Sunday, November 22, 2009

एक साहबी आत्मा (?) के प्रलाप

DSC00291 मानसिक हलचल एक ब्राउन साहबी आत्मा का प्रलाप है। जिसे आधारभूत वास्तविकतायें ज्ञात नहीं। जिसकी इच्छायें बटन दबाते पूर्ण होती हैं। जिसे अगले दिन, महीने, साल, दशक या शेष जीवन की फिक्र करने की जरूरत नहीं।

इस आकलन पर मैं आहत होता हूं। क्या ऐसा है?
नोट - यह पोस्ट मेरी पिछली पोस्ट के संदर्भ में है। वहां मैने नीलगाय के पक्ष में अपना रुंझान दिखाया था। मैं किसान के खिलाफ भी नहीं हूं, पर मैं उस समाधान की चाह रखता हूं जिसमें दोनों जी सकें। उसपर मुनीश जी ने कहा है - very Brown Sahib like thinking! इस पोस्ट में ब्राउन साहब (?) अपने अंदर को बाहर रख रहा है।
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और क्या दमदार टिप्पणियां हैं पिछली पोस्ट पर। ऐसी परस्पर विरोधी, विचारों को खड़बड़ाने वाली टिप्पणियां पा कर तो कोई भी ब्लॉगर गार्डन गार्डन हो जाये! निशाचर जी तो अन्ततक लगे रहे नीलगायवादियों को खदेड़ने में! सारी डिबेट क्या क्या मारोगे और क्या क्या खाना छोड़ोगे की है! असल में समधान उस स्तर पर निकलना नहीं, जिस स्तर ने समस्या पैदा की है!
मेरे समधीजी कहते हैं – भईया, गांव जाया करो। जमीन से जुड़ाव महसूस होगा और गांव वाला भी आपको अपना समझेगा। जाने की जरूरत न हो, तब भी जाया करो – यूंही। छ महीने के अन्तराल पर साल में दो बार तो समधीजी से मिलता ही हूं। और हर बार यह बात कहते हैं - “भईया, अपने क्षेत्र में और गांव में तो मैं लोगों के साथ जमीन पर बैठने में शर्म नहीं महसूस करता। जो जमीन पर बैठे वो जम्मींदार और जो चौकी पर (कुर्सी पर) बैठे वो चौकीदार”!  मैं हर बार उनसे कहता हूं कि गांव से जुड़ूंगा। पर हर बार वह एक खोखले संकल्प सा बन कर रह जाता है। मेरा दफ्तरी काम मुझे घसीटे रहता है।

और मैं जम्मींदार बनने की बजाय चौकीदार बने रहने को अभिशप्त हूं?! गांव जाने लगूं तो क्या नीलगाय मारक में तब्दील हो जाऊंगा? शायद नहीं। पर तब समस्या बेहतर समझ कर समाधान की सोच सकूंगा।

संघ लोक सेवा आयोग के साक्षात्कार में केण्डीडेट सीधे या ऑब्ट्यूस सन्दर्भ में देशभक्ति ठेलने का यत्न करता है – ईमानदारी और देश सेवा के आदर्श री-इटरेट करता है। पता नहीं, साक्षात्कार लेने वाले कितना मनोरंजन पाते होते होंगे – “यही पठ्ठा जो आदर्श बूंक रहा है, साहब बनने पर (हमारी तरह) सुविधायें तलाशने लगेगा”! चयनित होने पर लड़की के माई-बाप दहेज ले कर दौड़ते हैं और उसके खुद के माई बाप अपने को राजा दरभंगा समझने लगते हैं। पर तीस साल नौकरी में गुजारने के बाद (असलियत में) मुझे लगता है कि जीवन सतत समझौतों का नाम है। कोई पैसा पीट रहा है तो अपने जमीर से समझौते कर रहा है पर जो नहीं भी कर रहा वह भी तरह तरह के समझौते ही कर रहा है। और नहीं तो मुनीश जी जैसे लोग हैं जो लैम्पूनिंग करते, आदमी को उसकी बिरादरी के आधार पर टैग चिपकाने को आतुर रहते हैं।

