मुझे पता चला कि उत्तरप्रदेश सरकार ने केन्द्र से नीलगाय को निर्बाध रूप से शिकार कर समाप्त करने की छूट देने के लिये अनुरोध किया है। यह खबर अपने आप में बहुत पकी नहीं है पर मुझे यह जरूर लगता है कि सरकार दलहन की फसल की कमी के लिये नीलगाय को सूली पर टांगने जरूर जा रही है। इसमें तथाकथित अहिन्दूवादी सरकार का मामला नहीं है। मध्यप्रदेश सरकार, जो हिन्दूवादी दल की है और जो गाय के नाम पर प्रचण्ड राजनीति कर सकती है, नीलगाय को मारने के लिये पहले ही तैयार है! बेचारी नीलगाय; उसका कोई पक्षधर नहीं!
मेरी मां अरहर की दाल के दाम में आग लगी होने की बहुधा बात कहती हैं खाने की मेज पर। पर अगर मैं उन्हे कहूं कि उत्तरप्रदेश में दलहन की पैदावार कम होने के पीछे नीलगाय को जिम्मेदार माना जा रहा है और उसे अंधाधुन्ध मारा जायेगा, तो पता नहीं कि वे अरहर के पक्ष में जायेंगी या नीलगाय के! मैं पोस्ट अपनी अम्माजी से चर्चा कर नहीं लिखता। इसलिये पता नहीं किया कि उनका विचार क्या है। पर पता करूंगा जरूर। और सभी घरों में ९० रुपये किलो अरहर की दाल से त्रस्त धर्मभीरु अम्मायें जरूर होंगी। क्या कहती हैं वे? [1]
मेरा अपना सोचना (किसी धर्मांधता के प्रेरण से नहीं) तो यह है कि नीलगाय को नहीं मारा जाना चाहिये। यही कथन जंगली सूअर के बारे में भी होगा। प्रकृति की फूड चेन (अर्थात 10/100/1000 हर्बीवोरस/शाकाहारी के ऊपर एक कार्नीवोरस/मांसाहारी पशु) से छेड़छाड़ में पहले कार्नीवोरस की संख्या ध्वस्त कर आदमी ने अपने लिये जगह बढ़ाई। अब हर्बीवोरस को समाप्त कर अपने लिये और अधिक जगह बनाना चाहता है। अंतत इस तरीके से आदमी भी न बचेगा! अगर वह समझता है कि वही सबसे निर्मम है तो प्रकृति उससे कहीं ज्यादा निर्मम हो सकती है। और यह समझने के लिये हिन्दू या जैन धर्मग्रंथों का उद्धरण नहीं चाहिये।
प्रकृति अपनी निर्ममतामें यह छूट नहीं देगी कि आप कितना बड़ा तिलक लगाते हैं, पांच बार नमाज पढ़ते हैं या नियमित चर्च जाते हैं। वह यह भी नहीं मानेगी कि आप दलित हैं तो आपको जीने की स्पेशल छूट मिलनी चाहिये।
नीलगाय के नाम के साथ "गाय" शब्द शायद औरंगजेब ने लगाया जिससे कि इस जानवर का अंधाधुन्ध शिकार न हो। नीलगाय की प्रजाति विलुप्त होने के खतरे की जोन में फिलहाल नहीं है। पर कई प्रजातियां जो बहुतायत में थीं आज या तो समाप्त (extinct) हो गई हैं या विलुप्त होने के खतरे की जोन (endangered species) में हैं अंधाधुन्ध शिकार होने के कारण।
मुझे नीलगाय की हत्या की कीमत पर अपनी अरहर की दाल बचानी चाहिये?
मेरी नीलगाय विषयक पोस्टें -
हंस के अक्तूबर अंक में नीलगाय के बहाने धर्म पर ढेला तानता लेखन -
सवाल है कि नीलगाय (या बन्दर) इतने अपराजेय हैं। जी हां, सच्चाई कुछ ऐसी ही है।
हमारी मिथकीय आस्था ने हममें इतना अन्धविश्वास भरा है कि हम बन्दरों को हनुमान और नीलगायों को गायों का प्रतिरूप मानने लगे हैं, जबकि नीलगाय और गाय में, सिवाय स्तनपायी होने के, काफी अन्तर हैं। गाय गाय है और नीलगाय नीलगाय - न नील न गाय। फिर गाय हो या नीलगाय, किसी को भी हम फसलों को चरने की छूट कैसे दे सकते हैं? ऐसे धर्मभीरु हिन्दीपट्टी वालों का भला क्या भला हो सकता है?
[1] - मेरी अम्माजी ने तो मुद्दा डक कर दिया। उनका कहना है कि नीलगाय नहीं मारी जानी चाहिये। "हमारे गांव में नीलगाय आती ही नहीं। वह तो निचले कछार के इलाके में आती है"। पर वे इस बात पर भी सहमत होती नहीं दिखीं कि मंहगी दाल खा लेंगी, अगर नीलगाय पर संकट आता है तो! उनके अनुसार इस बार खेत में अरहर बोई गई है। अगर ओले से फसल खराब न हुई तो काम भर की अरहर मिल ही जायेगी!
निशाचर जी की टिप्पणियों का कम्पैण्डियम:
१. अधिकांश ब्लॉगर शहरी क्षेत्रों से सम्बन्ध रखते हैं इसलिए शायद नहीं जानते होंगे कि नीलगाय और जंगली सूअर पूर्वी उत्तर प्रदेश और लगे हुए बिहार के भागों में आतंक का पर्याय बने हुए हैं. नेपाल के तराई क्षेत्रों में मानव बसावट के बढ़ने और जंगलों के समाप्त होने से इन्होने आगे बढ़कर मैदानी क्षेत्रों में अपना बसेरा बना लिया है. संरक्षित प्रजाति होने से इन्हें मारना जुर्म है और इस जुर्म से बचने के लिए किसानों ने बहुत सी फसलों को बोना ही छोड़ दिया है. अरहर उनमें से एक है.अपने ई-मेल में यही टिप्पणियां मैं ट्रेस कर पाया। पर मुझे स्वयं समझ नहीं आ हा है कि टिप्पणी गायबीकरण कैसे हुआ! पता नहीं, औरों की भी टिप्पणियां न गायब हुई हों?! मैं यह कम्पैण्डियम टिप्पणियों में पेस्ट करना चाहता था, पर लगता है ब्लॉगर वह अनुरोध एग्जीक्यूट करने में बारम्बार एरर दिखा रहा है। लिहाजा यह पोस्ट की बॉडी में डाल रहा हूं। प्रोग्रामिंग के जानकार इसपर कुछ बता सकते हैं?
इसी फ़रवरी में तकरीबन पंद्रह सालों बाद मैं अपने गाँव जा पाया. लेकिन वहां पहुँच कर जो हैरानी और निराशा हुई उसे बयां करना मुश्किल है. आमतौर से इस (फ़रवरी) महीने में खेतों में चारो तरफ सरसों और अरहर के पीले फूलों की बहार रहा करती थी. साथ ही आलू, मटर और तमाम अन्य सब्जियों से खेत हरे- भरे रहा करते थे. लेकिन अब गेंहूं, कुछ मात्रा में सरसों तथा गन्ना और तमाम अन्य खेतों में बहुत सी अनजानी फसलों को देखकर बड़ी हैरानी हुई. पूछने पर पता चला कि अरहर, सरसों, मटर, आलू, सब्जियां नीलगायों और सूअरों कि भेंट चढ़ चुकी हैं और किसानो ने इन्हें बोना बंद कर दिया है क्योंकि इसको बोने से बीज, सिंचाई, खाद और श्रम सब कुछ व्यर्थ ही जाता है. रात में नीलगाय और सूअरों के झुण्ड आकर सबकुछ बर्बाद कर देते हैं. इनको भगाने के प्रयास में कई लोग जख्मी हो चुके हैं और कुछ अपनी जान भी गवां बैठे हैं. कुछ किसानों से अपनी फसल बर्बाद होते देखा न गया तो उन्होंने अपनी बंदूकों का प्रयोग किया. सुबह पुलिस ने उन्हें पकड़कर वन्य जीव संसक्षण अधिनियम में चालान कर दिया और वे जेलों में बंद अपने फैसले का इन्तजार कर रहे हैं. ऐसे में किसके पास इतना पैसा है कि वह अपनी पूँजी और श्रम लुटाने के बाद कोर्ट कचहरी के चक्कर लगाता फिरे.
