अभय तिवारी ने एक ताजा पोस्ट पर ठेला है कि उनकी पत्नी तनु उनसे ज्यादा किताबें पढ़ती हैं। यह मुझे भीषण भयोत्पादक लगा। इतना कि एक पोस्ट बन गयी उससे। "डर लगे तो पोस्ट लिख के सिद्धांतानुसार"।
मैं अगर दिन भर की सरकारी झिक-झिक के बाद घर आऊं और शाम की चाय की जगह पत्नीजी वेनेजुयेला या इक्वाडोर के किसी कवि की कविता पुस्तक अपनी समीक्षा की कमेण्ट्री के साथ सरकाने लगें तो मन होगा कि पुन:दफ्तर चल दिया जाये। वहां कण्ट्रोल की नाइट शिफ्ट वाले चाय तो पिला ही देंगे और श्रद्धा हुयी तो नुक्कड़ की दुकान के एक रुपये वाले समोसे भी खिला देंगे!
अब यह भी क्या सीन होगा कि सण्डे को सवेरे आप डाइनिंग टेबल पर इडली का इन्तजार कर रहे हैं पर भरतलाल (मेरा भृत्य) और रीता (मेरी पत्नी) का संवाद चल रहा है - "बेबी दीदी, साम्भरवा में कौन कितबिया पड़े? ऊ अंग्रेजी वाली कि जौन कालि फलाने जी लिआइ रहें अउर अपने साइन कई क दइ ग रहें?" (बेबी दीदी, साम्भर में क्या पड़ेगा? वह अंग्रेजी की किताब या कल फलाने जी की आटोग्राफ कर दी गयी नयी पुस्तक)।
भाई जी/बहन जी; इतना पढ़ें तो भोजन बनाने को समय कब मिलेगा? मेरी पत्नी रोज कहेंगी - तुम्हारा बीएमआई वैसे भी बहुत बढ़ गया है। दफ्तर में बहुत चरते हो। ऐसा करो कि आज खाने की बजाय हम पाब्लो नेरूदा के कैप्स्यूल खा लेते हैं। सलाद के लिये साथ में आज नयी आयी चार मैगजीन्स हैं। लो-केलोरी और हाई फाइबर डाइट ठीक रहेगा तुम्हारे लिए।
ज्यादा पढ़ने पर जिन्दगी चौपट होना जरूर है - शर्तिया! जो जिन्दगी ठग्गू के लड्डू या कामधेनु मिष्ठान्न भण्डार की बरफी पर चिन्तन में मजे में जा सकती है, वह मोटी मोटी किताबों की चाट चाटने में बरबाद हो - यह कौन सा दर्शन है? कौन सी जीवन प्रणाली?
किताब किताब और किताब। अभय तिवारी के ब्लॉग पर या तो ओवर हेड ट्रान्समिशन वाले लेखकों के भारी भरकम नाम आते हैं। इन सब के नामों से परिचय की हसरत ले कर जियेंगे और जायेंगे हम दुनियां से। ऑब्स्क्योर (मेरे लिये तो हिट फिल्म भी ऑब्स्क्योर है) सी फिल्मों का वर्णन इस अन्दाज में होता है वहां कि उन्हें नहीं देखा-जाना तो अब तक की जिंदगी तो बरबाद हो चुकी (और लोग हैं कि बचपन में पूप्सी की दूध की बोतल मुंह से लगाये भी देखते रहे हैं इनको!)। पहले भयानक भयानक लेखों की श्रृंखला चली थी ऋग-यजुर-साम-अथर्व पर। वह सब भी हमारे लिये आउट ऑफ कोर्स थी।
भइया, मनई कभौं त जमीनिया पर चले! कि नाहीं? (भैया, आदमी कभी तो जमीन पर चलेगा, या नहीं!)। या इन हाई फाई किताबों और सिद्धांतों के सलीबों पर ही टें बोलेगा?
