मेरे मित्र और मेरे पश्चिम मध्य रेलवे के काउण्टरपार्ट श्री सैय्यद निशात अली ने मुझे फेक वर्क (Fake Work) नामक पुस्तक के बारे में बताया है।
हम सब बहुत व्यस्त हैं। रोज पहाड़ धकेल रहे हैं। पर अन्त में क्या पाते हैं? निशात जी ने जो बताया, वह अहसास हमें जमाने से है। पर उसकी किताब में फ़र्जी काम की चर्चा और उसकी जगह असली काम करने की स्ट्रेटेजी की बात है; यह पढ़ने का मन हो रहा है।
आप तो फेक वर्क की साइट देखें। उसमें एक कथा दी गयी है फ़र्जी काम को समझाने को -
सड़क जो कहीं नहीं जाती
मान लीजिये कि आप एक सड़क बना रहे हैं पहाड़ पर अपने ठिकाने पर जाने के लिये। आपने महीनों झाड़ झंखाड़, पेड़, पत्थर साफ किये हैं सर्दी, गर्मी, बरसात में बहुत मेहनत से। आपको सर्वेयर का प्लान जितना ढंग से समझ में आता है, उतना अनुसरण करते हुये, सब प्रकार की बाधायें पार करते हुये पथरीली जमीन पर आगे बढ़ने का काम किया है।
और तब आप अपने को सड़क के अंत में एक क्लिफ (पहाड़ के सीधी उतार के अन्त) पर पाते हैं।
फ़र्जी काम वैसा ही लगता और होता है। पहाड़ पर सड़क बनाने वाला। सड़क बनाना ध्येय पूर्ण था। आपका काम तो अति प्रशंसनीय! खून, पसीना, आंसू जो आपने लगाये, वे अभूतपूर्व थे। आपकी प्रतिबद्धता का तो जवाब नहीं। पर वह सब कोई काम का नहीं।
वह सड़क तो कहीं नहीं जाती!
आज रविवार है तो फ़र्जी काम पर सोचने को समय मिला। अब देखते हैं, कल कितना फ़र्जी काम करते हैं और कितना असली!
कल रमजान के बाद की ईद है। तपस्या के बाद का उत्सव। निशात जी को और सभी मुस्लिम मित्रों को बधाई!
असली टिप्पणी भेज रहा हूँ,
ReplyDeleteनक्कालों से सावधान,
ईद मुबारक!
अपने काम को फ़र्जी समझ के करने का भाव किंचित उचित प्रतीत नहीं होता। सम्भावना इस बात की देखनी चाहिये कि जो कर रहे हैं उसको येन-केन-प्रकारेण धकिया के अपने काम के दायरे में घसीट लेना चाहिये। अब कहा जाता है तो कह देते हैं बड़ी ऊंची सोच है आपकी! एकदम चोटी पर जाकर खड़ी हो गयी है!
ReplyDeleteभारतीय परिस्थितियों में Fake Work के बारे में लिखना शुरू किया जाय तो दस बारह खण्ड लिख दिये जांय। कुछ तो किताब के इसी सडक औऱ पहाड वाले फ्लेवर के साथ लिखा जायगा और कुछ बिना पहाड और बिना सडक के लिखा जायगा :)
ReplyDeleteइसी संदर्भ में कृषि क्षेत्र के ओर देखा जाय तो एक शब्द आता है 'प्रछन्न बेरोजगारी'
इसके अनुसार जब परिवार के ढेर सारे लोग एक ही खेत में इसलिये काम करते हैं क्योंकि और कोई काम नहीं मिल रहा है तो ये एक प्रकार की 'छुपी हुई बेरोजगारी' - 'प्रछन्न बेरोजगारी' ही है और मेहनत के तौर पर डिफाईन किया जाय तो इसे अनचाहा Fake work ही माना जायगा। लोग अपना खून पसीना तो लगा रहे हैं पर उसका फल उस रूप में पा नहीं रहे।
शहरी विकास पर नजर डालता हूँ तो योजनाएं तेजी से बनती और अमल में आती दिखती है. एक सड़क जो अब बहुत शानदार बन गई है. इससे पहले उसके किनारों पर सुन्दर फूटपाथ बनाए गए. पूरी सड़क पर बनते उससे पहले ही सड़क को चौड़ा किया जाने लगा. फूटपाथ बनाने का पैसा गया पानी में. अब इसे क्या कहेंगे?
ReplyDeleteमुझे लगता है आधे काम तो हम फैक ही करते हैं.
खाली समय में ही ऐसे विचारों की ओर दृष्टि जाती है । आभार ...!
