... पर जिनके पास विकल्प हैं और फिर भी जो जीवन को कूड़ाघर बनाये हुये हैं, उनसे यह विनती की जा सकती है कि जीवन का सरलीकरण कर उसका स्तर सुधारें।
शरीर जितना स्थूल होता है उसकी गति भी उतनी ही कम हो जाती है। शरीर हल्का होगा तो न केवल गति बढ़ेगी अपितु ऊर्जा बढ़ेगी। यही जीवन के साथ होता है। जीवन सादा रखना बहुत ही आवश्यक व कठिन कार्य है।
भारत में बहुत लोग ऐसे हैं जिनको जिजीविषा के लिये संघर्षरत रहना पड़ता है। उनसे जीवन और सादा करने की अपेक्षा करना बेईमानी होगी। पर जिनके पास विकल्प हैं और फिर भी जो जीवन को कूड़ाघर बनाये हुये हैं, उनसे यह विनती की जा सकती है कि जीवन का सरलीकरण कर उसका स्तर सुधारें।
आप अपनी कपड़ों की अल्मारी देखें और जिन कपड़ों को पिछले 2 माह में प्रयोग नहीं किया है उन कपड़ों को किसी गरीब को दान कर दें तो आप के जीवन में बहुत अन्तर नहीं पड़ेगा। हर क्षेत्र में इस तरह की व्यर्थता दिख जायेगी। उन सारी की सारी व्यर्थ सामग्रियों को जीवन से विदा कर दीजिये, आपके जीवन की गुणवत्ता बढ़ जायेगी।
आजकल इन्टरनेट पर “100 थिंग चैलेन्ज” के नाम से एक प्रयास चल रहा है जिसमें व्यक्ति को अपनी व्यक्तिगत सामग्रियों की संख्या 100 करनी होती है। यह बहुत ही रोचक व कठिन प्रयास है।
हमारे मानसिक स्तर पर भी व्यर्थ विषयों की भरमार है। हमें दुनिया जहान की चिन्ता रहती है। किसके किससे कैसे रिश्ते हैं, कौन कब क्या कर रहा है, यह सब सोचने में और चर्चा करने में हम अपना समय निकाल देते हैं। चिन्तन का विस्तार तो ठीक है पर चिन्ता का विस्तार घातक है।
यह अतिथि ब्लॉग पोस्ट श्री प्रवीण पाण्डेय की है।
प्रवीण के साथ ब्लॉग शेयर करने के खतरे (इसके अलावा कि वे मुझसे बेहतर लिखते हैं) नजर आते हैं! :-)
पहला कदम – पुरानी 0.7mm की पेंसिल और पुराने फाउण्टेन पेन/छ रुपये वाले रेनॉल्ड के जेल पेन से काम चलाना होगा! एक आदमी जो झौआ भर कलम-पैंसिल-किताब-कांपी-रबड़-गोंद-फेवीक्विक-दवात सरियाये रहता हो, उसके लिये कितना डिप्रेसिव विचार है जी यह १०० थिंग्स वाला! फंसी गये सरलीकरण के प्रारम्भिक स्टेप में!
आप क्या कम करने जा रहे हैं बोझे में से?!
बहुत कठिन विचार पकड़ा दिया है, निट्ठ्ले बैठे सोचनीय मुद्रा में सजने के लिए.
ReplyDeleteआपने बताया तो 100 थिंग चैलेन्ज देखकर लौटा हूँ. किताबों और चंद DVDs को छोड़ दूं तो अपना कम 30-40 से चल जाना चाहिए. वहां तो लोग कच्छे बनियाइन और कांटे चम्मच में ही अटके हैं और हमारे दादाजी ने दो जोड़ी धोती कुरता, एक लाठी, और दो गमछे में जिंदगी काट दी.
ReplyDeleteपत्नीजी वैसे ही खुन्नस में हैं की हम वसंत कुञ्ज एरिया में रहने लायक कहीं से नहीं लगते (कार जो नहीं खरीदी अभी तक न) और ऐसे में आपकी ये पोस्ट!
वैसे हमें 'प्रच्छन्न दार्शनिक' या 'वयोवृद्ध ब्लौगर' की मानसिकता से आयेदिन दो-चार होना पड़ता है.