मुझे तो लगता है कि बड़े बड़े लेखकों या भारी भरकम हस्ताक्षरों की बजाय भरतलाल दुनिया का सबसे बढ़िया अनुभव वाला और सबसे सशक्त भाषा वाला जीव है। आपके पास फलानी-ढ़िमाकी-तिमाकी किताब, रूसी/जापानी/स्वाहिली भाषा की कलात्मक फिल्म का अवलोकन और ट्रेलर हो; पर अपने पास तो भरत लाल है!
वैसे देशज लण्ठई में भी जबरदस्त प्रतिभा की दरकार होती है। इसे शुद्ध बनारसी गुरुओं और गुण्डों से कंफर्म किया जा सकता है।
और एक सीरियस स्वीकारोक्ति: एक शुष्क सरकारी मुलाजिम होने के बावजूद लगभग साल भर से हिन्दी ब्लॉगरी में टिका हूं तो अभय तिवारी जैसों की बदौलत। मुझे यह अहसास है कि अभय थ्रू एण्ड थ्रू सज्जन और भद्र व्यक्ति हैं। थोड़ा इण्टेलेक्चुअल चाशनी में रचा-पगा पर संस्कारी सज्जन। बस; अभय की ’कलम की मजदूरी’ छाप बुद्धिजीवी फसाड पर खुन्दक है। उसकी बजाय अगर वे अगले दस साल में करोड़पति बनने की अलानिया इच्छा शक्ति जाहिर करें तो अधिक प्रिय लगें।
अच्छी किताबें ज्यादा पैसे से आती हैं कि नहीं?
और हां, अभय की पत्नी जी से क्षमा याचना सहित। अभय पर "स्माइलीय" पोस्ट कसते समय उनसे कोई रार ठानने का मन नहीं है। बल्कि अगली किसी पोस्ट में अभय अगर यह बतायें कि उनकी पत्नीजी को बहुत बढ़िया खिचड़ी (मेरा सर्वाधिक प्रिय भोजन) बनानी आती है तो मुझे प्रसन्नता होगी!
आप की इस लठैतिया पोस्ट ने आनंद की खिचड़ी परोस दी। वैसै सर्दी गजब की है। इस समय किताब के बजाय गरम गरम पूए-बड़ों की ज्यादा जरूरत है। आज शोभा जी चौथ का व्रत रखे हैं रात को नौ बजे खुलेगा। तब तक पूए-बड़ों की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।
ReplyDeleteअरे दद्दा ऐसी नौबत आये तो टिप्पणी खाकर पेट भर लीजियेगा, लीजिये नाश्ते के लिये हम ये टिप्पणी छोडे जाते हैं ;), बकिया लोग लंच लेकर आते होंगे
ReplyDeleteपाण्डेय जी, पत्नियाँ और बहुत सारी पत्नियाँ, चाहे वे नौकरी करें या ना करें , पुस्तकें पढ़ती हैं व बहुत पढ़ती हैं । मुझे आपकी पोस्ट पढ़कर दुख हुआ । अभी पिछली पोस्ट में ही आप बता रहे थे कि आप औफिस में भी ब्लॉग पढ़ लेते हैं तो यह औफिस से घर थककर आने की बात कुछ जमती नहीं । खैर, आपका जीवन है व आपकी पत्नी हैं परन्तु यदि मैं आपकी जगह होती तो पत्नी की पढ़ने की आदत की बहुत कद्र करती ।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
Gyaan ji,hameshaa ki tarah lekh bahut munbhaayaa,magarrrrrrrrrrrrrr......"PATIDEV KE AATEY HI PATNISHREE YADI CHAI KI TREY LE KAR UPASTHIT NA HON TO....."kya aap bhi aisa sochtey hain ?
