हिन्दी ब्लॉगरी और काफी सीमा तक भारतीय समाज में संकुचित सोच के दो ध्रुव नजर आते हैं। एक ध्रुव यह मानता है कि सेन्सेक्स उछाल पर है। भारत का कॉर्पोरेट विकास हो रहा है। भारत विश्व शक्ति बन रहा है। देश को कोई प्रगति से रोक नहीं सकता। दूसरा ध्रुव जो ज्यादा सिनिकल है, मानता है कि कुछ भी ठीक नहीं है। किसान आत्महत्या पर विवश हैं। सेन्सेक्स से केवल कुछ अमीर और अमीर हो रहे हैं। बड़े कॉरपोरेट हाउस किराना बाजार भी सरपोटे जा रहे हैं। आम आदमी और गरीब हो रहा है। समाज में खाई बढ़ रही है। "सर्जिंग इण्डिया" और "स्टिंकिंग भारत" दो अलग अलग देश नजर आते हैं।
यह फ्रेगमेण्टेड सोच मीडिया का स्किट्जो़फ्रेनिया है जो विभिन्न प्रकार से फैलाया जाता है। मीडिया फ्रेगमेण्टेशन फैला पाने में सफल इसलिये हो पाता है, क्योंकि हमें स्वतन्त्र वैचारिकता की शिक्षा नहीं मिलती। हमारी शिक्षा पद्धति लिखे पर विश्वास करने को बौद्धिकता मानती है। आदमी स्वतन्त्र तरीके से अपने विचार नहीं बनाते।
ये दोनो ध्रुव जो मैने ऊपर लिखे हैं - सचाई उनके एक के करीब नहीं है। सचाई कहीं बीच में है। पर अगर हम एक ध्रुव को पकड़ कर बैठ जायें तो निश्चय ही स्क्टिजो़फ्रेनिक होंगे। राजनेता चुनाव जीतने के लिये जाग्रत भारत या चौपट भारत के ध्रुव सामने रखते हैं - वोट की खातिर। पर मुझे लगता है कि बड़े नेताओं को (अर्थात राष्ट्रीय स्तर के नेताओं को) यह स्पष्ट है कि सचाई कहीं मिड वे है। वे जो बोलते हों; पर आर्थिक नीतियां ऐसी चल रही हैं जो लगभग दोनो ध्रुवों के बीच में कहीं सोची-समझी नीति का परिचय देती हैं। समस्या राज्यों और चिर्कुट स्तर पर आती है। उसकी काट एक शिक्षित समाज ही है। पर अगर हिन्दी ब्लॉग जगत शिक्षित और जाग्रत समाज का नमूना है - तो मुझे निराशा होती है। बहुत से लोग बहुत सा सिनिसिज्म ले कर आते हैं और अपनी पोस्टों में उंडेलते हैं। नये साल के संदर्भ में कुछ पॉजिटिव पोस्टें, कुछ सकारात्मक रिजोल्यूशन, कुछ अच्छाई नजर आयी। अन्यथा वही सिनिसिज्म दीखता रहा।
शिक्षित समाज से तीन चुनौतियों का मुकाबला करने की अपेक्षा की जाती है। भारत में विविधता और भिन्नता (जातिगत-धर्मगत भिन्नता सन्निहित) से उत्पन्न घर्षण और दिनो दिन बढ़ रहे वैमनस्य से छुटकारा पाने के लिये एकात्मता की स्थापना एक जागरूक और शिक्षित वर्ग से ही सम्भव है। दूसरे, यह मान कर चला जा सकता है कि आने वाले समय में पर्यावरण विषमतर होता जायेगा। जगत का तापक्रम बढ़ेगा। नदियां साल भर बहने की बजाय मौसमी होने लगेंगी। और उत्तरोत्तर फसलें खराब होने लगेंगी। इससे कई प्रकार के तनाव होंगे। तीसरे - विकास के साथ-साथ स्वार्थ, संकुचन और सांस्कृतिक क्षरण की समस्या उतरोत्तर बढ़ेगी।
यह चुनौतियां फेस करने के लिये शिक्षित लोग व्यक्तिगत रूप से या समग्रता से कहां तैयार हो रहे हैं? और अगर स्किट्जो़फ्रेनिया, सिनिसिज्म या पढ़े लिखों की जूतमपैजार को तैयारी मानने की बात समझा जाये तो भगवान ही मालिक है इस देश का।
