मैं भारतीय रेलवे की इण्टर रेलवे टाइमटेबल कमेटी की वार्षिक बैठक के सिलसिले में १७-१९ जनवरी को कोलकाता में था। यह वार्षिक बैठक रेलवे के यात्री यातायात के विषय में माघ मेले जैसा होता है। माघ मेले में जैसे संगम पर हिन्दू धर्म की विद्वत परिषद युगों से मिलती और धर्म विषयक निर्णय करती रही है; उसी प्रकार इस बैठक पर भारतीय रेलवे के सभी जोनों के प्रतिनिधि एक स्थान पर एकत्र हो कर यात्री यातायात का समग्र आकलन और नयी गाड़ियां चलाने, डिब्बे कम करने-बढ़ाने, गाड़ियों का रास्ता बदलने अथवा उन्हे आगे तक बढ़ाने आदि विषयों पर गहन चर्चा करते हैं।
यद्यपि रेलगाड़ियां चलाने के विषय में विचार विमर्श तो सतत चलते रहते हैं पर वार्षिक निर्णय के लिये यह बैठक महत्वपूर्ण होती है।
इस बैठक में वातावरण नेगोशियेशन की अनेक विधाओं का प्रगटन कराता है। क्रोध से लेकर हास्य तक के अनेक प्रसंग सामने आते हैं। कभी कभी तो कोई विद्वान अफसर गहन दार्शनिक भाव में भी कुछ भाषण दे जाते हैं।
अगर आप निर्लिप्त भाव से केवल रस लें तो बहुत कुछ देखने सीखने को मिलेगा इस बैठक में। लगभग १००-१२० वरिठ अधिकारी और रेलगाड़ी नियन्त्रक किस प्रोफेशनल एटीट्यूड से अपना पक्ष रखते और दूसरे के तर्कों को कसते हैं - उसे देख कर रेलवे के प्रति आप चलताऊ विचार नहीं रख पायेंगे। रेल परिचालन की अपनी सीमायें हैं पर कुछ स्तरों पर अपने काम के प्रति गम्भीरता और डेडीकेशन काफी सीमा तक इन्स्टीट्यूशनलाइज हो गया है।
इस बैठक के बाद भी कुछ द्विपक्षीय या दुरुह मसलों पर इक्का दुक्का बैठकें होती हैं और अन्तिम निर्णय माननीय रेल मन्त्री की संसद में बजट स्पीच में परिलक्षित होते हैं। पर अधिकांश मामलों में स्थिति काफी सीमा तक (रेलवे के विभागीय स्तर पर) इस बैठक के उपरान्त स्पष्ट हो जाती है। ये निर्णय अगले जुलाई से लागू होने वाले अखिल भारतीय टाइमटेबल को तय करते हैं।
ऐसी एक सालाना बैठक सन १९९७ में उदयपुर में आयोजित हुई थी। मैं उस समय वहां पश्चिम रेलवे के क्षेत्रीय प्रशिक्षण संस्थान का प्रधान था। अत: आयोजन में मेरा बड़ा रोल था। उसके बाद तो मैं किसी न किसी क्षेत्रीय रेलवे के प्रतिनिधि के रूप में मैं तीन ऐसी बैठकों में भाग ले चुका हूं। और इनमें भाग लेना अपने आप में एक विशिष्ट अनुभव होता है। हां; मैं आपको यह नहीं बता सकता कि इस बार वहां चर्चा या निर्णय क्या हुये!
(चित्र कोलकाता में हुई अन्तर रेलवे समय सारिणी बैठक’२००८ के हैं)
प्रोफेशनल एटीट्यूड से अपने तर्कों को रखना और दूसरे के तर्कों को परखना, काम के प्रति गम्भीरता और डेडीकेशन का इन्स्टीट्यूशनलाइज होना प्रदर्शित करता है कि काम के प्रति समर्पण ही एक व्यक्ति को ऊपर उठाता है और उस का व्यावसायिक जीवन स्वः के दायरे से निकल कर समाज के लिए काम करने लगता है।
ReplyDeleteमेरे स्वर्गीय पिताजी ने जैडटीएस भुसावल में ट्रेनिंग ली थी, फिर छोटा भाई भी वहीं ट्रेनिंग के लिए गया. लेकिन अपने राम रह गए. जब चार साल पहले उदयपुर नौकरी करने गया तो रिपोर्टिंग के बहाने क्षेत्रीय प्रशिक्षण संस्थान में जाने का मौका मिला था. सुखाडि़या सर्कल पर.
ReplyDeleteवैसे गेन टाइम घटाने के बारे में कोई बात नहीं होती क्या इस मीटिंग में? आपको नहीं लगता कि इसे युक्तियुक्त करने की बहुत जरूरत है...