ReplyDelete@ घुघुती बासूती जी - मैं इस पोस्ट को नारी के विरुद्ध पुरुषवादी रंग देने का विरोध करता हूं। यही नहीं, मै स्वयम को भी नारी विरोधी या उनके पढ़ने-लिखने पर कभी व्यंग नहीं करता। और आप देख भी लें - मैने कहीं भी प्रतिभा को पुरुष की बपौती नहीं कहा है। इस पोस्ट में भी अभय के लेखन पर स्माइली लगाई है। और आप मेरा फुट नोट भी पढ़ लें। मैने तनुजी के विषय में पहले ही लिख दिया है। आप मुझे गलत पेण्ट न करे - कृपया।
ReplyDeleteऔर फिर भी अगर लेखन पुरुषवादी लगता है तो मैं समस्त नारियों से क्षमा मांगता हूं - सम्भव है कि गुण सूत्रों में पुरुष होने का अहं हो। उसे बीन बीन कर बाहर करना जरूरी है - बतौर सतत चेतन रहते हुये।
अभय भाई साहब व बाभी जी किताब पढ़ते हैं और हम सब उनके बारे में जान जाते हैं...रही , सही और भी कई लोग जानकारी दे देते हैं --
ReplyDeleteपहले बहुत पढीं , किताबें ..अब , ब्लॉग पढ़ते हैं और सोचते हैं, जिन्दगी कई रंगों से मिला हुआ इन्द्रधनुष ही तो है ...
Some what like Our "Hindi Blog Fraternity " ..&
I wish each & every BLOGGER ..more Power ...Peace !
time out -
L
हम तो दिनकर जी, परसाई जी, शरद जोशी जी वगैरह से काम चला लेते हैं जी. पाब्लो नेरुदा की तो नहीं मालूम लेकिन हाँ, बीच-बीच में अपने कलकत्ते के रुनु दा की कविताओं से भी काम चल जाता है. फिल्मों की जहाँ तक बात है तो फिर अपना काम हिन्दी फिल्मों से चल जाता है.
ReplyDeleteजहाँ तक अभय भाई की बात है तो उनका लेखन और लेखन का दायरा, दोनों बहुत बड़े हैं. लेखन में इतनी विविधता बहुत कम लोगों के पास है. जितने लेख अपनी समझ में आते हैं, मैं तो जरूर पढ़ता हूँ. हाँ कई बार ऐसे कवियों का, फिल्मकारों का और फिल्मों की चर्चा करते हैं, जिनके बारे में मुझे नहीं मालूम. उस समय मैं निकल लेता हूँ.
आप ऑफिस में ब्लॉग पढ़ते हैं. भला कोई ब्लॉग पढ़कर भी थकता है. और ऑफिस से आते ही आप चाय मांगते हैं? ये तो अच्छी बात नहीं है. आप ऑफिस से ही चाय पीकर घर पहुंचा करें. ऐसे में भाभी पाब्लो नेरुदा की कवितायें पढ़ रही हों, या फिदेल कास्त्रो की जीवनी, आपको कोई फरक नहीं पड़ेगा.
वाह जी वाह. सही फरमा रहे हैं पाण्डेजी. कबीर भी तो यही कहते रहे हैं- मैं कहता आंखन देखी, तू कहता कागद की लेखी. निस्संदेह भरतलाल ने इंटैलैक्चुअल्स की बजाय जिंदगी ज्यादा करीब से देखी है.
ReplyDeleteअब तो भरतलाल से मिलने का मन करने लगा है.