किसानो की दूसरी नगदी फसल गन्ने का हश्र क्या है आप सभी रोज टी0 वी0 पर देख ही रहे हैं. फसल तुलवा देने के बाद भी सही कीमत और समय पर ना मिले तो किसान उसे बोने का हौसला कैसे करे? सरकार में बैठे मंत्रियों, अधिकारियों को तो कच्ची चीनी के आयात में कमीशन खाना है और किसानों को चीनी के उत्त्पादन चक्र से बाहर कर मिल मालिकों को मनमाना दाम वसूलने की छूट देना है. सो किसान भी खड़ी फसल जला देने को मजबूर हैं.
अब बात नीलगाय की. नीलगाय वास्तव में गाय नहीं हिरन (antelope) प्रजाति का जीव है. गाय से इसका दूर - दूर तक कोई लेना- देना नहीं है. जहाँ तक इन्हें मारने या ना मारने की बात है तो किसान इन्हें कोई शौकिया नहीं मार रहे हैं. जब उनकी आजीविका पर बन आई है तो आखिर वे करें भी तो क्या? सरकार इसके लिए कोई उपाय करने में रूचि नहीं रखती तो किसानों के पास इन्हें मारने के सिवाय और चारा ही क्या है? हम यहाँ शहरों में बैठकर मजबूर किसानों को निर्दयी, हत्यारा कहकर कोसते हुए खुद को वन्य जीव प्रेमी घोषित करने में लगे हुए हैं लेकिन अरहर दाल के सौ रूपये किलो हो जाने पर हैरत भी जता रहे हैं.
२. @प्रवीण पाण्डेय जी,
नीलगाय और जंगली सूअर हमारे पालतू जीव नहीं हैं कि आप उनके गले में रस्सी डालेंगे और उन्हें "जंगलों" में हकाल आयेंगे. ये जंगली जीव हैं और आक्रामक होते हैं. अनेकों लोग इनके हमलों में जान तक गवां चुके हैं. इनसे मुकाबले के लिए भाले, बल्लम और बंदूकों के साथ-साथ काफी हिम्मत की भी जरूरत पड़ती है लेकिन जैसे ही आप इन हथियारों का प्रयोग करते हैं आप पर वन्य जीव संरक्षण अधिनियम के तहत केस बन जाता है. मतलब किसान जान और फसल तो गंवाए लेकिन मुकाबला न करे. (कई बार तो दिशा-मैदान, खेतों की देखभाल, सब्जियां तोड़ने जैसे कार्य करते हुए भी किसान, महिलाएं और बच्चे हमले का शिकार हो जाते हैं). बाड़ लगाने का खर्च किसानो के बूते से बाहर की चीज है क्योंकि लोहे, स्टील और सीमेंट के आसमान छूते दामों के बीच किसान खाद, बीज और सिंचाई के लिए रकम जुटाए या बाड़ के लिए. वैसे भी साधारण बाड़ इसमें कारगर नहीं होती क्योंकि ये उसे तोड़ देने या फिर फांद जाने की सामर्थ्य रखते हैं.
@अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी जी,
ये जीव नेपाल के तराई क्षेत्रों से भाग कर यहाँ आये हैं जो कि यहाँ से २००-५०० कि0 मी० दूर है. ऐसे में ये किसान अपनी खेती बाड़ी देखें या नेपाल की सीमा में जाकर जंगलों को बचाएं. यह एक ऐसी समस्या है जो खड़ी की है वन-विभाग के भ्रष्टाचार और नाकारापन ने और भुगत रहे हैं किसान.
यह कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है जहाँ लोगों ने जंगल काटकर खेती शुरू कर दी हो. सदियों से यहाँ गाँव आबाद है और खेती किसानी हो रही है जबकि यह समस्या अभी आठ-दस बरस पहले ही शुरू हुई है.
@नीरज गोस्वामी जी,
किसान अपना खेत खुला नहीं छोड़ता बल्कि नीलगाय उसमे घुस आती है. वैसे नीलगाय तो घास छोड़कर अरहर खा लेगी लेकिन आपको पागल कुत्ता काट भी ले तो भी आप घास नहीं खा पाएंगे.
जैसा कि मैंने कहा है कि किसान इन्हें कोई शौकिया नहीं मारता है. वैसे भी ग्रामीण किसान से ज्यादा धर्मभीरू कोई नहीं होता. किसी जीव की हत्या करना किसान पाप ही समझता है और अगर वह जीव "गाय" हो तो तौबा-तौबा!! और सच बात यह है कि यदि यह जीव किसानों का इतना नुकसान करने के बाद भी अभी तक बचे हुए हैं तो यह किसानों कि धर्मभीरूता और इनके नाम के साथ 'गाय' जुड़ा होने के कारण ही है. जो थोड़े -बहुत जीव मारे भी जाते हैं तो वे भी मुस्लिम समुदाय (कृपया इसे साम्प्रदायिकता से ना जोड़े) के किसानो द्वारा लेकिन सूअर को वे भी नहीं मारते:)
इस समस्या के समाधान के लिए यहाँ शहरों में बैठकर गाल बजाने के बजाए लोगों को सरकार पर दबाव बनाना चाहिए. किसान का विरोध कर आप क्या-क्या खाना छोड़ देंगे?? किसान तो अपने खेतों में कुछ न कुछ पैदा कर अपना पेट भर लेगा लेकिन आप चाहे कितना भी पैसा कमाते हों आप पैसे को खा नहीं सकते. अनाज खरीदने के लिए आप किसान पर ही निर्भर हैं और अगर किसान के पास अधिशेष उत्पादन नहीं हुआ तो आप पैसा होते हुए भी भूखे मरने लगेंगे.
कुछ अंग्रेजीदां लोग जिन्हें यह नहीं पता कि आलू जमीन के नीचे होता है या ऊपर, वे यह जान लें कि "पिज्जा" भी मैदे और आटे से ही बनता है.
३. @अमरेन्द्र जी,
जैसा कि मैंने कहा किसान भी इन्हें मारना नहीं चाहता परन्तु वन्य जीव अधिनियम के कारण वह अपनी रक्षा तक करने में असमर्थ हो रहा है. अभी हाल ही में लखीमपुर के जंगलों से एक बाघ निकलकर लखनऊ, बाराबंकी, फैजाबाद होते हुए गोरखपुर तक पहुँच गया. वह जिन क्षेत्रों से गुजरा वह दस पंद्रह दिनों के लिए नीलगायों के प्रकोप से मुक्त हो गया. मेरे कहने का मतलब है कि किसी भी प्रकार का खतरा न होने के कारण यह जीव निर्द्वंद हो गएँ है. यदि इन्हें मारने की इजाजत दे दी जाती है तो कुछ एक के मारे जाने से ये स्वयं ही इन इलाको को छोड़कर भाग जाएँगी और शेष मरने से बच जाएँगी. खेती वाले क्षेत्रों में बिना किसी खतरे और आसान भोजन की प्रचुरता के कारण इनकी आबादी तेजी से बढ़ रही है. ऐसे में एक न एक दिन इनके और मानव के बीच संघर्ष अवश्यम्भावी है. परन्तु तब किसानों के एकजुट और आक्रोशपूर्ण हमलों से शायद इनका अस्तित्व ही समाप्त हो जाये.