आगे से दिसंबर महीने के अंत तक हम आपको बता दिया करेंगे कि हमें कहां कहां जाना होता है और वहां रेलगाड़ियों का कौन सा समय हमें सूट करेगा.
ReplyDelete:)
अनामदास
ग्यान बांटते चलो
ReplyDeleteअब और पता चला है
मीटिंगों में फूल खिलते हैं
वो ही नियम कानून बनते हैं
आपके ब्लाग में छिपा विज्ञापन लगा है जो उचित नही है,छिपा विज्ञापन लगाना और इस तरीके से लगाना दोनो अर्मादित है।
ReplyDeleteकृपया इस प्रकार की ओछी नीति न अपनाऐं। आपके साख को शोभा नही देता है।
अरे रेलवे समय सारिणी पर ऐसी मीटिंगें भी होती हैं क्या । वाह वाह । हमें तो वो दिन याद आ गये अपने बचपन के । जब पिताजी पतले पीले गुलाबी सफेद पन्नों वाली पेचीदा सी रेल्वे टाईम टेबल बुक से अपने एल टी सी का प्लान करते थे और हम सोचते थे कि कित्ता मजा आएगा । आगरा फतेहपुर सीकरी कोटा जयपुर दिलली गैंगटोक सब जगह जाएंगे । उनकी माथापच्ची समझ में नहीं आती थी तब । अरे टिकिट ही तो लेना है इसमें इत्ता देखने की क्या जरूरत है । अब हमने उस पुस्तक से पीछा छुड़ा लिया है । इंटरनेट जो है ।
ReplyDeleteमुझे किताबी सारिणी दुनिया की सबसे पेचीदा चीज लगती है ज्ञान भैया ।
@ शुभ चिंतक - मुझे "छिपा विज्ञापन" समझ मेँ नहीं आया। मैने किसी प्रकार का तकनीकी प्रयोग नहीं किया है - और वैसी दक्षता नहीं है मुझमें। ब्लॉग पर गूगल एड सेंस के विज्ञापन भर हैं। अगर आशय आत्मवंचना से है तो मैं यह मानता हूँ कि व्यक्ति को अपना विज्ञापन नहीं करना चाहिये। अगर वह परिलक्षित होता है तो आपकी सलाह मानकर मैं भविष्य में सावधान रहूंगा।
ReplyDeleteचित्र देखकर तो लग ही रहा है मीटिंग काफी बढ़ी रही होग
ReplyDeleteबडे पते की बात आपने कही है कि ऐसी बैठकों में निर्लिप्त भाव से रस लेने के अपने मजे होते होंगे। वैसे आपकी यह पोस्ट पढ़ने के बाद रेलवे का निर्णय तंत्र समझ में आने लगा है। सारा कुछ लालूमय नहीं है। फिर भी लालू ने रेलवे को इतना मुनाफे में लाने का करिश्मा किया कैसे?
ReplyDeletesatya vachan YUNUS bhaayi...internet ne ye ek bahut acchi aur mahatvpuurn suvidha muhayiyaa karvaayi hai
ReplyDelete'सुभ' चिन्तक जी ने छिपे विज्ञापन का मामला उठा दिया है. वैसे उन्होंने इस बारे में बात भी छिपे तौर पर की है....वैसे उनके नाम से लगता है कि वे 'सुभ' चिन्तक हैं, शुभ चिन्तक नहीं.
ReplyDeleteआप सार्वजनिक भले ही ना करें पर समझ तो आ गया कि रेलवे में कुछ तो होने वाला है..वरना हम तो समझते थे कि रेल बजट तो ऎसे ही बना दिया जाता है.
ReplyDeleteऎसे ही एक सुभचिंतक ने हमें कुछ दिनों पूर्व सलाह दी की में अपनी पोस्ट के पन्ने में विज्ञापन ना लगाऊं इससे पोस्ट पढ़ने में परेशानी होती है. हमने तो उस पर अमल कर पोस्ट वाले विज्ञापन हटा दिये...वैसे भी कौन सा कमाई होती ही है इन सबसे...