यह पोस्ट मैं शिवकुमार मिश्र के कल के हमारे ज्वाइण्ट ब्लॉग पर लिखे व्यंग "रीढ़हीन समाज, निकम्मी सरकार और उससे भी निकम्मी पुलीस डिजर्व करता है" के सीक्वेल के रूप में लिख रहा हूं। वह लेख पढ़ कर बहुत दिनों से चल रहे विचारों को व्यक्त करने का मुझे निमित्त मिल गया। हमारा मीडिया-प्रोपेल्ड बुद्धिजीवी समाज शोर अधिक करता है, पर दूरगामी पॉजिटिविज्म देखने में नहीं आता।
कायदे से मुझे यह पोस्ट उस ब्लॉग पर छापनी चाहिये थी; पर मैं उत्तरोत्तर महसूस करता हूं कि उस ब्लॉग पर शिव के विचार आने चाहियें और मेरी हलचल इस ब्लॉग पर। मैं शिव से अनुरोध भी करता रहा हूं कि वे उस ब्लॉग के अकेले कर्ता-धर्ता बन जायें। वैसे भी उनके सटायर के स्तर के टक्कर का लिख पाना मेरे बस की बात नहीं। और अब वे स्वयम रेग्युलर लिख भी रहे हैं। पर छोटे भाई के सामने बड़े की कहां चलती है!
ज्ञान जी, सही मुद्दा उठाया है आपने। मीडिया खासकर हिंदी पत्रकार तो अमीर होने को ही गाली मानते है। अमीरजादा उनके लिए गाली से कम नहीं है। सच दो धुव्रों के बीच कहां है, इसकी पहचान होनी चाहिए। इधर तो बिहार तक में खेती पूरे देश से ज्यादा करीब 4 फीसदी की दर से बढ़ने लगी है। सच सामने लाने के लिए और भी लेख लिखे जाने चाहिए।
ReplyDeleteसिनिसिज्म भी बाकायदा कारोबार है जी।
ReplyDeleteविकट कारोबार। दिल्ली में येसे विकट क्रांतिकारी पड़े हुए हैं, जो विदर्भ के किसानों पर रोने के लिए ब्राजील जाते हैं। जो जेंडर इक्विटी पर शोध तब ही करते हैं,जब प्रोजेक्ट यूरो वाला हो। मरघट के बाहर जो माल बेचता है, कारोबार तो उसका भी चलता है जी। भारतवर्ष इस समय पोजीशन में है, यहां हर आइटम का स्कोप है। नरीमन पाइंट है, विदर्भ है, जिसको जहां मन करे, दुकान जमा ले।
सब दुकानें चल रही हैं। सिर्फ बहुराष्ट्रीय कंपनियां ही नहीं आ रही हैं यहां, बहुराष्ट्रीय एनजीओ भी आ रहे हैं। वो फिलिम आयी थी ना एक रुदाली, लिंक इसका संजीतजी से मांगिये, उसमें प्रोफेशनल रोने वाली का कारोबार बताया गया था।
इधर कई हैं जो इंटरनेशनल रुदाली हो लिये हैं। भौत पैसे हैं जी इसमें।
बहुत सही लिखा है, पर एक बात समझ में नहीं आता है कि अमीर होना किसी भी पंथी (चाहे वामपंथी, या हिंदूपंथी, या पत्रकार जगत, या कोई भी) के लिये गाली के समान क्यों है? और अगर ऐसा ही है तो वे लोग अपने सारे पैसों को दान क्यों नहीं कर देते?
ReplyDeleteऔर हां, आपसे एक व्यक्तिगत बात कहनी है.. :) लगता है आज-कल आप मेरे चिट्ठे पर टहल नहीं कर रहें हैं, कभी भी नहीं दिखते हैं.. ऐसी बेरूखी क्यों? :(
ReplyDeleteऔर भी कई ध्रुव है। इतना बडा देश जो है। मुण्डे मुण्डे मत: भिन्ना। सब अलग अलग परिवेश से आये है इसीलिये सबको अपना परिवेश अच्छा लगता है। मुझे लगता है कि आपसी सम्वाद की कमी है। हम अपने परिवेश की बडाई अधिक करते है पर दूसरे को दर्द को जानने तैयार नही है।
ReplyDeleteअपने को तो एक ही बात समझ में नहीं आती, वमपंथ पर जान झिड़कने वाले नीजि चैनलो में मोटी पगार पर कैसे रहते है?