४. गिरिजेश भाई, दुकानों से पैकेट बंद राशन खरीदते-खरीदते लोग यह समझने लगे हैं कि सब-कुछ फैक्टरियों में बनता है और किसान तो एक ऐसा जीव है जो इस "माल संस्कृति" वाले समाज पर बोझ बना हुआ है. नीलगाय के लिए मोमबत्ती मार्च को हुलसने वाले लोग यह भूल जाते हैं कि मोमबत्ती में लगे धागे का कपास भी किसान के खेत से ही आया है.
५. @अभिषेक ओझा जी,
जहाँ तक बात जीव हत्या की है तो मांसाहारी लोग रोज मटन, मुर्गा, अंडे, मछलियाँ और भी बहुत कुछ रोज खा रहे हैं. यहाँ तक कि शाकाहारी लोग अपने घरों में चूहे, काकरोच, मच्छर, खटमल रोज मार रहे हैं. तो यह तो मत ही पूछिए कि क्या-क्या मारोगे?
@अमरेन्द्र जी, मैं स्वयं भी केवल २०० कि0 मी० दूर होने के बावजूद अपने गाँव कभी-कभी और बड़े अंतराल के बाद ही जा पाता हूँ. मैं स्वयं को खुशकिस्मत समझता हूँ कि मैं ग्रामीण संस्कृति से कच्चे धागे से ही सही जुड़ा हुआ तो हूँ परन्तु शहरों में अब ऐसी पीढियां तैयार हो गयी हैं जिन्होंने ग्रामीण जीवन (वह भी अतिरंजित ग्लेमर पूर्ण) केवल सिनेमा और टेलीविजन के रूपहले परदे पर ही देखा है. इन्ही लोगों के लिए अखबारों ने दिल्ली में हुए गन्ना किसानों के प्रदर्शन पर शीर्षक लगाया "BITTER HARVEST,THEY PROTESTED,DRANK,VANDALISED AND PEED". अब बताईये कि किसान सात सालों से गन्ने के उचित और समय पर भुगतान की मांग कर रहा है- कोई सुनता नहीं, और जब वह दिल्ली आकर प्रदर्शन करता है तो उसके पेशाब करने से दिल्ली गन्दी हो जाती है.क्या किसान अब दिल्ली के लिए इस कदर अछूत है कि वह अपना दुखड़ा रोने भी वहां न आये??
अब इसी पोस्ट पर देखिये- इस समस्या के जितने भी समाधान सुझाये गए उनमें से एक भी व्यावहारिक है क्या? कितने "कैजुअल" तरीके से लोग बाड़ लगाने, दूसरी फसले बोने, नई प्रजाति विकसित करने, जंगलो में हांक देने, खेत खुला छोड़ देने के लिए प्रताड़ना देने और यहाँ तक कि दाल ना खाने की बात करते हैं. लेकिन सचमुच ही दाल न मिले तो लोग क्या खायेंगे- अंडा, मुर्गा, मटन या फिर नीलगाय का गोश्त ?? और यह समस्या सिर्फ अरहर की दाल के साथ नहीं है, सरसों, आलू, सब्जियां तक इस समस्या से पीड़ित है. अब क्या- क्या खाना छोड़ देंगे??
नीलगाय का अस्तित्व जंगलों में ही सुरक्षित हो सकता है मैदानी और कृषि क्षेत्रों में आने से मनुष्य के साथ इसका टकराव टाला नहीं जा सकता. इन्हें वन क्षेत्रों की और धकेलने और वन क्षेत्रों को सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी वन विभाग उठाने को तैयार नहीं है. खाली हाथों से इन्हें खदेड़ना भी असुरक्षित और ख़ुदकुशी करने जैसा ही है. किसानों को, इन्हें मारकर न तो कोई सुख मिलने वाला है न ही फ़ायदा. फिर वन्य जीव अधिनियम के तहत इन्हें संरक्षित करने का कोई औचित्य नहीं है क्योंकि यदि इस जीव का शिकार आर्थिक रूप से फायदेमंद होता तो कानून होने या न होने से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था, यह अब तक वैसे ही विलुप्त हो चुका होता- जैसा कि शेर, बाघ, भालू, चीता, कस्तूरी मृग, चिरु आदि के साथ हो रहा है. इन्हें मारने कि अनुमति देने का मतलब यह नहीं है कि किसान इनका अंधाधुंध शिकार करने लगेंगे क्योंकि पीड़ित क्षेत्रों के अधिकांश किसान शाकाहारी हैं और फिर 'गाय' होने के कारण इसकी हत्या करने का पाप भी वे नहीं लेना चाहते. इस अनुमति का अर्थ सिर्फ यही होगा कि वे सशस्त्र होकर उन्हें अपने खेतों और अपने क्षेत्रों से दूर खदेड़ने में समर्थ हो जायेंगे. अगर यह जिम्मेदारी सरकार अपने हाथों में लेकर पूरी करे तो भी किसान को क्या आपत्ति हो सकती है. किसान की मांग है कि उसकी समस्या का समाधान हो और जल्द हो - कैसे और किसके द्वारा इस पर विचार करने की शक्ति और सामर्थ्य उसके पास नहीं है.
मेरे आक्रोश का लक्ष्य आप नहीं हैं और न ही मैंने आपकी बात का विरोध किया था बल्कि मैंने आपकी शंकाओं पर स्पष्टीकरण ही दिया था. मेरा इरादा इसे 'जनवादी' बनाम 'मॉल संस्कृति' की बहस में बदलने का भी नहीं है.
आपके मौन में मेरा कोई हित नहीं है. थोड़े गंभीर, सहानुभूतिपूर्ण और व्यावहारिक सुझावों के साथ सभी आगे आयें क्योंकि यह समस्या सिर्फ किसान की नहीं है, भोजन के लिए किसान पर आश्रित पूरे देश की है.
अरहर की दाल की पैदावार के कारणो में कमोबेश नीलगाय को तो शामिल न ही किया जाये तो बेहतर है. व्यवस्था को व्यवस्थित करना इसका हल है.
ReplyDeleteक्या सरकार के पास और कोई हल नही है? जब गद्दी पर कम अक़ल लोग होंगे तो ऐसा ही होगा,काश इस बहाने से महगाई कुछ कम हो जाए ,जय हो लगे रहो,
ReplyDeleteनील गाय को मारना तो किसी भी हालत में जायज नहीं ठहराया जा सकता.
ReplyDelete>प्रकृति अपनी निर्ममतामें यह छूट नहीं देगी कि आप कितना बड़ा तिलक लगाते हैं, पांच बार नमाज पढ़ते हैं या नियमित चर्च जाते हैं। वह यह भी नहीं मानेगी कि आप दलित हैं तो आपको जीने की स्पेशल छूट मिलनी चाहिये।
ReplyDeleteबड़ी ही मासूम बात है पाण्डेय जी, दुनिया नहीं समझती, इस बात को...
नील गाय हम किसानो के लिये अभिशाप है . हमारी खेती इन नीलगा पर आश्रित है हम पर क्रपा करे जिस्से कुछ फ़सल घर तक पहुच जाये . दलहन की तो दुश्मन है . मैने १० बीघा मे बाउन्ड्री बनवा ली है लेकिन नीलगा दीवार फ़ान्द कर रोज ही नुक्सान पहुचा रहे है कल ही मेरी लौकी ,तुरई ,पालक ,गोभी की फ़सल को रौंध दिया आज उस पार कटीले तार लगवाने जा रहा हू . शायद कुछ हल निकले .