नहीं, यह आस्था चैनल नहीं है। और यह कोई डिफेंसिव स्टेटमेण्ट भी नहीं है। मेरी संवेदनायें किसान के साथ भी हैं और निरीह पशु के साथ भी। और कोई साहबी प्रिटेंशन्स भी नहीं हैं। हां, यह प्रलाप अवश्य है – चूंकि मेरे पास कई मुद्दों के समाधान नहीं हैं। पर कितने लोगों के पास समाधान हैं? अधिकांश प्रलाप ही तो कर रहे हैं। और मेरा प्रलाप उनके प्रलाप से घटिया थोड़े ही है!     

37 comments:

  1. समधी जी बिलकुल बजा फरमाते हैं -आप गाँव गिरावं जाया करिए -जरा जमीन जायदाद पर पर भी नजर रखिये १ आदरणीय रीता भाभी को भी ले जाया करिये ! नौकरी कब तक है -जीवन के और मायने भी तो खोजे जाने चाहिए ,है की नहीं ज्ञान जी ?

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  2. सूक्ति - "जीवन सतत समझौतों का नाम है ।"

    @ "अधिकांश प्रलाप ही तो कर रहे हैं .."
    मेरे नाटक का बुद्ध भी यूँ ही बड़बड़ाने वाला प्रलापी है, पर....

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  3. ओह..!!!शब्द आहत भी कर देते हैं ...पर आप डिगने वालों में से नहीं...

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  4. Gyaan ji is not fashionable or politically correct even for animal-rights activists to speak for poor COW (Gayy-mayya), but to speak for the rights of stray dogs , man eating leopards and crocodiles is very much in vogue . So, when you talked of saving crop -destroyer Neel Gaay ; i too got hurt . Please note Neel gaay is a big problem for farming community of Haryana and Rajasthan as well. Herds of this animal have caused many road accidents .


    I am one of your admirers Gyan ji
    and it was not my intention to hurt you , but if it so happened ,even though in a humourous vein,I apologise unconditionally.

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  5. "यही पठ्ठा जो आदर्श बूंक रहा है, साहब बनने पर (हमारी तरह) सुविधायें तलाशने लगेगा”! "

    यह हमारे देश में दी जाने वाली शिक्षा का ही परिणाम है।

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  6. Pls. read the missing "It" in the first line !

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  7. प्रलाप ही सही..भीतर कहीं किसी कोने से तो निकलता है प्रलाप.. वरना आज तो बाबू लोगों को प्रलाप तक के फ़ैशन की भी फुर्सत नहीं रही है

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  8. देखा आपने। आपने मुनीश की टिप्पणी को लैम्पूनिंग कहा और उन्होंने अपनी बात साफ़ करते हुये तड़ से अनकंडीशनल क्षमा मांग ली। अब आप का करोगे? एक पोस्ट लिखोगे या यहीं कहोंगे कि लैम्पूनिंग से मेरा मतलब था......। बहुत कठिन है डगर ब्लागिंग की। है न!