ReplyDeleteपर छोटे भाई के सामने बड़े की कहां चलती है!
ReplyDeleteसच कहा आपने लेकिन बड़ा भाई ये तो देख ही सकता है छोटा कहीं भटक तो नहीं रहा...और अगर नहीं भटक रहा तो उसकी ही चलनी चाहिए...
बहुत गंभीर पोस्ट लिखी है आपने हमेशा की तरह ज्ञान वर्धक और सोचने को मजबूर करती हुई....
नीरज
भगवान के अलावा मालिक और कोई हो ही नई सकता जी।इत्ता टेशन वाला काम और कौन करेगा!
ReplyDeleteये पुराणिक जी से तो पूछ-पूछ कर थक गया मै कि एन जी ओ एन जी ओ कैसे खेलते हैं। उपर से उन ने रूदाली का लिंक देने का काम थमा दिया, वैसे अच्छी पिक्चर थी रूदाली!!
सर जी,
ReplyDeleteग़ुस्ताखी माफ़ ।
यह सेवक भी इस तथाकथित सिनिसिज्म से अपने को पीड़ीत समझने लगा है । मेहरबानी कि आपने आगाह कर दिया, वही तो मैं सोच रहा था कि गुरुजी की कोई टिप्पणी अकिंचन के पोस्ट पर क्यों नहीं आयी ? आप मेरे सर्वोपरि पीठ थपथपाहक रहे हैं, अब समझ में आरहा है । वैसे अच्छा और बुरा, गोरा और काला, सुंदर और कुरूप इत्यादि तुलनात्मक अवधारणायें हैं और किसी रूप से एक दूसरे के पूरक भी । सुंदरम को देखना ही चाहिये किंतु सत्य की उपेक्षा कर केवल उसको निहारते रह जाने में ट्रेन ही छूट जाये, व्यवहारिक न होगा । दर्द जाहिर करने पर ही तो दवा तज़वीज हो पायेगी । सोच सकारात्मक अवश्य होनी चाहिये किंतु विसंगत सत्य को नकार कर, कदापि नहीं । हम आगे बढ़ ही नहीं पायेंगे, यदि रास्ते के पत्थरों पर हमारी दृष्टि नहीं जाती । शिक्षा मात्र डिग्रियों तक ही सीमित रखने का अपराध सदियों से होता आया है, किंतु यदि हमने यह शिक्षा अपने इर्द गिर्द के लोगों से साझी करने की उदारता बरती होती तो इतने निर्लिप्त समाज में न जी रहे होते । लोगों को जगाना न पड़ता, जागरूक कौमें किसी एलार्म की मोहताज़ नहीं हुआ करती । यदि सच कहूँ तो हम एक आंशिक सिज़ोफ़्रेनिया में अवधूतों की भाँति ही जिये जारहे हैं, कल की किसको खबर ?
इसमे कोई दो राय नहीं कि ध्रुवीकरण के लिए मीडिया भी जिम्मेदार है. मीडिया को ऐसा क्यों लगता है कि देश की समस्याएं टीवी पर पैनल डिस्कशन करके ख़त्म की जा सकती है?
ReplyDeleteऔर पैनल डिस्कशन में बैठे एंकर को देखकर मुझे मुर्गा लड़ाने वालों की याद आ जाती है. जैसे मुर्गा लड़ाने वाले अपने-अपने मुर्गों को उकसाते हैं, वैसे ही एंकर पैनल डिस्कशन में आए लोगों को उकसाते हैं. आधे घंटे के डिस्कशन के बाद प्रोग्राम खत्म. साथ में समस्या....................समस्या...
"हमारी शिक्षा पद्धति लिखे पर विश्वास करने को बौद्धिकता मानती है। आदमी स्वतन्त्र तरीके से अपने विचार नहीं बनाते।"
ReplyDeleteअपनी परीक्षा-पद्धति भी स्वतंत्र चिंतन को प्रेरित करने के बदले उसे बुझाने की कोशिश करती है. फलस्वरूप स्वतंत्र चितन के बदले ध्रुवीकरण अधिक होता है
तो आज लेक्चर देने के मूड में हैं
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