ReplyDeleteआज भी एक पहेली है नीलगा और बन्दरो को परमात्मा ने किस लिये बनाया . अगर नीलगा को बचाया तो किसान नही बचेगा . आगे आप लोगो की मर्जी . वैसे नीलगा किसी भी द्रष्टी से गाय नही है .
बिलकुल सही ज्ञान जी ,हम भी उन्हें अंधाधुंध मारने के पक्ष में नहीं है ,बकरीद पर बकरों के मानिंद !
ReplyDeleteआखिर हम उस देश के वासी हैं जिस देश में गंगा बहती है !
जब अपने रास्ते में आने पर आदमी अपने बाप और भाइयों तक को छोटे छोटे टुकड़ों में काट देता है तो नीलगाय क्या चीज है जी ?
ReplyDeleteवैसे भी तो सरकार में खाल-खींचू लोग हैं, खाल खींचने में इन्हें आनंद आता है, यह सेटिंग इनके डीएनए में की हुई है ।
अरहर की दाल से नीलगाय का लिंक ...ये जानकारी नयी है ...
ReplyDeleteमगर ..अरहर की दाल सिर्फ आपकी अम्मा की समस्या ही है ...?? कल ही मेरी बेटी अरहर की दाल का स्वाद लेती कह रही थी ...इतनी महंगी दाल है तो मत बनाया कीजिये ....
मैं गाँव से भी जुड़ा हूँ. आप सब से सहमत हो सकता हूँ, पर धीरू सिंह जी की बात का जबाब क्या है.एक तो सर्कार दूसरी और नील्गाई .किसान कैसे जियें ??
ReplyDeleteमुझे अपने खेतों में लहलहाती सरसो की फसल याद आती है। वे पीले फूल ! चादर से फैले अनवरत, अबाध।
ReplyDeleteमुझे अधपके फल लिए झरबर पौधों के बिस्तर पर लोटना याद आता है। याद आती है मास्टर किसान पिता की डाँट - छिम्मियाँ टूट गिर जाएँगी बेटा। लोटते समय इंसानियत का खयाल रखो।
उनकी इंसानियत शायद किसानियत ही थी।
मुझे याद आती हैं - धूसी के खेत में लहलहाती अरहर। चकरोड के बीच बैठ हम लोग देखा करते थे खड़े हरेठ्ठों के आर पार। बड़ा हुआ तो समझा कि गँवारू गोपन अभिसार के क्षेत्र के रूप में अरहर के खेतों की प्रसिद्धि मिथक थी- सब दिखता था, थोड़ा झुकने पर। ..
कट जाने पर छूट गई खूँटियों के बीच बचा बचा कर कूदते चलना...
इन नीलगायों ने सब खत्म कर दिया। अफवाहें सुनाई पड़ी थीं कि सरकार ट्रक भर भर कर इन्हें सरेह खेतों में छोड़ रही है। कुछ ने माना कुछ ने नहीं माना लेकिन मेरी आँखों के सामने ही खेतों में अरहर सिकुड़ती चली गई। कारण अचानक बढ़ी नीलगायें ही थीं। मेरे गाँव अब अरहर नहीं बोई जाती। सरसो भी अब उतनी नहीं लहलहाती - गन्ने के साथ बो कर काम भर पैदा कर ली जाती है।... यह दर्द है नागर सभ्यता द्वारा अतिक्रमित किसानी की। आज भी मैं जब त्रस्त गन्ना किसानों से अरहर, सरसो या सूरजमुखी पर शिफ्ट होने की बात करता हूँ तो उनके चेहरे पर निर्विकार नकार पसर जाता है - नीलगायों का क्या करें? उस नकार के पीछे छिपे दर्द को मैं महसूस कर सकता हूँ। ...
कुछ मार कर कुछ बचाना ! ठीक नहीं शायद ।
ReplyDeleteपर गिरिजेश जी की टिप्पणी ?
एक तुगलकी निर्णय है. बकवास. हमारा विरोध है.
ReplyDeleteनील गाय का कोई और सम्यक उपाय किया जाना चाहिए..मारा जाना तो निश्चित ही विकल्प नहीं है..पशुओं का भी एक रीहैबिलिटेशन प्रोग्राम बनाना होगा..
ReplyDeleteकार्नीवोरस की संख्या घटने के कारण हर्बीवोरस में बेतहाशा बढोतरी
ReplyDeleteहर्बीवोरस के लिये वन और जंगलात की कमी से पर्याप्त भोजन की कमी ने मानव जाति के लिये मुश्किलें बढेंगीं ही
क्या कोई और तरीका भी है इन से निपटने का?
मैं तो बन्दरों से बहुत ज्यादा परेशान हूं। (सच यह है कि वानरों को जहर तक देने के विचार आ जाते हैं)
कभी-कभी तो हनुमान जी पर क्रोध आता है कि वो वानर क्यूं थे?
प्रणाम स्वीकार करें
गिरिजेश भइया जिस क्षेत्र की बात कर रहे हैं वह मेरा भी देखा हुआ है। अरहर की खेती हमारे सामने ही देखते-देखते कम होती गयी। इसका एक कारण नीलगाय भी रही यह भान मुझे नहीं था।
ReplyDeleteवहाँ के किसान अरहर की खेती के बजाय गन्ना और धान-गेहूँ पैदा करने की ओर मुड़ गये हैं। कारण है सिचाई की सुविधा जो गण्डक परियोजना के तहत् नहरों का जाल बिछने से उपलब्ध हुई। गन्ने जैसी नकदी फसल जो कम मेहनत में अधिक पैसा देती है पूर्वाञ्चल के किसानों के लिए वरदान साबित हुई है। तराई इलाके में गन्ना एक बार बोकर तीन-तीन बार काटा जाता है। प्रतिस्पर्धी चीनी मिलें अब कीमत भी अच्छा देने लगी हैं। दाल को बाजार की शक्तियों ने अब महंगा कर दिया है तो शायद अब किसान उसकी खेती दुबारा शुरू करें।
नीलगायों की हत्या ही एकमात्र समाधान नहीं है। इनका बन्ध्याकरण और पकड़कर जंगलों में छोड़ देना भी एक समाधान हो सकता है।
ये कहाँ का समाधान हुआ? ब्लडी हलकट लोग!
ReplyDeleteइस से तो अच्छे है अरहर की दालखाना ही बंद कर दिया जाये..
आदमी कब तक और किस किस को मारेगा ?
ReplyDeleteवेसे नेरे ख्याल मै नील गाय की जगह उन भरष्ट नेतो को जंगल मै भगा भगा कर इन का शिकार करना चाहिये जिन सब पर घटोलो के केस चल रहे है, फ़िर देखे महगाई केसे कम नही होती.
ReplyDeleteनील गाय का फ़ेसला किसी सडियाल दिमाग के नेता का है
सरकार अरहर की दाल के वास्ते कितनी फिक्रमंद है, हमें इसे समझना चाहिए।
ReplyDeleteश्रीश जी से सहमत.
ReplyDeleteनीलगाय को मारना या न मारना अलग मुद्दा है पर यह तय है कि आज किसान इन जानवरों से बहुत त्रस्त है मेरे गांव में पहले कभी नील गाय होती ही नहीं थी पर अब झुण्ड के झुण्ड आ गए है खेतों में कितनी ही ऊँची बाड़ लगाओ इनके आगे कुछ भी नहीं |
ReplyDeleteअधिकांश ब्लॉगर शहरी क्षेत्रों से सम्बन्ध रखते हैं इसलिए शायद नहीं जानते होंगे कि नीलगाय और जंगली सूअर पूर्वी उत्तर प्रदेश और लगे हुए बिहार के भागों में आतंक का पर्याय बने हुए हैं. नेपाल के तराई क्षेत्रों में मानव बसावट के बढ़ने और जंगलों के समाप्त होने से इन्होने आगे बढ़कर मैदानी क्षेत्रों में अपना बसेरा बना लिया है. संरक्षित प्रजाति होने से इन्हें मारना जुर्म है और इस जुर्म से बचने के लिए किसानों ने बहुत सी फसलों को बोना ही छोड़ दिया है. अरहर उनमें से एक है.