क्या स्त्री पत्नी बनकर वह सब भूल जाये जो इंसान के लिये जूरी होता है ? क्या पढने का अधिकार भी केवल पुरुषो कोही मिलना चाहीये .ये लेख आप कि नहीं पुरुष मानसिकता के खोखले पन को दर्शाता है . आप ऑफिस मे इंटरनेट से अपने पर्सनल interest को यानी ब्लोग्गिंग को पूरा करते है , जो नैतिकता के दायरे मे नहीं आता है , और यहाँ आप अपनी सहधर्मिणी के उपर ही व्यंग्यात्मक लेखन कर रहें है । शायद मैडम नेट नहीं देखती होगी क्योंकी उन्होने अपने को आप कि देखरेख मे समर्पित कर दीया है , पर आप ने उनके इस भाव को यहाँ एक मजाक के रूप मे डाल कर नारी जाती का नहीं स्वयम अपनी पत्नी के क्या स्त्री पत्नी बनकर वह सब भूल जाये जो इंसान के लिये जूरी होता है ? क्या पढने का अधिकार भी केवल पुरुषो कोही मिलना चाहीये .ये लेख आप कि नहीं पुरुष मानसिकता के खोखले पन को दर्शाता है . आप ऑफिस मे इंटरनेट से अपने पर्सनल interest को यानी ब्लोग्गिंग को पूरा करते है , जो नैतिकता के दायरे मे नहीं आता है , और यहाँ आप अपनी सहधर्मिणी के उपर ही व्यंग्यात्मक लेखन कर रहें है । शायद मैडम नेट नहीं देखती होगी क्योंकी उन्होने अपने को आप कि देखरेख मे समर्पित कर दीया है , पर आप ने उनके इस भाव को यहाँ एक मजाक के रूप मे डाल कर नारी जाती का नहीं स्वयम अपनी पत्नी के नारी होने का मजाक उडाया है ।
ReplyDeleteअभय जी कि पत्नी क्या भोजन बनाती है और आप की पसंद का भोजन बना सकती है या नहीं आप का केवल उनमे इतना ही interest है क्या ?? अपनी पत्नी को किताबो से आप दूर रखे पर दूसरो की पत्नी के पढने पर भी व्यंग करना ?? आप के ब्लोग पर देख कर अच्छा नहीं लगा सो लिख दिया
ज्ञान जी दरअसल बात यह है कि लोग आपकी हर बात को सीरियसली ले लेते हैं.यह एक बड़ी उपलब्धि है....वरना हमारी तो कोई बात सीरियसली ली ही नहीं जाती :-) उस दिन हमने अपनी पत्नी को कहा की चलो अपने संकल्प के लिये आज खाना बनाने में मदद कर दें तो बोली "तुम से कुछ नहीं होगा..बस बैठ जाओ अपना लप्पू-टप्पू ले के"...
ReplyDeleteयही पोस्ट यदि हमने या शिव कुमार जी ने लिखी होती तो कोई बबाल ना होता... :-) आइन्दा इस तरह की पोस्ट आप हमें या शिवकुमार जी को भेज दिया करें... :-)
सरजी किताबों और पढ़ने लिखने का एक किस्सा यूं भी सुनिये
ReplyDeleteमैने कामर्स की क्लास में कई बच्चों को कई दिनों तक हड़काया कि सिर्फ बैलेंस शीट, लाभ हानि, प्राफिट, रिलायंस, बांबे डाइंग समझना ही पढ़ाई नहीं है। पढ़ो, भौत सारी किताबें पढ़ो। गालिब को पढ़ो, पाब्लो नेरुदा को पढ़ो, सोयिंका सोर्का को पढ़ो, जैरियां दां जौंवस्की को पढ़ो, करियां दा फुलांदा को पढ़ो, बशीर ब्रद्र को पढ़ो।
अगले दिन एक बच्चा बोला सरजी आज पढ़कर आया हूं, जो आपने कहा था, वह पढ़कर आया हूं.
मैने कहा- सुना।
बच्चे ने सुनाया-
कागज में दबकर मर गये कीड़े किताब के
दीवाना बे पढ़े लिखे मशहूर हो गया
बालक बशीर बद्र का शेर पढ़ कर आया था।
अब बताओ कि क्या कहा जाये किताब पढने के बारे में.