.. पर जिनके पास विकल्प हैं और फिर भी जो जीवन को कूड़ाघर बनाये हुये हैं, उनसे यह विनती की जा सकती है कि जीवन का सरलीकरण कर उसका स्तर सुधारें।..
ReplyDeleteप्रवीण पाण्डेय का यह कथन हर स्तर पर विचारनीय है ...साईं इतना दीजिये जामे कुटुंब समाये ..!!
सब सोचनीय/प्रवचनात्मक मुद्रा में ही टिप्पणी सरका रहे हैं। कोई यह नहीं साहस कर रहे कि अपने दो सूट या पांच साड़ी गरीबों को देने जा रहे हैं! :-)
ReplyDeleteसर्वोपासनीय सद्विचार !
ReplyDeleteसर जी ...हम तो यूँ भी देते रहते हैं ...बखान क्या करना है ..!!
ReplyDeleteसहमत हूँ इस बात से कि चिन्तन का विस्तार तो ठीक है पर चिन्ता का विस्तार घातक है।
ReplyDeleteकठिन है, असंभव नहीं। इस से कम वालों की संख्या भी कम नहीं।
ReplyDeleteशादी में दो सूट बने ज़रूर थे जो अब चढ़ते ही नहीं हैं लेकिन पत्नी ने उन्हें बेटे के लिए रख छोडा है.
ReplyDeleteसाडियों की बात करने हिम्मत मुझमें नहीं हैं. ऑफिस में टिफिन लेकर जाना ज़रूरी जो है.
खूब कहा आपने कि - "आप जीवन जी रहे हैं कि भविष्य लिख रहे हैं?"
ReplyDeleteजो बीता कल क्या होगा कल
है इस कारण तू व्यर्थ विकल
आज अगर तू सफल बना ले
आज सफल तो जनम सफल
आपको पढ़कर मैं तो चला अपना जीवन सफल बनाने।
सादर
श्यामल सुमन
व्यापक चिंतन अभी बाकी है पर पिछली परफोर्मेंस को देखते हुए एक मारवाडी के लिए १०० चीजे राजाई ठाठ है.मज़े से चलेगा काम इत्ते में तो:)
ReplyDelete@भारत में बहुत लोग ऐसे हैं जिनको जिजीविषा के लिये संघर्षरत रहना पड़ता है।
ReplyDeleteजिजीविषा माने जीने की इच्छा। इसके लिए भी संघर्ष करना पड़े ! ये क्या कह दिया आप ने?
हमारे पास कोई बोझा नहीं है। पुराने कपड़े वगैरह दान देने में गृह मंत्रालय सक्रिय है।
घर भी ले पाया तो एकदम छोटा सा। अर्थ आड़े आ गया। रहता तो बड़ा प्लॉट लेकर आधे में घर बनाता और बाकी में पौधे उगाता। आदमी की हर इच्छा तो पूरी हो नहीं सकती !
की बोर्ड पर घोंघों/सीपियों के छिलके क्यों लगा रखे हैं? इनमें से फालतू क्या है?
"चिन्तन का विस्तार तो ठीक है पर चिन्ता का विस्तार घातक है।"
ReplyDeleteवास्तव में हमारी चिंता, दूसरों के बारे में अधिक रहती है ! दूसरों के लिए समस्याएँ कैसे दें पूरा जीवन इसी समस्या से लड़ते हुए कटता है ! ;-)
शुभकामनाएं ! !
चिन्तन योग्य लेकिन वैसे ही जैसे भगत सिंह पैदा होना चाहिए लेकिन पडोसी के घर में .
ReplyDeleteहम भी सौ के नीचे वाली श्रेणी में आते हैं। यदि किताबों को एक मद गिना जाय। नहीं तो वो अकेले ही आंकड़ा पार कर जाएंगी।
ReplyDeleteहिन्दुस्तान में सादगी और त्याग के मूल्य तो बड़े पुराने हैं। पश्चिम वाले अब चेत रहे हैं।
चिन्ता का विस्तार इतना हो चुका है कि चिन्तन के लिए समय ही नहीं रह गया है।
ReplyDeleteजैन दर्शन में अपरिग्रह का बहुत महत्त्व है, यानी चीजों के संग्रह को पाप माना गया है. जरूरत से रत्ती भर अधिक नहीं. भूख से एक निवाला अधिक नहीं. ऐसा जीवन आम दिनचर्या का हिस्सा होता था. अब वो संस्कार खत्म हो गए.