ReplyDeleteइसी फ़रवरी में तकरीबन पंद्रह सालों बाद मैं अपने गाँव जा पाया. लेकिन वहां पहुँच कर जो हैरानी और निराशा हुई उसे बयां करना मुश्किल है. आमतौर से इस (फ़रवरी) महीने में खेतों में चारो तरफ सरसों और अरहर के पीले फूलों की बहार रहा करती थी. साथ ही आलू, मटर और तमाम अन्य सब्जियों से खेत हरे- भरे रहा करते थे. लेकिन अब गेंहूं, कुछ मात्रा में सरसों तथा गन्ना और तमाम अन्य खेतों में बहुत सी अनजानी फसलों को देखकर बड़ी हैरानी हुई. पूछने पर पता चला कि अरहर, सरसों, मटर, आलू, सब्जियां नीलगायों और सूअरों कि भेंट चढ़ चुकी हैं और किसानो ने इन्हें बोना बंद कर दिया है क्योंकि इसको बोने से बीज, सिंचाई, खाद और श्रम सब कुछ व्यर्थ ही जाता है. रात में नीलगाय और सूअरों के झुण्ड आकर सबकुछ बर्बाद कर देते हैं. इनको भगाने के प्रयास में कई लोग जख्मी हो चुके हैं और कुछ अपनी जान भी गवां बैठे हैं. कुछ किसानों से अपनी फसल बर्बाद होते देखा न गया तो उन्होंने अपनी बंदूकों का प्रयोग किया. सुबह पुलिस ने उन्हें पकड़कर वन्य जीव संसक्षण अधिनियम में चालान कर दिया और वे जेलों में बंद अपने फैसले का इन्तजार कर रहे हैं. ऐसे में किसके पास इतना पैसा है कि वह अपनी पूँजी और श्रम लुटाने के बाद कोर्ट कचहरी के चक्कर लगाता फिरे.
किसानो की दूसरी नगदी फसल गन्ने का हश्र क्या है आप सभी रोज टी0 वी0 पर देख ही रहे हैं. फसल तुलवा देने के बाद भी सही कीमत और समय पर ना मिले तो किसान उसे बोने का हौसला कैसे करे? सरकार में बैठे मंत्रियों, अधिकारियों को तो कच्ची चीनी के आयात में कमीशन खाना है और किसानों को चीनी के उत्त्पादन चक्र से बाहर कर मिल मालिकों को मनमाना दाम वसूलने की छूट देना है. सो किसान भी खड़ी फसल जला देने को मजबूर हैं.
अब बात नीलगाय की. नीलगाय वास्तव में गाय नहीं हिरन (antelope) प्रजाति का जीव है. गाय से इसका दूर - दूर तक कोई लेना- देना नहीं है. जहाँ तक इन्हें मारने या ना मारने की बात है तो किसान इन्हें कोई शौकिया नहीं मार रहे हैं. जब उनकी आजीविका पर बन आई है तो आखिर वे करें भी तो क्या? सरकार इसके लिए कोई उपाय करने में रूचि नहीं रखती तो किसानों के पास इन्हें मारने के सिवाय और चारा ही क्या है? हम यहाँ शहरों में बैठकर मजबूर किसानों को निर्दयी, हत्यारा कहकर कोसते हुए खुद को वन्य जीव प्रेमी घोषित करने में लगे हुए हैं लेकिन अरहर दाल के सौ रूपये किलो हो जाने पर हैरत भी जता रहे हैं.
मैं तो खाता ही अरहर और मूंग की दाल हूँ उड़द वगैरह से डाक्टर ने दूर रहने को कहा है लेकिन मैं नील गाय की कीमत पर उसे नहीं खा सकता...अब इसमें नील गाय का क्या कसूर अगर आप अपने खेत की रक्षा ना कर सकें...आपने अरहर की दाल बोई है और खेत खुला छोड़ दिया है तो नील गाय खाएगी ही...उसे कोई पागल कुत्ते ने थोड़े ही काटा है की अरहर के खेत को छोड़ सूखी घास चरने लगे...नील गाय हम तुम्हारे साथ हैं...
ReplyDeleteनीरज
Neelgaay ya koi bhi maasoom nahi janta ki sabse bada jaanwar use kyon maarna chaahta hai? Use ye bhi maaloom nahin hai ki us chaalaak jaanwar ne kyon us zameen par kabza karke lagataar apni taadaad badha lee hai, jis par kudrat santulit thi. Afsos ye hai ki aaj hindi ka naami kathakar aur sampadak tak itna samvedanheen ho gaya hai ki wo moorakh manushya ki suvidhakhori ki raksha ke liye mook jeevon ki hatya karaane ke liye aawaaz buland karta hai. Laanat hai!
ReplyDeleteKudrat ya kaaynaat aise ghatia tarkon se kabhi nahi chalti. Kisi ka khet ujadne par Kya aap kisi dusht se dusht aadmi ko maar daalenge? Ya nyaaysangat samaadhaan sochenge? Aap khud kitna bada apraadh karna chaahte hain, ye jaante hain?
- Snowa Borno & Sainny Ashesh
देव !
ReplyDeleteनीलगाय का ''सफाया - अभियान '' मैं कदापि
स्वीकार करने के पक्ष में नहीं हूँ | अब बात
किसानों की , यहाँ भी समस्या इंसानों से
द्वारा पैदा की गयी लगती है | इन्सान ने अंधाधुंध
जंगल काटा | अब नीलगाय मैदान पे न आयें तो
कहाँ जांय ? गलती इन्सान की भुगते नीलगाय !
आज के किसानों का दोष नहीं है ...परन्तु जब
अंधाधुंध जंगल कटा , तब विरोध क्यों नहीं किया गया ...
''प्रकृति पर विजय '' के जाने कितने दुष्परिणाम भुगतने
होंगे मानव को ...नील गाय अगर ख़तम कर भी लिया
तो और भी भीषण समस्याओं को मानव कैसे निपटायेगा ...
नेता तो ''मधु कोड़ा'' का सपना देखते हैं , ये भला ये सब
कब सोचने वाले !
औरंगजेब से सम्बंधित जानकारी दिलचस्प लगी ...
आभार ... ...
अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी से सहमत
ReplyDeleteयह इन्सान का किया धरा है, पर इन्सान अपने विनाश तक यह सब बंद नहीं करेगा.
नीलगाय के मारने की खबर से पूस की रात ( प्रेमचंद) के हल्कू किसान, उसकी पत्नी मुन्नी और कुत्ते झबरा को अब जाकर तनिक राहत की सांस मिली होगी :)
ReplyDeleteजब खेत ही नीलगायों की भेंट चढ गया तो हल्कू ने कहा भी था - किसानी न कर अब, मजदूरी ही करेंगे कम से कम इस ठंड में यहां खेत में तो न सोना पडेगा।
शहर में रहकर वन्यजीव प्रेमी बनने और किसानी करने में बहुत फर्क है। नीलगायों की बढती संख्या सचमुच परिस्थ्ति को गंभीर बनाता जा रहा है।
असल में नीलगाय को वो लोग सेन्सेक्स का बुल समझ रहे हैं जो दाल के इन्डेक्स को ऊपर चढा रहा है। यदि बुल न रहा तो सेंसेक्स कैसे चढेगा? :)
ReplyDeleteकुश
ReplyDeleteक्या क्या खाना छोड़ोगे ? क्या तुम गेहूं ,बाजरा ,मक्का ,चावल सब छोड़ सकते हो ? नीलगाय तो सभी फसलों को नुकसान पहुंचाती है तुम क्या क्या खाना छोड़ोगे ?