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  9. ये प्रलाप भारत से भागे हुए भारतवासी का है (नॉन रिलायबल इंडियन; कोई क्रांतिकारी कुछ बोले उससे पहले अपने जूते को अपने सर पर मार लिया जाए कोई बुराई नहीं है, कम से कम क्रांतिकारियों का एक बोझ कम हो जायेगा)
    तो गौर फरमाए...
    जम्मीदार तो बनना ही पड़ेगा, चाहे जैसे भी हालात हो चाहे प्रकृति को बचाना हो या बिगाड़ना हो ( अगर एक नया मेट्रोपोलिटन सिटी ही बसाना हो):) , अपने मन का नया काम कमसे कम भारतीय शहरों में तो नहीं ही किया जा सकता है. तो अगर सुविधा है तो जड़ो को पकड़ के रखिये. हां जड़ को फिर से ज़माने में मेहनत तो लगेगी ही.
    पिछली पोस्ट सचमुच मानसिक हलचल पैदा करने वाली रही, कुछ हलचल मेरी तरफ से-
    नीलगाय वाली समस्या का हल निशाचर जी की आखिरी टिपण्णी और आप के ब्लॉग के प्रारंभ में ही है, ये बात अलग है की बहस शहरी और ग्रामीण के नाम पर झिक झिक में बदल गयी. फ़ूड चेन के सबसे शिखर पर बैठे प्राकृतिक नियंत्रक यानी बड़े शिकारी शेर, बाघ, चीता, तेंदुआ, लोमड़ी, सियार, लकड़ बग्घा को तो "धर्मभीरु " राजा, नवाब और शिकारी साहब लोग मार के खा गए, तो नीचे की जनसँख्या का नियंत्रण कौन करेगा. इसलिए एक समझदार तरीका तो अपनाना ही होगा, नियंत्रित तरीके से पुराने पाप का असर कम करना ही होगा चाहे ये नया पाप ही हो . एक टिपण्णी और है कि नीलगायो का बंध्याकरण कर दिया जाय, सुनने में ये शायद कम क्रूर लगे, लेकिन ये एक अव्यवहारिक कदम ही होगा, नीलगाय ना तो दो चार की संख्या में है, ना तो पालतू जानवर है की उसको पकड़ा जा सके, तथा बंध्याकरण पर भी वो भोजन करना तो छोड़ेंगे नहीं, हां शायद वो ज्यादे आक्रामक हो जायेंगे ( ये तो सभी स्वीकार करेंगे की गैर पालतू जानवर का व्यवहार उसके शारीरिक परिवर्तन के बाद क्या होगा इसका केवल अनुमान लगाया जा सकता है). बेहतर यही होगा की प्राकृतिक संरक्षण को ध्यान में रखते हुए संरक्षित शिकार के साथ नीलगायो की जनसँख्या को नियंत्रित किया जाए.

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  10. गाँव से आप का सरोकार नहीं रहा है तो गाँव जाने का कोई अर्थ नहीं है। गाँव से सरोकार बनाना है तो वहाँ जमीन का एक टुकड़ा आप का होना चाहिए। वह नहीं तो बनाना चाहिए। नहीं तो जहाँ हम अपना जीवन जी रहे हैं वहीं कुछ सार्थक भी कर सकते हैं। मैं समझता हूँ आप करते भी होंगे। आप में मानव जीवन के प्रति जो प्रतिबद्धता है वह चुप नहीं रह सकती। गंगातीर की सफाई की बात यूँ ही पैदा नहीं होती। अगर आप अफसर हैं तो अफसर बन कर रहना भी पड़ेगा, वर्ना आप अपनी ड्यूटी नहीं कर पाएँगे। समय तो अब नौकरी में तो और कम होता जाएगा, उस के मिलने की संभावना तो सेवानिवृत्ति के पहले नहीं हो सकती। असल मुसीबत तो हम जैसे प्रोफेशनल लोगों के सामने है जिन का कोई रिटायरमेंट नहीं है। उन्हें तो इसी वक्त अपने लिए समय निकालना होता है। प्रोफेशन की अपनी चुनौतियाँ हैं। वहाँ सतत सजग रहना होता है, जरा सी चूक हुई नहीं कि पैरों तले जमीन ऐसे खिसकती है कि पता नहीं चलता है। पता चलता है जब तक आप जमींदोज हो चुके होते हैं।

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  11. वोट जो ना कराये थोडा है . सिन्धिया भी गरीब के घर रोटी बना रहे थे जिन्के परिवार की महिलाओ ने शायद सदियो से रोटी नही बनाई होगी .
    आप गाँव गिरावं जाया करिए -जरा जमीन जायदाद पर पर भी नजर रखिये . लेकिन आप बहुत खटकेंगे उन की नज़रो मे जो आज कल देखभाल कर रहे आप की जायदाद का

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  12. दिनेश जी की टिप्पणी से सहमत |

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  13. हर शहरी गाँव जाय यह जरूरी नहीं. जो जहां है वहीं रह कर अपने कर्तव्य ( स्वयम के प्रति, परिवार के प्रति, समाज के प्रति, देश के प्रति आदि)पूरा करता रहे इतना पर्याप्त है. हाँ राजनीतिक लोगों के लिए गाँव, गरीब और कमजोर के प्रति (शाब्दिक ही सही )सहानुभूति दिखाना मजबूरी है.