मैं एलानिया डिक्लेयर करता हूं कि मैं पांच करोड रुपये एक भौत धांसू पर्सनल लाइब्रेरी बनाने के लिए कमाऊंगा, जिस किताब को खऱीदना हो उसका भाव नहीं पूछने का।
ऐसी सिचुएशन के लिए पांच दस करोड़ कमा लिये जायें, तो बुरा नहीं है।
अंबानी की रिलायंस से कमाकर मीर के दीवान में इनवेस्ट करो, भौत भड़िया रिटर्न मिलते हैं जी।
@ पारुल जी, रचना जी - आपने मेरी पत्नी से अपेक्षाओं के बारे में पूछा/चर्चा की। धन्यवाद।
ReplyDeleteमैं काफी सोच कर यह लिख रहा हूं। कहीं पुरुषवादी से परिवारवादी के सलीब पर न चढ़ा दिया जाऊं। रीता न होतीं तो मेरा लड़का जीवित न होता और जीवन के थपेड़ों से मैं स्वयम या तो ल्यूनाटिक एसाइलम में होता या एसेक्टिक होता। परिवार दो चक्कों की गाड़ी पर चल रहा है और रीता वाला चक्का मुझसे कहीं ज्यादा मजबूत है।
मेरी पत्नी पुस्तकों से दूर नहीं हैं और मैं लगभग सभी पोस्टों उनके पठन के बाद ही पब्लिश करता हूं। वे मेरी पोस्ट के सभी कमेण्ट और कई अन्य ब्लॉग पढती भी हैं। उन्हे मैं ब्लॉग लेखन के लिये बार बार कहता रहा हूं; पर उन्हें कम्यूटर प्रयोग से रुचि नहीं हैं। धीरे धीरे हो रही है। अब लगता है कि यदा कदा उनकी पोस्ट अपने ब्लॉग पर प्रस्तुत कर दिया करूं।
मेरी नैतिकता के विषय में मेरी अपनी ठोस धारणायें हैं और उसे ले कर मुझे कष्ट नहीं है।
ज्ञान जी, लगता है आपको भी रह-रहकर लोगो को चिकोटा काटने की आदत है। टिप्पणियों से लगता है कि मजे-मजे को लोगों ने सीरियसली ले लिया, खासकर महिलाओं ने।
ReplyDeleteज्ञान चचा(मैं दद्दा नहीं कहूंगा :)).. आपका व्यंगातमक लेख अच्छा लगा.. लोग मुझे पता नहीं क्यों इतना सिरियसली नहीं लेते हैं.. मैं कुछ भी कहता हूं तो सब समझते हैं कि मैं मजाक कर रहा हूं और एक आप हैं कि कुछ मजाक करते हैं तो सब समझते हैं कि सिरियस हैं.. :)
ReplyDeleteएक प्रश्न, क्या चाची मेरा बिलोग भी पढती है? अगर हां तो जल्दी बता दें, मैंने अपने बिलोग के कुछ पोस्टिंग में कुछ अभद्र शब्दों का प्रयोग किया है.. उसे प्रयोग में लाना बंद कर दूंगा.. नहीं तो चाची सोचेंगी की बच्चा बिगड़ा हुआ है..
:D
एक शेर हमे भी याद आ रहा है....
ReplyDeleteधूप में निकलो, घटाओं में नहा कर देखो
जिन्दगी क्या है किताबों को हटा कर देखो।
लेकिन इसके उलट एक और भी है
किताबों से कभी गुजरो तो यूं किरदार मिलते हैं,
गये वक्तों की ड्योढी पर खडे कुछ यार मिलते हैं।
तो साहब....किताबों की तो बात ही निराली है। आप भरतलाल को रिप्रिंट नही कर सकते, किसी के साथ बांटेंगे भी नही...वो सिर्फ आपका है...किताबों के साथ ऐसा नही :)
अब लगता है कि यदा कदा उनकी पोस्ट अपने ब्लॉग पर प्रस्तुत कर दिया करूं।
ReplyDeleteis charcha per unkae vichar kyaa haen ??