तुम भी यदि किसान होते तो अपने खेतों में नीलगायों द्वारा फसलों की बर्बादी देख इनके शिकार की इजाजत के लिए तहसीलदार के यहाँ चक्कर लगा रहे होते |
ये "ब्लडी हलकट लोग!" कहना बहुत आसान है | दर्द उसी को होता है जिसकी कोहनी पर चोट लगती है | तुम्हे क्या पता किसान के दुःख का ?
when there is no protection for Gaay (Cow) , why crib so much for 'neel gaay' ? very Brown Sahib like thinking !
ReplyDeleteनीलगाय को मारना हल नहीं है । उन्हें या तो जंगल में धकेल दें या अपने खेतों के चारों ओर बाड़ लगायें । हम जंगल खा गये हैं तो नीलगायें दाल खा रही हैं । प्राकृतिक न्याय है !
ReplyDelete@प्रवीण पाण्डेय जी,
ReplyDeleteनीलगाय और जंगली सूअर हमारे पालतू जीव नहीं हैं कि आप उनके गले में रस्सी डालेंगे और उन्हें "जंगलों" में हकाल आयेंगे. ये जंगली जीव हैं और आक्रामक होते हैं. अनेकों लोग इनके हमलों में जान तक गवां चुके हैं. इनसे मुकाबले के लिए भाले, बल्लम और बंदूकों के साथ-साथ काफी हिम्मत की भी जरूरत पड़ती है लेकिन जैसे ही आप इन हथियारों का प्रयोग करते हैं आप पर वन्य जीव संरक्षण अधिनियम के तहत केस बन जाता है. मतलब किसान जान और फसल तो गंवाए लेकिन मुकाबला न करे. (कई बार तो दिशा-मैदान, खेतों की देखभाल, सब्जियां तोड़ने जैसे कार्य करते हुए भी किसान, महिलाएं और बच्चे हमले का शिकार हो जाते हैं). बाड़ लगाने का खर्च किसानो के बूते से बाहर की चीज है क्योंकि लोहे, स्टील और सीमेंट के आसमान छूते दामों के बीच किसान खाद, बीज और सिंचाई के लिए रकम जुटाए या बाड़ के लिए. वैसे भी साधारण बाड़ इसमें कारगर नहीं होती क्योंकि ये उसे तोड़ देने या फिर फांद जाने की सामर्थ्य रखते हैं.
@अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी जी,
ये जीव नेपाल के तराई क्षेत्रों से भाग कर यहाँ आये हैं जो कि यहाँ से २००-५०० कि0 मी० दूर है. ऐसे में ये किसान अपनी खेती बाड़ी देखें या नेपाल की सीमा में जाकर जंगलों को बचाएं. यह एक ऐसी समस्या है जो खड़ी की है वन-विभाग के भ्रष्टाचार और नाकारापन ने और भुगत रहे हैं किसान.
यह कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है जहाँ लोगों ने जंगल काटकर खेती शुरू कर दी हो. सदियों से यहाँ गाँव आबाद है और खेती किसानी हो रही है जबकि यह समस्या अभी आठ-दस बरस पहले ही शुरू हुई है.
@नीरज गोस्वामी जी,
किसान अपना खेत खुला नहीं छोड़ता बल्कि नीलगाय उसमे घुस आती है. वैसे नीलगाय तो घास छोड़कर अरहर खा लेगी लेकिन आपको पागल कुत्ता काट भी ले तो भी आप घास नहीं खा पाएंगे.
जैसा कि मैंने कहा है कि किसान इन्हें कोई शौकिया नहीं मारता है. वैसे भी ग्रामीण किसान से ज्यादा धर्मभीरू कोई नहीं होता. किसी जीव की हत्या करना किसान पाप ही समझता है और अगर वह जीव "गाय" हो तो तौबा-तौबा!! और सच बात यह है कि यदि यह जीव किसानों का इतना नुकसान करने के बाद भी अभी तक बचे हुए हैं तो यह किसानों कि धर्मभीरूता और इनके नाम के साथ 'गाय' जुड़ा होने के कारण ही है. जो थोड़े -बहुत जीव मारे भी जाते हैं तो वे भी मुस्लिम समुदाय (कृपया इसे साम्प्रदायिकता से ना जोड़े) के किसानो द्वारा लेकिन सूअर को वे भी नहीं मारते:)
इस समस्या के समाधान के लिए यहाँ शहरों में बैठकर गाल बजाने के बजाए लोगों को सरकार पर दबाव बनाना चाहिए. किसान का विरोध कर आप क्या-क्या खाना छोड़ देंगे?? किसान तो अपने खेतों में कुछ न कुछ पैदा कर अपना पेट भर लेगा लेकिन आप चाहे कितना भी पैसा कमाते हों आप पैसे को खा नहीं सकते. अनाज खरीदने के लिए आप किसान पर ही निर्भर हैं और अगर किसान के पास अधिशेष उत्पादन नहीं हुआ तो आप पैसा होते हुए भी भूखे मरने लगेंगे.
कुछ अंग्रेजीदां लोग जिन्हें यह नहीं पता कि आलू जमीन के नीचे होता है या ऊपर, वे यह जान लें कि "पिज्जा" भी मैदे और आटे से ही बनता है.
आढ़तियों की किए की सज़ा बेचारी नीलगाय भुगतेगी.
ReplyDelete@निशाचर
ReplyDeleteभाई !
मेरा आग्रह किसानों के मथ्थे दोष मढने का नहीं है |
मेरी सम्बेदना किसानों के साथ है | आप मेरे आशय को
न भांप सके , इसका मुझे अफ़सोस है | मेरा संकेत उन बेहूदी
हरकतों की तरफ था जिनकी सजा निर्दोष नीलगायों और
किसानों दोनों को मिल रही है | हाँ ; मै दोनों को साथ ले
कर चलना चाहता हूँ और उनसे मेरा विरोध है जो नीलगाय को
''मानव के लिए नुकसानदेय '' ही मान बैठे हैं | जाने कितनी चीजें
''प्रो-ह्यूमन '' नहीं हैं , तो क्या इसका तात्पर्य यह है कि उनका
नमो-निशान मिटा दिया जाय !
क्षमा चाहूँगा मैं ऐसा नहीं सोचता ... ...
@अमरेन्द्र जी,
ReplyDeleteजैसा कि मैंने कहा किसान भी इन्हें मारना नहीं चाहता परन्तु वन्य जीव अधिनियम के कारण वह अपनी रक्षा तक करने में असमर्थ हो रहा है. अभी हाल ही में लखीमपुर के जंगलों से एक बाघ निकलकर लखनऊ, बाराबंकी, फैजाबाद होते हुए गोरखपुर तक पहुँच गया. वह जिन क्षेत्रों से गुजरा वह दस पंद्रह दिनों के लिए नीलगायों के प्रकोप से मुक्त हो गया. मेरे कहने का मतलब है कि किसी भी प्रकार का खतरा न होने के कारण यह जीव निर्द्वंद हो गएँ है. यदि इन्हें मारने की इजाजत दे दी जाती है तो कुछ एक के मारे जाने से ये स्वयं ही इन इलाको को छोड़कर भाग जाएँगी और शेष मरने से बच जाएँगी. खेती वाले क्षेत्रों में बिना किसी खतरे और आसान भोजन की प्रचुरता के कारण इनकी आबादी तेजी से बढ़ रही है. ऐसे में एक न एक दिन इनके और मानव के बीच संघर्ष अवश्यम्भावी है. परन्तु तब किसानों के एकजुट और आक्रोशपूर्ण हमलों से शायद इनका अस्तित्व ही समाप्त हो जाये.