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  14. आप से सहमत हूँ....हमारे गाँव के पास एक बड़े जगल था अभी उसे उजाड़ कर खेत बनाया जा रहा है। नील गायों को पता नहीं कहाँ शरण मिली होगी...किसी मुनीश के कहने पर न जाएँ....
    और यह समधी जी का क्या रहस्य है...

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  15. संवेदनशील रचना। बधाई।

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  16. आजकल हर कोई चौकीदार बनना चाहता ज़मीनदार नहीं :)

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  17. देव !
    आपसे सहमत हूँ |
    समधी जी की बात सही है , गाँव जाना और समझना
    जीवन को सम्पूर्णता में समझने में मदद देता है | किन्तु जो
    न जा पायें उनकी संवेदनशीलता को किसी खांचे में फिट करना
    असहिष्णुता होगी , ( चाहे वह '' Brown Sahib '' का खांचा ही क्यों न हो )
    ऐसी स्थिति में बात देखी जानी चाहिए न कि बैक-ग्राउंड
    यानी ''मोल करो तलवार का पड़ी रहन दो म्यान '' | क्या ग्राम
    जीवन को ''आहा! ग्राम जीवन ही क्या है ...'' के भाव से देखा जा
    सकता है ?,और ऐसी स्थिति में कोई आलोचनापरक हो तो उस पर
    नागर-संस्कृति का तमगा लगा देना निश्यय ही अनुचित होगा |

    @ हिमांशु जी
    आपने ' व्यापक दर्द ' में अपने बुद्ध का दर्द भी समेत दिया !
    विनम्र और सटीक ...!!!

    @ नीलगाय : बचाओ या मारो विवाद
    क्या कहूँ --- '' लोग नुक्ते का भी अफसाना बना लेते हैं ...''

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  18. समस्या तो यही है कि आज गांव में कोई रहना नहीं चाहता। स्थितियां विकट हैं गांवों में। बहुत पहले कहा जाता था,... उत्तम खेती मध्यम बान, निषिखि चाकरी भीख निदान। स्पष्ट रूप से भिखमंगे से थोडा़ ही स्तर ज्यादा था नौकरी करने वालों का। लेकिन आज १० एकड़ जमीन भी अगर गांव में है तो वह चौकीदार और चपरासी से खराब जीवन स्तर जी रहा है। कैसे वह अपने बच्चे को समझाए कि खेती करना उत्कृष्ठ है, गांव में रहना उत्कृष्ठ है।

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  19. गाव की जिन्दगी ही असली जिन्दगी है जी, आप के समधी सही फ़रमा रहे है, मै जब से यहां आया गाव मै ही रहता हुं, ओर भारत मै आते ही मुझे शहर से ज्यादा गांव अच्छे लगते है, लोग एक दुसरे के दुख मै सुख मै साथी बनते है, गांव मै गंदगी कम होती है..
    धन्यवाद

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  20. भावपूर्ण आलेख .. जड़ो से लगाव तो होना ही चाहिए . आपके समधीजी की नेक सलाह है . हवा पानी बदल जाता है .....

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  21. Kaka, aajkal gaon aur allahabad mein Jyada antar nahi raha. Gunga ka kinara aur gaon, dono mein bahut si samantayen hein. Phir Shivkuti kisi adhunik gaon se kam nahi hai. Faltu ki tension mat leo. Salah dene me apne jeb se kuch jata thode he hai. Muh khola aur Bhadak se salah de di. Jaise humne di.