ज्ञान जी, तनु दीदी नौकरी करती हैं और उनके पास घरेलू कामों के लिए इतनी फुरसत नहीं होती, लेकिन एक बात बता दूं अभय से ज्यादा किताबें पढ़ने के बावजूद वो ज्यादा सेवा-भाव वाली हैं। खाना हमेशा नहीं बनातीं, लेकिन जब भी बनाती हैं, आप उंगलियां चाट-चाटकर खाएं, ऐसा बनाती हैं। बहुत लविंग और केयरिंग हैं। वैसे अभय भी कम लविंग और केयरिंग नहीं हैं, लेकिन मैं तनु दीदी को अभय से एक वोट ज्यादा दूंगी।
ReplyDeletehttp://vadsamvad.blogspot.com/2007/08/blog-post_10.html
ReplyDeleteअब हमारे कहने के लिए तो कुछ बचा ही नही है । बस इतना ही कहेंगे कि अब रीता भाभी का ब्लॉग जल्दी ही शुरू करवा दीजिए।और पढ़ने -पढ़ाने का दौर भी चलने दीजिए।
ReplyDeleteजो आपको शुरू से पढ रहे है उन्हे इस पोस्ट मे कुछ भी अटपटा नही लगेगा पर जो आपको लोकप्रिय ब्लागर के रूप मे जानकर फिर पढ रहे है तो उनकी अपेक्षाए बहुत बढ गयी है। अभी सम्मान के बाद यह सम्भव है कि आपको अपना मूल लेखन खोना पडे और नैतिक बाते करनी पडे। नही तो आप नही पर सम्मान देने वालो की खटिया खडी होगी। वैसे आप अपनी पिछली सम्बन्धित पोस्ट की कडियाँ साथ मे दे तो पाठको को आसानी होगी पर यह भी सच है कि हमारे पाठको को बिना पूरा पढे टिप्पणी के माध्यम से बवाल खडे करने का अधिक शौक है। :)
ReplyDeleteमैं लौटकर घर आऊँ तो बीबी चाय लेकर इन्तज़ार करती मिले. कौन नहीं चाहता। पर संसार की सारी नारियों को छोड़कर तनु से प्रेम भी इसीलिए किया था क्योंकि वह बाक़ियों से अलग थी.. वो खाने-पीने की दुनिया से अलग एक मेधा सम्पन्न स्वतंत्र व्यक्तित्व थी और आज भी है। पर मनुष्य के भीतर बैठे सामाजिक संस्कार यूँ ही नहीं चले जाते.. उनके खिलाफ़ सतत संघर्ष करना पड़ता है.. मैंने भी अलग-अलग मौकों पर एक पुरुष पूर्वाग्रह से ग्रस्त रवैया अख्तियार किया पर तनु ने मुझे सँभाले रखा।
ReplyDeleteकिताबें हम दोनों पढ़ते हैं.. पैसे हम दोनों कमाते हैं.. घर का काम भी हम दोनों करते हैं.. वैसे आज कल पैसे वो ज़्यादा कमाती है और घर का काम मैं ज़्यादा करता हूँ। तकिये के गिलाफ़ भी खरीदने लगा हूँ।
मनीषा ने बताया ही और मैं पुष्टि करता हूँ कि खाना वो बहुत अच्छा बनाती है.. आप के लिए खिचड़ी ज़रूर बनाएगी वह.. और वैसे आप मेरे हाथ की आजमायें.. बुरी नहीं बनाता मैं भी।
और भरत लाल के जीवन अनुभव के आगे मैं हथियार डालता हूँ.. किताब तो साक्षात जीवन अनुभव का स्थानापन्न भर है।
और आप का स्नेह मुझ पर है मैं पहले से ही जानता हूँ।
तनु ने भी आप की पोस्ट पढ़ी और मुस्कराई।
बॉस,टेंशन में डाल दिया आपने तो, अपनेराम तो अपने जैसे किसी किताब की शौकीन कन्या लाने की सोच रहे थे पर आपने तो जैसे फ्यूचर दिखा के टेंशन दे दिया ;)
ReplyDeleteचुटकी लेने मे फ़ुल्ली एक्स्पर्ट हो आप ये तो मानना ही पड़ेगा!