ReplyDeleteचलिए जी,इस लेख को पढ़ने के बाद आज से और अभी से अमल करना शुरु कर दिया। लेकिन यह विचार कब तक रहेगा इसकी कोई गारंटी नही है।
ReplyDeleteसादा जीवन उच्च विचार!
यह सब तो इनको खुश करने के लिए था :)
प्रवीण जी के साथ ब्लॉग शेयर करने में खतरा नज़र आ रहा है तो हमारे साथ करके देख लीजिए,
ReplyDeleteपहली पोस्ट से ही पाठक न बिदक जाएं तो कहना :)
अच्छा प्लेटफार्म मिल गया प्रवीण जी को उनका लेखन वाकई मानसिक हलचल पर छपने लायक है !
" आने वाली सात पुश्तों के लिये 20 शहरों में मकान! बैंकों में आपका पैसा पड़ा "
ReplyDeleteयह तो हुई ‘नोन सोर्स आफ़ इन्कम’ और जो स्विज़ बैंक में रखा है सो....:)
saada jivan uchch vichaar ati sundar abhaar!!
ReplyDeleteबहुत उत्तम विचार है.. कुछ करता हूँ..
ReplyDeleteआज की पोस्ट तो वाकई हलचल पैदा करने वाली है. अपने पास कपडों का तो २ माह क्या साल भर से नहीं पहनने वाले का स्टॉक है. जब रांची में थे तो पिताजी एक झोले में भर के स्टेशन पर रख आते थे. अब तो वो भी नहीं कर सकते पुलिस पकड़ कर ले जायेगी. अब ऐसे कपडे घर पंहुचा देता हूँ, पर पिछले साल भर में वो भी नहीं हुआ ! बाकी सामान तो बढ़ता जा रहा है... इसमें दो राय नहीं पर अभी १०० तक नहीं पंहुचा तो ज्यादा टेंशन नहीं :)
ReplyDeleteज्ञानजी इस पर टिप्पणी न करके धीरे से खिसकने वाला था लेकिन, फिर पोस्ट के आपकी ठेली इस टिप्पणी ने बचने का रास्ता बंद कर दिया
ReplyDeleteसब सोचनीय/प्रवचनात्मक मुद्रा में ही टिप्पणी सरका रहे हैं। कोई यह नहीं साहस कर रहे कि अपने दो सूट या पांच साड़ी गरीबों को देने जा रहे हैं! :-)
मेरा जवाब ये कि गरीबखोजकर देने का साहस तो मुझमें नहीं है। हां जब मुंबई से दिल्ली स्थानांतरण हुआ तो, जो, कपड़े काफी दिन से पहने नहीं थे और अब पहनने के लक्षण भी नहीं थे। उन्हें ससुराली ड्राइवरों को दे दिया था। आगे देखता हूं ये विचार कैसे अमल लाया जाए
ज्ञानदत्त पाण्डेय जी हमेशा ही आप के लेख से कुछ ना कुछ ले कर ही जाता हुं, ओर आज का लेख बहुत अच्छा लगा,हम क्यो नही भूटकाल से कुछ सीखते.... ओर यह सब को पता है कि हलाल का पेसा ही फ़लता है, हराम का पेसा कितना ही जमा कर लो तीन पीढियो से आगे नही जाता, ओर इन तीन पीढियो को अच्छी तरह तबाह करता है, भई भाई का दुशमन बन जाता है.अब अगर हम दान करे ओर उसे यहां बताये तो वो दान नही हमारा अंहकार हुया
ReplyDeleteधन्यवाद
सादा जीवन उच्च विचार ,चिंता नहीं चिंतन तथा अपने आवश्यकताओं को न्यूनतम करना....सचमुच सफल जीवन के ये ही तो सूत्र हैं...बिलकुल ही सही कहा आपने...शंशय का कोई प्रश्न ही कहाँ है...