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  22. प्रवीण शर्मा:, ...एक टिपण्णी और है कि नीलगायो का बंध्याकरण कर दिया जाय, सुनने में ये शायद कम क्रूर लगे, लेकिन ये एक अव्यवहारिक कदम ही होगा, नीलगाय ना तो दो चार की संख्या में है, ना तो पालतू जानवर है की उसको पकड़ा जा सके, तथा बंध्याकरण पर भी वो भोजन करना तो छोड़ेंगे नहीं, हां शायद वो ज्यादे आक्रामक हो जायेंगे ( ये तो सभी स्वीकार करेंगे की गैर पालतू जानवर का व्यवहार उसके शारीरिक परिवर्तन के बाद क्या होगा इसका केवल अनुमान लगाया जा सकता है)....

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  23. ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति: पृथिवी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति: । वनस्पतये: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति: सर्वँ शान्ति: शान्तिरेव शान्ति: सा मा शान्तिरेधि ॥ ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति: ॥

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  24. जीवन सतत समझौतों का नाम है।



    -वैसे गांव जाया करिये कभी कभी..अच्छा लगता है-

    -बकिया मामला तो निपट गया. :)

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  25. क्षामा प्रार्थी हूँ। तकनीकी अज्ञान ने अधूरी टिप्पणी पोस्ट करा दी। यह रही पूरी टिप्पणी..
    प्रवीण शर्मा: ...एक टिपण्णी और है कि नीलगायो का बंध्याकरण कर दिया जाय, सुनने में ये शायद कम क्रूर लगे, लेकिन ये एक अव्यवहारिक कदम ही होगा, नीलगाय ना तो दो चार की संख्या में है, ना तो पालतू जानवर है की उसको पकड़ा जा सके, तथा बंध्याकरण पर भी वो भोजन करना तो छोड़ेंगे नहीं, हां शायद वो ज्यादे आक्रामक हो जायेंगे ( ये तो सभी स्वीकार करेंगे की गैर पालतू जानवर का व्यवहार उसके शारीरिक परिवर्तन के बाद क्या होगा इसका केवल अनुमान लगाया जा सकता है)....

    नीलगायों के बन्ध्याकरण का सुझाव इसलिए दिया गया था कि इससे उनके प्रजनन पर नियन्त्रण होगा जो भविष्य में इनकी संख्या को कम करने में सहायक होगा। केवल नर नीलगायों [सही शब्द है या नहीं? नीलवृषभ:)] को चिह्नित करके उनकी प्रजनन क्षमता नष्ट कर देने में कोई बड़ी क्रूरता नहीं है। गाँव में पहले बछड़े को बैल बनाने के लिए उसका बन्ध्याकरण गाँव के ही कुछ लोग खास रीति से कर देते थे। यह थोड़ी क्रूर भी थी। इसमें उसके बृषण (अंडकोष) को पत्थर से कूट कर बेकार कर दिया जाता था, शुक्रवाहिनी नली को भी कुचलकर अवरुद्ध किया जाता था। अब शायद कोई वैज्ञानिक तरीका अपनाया जाता है। नर नीलगायों को ध्यान में रखकर कोई तकनीक ईजाद की जानी चाहिए।

    किसान का हित नीलगाय की जान से कम महत्वपूर्ण नहीं है। लेकिन इसके लिए नीलगाय की जान लेना ही एकमात्र विकल्प नहीं माना जा सकता है।

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  26. अच्छा है श्री ज्ञानदत्त पाण्डेय जी गाँव नहीं जा पा रहे हैं । जाने लगेंगे तो ब्लॉगों में रागदरबारी का ’बाप’ निकलेगा ।

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  27. नहीं महाराज. आप गाँव जाकर भी नीलगाय, हिरन या सूअर नहीं मारेंगे इसकी गारंटी है. और जो मारने की बात कर रहे हैं वे भी कब तक मारेंगे? मारते-मारते भारत और नेपाल की सारी नीलगाय ख़त्म कर देंगे इसकी क्या गारंटी है? छोटे मोटे जेबकतरों से लेकर दुर्दांत माओवादी तक कुछ भी तो ख़त्म कर नहीं सके, नीलगाय क्या ख़त्म करेंगे? अपने विचार इमानदारी से रखने में न साहबी है न ब्राउनी. वैसे भी इतिहास साक्षी है कि हिंसा किसी भी समस्या का सबसे अस्थायी हल है.