अभय जी की पोस्ट आवश्य पठनीय होती हैं भले ही कई बार इन किताबों और फिल्मों के भारी भरकम नामोल्लेख के कारण ऊपर से निकल जाती है।
भरतलाल की क्या कहें जी उनके तो किस्से पढ़ पढ़ के साक्षात दर्शन का मन होने लगता है। क्यों न हफ्ते में एक दिन भरतलाल के किस्सों के लिए आरक्षित कर दें आपके ब्लॉग पर और लेबल दें "किस्सा ए भरतलाल"
एक नज्म है जिसे जगजीतसिंह ने बहुत उम्दा गया भी है की " बात निकलेगी तो फ़िर दूर तलक जायेगी..." शायर ने शायद आप की पोस्ट पर आयी टिप्पणियां नहीं पढी होंगी वरना उसे मालूम पड़ता की बात दूर तलक नहीं बहुत बहुत दूर तलक चली जाती है....
ReplyDeleteएक सीधी साधी पोस्ट पर नारियाँ गुस्से से लाल पीली और पुरूष हरे भरे हो रहे हैं...ऐसा क्या लिख दिया आपने..?चलिए छोडिये ये सब चलता ही है....आप की बात सही है...जो ज्ञान हमें अपने अनुभवों से मिलता है वो किताब से नहीं...किताब लिखती है की गुड मीठा होता है लेकिन कितना ये तो खा कर ही महसूस किया जा सकता है...भरत लाल जी इस मायने में किताबों से बेहतर हैं....
नीरज
ज्ञान जी, ज्यादा कुछ नहीं। बस अब रीता जी के लिखे लेख भी पढवा दीजिये।
ReplyDeleteकिसी पोस्ट की सामग्री को अगर संगीत के रूपक में बांधें तो चिट्ठाकार और टिप्पणीकार का संबंध मुख्य गायक और संगतकार का ठहरता है . लय-ताल को सही सम पर पकड़ना होता है .
ReplyDeleteसहज देशज उठान वाली इस निर्दोष-चुटीली पोस्ट का सम अभय और तनु ने पूरे शिष्ट-आनन्द के साथ बहुत समझदारी से पकड़ा जो अभय की प्रतिक्रिया से स्पष्ट है . अतः चिट्ठाकार और संबोधित मुख्य टिप्पणीकार के सकारात्मक सम्बंध मन में एक सहज आत्मीयता जगाते हैं .
अगर आदमी हर समय 'पुलिटिकली करैक्ट' और 'सैनिटाइज़्ड' किस्म की बातें करने लगे और जीवन से चुहलबाजी और नोक-झोंक चली जाए तो जीवन कितना नीरस,बनावटी और लद्दड़ हो जाएगा,यह सोचकर ही घबराहट होने लगती है .
हां! नारीवादी स्त्री-पुरुष ज्ञान जी को एक उलहना दे सकते हैं कि उनकी पोस्ट में 'ऑरिजिनल' उनका कितना होता है ? विश्वस्त सूत्रों से ज्ञात हुआ है कि भाषा पूरी तरह रीता जी से उधार ली हुई है और विषयवस्तु का आधारभूत स्रोत कॉमरेड भरतलाल हैं . इसलिए ज्ञान जी से यह मांग की जाए कि ब्लॉग-शिरोमणि होने की स्थिति में जो भी पत्र-पुष्प मिले उसका एक हिस्सा पृष्ठभूमि में सहलेखन कर रहे इन सहयोगियों से भी साझा किया जाए . वैसे तो मिलना ही क्या है,सिवाय शुभाकांक्षाओं के .
"मैं अगर दिन भर की सरकारी झिक-झिक के बाद घर आऊं और शाम की चाय की जगह पत्नीजी वेनेजुयेला या इक्वाडोर के किसी कवि की कविता पुस्तक अपनी समीक्षा की कमेण्ट्री के साथ सरकाने लगें तो मन होगा कि पुन:दफ्तर चल दिया जाये।"
ReplyDeleteआप तो बच गये ज्ञान जी. हमारे घर में तो यही होता है, बस ऊपर के वाक्य में किताबों के नाम अलग हैं. मैं तो हो गया रिटायर, तो अब घर के अलावा और कहीं जा नहीं सकता. समोसा यहां नुक्कड पर मिलता नहीं है.