ReplyDeleteब्लागिंग भी तो अभी मिथ्या कर्म ही प्रतीत हो रहा है -बोले त ई दुनिया ही पूरी फेक है न ज्ञान जी !
ReplyDeleteओफ़्फ़ो ज्ञानजी आपने तो बड़ी सोच में डाल दिया अब तो ये आत्मविश्लेषण करना पड़ेगा कि हम कितान फ़र्जी काम कर रहे हैं और कितना असल, एक विचारणीय मुद्दा।
ReplyDeleteयह कार्य कुछ कुछ ऐसा ही है ना ...
ReplyDeleteमई जून के महीने में वन विभाग द्वारा वृक्षारोपण का अभियान ...!!
हमारे यहाँ इसे ‘पानी पीटना’ कहते हैं। तालाब में खड़े होकर एक लाठी से पानी की सतह पर जोर-जोर से प्रहार करने में परिश्रम चाहे जितना कर ले कोई, इसका कोई फल नहीं निकलता।
ReplyDeleteइसका मुहावरे में प्रयोग भी होता है जिसका अर्थ है निरर्थक श्रम। आपने इसकॊ यहाँ बेहतर ढंग से समझाया है।
फ़र्जी काम तो मेरे ख्याल मै वो होता है जो बिना रिशवत दिये, बिना घुस दिये करवाया जाये, क्योकि जो काम घुस दे कर कुछ समय मै करवा सकते है वो ही काम बिना घुस दिये महीनो ओर सालो मै भी कठीनाई से होता है... तो हुया ना ईमान दारी से किया काम फ़र्जी :)
ReplyDeleteआपके इस पोस्ट को पढ़कर अपने एक मित्र का कथन याद आ गया, वह कथन हैः
ReplyDeleteकाम मत कर!
काम का जिकर कर!!
जिकर का फिकर कर!!!
जाने अंजाने बहुत से फ़र्जी काम हम करते रहते है और कोई आहट भी नहीं होती है ।
ReplyDeleteसुंदर विचारणीय पोस्ट, जमाये रहिये। फेक वर्क ही बात कर रेले हैं, यहां तो ससुर आदमी ही फेक हैं, इतनी फैंकते हैं कि बंदा टें बोल जाये, मैं सिर्फ ब्लागिंग जगत की बात नहीं ना कर रहा हूं।
ReplyDeleteज्यादातर काम फर्जी होता है. हम प्लान बनाते हैं. आगे बढ़ते हैं. शुरुआत में कुछ करते हैं. आगे चलकर हमें पता चलता है कि हम जो करने निकले हैं, वो हम कर नहीं सकते. काम बंद. अपने-अपने काम को फिर से देखने की कोशिश कीजिये. ज्यादातर फेक साबित होंगे.
ReplyDeleteअब यही बात ले लीजिये. हम किसी श्लोक का, नाम का, देश के नाम का, उच्चारण करने की कोशिश करते हैं. काफी कोशिश के बाद हमें पता चलता है कि हमसे उच्चारण नहीं होगा. हम कोशिश बंद कर देते हैं. जितनी कोशिश की गई, वह सब तो फेक ही साबित हुई न.
या फिर अपने ब्लॉग-जगत के घमासान को ही ले लीजिये. बहस शुरू करते हैं. प्लान बनाते हैं. यह सोचते हुए कि; "अगली टिप्पणी ऐसी करूंगा कि उसकी खटिया कड़ी कर दूंगा. अगली टिप्पणी में फैसला हो जाएगा."
लेकिन ऐसा होता नहीं. उसके बाद तमाम टिप्पणियां करने के बाद हमें लगता है कि; "चौबीस घंटे हो गए. अब तो वह पोस्ट अग्रीगेटर पर बहुत पीछे चली गई. छोड़ी जाने दो."
सारा काम तो फेक ही साबित हुआ न. और उदाहरण दूँ क्या?
हाँ, कलाकार और गीतकार के लिए थोडा सुभीता है. शायद इस स्थिति की जानकारी गुलज़ार साहब को होगी, तभी उन्होंने लिखा;
"इन उम्र से लम्बी सड़कों को, मजिल पर पहुँचते देखा नहीं..."