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  28. कह सकते है हम प्रलाप करने को अभिशप्त है. कुछ तो कर ही रहे हैं. गाँव से जुड़ाव वाला खयाल अच्छा है.

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  29. जो गाँव में रहते हैं, उनका कितना सरोकार है गाँव के साथ? गाँव जाकर लोगों के साथ गप्प-सड़ाका करके, ताश खेलकर, पड़ोसियों की बुराई सुनकर गाँव वालों के साथ तथाकथित नाता जोड़कर गाँव का कौन सा भला हो जाएगा?

    घुन्नन मिलन पार्ट-२ लिख दूँ क्या?

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  30. सबकी बात पढ़ ली अब क्या कहूं ?

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  31. culled a Nugget from this post which is
    " जीवन सतत समझौतों का नाम है। "
    & agree 100 % :-)
    &
    PETA ...is a powerful insitution !

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  32. आप कुछ भी हों, हिप्पोक्रेट तो नहीं हैं न। बस इतना काफी है। बिला वजह अपनी बात को पेले पड़े रहने वाले भी बहुत हैं, और किसी बात के पीछे लट्ठ लेकर पिल जाने वाले भी।

    अगर आप ब्राउन साहब भी हों, तो भी अधिसंख्यों से लाख गुना बेहतर हैं।

    रही बात गाँव जाने की, तो सिर्फ ताजी हवा और ताजा दूध के सिवा कुछ भी स्वस्थ नहीं मिलेगा अब आपको। गाँवों का वातावरण भी बहुत विषाक्त हो चुका है। टुच्ची राजनीति, सामाजिक सरोकारों और तेजी से बदलते मानदंडॊं ने कुछ भी पहले जैसा नहीं रहने दिया है।

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  33. ज्ञान जी, आपने मेरी टिप्पणियां हटा क्यों दीं मुझे कुछ समझ नहीं आया..........

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  34. @ निशाचर जी, यह मुझे भी समझ में नहीं आ रहा है! आपकी इस पोस्ट पर तो कोई टिप्पणी नहीं थी, पर पिछली पोस्ट पर कुछ टिप्पणियां और थीं - यह तो पासवर्ड हेकिंक का मामला सा लगता है?! मैं आपकी पिछली पोस्ट पर सभी टिप्पणियों का कम्पैण्डियम लगाता हूं।

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  35. निशाचर जी की टिप्पणियों का कम्पैण्डियम पिछली पोस्ट की बॉडी में लगा दिया है मैने।

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  36. ज्ञान जी, इस पोस्ट पर भी मैंने एक टिपण्णी दी थी जो तुरंत प्रकाशित भी हो गयी थी परन्तु आज नहीं दिख रही है. टिप्पणी कुछ यूँ थी-

    आदरणीय ज्ञान जी, एक महत्त्वपूर्ण एवं ज्वलंत विषय पर पोस्ट लिखने के लिए धन्यवाद. यह चर्चा शायद कुछ लम्बी खिंचती यदि comment moderation न होता (कृपया इसे अपने अधिकार क्षेत्र में अतिक्रमण न माने). इसी तरह व्यावहारिक परन्तु अनछुए मुद्दों पर स्वस्थ एवं रचनात्मक बहस होती रहे तो ब्लागजगत का वातावरण ज्यादा शुद्ध एवं "स्वच्छ" रहेगा. प्रणाम स्वीकार करें.

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  37. ज्ञान जी कुछ तकनीकी समस्या होगी शायद......

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आपको टिप्पणी करने के लिये अग्रिम धन्यवाद|

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--- सादर, ज्ञानदत्त पाण्डेय