ReplyDeleteअपने उपयोग में न आने वाले वस्तुओं का दान करने का बड़ा ही उत्तम उपाय सुझाया है आपने...धन्यवाद !!
hama to abhi 100 tak pahunch kar dekhe ki uska kya maje hain.. fir aate hain yahan batane ki kya-kya daan karna hai.. :)
ReplyDeleteka in 100 cheezon main 'internet' 'desktop' laptop aur blog aata hai...
ReplyDelete...howevever beside joke ke baar ek ghazal likhi thi shayda is post ke liye comment ban jaiye:
"बाज़ारों में चड़ने वालों, याद इसे भी रखना तुम,
आधा भारत आज भी शायद आधी रोटी खाता है."
हम तो अपने को काफ़ी पीछे पाते हैं. लोग बाग (लिंक खुल नहीं रहा) सौ तक उतरने की राय दे रहे हैं और हम अभी तक पचास तक चढ़ने के लिये ही संघर्षरत हैं.
ReplyDeleteमेरी ख्वाहिश है कि गाँव में घर की छत पर देर तक सोता रहूं......इतना कि सूरज अपनी छुअन से जगाने लगे ....लेकिन......शहराती जीवन मुझे यह सब करने की इजाजत नहीं दे रहा :)
ReplyDeleteमेरी ऐसी विश लिस्ट को कौन दान में लेना चाहेगा :)
आने वाली सात पुश्तों के लिये 20 शहरों में मकान! बैंकों में आपका पैसा पड़ा रहा आपकी बाट जोहता रहता है और मृत्यु के बाद आपके पुत्रों के बीच झगड़े का कारण बनता है। आप जीवन जी रहे हैं कि भविष्य लिख रहे हैं?
ReplyDeleteवैसे तो कहावत है कि - पूत सपूत तो जोड़े क्यों और पूत कपूत तो जोड़े क्यों!! ;)
लेकिन पास पड़ा पैसा कब काम आ जाए क्या पता चलता है? उदाहरणार्थ एक व्यक्ति तय करता है कि उसको लाख रूपए से अधिक जोड़ कर रखने की कोई आवश्यकता नहीं इसलिए वह उससे ऊपर नहीं जोड़ता। कल को उसके लड़के का एक्सीडेन्ट हो जाता है और हस्पताल तथा दवा-दारू में दो लाख से अधिक लग जाता है। अब इन साहब ने तो लाख रूपया ही जोड़ के रखा था, बाकी का कहाँ से लाएँगे?! इसलिए अपना तो मानना है कि जितना जोड़ो उतना ही कम है - हाँ ऐसे मत जोड़ो कि तन पर आधा कपड़ा और मुँह में सूखी रोटी हो जबकि बैंक में लाखों हों लेकिन फिर भी कितना जोड़ना है इसकी कोई सीमा नहीं तय की जा सकती। बुरे वक्त के आने की चाप नहीं सुनाई देती, कभी भी आ धमकता है और कोई तय नहीं होता कि कितना चढ़ावा लेकर जाएगा!