किताब पढने का मन हो रहा है . एक गाँव गया था वहां एक साहब का एक नौकर था वो मिटटी लाकर बैठके के पीछे समतल जमीन पर डाल रहा था हमें लगा कि वो उधर ऊंचा करवाना चाहते हैं पूछने पर बताया कि काम नहीं था तो नौकर को मिटटी ढोने पर लगा दिया खाली baitha रहेगा तो आदत बिगडेगी
ReplyDeleteअच्छे कार्य व व्यक्तियों की प्रशंसा और ’फेक’ कार्य व व्यक्तियों के मुँह पर उनकी पहचान बता देने से किसी भी समाज व विभाग में सार्थक कार्य तेज गति से होता है । हर एक व्यक्ति का एक ’फेक फैक्टर’ होता है । कुछ व्यक्तियों के कथन मैं १० से भाग देते हुये ग्रहण करता हूँ वहीं कुछ व्यक्तियों के कथन को न केवल शब्दशः मानता हूँ अपितु उसे जीवन में उतारता हूँ । ’फेक’ व्यक्ति अपनी महत्ता बताने के लिये दूसरों का अहित भी कर सकता है अतः ऐसे व्यक्तियों को मौका मिलते ही आइना दिखाना चाहिये ।
ReplyDeleteआपकी पोस्ट बहुत विचारणीय है. पुस्तक पढ़ने की जिज्ञासा है शायद इसी के चलते बेस्ट प्रेक्टिसेस में प्लानिंग एण्ड लूकिंग एट ब्राडर एण्ड ओवर आल पिक्चर को सबसे ज्यादा समय दिया गया है. पहाड़ में सड़क बनाते समय ओवर आल पिक्चर पर समय नहीं दिया गया तो अंत में फेक वर्क साबित हुआ.किताब अवश्य पढ़ना चाहूँगा. फेक वर्क के हजारों उदाहरण आसपास घटित होते हैं.
ReplyDeleteपंजाबी की एक कहावत है
ReplyDelete"कैहणा मोड़ना नईं
डक्का तोड़ना नईं"
(कहा झुठलाना नहीं
लेकिन तिनका भी न हिलाना)
Fakework के लेखक को दिल्ली-अनुभव ज़रूर रहा होगा.
कार्य का प्रारंभ सोच विचार कर करना चाहिए. प्रयत्न करने के बाद भी असफलता मिलती है तो काम को ही 'फेक' नहीं माना जा सकता.कुछ भी कार्य करने के लिए 'फेक' का रिस्क लेना ही पडेगा.-
ReplyDeleteकर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन.
आदरणीय ज्ञानदत्त जी,
ReplyDeleteपहलीबार आपके ब्लॉग से रु-ब-रु हुआ और आपका फर्जी काम देखकर प्रसन्नता हुई .
वैसे Fake Work निन्यानवे के फेर में होने जैसा ही लगता है.
मुझे यहाँ 'ओशो' की उलटबांसी याद आ रही है -
'निन्यानवे के फेर में' उस मकसद तक जाने की अंतिम सीढ़ी है . लेकिन यहाँ मकसद पूरा नहीं होता , तब हम इसे कई बार Fake Work का नाम दे देते हैं.
बधाई आपके Fair Work के लिए.
० राकेश 'सोहम'
घर पर इंटरनेट की सुविधा न हो या आफिस में भी ये सुविधा न मिले तो ब्लॉगिंग भी फर्जी काम सा लगता है, जिसकी सड़क कहीं नहीं पहुँचती
ReplyDelete:) :(
उक्त दोनों चिह्न एक साथ आकर दुख-सुख के बीच की स्थिति को दर्शाते हैं।
अब तो हम भी इस किताब को ढ़ूढ़ेगे
ReplyDeleteब्रह्म सत्यम जगत मिथ्या. पुस्तक पढने की कोशिश करेंगे. अंग्रेजी में है तो यहाँ मिलने के आसार हैं.
ReplyDeleteफेकनेस रोजमर्रा की जिन्दगी का हिस्सा बन चुकी है.
ReplyDeleteफैशन के युग में फर्जी ही तो कामयाब है . असली का स्वाद तो जीभ भी भूल चुकी है .
ReplyDeleteईद की मुबारकबादी -- नव रात्र शुभ हों
ReplyDeleteमिथ्या श्रम को गुजराती लोग कहते हैं
' टावर में जा कर देख आओ,
क्या समय हुआ है ! "
- लावण्या
ये तो हर जगह होता है. प्लान, प्रोपोसल... और इम्प्लेमेंट कभी नहीं हो पाता. महीनो की मेहनत और नतीजा कुछ नहीं . कई रूप है इस कांसेप्ट के... बड़ा व्यापक है.
ReplyDeleteकाम की जानकारी, गजब की साईट.
ReplyDeleteहां ज्ञान जी, तमाम फर्जी टिप्पणियों के अंत में यह है एक असली टिप्पणी!!
सस्नेह -- शास्त्री
हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है
http://www.Sarathi.info
ब्लागिंग से बड़ा फेक वर्क कोई हो तो बताइये ।
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