लगे रहो निशाचर भैया। हम हैं पीछे। देख रहे हैं कि लोग क्या क्या तर्क ले कर आ रहे हैं। ...
ReplyDeleteवास्तविकता का आइना बखूबी दिखा रहे हो लोगों को !
गिरिजेश भाई, दुकानों से पैकेट बंद राशन खरीदते-खरीदते लोग यह समझने लगे हैं कि सब-कुछ फैक्टरियों में बनता है और किसान तो एक ऐसा जीव है जो इस "माल संस्कृति" वाले समाज पर बोझ बना हुआ है. नीलगाय के लिए मोमबत्ती मार्च को हुलसने वाले लोग यह भूल जाते हैं कि मोमबत्ती में लगे धागे का कपास भी किसान के खेत से ही आया है.
ReplyDelete@ निशाचर &गिरिजेश राव
ReplyDeleteभाई !
अब तो आप लोग '' कौन ज्यादा जनवादी और कौन ज्यादा माल संस्कृति-वादी ''
की डिबेट ( ? ) में आ गए हैं | मुझमे कितनी किसानी है , इसका ढोल मैं नहीं पीटना
चाहता ... जार्ज बुश मार्का मानसिकता तो सदैव से यही कहती आयी है,जो मेरे साथ नहीं है
वह आतंकवाद के साथ है ...आपसे जो असहमत है वह इस खांचे में है --- '' दुकानों से पैकेट
बंद राशन खरीदते-खरीदते लोग यह समझने लगे हैं कि सब-कुछ फैक्टरियों में बनता है और
किसान तो एक ऐसा जीव है जो इस "माल संस्कृति" वाले समाज पर बोझ बना हुआ है.'' ( आपका
लोक-हित-कामी{?} बीज-वाक्य ) | अब आगे कुछ कहूँगा तो आप कहेंगे कि मैं साक्षात् हिटलर हूँ ...
आप लोगों का लक्ष्य मुझे मौन कर देना हो , तब मेरा मौन हो जाना ही यथेष्ट होगा ......
अस्तु , साथियों ! मौन के पूर्व का मेरा प्रणाम स्वीकारें ( अगर माल - संस्कृति का न लगे तभी ) ... ... ...
बहुत तर्क दिखे लेकिन मैं कभी सहमत नहीं हो सकता कि नीलगाय को मारना हल है... पर फिर मैं तो बिच्छु, सांप भी ना मारने की वकालत करूँगा. क्या ऐसा नहीं हो सकता कि अरहर की ऐसी प्रजाति विकसित की जाय जिसे नीलगाय खाए ही न? अब कोई ये मत कहना कि असंभव है. क्या-क्या मारोगे?
ReplyDelete.
ReplyDelete.
.
आदरणीय ज्ञानदत्त जी,
क्षमा चाहता हूँ कि इस चर्चा में पहले शामिल न हो सका... जो कहूँगा उससे पहले एक तथ्य की ओर ध्यान दिलाऊंगा... पीपल का पेड़ पूज्य है पर आप इसे केवल सरकारी या सार्वजनिक जमीन पर ही खड़ा पायेंगे... ज्यादातर... मैंने निजी जमीन या खेत पर बहुत कम देखा है इसे।
इसी तरह नीलगाय या जंगली सूअर अगर किसान के पेट पर लात मारने लगे हैं और इनके विलु्प्त होने का कोई खतरा नहीं है फिलहाल तो मारने की छूट मिलनी ही चाहिये... व्यक्तिगत अनुभव से कहूंगा कि 'जंगली' के स्वाद को तो मुकाबला ही नहीं....
आओ 'शाश्वत सत्य' को अंगीकार करें........प्रवीण शाह
@अभिषेक ओझा जी,
ReplyDeleteजहाँ तक बात जीव हत्या की है तो मांसाहारी लोग रोज मटन, मुर्गा, अंडे, मछलियाँ और भी बहुत कुछ रोज खा रहे हैं. यहाँ तक कि शाकाहारी लोग अपने घरों में चूहे, काकरोच, मच्छर, खटमल रोज मार रहे हैं. तो यह तो मत ही पूछिए कि क्या-क्या मारोगे?
@अमरेन्द्र जी, मैं स्वयं भी केवल २०० कि0 मी० दूर होने के बावजूद अपने गाँव कभी-कभी और बड़े अंतराल के बाद ही जा पाता हूँ. मैं स्वयं को खुशकिस्मत समझता हूँ कि मैं ग्रामीण संस्कृति से कच्चे धागे से ही सही जुड़ा हुआ तो हूँ परन्तु शहरों में अब ऐसी पीढियां तैयार हो गयी हैं जिन्होंने ग्रामीण जीवन (वह भी अतिरंजित ग्लेमर पूर्ण) केवल सिनेमा और टेलीविजन के रूपहले परदे पर ही देखा है. इन्ही लोगों के लिए अखबारों ने दिल्ली में हुए गन्ना किसानों के प्रदर्शन पर शीर्षक लगाया "BITTER HARVEST,THEY PROTESTED,DRANK,VANDALISED AND PEED". अब बताईये कि किसान सात सालों से गन्ने के उचित और समय पर भुगतान की मांग कर रहा है- कोई सुनता नहीं, और जब वह दिल्ली आकर प्रदर्शन करता है तो उसके पेशाब करने से दिल्ली गन्दी हो जाती है.क्या किसान अब दिल्ली के लिए इस कदर अछूत है कि वह अपना दुखड़ा रोने भी वहां न आये??
अब इसी पोस्ट पर देखिये- इस समस्या के जितने भी समाधान सुझाये गए उनमें से एक भी व्यावहारिक है क्या? कितने "कैजुअल" तरीके से लोग बाड़ लगाने, दूसरी फसले बोने, नई प्रजाति विकसित करने, जंगलो में हांक देने, खेत खुला छोड़ देने के लिए प्रताड़ना देने और यहाँ तक कि दाल ना खाने की बात करते हैं. लेकिन सचमुच ही दाल न मिले तो लोग क्या खायेंगे- अंडा, मुर्गा, मटन या फिर नीलगाय का गोश्त ?? और यह समस्या सिर्फ अरहर की दाल के साथ नहीं है, सरसों, आलू, सब्जियां तक इस समस्या से पीड़ित है. अब क्या- क्या खाना छोड़ देंगे??
नीलगाय का अस्तित्व जंगलों में ही सुरक्षित हो सकता है मैदानी और कृषि क्षेत्रों में आने से मनुष्य के साथ इसका टकराव टाला नहीं जा सकता. इन्हें वन क्षेत्रों की और धकेलने और वन क्षेत्रों को सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी वन विभाग उठाने को तैयार नहीं है. खाली हाथों से इन्हें खदेड़ना भी असुरक्षित और ख़ुदकुशी करने जैसा ही है. किसानों को, इन्हें मारकर न तो कोई सुख मिलने वाला है न ही फ़ायदा. फिर वन्य जीव अधिनियम के तहत इन्हें संरक्षित करने का कोई औचित्य नहीं है क्योंकि यदि इस जीव का शिकार आर्थिक रूप से फायदेमंद होता तो कानून होने या न होने से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था, यह अब तक वैसे ही विलुप्त हो चुका होता- जैसा कि शेर, बाघ, भालू, चीता, कस्तूरी मृग, चिरु आदि के साथ हो रहा है. इन्हें मारने कि अनुमति देने का मतलब यह नहीं है कि किसान इनका अंधाधुंध शिकार करने लगेंगे क्योंकि पीड़ित क्षेत्रों के अधिकांश किसान शाकाहारी हैं और फिर 'गाय' होने के कारण इसकी हत्या करने का पाप भी वे नहीं लेना चाहते. इस अनुमति का अर्थ सिर्फ यही होगा कि वे सशस्त्र होकर उन्हें अपने खेतों और अपने क्षेत्रों से दूर खदेड़ने में समर्थ हो जायेंगे. अगर यह जिम्मेदारी सरकार अपने हाथों में लेकर पूरी करे तो भी किसान को क्या आपत्ति हो सकती है. किसान की मांग है कि उसकी समस्या का समाधान हो और जल्द हो - कैसे और किसके द्वारा इस पर विचार करने की शक्ति और सामर्थ्य उसके पास नहीं है.