रही बात मृत्यु के बाद के झगड़े की तो व्यक्ति को अपने जीवन काल में ही अपनी वसीयत बना के रख लेनी चाहिए ताकि उसकी मृत्यु के बाद यदि संतानों में जायदाद को लेकर झगड़ा होता है तो वह उनकी बद् नीयत और लालच के कारण होगा और उस स्थिति में कुछ नहीं हो सकता।
आप अपनी कपड़ों की अल्मारी देखें और जिन कपड़ों को पिछले 2 माह में प्रयोग नहीं किया है उन कपड़ों को किसी गरीब को दान कर दें
ऐसा कर दिया तो हर सर्दियों के मौसम और गर्मियों के मौसम में नए कपड़े खरीदने होंगे क्योंकि ये दोनों मौसम दो माह से अधिक चलते हैं!! ;) :D
ये अच्छा काम पकड़ा दिया आपने सब अपनी अपनी चीजें गिनने मे लगे हैं । मै गिनती पर एक कविता दे रहा हूँ
ReplyDeleteगिनती –
कितने रोते हुए बच्चों को
लौटा सकते हैं उनकी माँ
कितने पिताओं को बता सकते हैं
कहाँ खो गये उनके बच्चे
कितने बूढ़ों से कह सकते हैं
फिक्र न करें हम तो हैं
कितनों को दिलासा दे सकते हैं
कितनो को बन्धा सकते हैं हौसला
कितनों से कह सकते हैं
जो होना था सो हुआ
एक ही शहर में
एक ही दिन में
कितने बच्चे मार डाले गये
कितने बूढ़ों के सर
कलम कर दिये गये
कितने जवानो की जान ले ली गई बेमतलब
कैसे बता सकते हैं आप
ठीक ठीक कितने होंगे ऐसे शहर ।
-शरद कोकास की कविता
गजब है आज की पोस्ट। प्रेरक विचार है, कित्ता कूड़ा लादे हुए घूम रहे हैं हम। और गजब यह कि कूड़े को एसेट समझे बैठे हैं।
ReplyDeleteबात पाते की है, मुद्दा सटीक है
ReplyDeleteमुद्दे के पीछे की भावना बहुत ही उत्तम है,पावन है..
और नीचे लिखी कविता ग़रीबी का एक छोटा सा चित्रण है...
वो आयी आधी सारी मे,एक नगे बच्चे के संग...
धूल सनित,रूखे अंग,है उजड़ा शरीर का रंग...
माँग रही घर घर जाकर, दो बूँद ने जल की..
और एक आधा टुकड़ा सारी का अपना टन ढकने को |
सूखी आंते भूका पेट वो तो सह जाती है ...
पर बच्चे को देख बिलखता चुप नही रह पाती है...
दूध नही जल माँग रही बच्चे की भूक मिटाने को..
और और एक आधा टुकड़ा सारी का अपना टन ढकने को ...
आते जाते मानव उसको देखें होकर दंग
कोई नही भरी दुनिया मे जो खड़ा हो उसके संग...
"आप अपनी कपड़ों की अल्मारी देखें और जिन कपड़ों को पिछले 2 माह में प्रयोग नहीं किया है उन कपड़ों को किसी गरीब को दान कर दें तो आप के जीवन में बहुत अन्तर नहीं पड़ेगा।"
सौ की बात जाने दे यहां तो जिंदगी पचास में फंसी हुई है. ऊपर वाले की कृपा से कुछ खास नहीं है स्टोर करने को. भगवान ने स्टोरिंग कैपेसिटी के साथ उसमें पुराने संडास की तरह हड़हड़उआ फ्लश भी लगा दिया है. थोड़ा बहुत कचरा जमा होते ही गर्जना के साथ फ्लश-आउट हो जाता है. अब क्या खाएं क्या पछोरें, क्या धोएं क्या निचोड़ें. पैजामा हो या पैंट-शर्ट बस इतना है कि इज्जत बची रहे. कुछ पुरानी सारिका और हंस जमा की थी, पत्नी ने रद्दी समझ कर बेच दीं. घर की क्यों अपने शरीर और दिमाग में भरे कचरे के बारे में भी तो सोचिए. रोज इतना कबाड़ भकोस लेते हैं कि सारे रास्ते चोक हो जाते हैं और हम पांच पांच किलो कचरे की बोरियां कूल्हे पर बांधे हम हाय हाय करते रहते हैं. दिमाग के बारे में भी यही बात लागू होती है. इस लिए कचरे के पचड़े में क्या पडऩा - सार सार गहि के थोथा देई उड़ाय. मस्त रहे स्वस्थ रहें
ReplyDeletegyaan ji ,
ReplyDeletenamaskar
bahut der si aapki is post ko padhkar chup chaap baitha hoon .. sach to ye hai ki hum jitna bhi ikaatha karte hai uska hardly 20% use karte hai .. ..
zindagi saral honi chahiye .. kitna bojh ham laadenge apne tan par aur man par...
mujhe to aapki ye bahut pasand aayi .
dhanywad.
vijay
PS- sir , maine mrutyu par kuch likha hai . ek baar avashya padhe.