आज तक डरे नहीं, अब डर लगने लगा है कि हमारी स्थिति तो बहुत विकट है!!
भरत लाल ने ब्ड़ी व्यवहारिकता पूर्ण बात करी....
ReplyDeleteयही बात हमारी श्रीमतीजी अक्सर कहती है।
पोस्ट और टिप्पणियाँ पढ़ कर हंसी आ रही है।
वैसे इस पोस्ट को पढ़ने के बाद लग रहा है कि बहुत जल्दी दो नये ब्लॉगर हमें मिलने वाले हैं, तनु भाभी जी और रीताभाभीजी।
ReplyDeleteहमें इन्तजार है दोनों के इस पोस्ट के बारे में क्या विचार है।
ब्लॉगस्पॉट टिप्पणियां नहीं ले रहा है। अत मेल से निम्न टिप्पणी अनीता कुमार जी की मिली है:
ReplyDeleteज्ञान जी
बहुत कौशिश की कि आप की आज की पोस्ट को चुहलबाजी समझ मजाक में उड़ा दूं, पर शायद अपने नारी होने से मजबूर हूं। जैसा सबके कमेंट देख कर पता चल रहा है नारियों की प्रतिक्रिया एक जैसी है और पुरुषों को लग रहा है कि हम ओवर रिएक्ट कर रहे हैं। हम नारियों से ही सहमत हैं और आहत महसूस कर रहे हैं। खैर, हम सभी कहीं न कहीं prejudiced तो हैं ही।
अभय जी को पूरे 100 मार्क्स, इसे इतनी सहजता से लेने के लिए।
रीटा जी के पोस्ट का हमें भी इंतजार रहेगा। ज्यादा इंटेलेक्चुअल मैटर हम भी नहीं झेल पाते
बाकी सब तो ठीक है लेकिन हिन्दी ब्लागजगत के सेंस आफ़ ह्य़ूमर को कुछ हो सा गया है और कामन सेंस का प्रयोग भी कम होता सा जा रहा है । ज्ञानदत्त पाण्डेय (जानबूझकर जी नहीं लगाया) को जो भी पढते रहते हैं उन्हें तो कम से कम उनकी नीयत पर शक नहीं होना चाहिये ।
ReplyDeleteपालिटिकल करेक्ट्नेस अच्छी चीज है लेकिन इसकी अति भी अच्छी नहीं होती । एक उदाहरण देता हूँ :
कई प्रोफ़ेसर (महिला और पुरूष) खडे बात कर रहे हैं और कोई कहता है कि सऊदी में महिलायें कार नहीं चला सकती, इतने में एक प्रोफ़ेसर जो अपने सेंस आफ़ ह्यूमर के लिये प्रसिद्ध हैं कहते हैं "It is a blessing in disguise."
He was referring to careless instances of driving of big cars in US by women (one hand on steering wheel, lip-stick in another hand and cup of coffee in waiting and a cellphone places between ear and shoulder with tilted head).
सभी लोग समझ गये कि इशारा क्या था और खुलकर हंसे (महिलायें भी) । क्या केवल इस तरीके की कोई बात कहने से आदमी Prejudiced जाता है? वहाँ पर मौजूद सभी लोग महिला सशक्तीकरण के घोर समर्थक थे और कोई भी महिलाओं को कम नहीं आंकता ।
महिलायें भी पुरूषों के नाम पर चुहल लेती हैं, आवश्यकता है नीयत को समझने की और विश्वास करने की ।
जितना मज़ा आपका व्यंग्य लेख पढ़ कर आया. उससे ज़्यादा मज़ा रंग-बिरंगी टिप्पणियों ने दिया. सबका शुक्रिया!
ReplyDeleteNeeraj ji idhar jaadhe ke kaaran sense of humor thodaa sikud gayaa hai...
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