मेरे आक्रोश का लक्ष्य आप नहीं हैं और न ही मैंने आपकी बात का विरोध किया था बल्कि मैंने आपकी शंकाओं पर स्पष्टीकरण ही दिया था. मेरा इरादा इसे 'जनवादी' बनाम 'मॉल संस्कृति' की बहस में बदलने का भी नहीं है.
आपके मौन में मेरा कोई हित नहीं है. थोड़े गंभीर, सहानुभूतिपूर्ण और व्यावहारिक सुझावों के साथ सभी आगे आयें क्योंकि यह समस्या सिर्फ किसान की नहीं है, भोजन के लिए किसान पर आश्रित पूरे देश की है.
पहले यह बात साफ़ कर दूं की मैं पर्यावरण वादी हूँ और प्रकृति प्रेमी भी .
ReplyDeleteन्यू योर्क में भी रहते हुए अपने गाँव कम से कम एक महीने ,साल में जरूर बिताये हैं.मैं अब भी खुद को वहीं का मानता हूँ की वह मेरा आनंद है.जो कुछ बन पड़े करता भी हूँ .दुनिया देखी है इसलिए , गाँव के लोगों के जीवन से ,उनकी वेदना से उद्दिघं हो जाता हूँ. औरों की तरह मैं भी किम्कर्ताव्य विमूढ़ हूँ.
नीलगाय और जंगली सूअरों की समस्या बिना गाँव में रहे /जीए समझी भी नहीं जा सकती.बात यहाँ तक चाहे जैसे पहुँची हो ,किसान तो नहीं ही जिम्मेदार है .
और इसलिए ,भले अनीक्सा से ही , अगर किसान और नीलगाय में से एक ही के अस्तित्व का सवाल आएगा ,मैं खुद को किसान के साथ ही खड़ा पाऊंगा.
यह सिर्फ अरहर की दाल का सवाल नहीं है. हमारी अपनी प्रजाति के निम्नतम पायदान पर खड़े नीरीह किसान का सवाल है .क्या करे वह .कितना करे वह . वह भी सिर्फ जिन्दा बने रहने के लिए .
आत्म हत्या करे ?
नीरज जी आप कनाडा में रहते हैं और मैं अमेरिका में .जिस सुविधा जीवी समाज में हम पलायन कर गए हैं, कम से कम वहीं का अनुसरण करें .दोनों ही देशों में प्राकृतिक बैलेंस बनाये रखने के लिए हिरन प्रजाति का सीमित शिकार ( लाइसेंस के तहत और वन्य नियमन विधान के अनुसार ) कानून की सीमा में किया जाता है .हम क्यूं नहीं कर सकते ? किसान को बचाना होगा .चाहे जिस कीमत पर .
और जानता हूँ , बहुत सारे मित्रों की नजर में मैं छोटा समझा जाऊँगा , अपनी अंतरात्मा पर भी बोझ dhoungaa पर इस समस्या का निजात होना जरूरी है .
धर्मभीरु किसान भी शायद मुझसे विमुख हों ,अपने गाँव में ही काफी अकेला पड़ जाऊँगा पर इस नियम के तहत ,बन्दूक उठाऊँगा .इस वक़्त तो मेरा यही ' धर्म ' होगा .और यह धर्म ,कर्म समझ कर ही करूंगा .
विनम्र किसानों से सहानुभूति और क्षमा-याचना के साथ इतना ज़रूर जोड़ना चाहूंगा कि नीलगाय से ज़्यादा दाल तो इंसान खा जाते हैं. कहीं अगली बारी इंसानों के शिकार को कानूनी जामा पहनाने की न हो. यहाँ भी मोहल्ले भर की सब्जी की फसलों को हिरणों के झुण्ड के झुण्ड द्वारा खा जाने की संभावना होती हैं. कुछ इलाकों में साल के सीमित महीनों में हिरणों के शिकार का परमिट भी दिया जाता है जिसके पीछे के तर्कों में एक फसलों की रक्षा का भी है. मगर अनेकों क्षेत्रों के लोग शिकार पर प्रतिबन्ध लगाने के पक्ष में खड़े हो रहे हैं. शिकार के अलावा अनेकों विकल्प हैं उदाहरण के लिए विशिष्ट गंधों के छिडकाव द्वारा पशुओं को अपने खेत से विरक्त करना जिन्हें लोग प्रयोग भी करते हैं.
ReplyDeleteHam hmaalaya ke sampatiheen kisaan hain aur kheton me kaam karte hain. Ham ne ek seedhi si baat ki thi ki manushya apna pet bharne ke liye agar kudrat par kabza jamaata chala jayega to sirf maasoom jaanwar hi nahin maare jaayenge, manushya bhi buri tarah marega. Wah buri tarah mar hi raha hai. Chillane se kuchh nahi hoga. Neel gaay ya aurat gaay ya koi bhi Gaoo swabhaav aaj hairaan hai. Yahaan himaalay me maansaahaar sada se hai. har kahi jaanwar kat rahe hain. Sirf apni sankhya aur sukh batorne me laga Manushya swayam nasht hone ke liye hi prakriti ko nasht karta hai aur uski saza jeevon ko deta hai. Hamne neelgaay ke bahane yahi kahna chaaha tha. Yadi is se kisi vidwaan ya kisaan ki bhaawnaaon ko thes lagi ho to we bhaawnaayen bhaad me jaayen. Unki naslen aabaad rahen aur kudrat ki faslen barbaad hoti rahen! Lekin sach yahi hai ki bachta wahi hai jo chetana sahit rachta hai. Jeete rahne ya mar jaane se ye afsaane nahi pahchaane ja sakte. Nark walon ko nark mubarak!
ReplyDeleteSnowa borno aur Sainny Ashesh
ये मनुष्य ही है जिसे
ReplyDelete" RATIONAL & THINKING HUMAN BEING "
कहा गया है
सोचिये , कोइ निदान तो होगा
- लावण्या
ज्ञान जी, आपने मेरी टिप्पणियां हटा क्यों दीं मुझे कुछ समझ नहीं आया..........
ReplyDeleteब्लडी हलकट लोग!
ReplyDelete@ निशाचर जी, यह मुझे भी समझ में नहीं आ रहा है! कुछ टिप्पणियां और थीं - यह तो पासवर्ड हेकिंक का मामला सा लगता है?! मैं आपकी सभी टिप्पणियों का कम्पैण्डियम लगाता हूं।
ReplyDeleteनिशाचर जी की टिप्पणियों का कम्पैण्डियम पोस्ट की बॉडी में लगा दिया है मैने।
ReplyDeleteज्ञान जी कुछ तकनीकी समस्या होगी शायद......आपको कष्ट उठाना पड़ा इसके लिए क्षमा चाहता हूँ.
ReplyDeleteश्री ज्ञान जी, चिट्ठी चर्चा आपकी इस पोस्ट की चर्चा हुई है, शायद आप पढ़ न सके होगे :)
ReplyDelete