सरजी एक किताब यह भी छापनी चाहिए रेलवे को कि टाइम टेबल कैसे देखें।
ReplyDeleteटाइम टेबल देखना अपने आप में तकनीकी प्रशिक्षण की मांग करता है।
वैसे कौन सी रेलें चलें, यह फैसला तो लालूजी करते हैं, ये मीटिंग में क्या होता है जी।
बड़ी बैठकों में प्रवचनै अधिक होते हैं। फिर अफसरों की एक किस्म होती है, जो यह मानकर चलती है कि ऊपर वाला जब ज्ञान बांट रहा था, तो 99 परसेंट उन्हे दिया गया है, और एक परसेंट में बाकी दुनिया समायी है।
ये जब शुरु होते हैं, तो भौत आफत हो जाती है।
दर्शन से शुरु होते हैं, राजनीति पे आ जाते हैं। फिर राजनीति से शुरु होकर हमारे जमाने में ये होता था। ऐसी बैठकों में जाना और सुनना विकट किस्म की त्रासदी ही होती है।
इधऱ मैने नोट यह किया है कि पहले पचास के पार का बंदा संस्मरण मोड में जाता था, अब तो चालीस पार का बंदा एकदम संस्मरणात्मक हो लेता है जी।
..... यह तो बहुत गलत बात हुई .
ReplyDeleteआपसे ही पता चला इस महत्वपूर्ण बैठक के बारे मे। पहले अखबारो से पता चलता था पर आजकल तो वे थप्पड की खबरो मे ही उलझे है।
ReplyDeleteआपके सफल ब्लाग लेखन से काफी धुआ निकल रहा है लोगो के मन से। कभी वे आपकी तकनीकि खामी निकालते है तो कभी विज्ञापन की बात कहते है। आप तो लिखते चले इन बातो पर ध्यान न दे और न ही विचलित हो।
मीटिंग मीटिंग खेल आए आप!!आशा है नतीजे कुछ अच्छे ही निकले होंगे!ह्म्म, हर बात बताई तो नही जा सकती आखिर।
ReplyDeleteप्रिंटेड रेलवे समय सारणी देखना अपन तो कभी सीख नही पाए, देखकर ही हवा होती रही है अपनी।
चलो आपने अपनी अनुपस्थिति का विवरण दे दिया इसलिए मुआफ़ी ;)
इत्ते सारे !!? अब सौ-डेडसौ हाई प्रोफाइल लोग मिलकर समय सारणी बनायेंगे तो अपन जैसो के समझ आने से तो रही. :)
ReplyDeleteरही बात सुभ चिन्तक वाली तो मुझे तो समझ नही आया. शायद वही आपकी अपने बरे में लिखी गई बात के बारे ही कह रहे होंगे. लेकिन मेरे ख्याल से अपने बारे में जानकारी देना या लिखना विज्ञापन की श्रेणी में नही आता है
चिंता चिता समान है चाहे वो शुभ हो या अशुभ ये भाई शुभ चिन्तक जी को बता दिया जाए और ये भी कहा जाए की बात को छुपा कर नहीं स्पष्ट कहा करें.
ReplyDeleteसमय सारणी को लेकर इतनी विस्तृत चर्चा होती है इसका भान ही नहीं था हमको, अभी इंडिया टुडे के अंक में पढ़ रहा था की एक सज्जन ने ख़ुद के प्रयासों से रेलवे पलेटफामॅ बनवाया जहाँ गाड़ी खड़ी होनी शुरू हुई अब ऐसी अनजाने स्टेशन के लिए भला कैसे समय सारणी बनाई जायेगी?
नीरज
मीटिंग तो जोरदार रही होगी । पर फोटो भी आपने खूब बढिया खींची है।
ReplyDeleteसमय सारणी के लिए भी मीटिंग होती है ये भी पता चल गया आज।
पढ कर पहली बार पता चला कि इतने वरिष्ट लोग मिलकर इस विषय पर चर्चा करते हैं. अच्छा लगा कि अधिकतर चर्चा प्रोफेशनल तरीके से होती है.
ReplyDeleteआपने लिखा:
"हां; मैं आपको यह नहीं बता सकता कि इस बार वहां चर्चा या निर्णय क्या हुये!"
कोई बात नहीं. यदि कोई गडबड दिखे तो हम दोष आपके सर मढ देंगे !!
पांडेय जी, किसी ब्लोग पर इतने सारे कमैंटंस देख कर मैं दंग तो क्या रह गया --श्रीमान जी, दांतों तले उंगली दबाने की नौबत आ गई कि भई कोई ब्लोग इतनी लोकप्रिय भी हो सकती है। सारी की सारी पढ़ी भीं।
ReplyDeleteबलोगस् पर घूमते घमाते आप का एक वो वेस्टर्ऩ कमोड वाला बलोग नज़र में पड़ गया था---उसके बाद उस से संबंधित कुछ विचार आए...कभी किसी बलोग पोस्ट पर लिखूंगा.
डाक्टर साहब आपका क्या विचार था कि लाईनां सिर्फ क्लिनिकों में ही लगती हैं . ज्ञान जी रेल वाले हैं वहां कि लाईनों का कोई क्या मुकाबला करेगा.
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