फ्रीडम। नयी ऊचाइयां। "
ReplyDeleteलेकिन बाजार से प्रभावित जिंदगी में इन ऊचाईयों को के लिये बहुत कम जगह बची है।
अब क्या लिखे समझ में नहीं आ रहा, अपने अपने आदर्श निर्धारित कर रखे है, उन पर चलने का प्रयास होता है, परिस्थिती अनुरूप बदलाव भी होता है.
ReplyDeleteबहुत व्यवहारिक और सच्चा .
ReplyDeleteमेरी एक एक चिन्ता तो यह है कि इस व्यवस्था में जहां भी जो आदर्शवादी किस्म के लोग हैं वे इतने 'फ़्रस्टेटेड' क्यों हैं . बहुत से उदाहरण गिना सकता हूं जिनसे मेरा दस-बीस साल का परिचय है और जिनसे लगातार बात-चीत होती है .
दूसरा यह कि उदारीकरण के बाद देश में युवाओं का आदर्शवाद और समाज के प्रति कर्तव्य का बोध समाप्त हुआ है . अब पूंजीवाद के नायक ही हमारे नायक हैं .
आज अगर गांधी होते तो क्या वे हमारे नायक होते . कितने उपेक्षित होते वे .
इसीलिए जिन्होंने एक सपना देखा और उसके लिए लड़े-जूझे,भले ही असफल रहे, ऐसे लोगों की आधी-अधूरी लड़ाई और कच्चे सपने के प्रति भी मोह-सम्मान जागता है मन में .
लेकिन एक ही समय में कई आदर्श और कई सच काम कर रहे होते हैं...इसी लिए इन दोनों का महत्व निजी अधिक दिखता है सामाजिक कम...
ReplyDeleteसमस्या बडी है, चिंता जायज है पर समाधान भी तो सुझाइये।
ReplyDeleteसच्ची कहें तो ऐसे आदर्शवाद से हमें तो डर लगता है। क्योंकि बड़े और महान आदर्शों को पालने का बूता नहीं है। साफ कहना खुश रहना वाली फिलासफी है अपनी। जो कर रहे हैं यदि वो आदर्शवाद के निकट है तो ठीक है और नहीं है तो दिखावा ओढ़ा नहीं जाता।
ReplyDeleteपोस्ट बहुत अच्छी लगी।
आपकी टिप्पणी पढ़ी अच्छा लगा, टेम्पलेट पंसद आया यह भी जान कर अच्छा लगा, आशा है कि आप पुन: आयेगें
ReplyDeleteसत्य वचन.
ReplyDeleteभैय्या
ReplyDeleteआप इतना अच्छा और सच्चा लिखते हैं की पढ़ कर सिर्फ़ स्वीकारोक्ति में गर्दन ही हिलाई जा सकती है उसमें कुछ और लिख कर जोडा या घटाया नहीं जा सकता. आप की पोस्ट पर जैसा मैंने पहले भी कहा था टिपण्णी करना बहुत मुश्किल काम है.
नीरज
बात पते की है और समस्या वाकई गंभीर है.
ReplyDeleteचूँकि 'आदर्श भारत' वाला कथन विवेकानन्द का है तो हम इंतज़ार कर सकते हैं.
आदरणीय ज्ञान जी,
ReplyDeleteयह आदर्शवाद और आदर्श अपनेआप में आयामित शब्द है ! मगर इस शब्द के माध्यम से आपने समाज की जिन समस्याओं की ओर इंगित किया है वह जायज है !वैसे इन दोनों का महत्त्व नितांत निजी ज्यादा है सामाजिक कम !बहुत अच्छा लिखा है आपने..बधाइयां !
ह्म्म्॥….।:) विचाराधीन
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