मां ने बताया कि कोंहड़ौरी (कोंहड़े व उड़द की वड़ी) को बहुत शुभ माना गया है. इसके बनाने के लिये समय का निर्धारण पण्डित किया करते थे. पंचक न हो; भरणी-भद्रा नक्षत्र न हो – यह देख कर दिन तय होता था. उड़द की दाल एक दिन पहले पीस कर उसका खमीरीकरण किया जाता था. पेठे वाला (रेक्सहवा) कोहड़ा कोई आदमी काट कर औरतों को देता था. औरतें स्वयं वह नहीं काटती थीं. शायद कोंहड़े को काटने में बलि देने का भाव हो जिसे औरतें न करतीं हों. पड़ोस की स्त्रियों को कोहंड़ौरी बनाने के लिये आमंत्रित किया जाता था. चारपाई के चारों ओर वे बैठतीं थीं. चारपाई पर कपड़ा बिछाकर, उसपर कोंहड़ौरी खोंटती (घोल टपकाकर वडी बनाती) थीं. इस खोंटने की क्रिया के दौरान सोहर (जन्म के अवसर पर गाया जाने वाला मंगल गीत) गाती रहतीं थीं.
सबसे पहले सात सुन्दर वड़ियां खोंटी जाती थीं. यह काम घर की बड़ी स्त्री करती थी. उन सात वड़ियों को सिन्दूर से सजाया जाता था. सूखने पर ये सात वड़ियां घर के कोने में आदर से रख दी जातीं थीं. अर्थ यह था कि जितनी सुन्दर कोंहड़ौरी है, वैसी ही सुन्दर सुशील बहू घर में आये.
कोंहड़ौरी शुभ मानी जाती थी. लड़की की विदाई में अन्य सामान के साथ कोंहड़ौरी भी दी जाती थी.
कितना रस था जीवन में! अब जब महीने की लिस्ट में वडियां जोड़ कर किराने की दुकान से पालीथीन के पैकेट में खरीद लाते हैं, तो हमें वड़ियां तो मिल जाती हैं – पर ये रस तो कल्पना में भी नहीं मिलते.
वाह ज्ञान जी! क्या बात है .
ReplyDeleteयह है हमारा देशज जीवनबोध ,हमारा सांस्कृतिक रसबोध और परम्पराप्रदत्त मांगलिकता व नैतिकता का बोध . सब कुछ उस साधारण सी दिखने वाली पारिवारिक किंतु बेहद ज़रूरी गतिविधि में समाया हुआ . यही तो है जीवन की सहज कविता .
यह उस हाट-बाज़ार को भी अपने स्थान पर रहने की हिदायत होती थी जो घर की ओर बढता दिखता था. बाज़ार अपनी जगह पर रहे . ज़रूरत होने पर हम बाज़ार जाएं, पर बाज़ार हमारी ओर क्यों आए .
आपको बहुत-बहुत बधाई! साधुवाद! .
भैया प्रियंकर जी, आप तो इतनी प्रशंसा करे दे रहे हैं कि कहीं हमें लेखक होने की गलतफहमी न हो जाये. देश के आर्थिक विकास के माड़ल को लेकर हममें मत भेद हो सकते हैं - पर उतना तो दो सोचने वाले लोगों में होना भी चाहिये!
ReplyDeleteपांडे जी
ReplyDeleteबस दिन बना दिया आपने. बहुत दिन बाद ऐसी रससिक्त रचना पढ़ी.आप कुछ दिनों की चुप्पी के बाद आए, क्या ख़ूब आए. हमारी अम्मा के 80 के दशक के अंत तक बनाती थीं, पेठा हम काटते थे और दिन भर कौव्वे उड़ाने के बहाने छत पर पतंग उड़ाते थे...कोंहडौरी नहीं...सब कुछ गया तेलहंडे में.
बहरहाल, जब तक आप जैसे लोग हैं उन दिनों की याद यूँ ही ताज़ा होती रहेगी.
साधुवाद.
बहुत बढ़िया ! वैसे ये काम आज भी होते हैं, शहरों में नहीं पर छोटे कस्बों में होते हैं । अभी कुछ वर्ष पहले तक मैं, साबूदाने, चावल, मैदे, आलू आदि की वड़ियाँ , जो तल कर खाने के काम आती हैं व आलू के चिप्स आदि बनाती थी । सबकुछ समय , स्वास्थ्य , खाने वालों व सुखाने के लिये जगह आदि पर निर्भर करता है । आज भी अचार बनते हैं , बच्चों के लिए छात्रावास के लिये तरह तरह की चीजें बनाकर भेजी जाती हैं ।
ReplyDeleteआज भी शिवरात्रि व जन्माष्टमी पर चौलाई के लड्डू व नाना प्रकार के व्यंजन बनते हैं , बस खाने वाले नहीं होते हैं ।
घुघूती बासूती
जनजीवन के सहज उत्सवधर्मिता और सहकार को आपने वैसी ही सहजता से बताया है. बडियां तो अब मेरे यहां नहीं बनती, लेकिन खिचडी के पहले तिलवा, तिलई बनाने, गन्ने की पिराई के बाद गुड बनाने और पूजा के लिए चक्की से आटा पिसने का कुछ ऐसा ही आयोजन होता है.
ReplyDeleteअच्छा! ये लिंक-विथिन का विजेट हाल के कुछ महीनों की ही पोस्टें दिखाता रहता है. इसी चक्कर में घूम-फिरकर वही पोस्टें सामने आती रहीं. अब सिलसिलेवार पढ़ने से पता चल रहा है कि जिन्हें पुरानी पोस्टें समझ के पढ़ते आ रहे थे वे कुछ ख़ास पुरानी नहीं हैं.
ReplyDeleteऔर आपके चिट्ठे की विकास यात्रा देखना रोचक है. पुराने संवाद पढने से जानकारी भी बढ़ रही है. आपके ब्लौग के साथ उन्मुक्त जी का ब्लौग भी इसी तरह पढूंगा.
आपने अपना ब्लौगर फेव-आइकन कई बार बदला है:)
वाह ज्ञान जी! क्या बात है .
ReplyDeleteयह है हमारा देशज जीवनबोध ,हमारा सांस्कृतिक रसबोध और परम्पराप्रदत्त मांगलिकता व नैतिकता का बोध . सब कुछ उस साधारण सी दिखने वाली पारिवारिक किंतु बेहद ज़रूरी गतिविधि में समाया हुआ . यही तो है जीवन की सहज कविता .
यह उस हाट-बाज़ार को भी अपने स्थान पर रहने की हिदायत होती थी जो घर की ओर बढता दिखता था. बाज़ार अपनी जगह पर रहे . ज़रूरत होने पर हम बाज़ार जाएं, पर बाज़ार हमारी ओर क्यों आए .
आपको बहुत-बहुत बधाई! साधुवाद! .