इस घाट पर सवर्ण जाते हैं। सवर्णघाट? कोटेश्वर महादेव मन्दिर से सीढ़ियां उतर कर सीध में है यह घाट। रेत के शिवलिंग यहीं बनते हैं। इसी के किनारे पण्डा अगोरते हैं जजमानों को। संस्कृत पाठशाला के छात्र – जूनियर और सीनियर साधक यहीं अपनी चोटी बांध, हाथ में कुशा ले, मन्त्रोच्चार के साथ स्नानानुष्ठान करते हैं। यहीं एक महिला आसनी जमा किसी पुस्तक से पाठ करती है नित्य। फूल, अगरबत्ती और पूजन सामग्री यहीं दीखते हैं।
कुछ दूर बहाव की दिशा में आगे बढ़ कर दीखने लगती हैं प्लास्टिक की शीशियां – सम्भवत निषिद्ध गोलियों की खाली की गईं। ह्विस्की के बोतल का चमकीला रैपर।
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उसके बाद आता है निषादघाट। केवट, नावें और देसी शराब बनाने के उपक्रम का स्थल।
मैं वहां जाता हूं। लोग कतराने लगते हैं। डायलॉग नहीं हो पाता। देखता हूं - कुछ लोग बालू में गड्ढा खोद कुछ प्लास्टिक के जरीकेन दबा रहे हैं और कुछ अन्य जरीकेन निकाल रहे हैं। शराब की गंध का एक भभका आता है। ओह, यहां विजय माल्या (यूनाइटेड ब्रेवरीज) के प्रतिद्वन्दी लोग हैं! इनका पुनीत कर्तव्य इस गांगेय क्षेत्र को टल्ला[1] करने का है।
वे जो कुछ निकालते हैं, वह नीले तारपोलिन से ढंका एक नाव पर जाता दीखता है! मुझ जैसे इन्सिपिड (नीरस/लल्लू या जो भी मतलब हो हिन्दी में) को यह दीख जाता है अलानिया; पर चौकन्ने व्यवस्थापकों को नजर नहीं आता!
वहीं मिलता है परवेज – लड़का जो कछार में खेती को आतुर है। उससे बात करता हूं तो वह भी आंखें दूर रख बात करता है। शायद मुझे कुरता-पाजामा पहन, चश्मा उतार, बिना कैमरे के और बाल कुछ बिखेर कर वहां जाना चाहिये, अगर ठीक से बात करनी है परवेज़ से तो!
समाज की रूढ़ वर्णव्यवस्था गंगा किनारे भी व्याप्त है!
[1] टल्ला का शाब्दिक अर्थ मुझसे न पूछें। यह तो यहां से लिया गया है!
वर्ण व्यवस्था का स्थान तो वर्ग आश्रित व्यवस्था ने ले लिया है । संज्ञा तो ऐसे आ चिपक जा रही है मानो वह तैयार है समर्पण को । मां गंगा को पुण्य सलिला कैसे देख सकते हैं ये लोग ।
ReplyDeleteइन्हें तो क्षणिक भावावेश में सब कुछ पा लेना है ।
आभार!
वहीं मिलता है परवेज – लड़का जो कछार में खेती को आतुर है। उससे बात करता हूं तो वह भी आंखें दूर रख बात करता है। शायद मुझे कुरता-पाजामा पहन, चश्मा उतार, बिना कैमरे के और बाल कुछ बिखेर कर वहां जाना चाहिये, अगर ठीक से बात करनी है परवेज़ से तो!
ReplyDeleteसमाज की रूढ़ वर्णव्यवस्था गंगा किनारे भी व्याप्त है!
hm.............m !
व्यवस्थापकों को घूस का काला चश्मा पहनाया जाता है, इसलिए नहीं दिखता. न दिखना और प्रयास के उपरांत भी न जान पाने में यहीं तो धुंधला सा परदा है.
ReplyDeleteआप को न तो उसमें जाते सामान में इन्टरेस्ट है और न ही आप उनका कुछ कर सकते है, तो दिख जाता है.
भारत की बहुत सी ऐसी चीजें, जिसमें हम कुछ कर नहीं सकते, भारत के बाहर निकलते ही हीरे की चमक लिए दिखने लगती हैं.
सब गंगा तट के लोग है, गंगा पर आश्रित। जिसे जिस से कुछ मिलने की आस है, वही कर रहा है। प्रत्याशा ही सब कामों की प्रेरणा है।
ReplyDeleteमुझ जैसे इन्सिपिड (नीरस/लल्लू या जो भी मतलब हो हिन्दी में) को यह दीख जाता है अलानिया; पर चौकन्ने व्यवस्थापकों को नजर नहीं आता!
ReplyDeleteव्यवस्थापकों के हफ्ता रूपी चश्मा चढा है जिससे उन्हें ये हरकते नजर ही नहीं आती |
Kal NDC main "Amedkar V/S Gandhi" DEkhne ka su avsaar prapt hua aaj aapki ye post !!
ReplyDeleteIs mamle main to tathast rehna hi uchit rehaga...
...aur Swarn tat (ghat) main ja ke dubki laga ke aata hoon...
..Waise ye vyavastha to "Shri Ram" ke zamane se hai....
बच्चों के तौर-तरीकों से माँ (गंगा) अछूती कैसे रह सकती है. रहेगी तो भी ये स्वार्थी बच्चे अपने भेद-भाव उस पर लाड ही देंगे.
ReplyDeleteकोई घाट तो अवर्णों के लिए भी होगा।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
इसीलिए भूपेन हजारिका कहते हैं ओ गंगा बहती हो क्यूँ ! किसी जगह को नहीं बक्शा इन इम्सानो ने अपनी गन्दी आदत और लालच का शिकार हर जगह को बनाया है !!
ReplyDeleteगंगा मैया की जे . माँ तो अपने सपूत और कपूत को एक जैसा ही स्नेह देती है . वैसे मेरी सलाह है आप ज्यादा ढकी नावं के पास न ही जाए . हर व्यक्ति को उसके रोज़गार सम्बन्धित दखल अच्छा नहीं लगता है शायद आप भी अपवाद नहीं होंगे .
ReplyDeleteजैसे कानून अन्धा होता है वैसे ही व्यवस्था भी अन्धी होती है।
ReplyDeleteगंगा कछार के श्वेत श्याम शेड !
ReplyDeleteबस दो घाट.. बहुत नाइंसाफी है.. वैसे मुझे भी वर्ण/जात व्यवस्था की समझ कुछ साल पहले हुई जब एक मित्र के दादाजी की की अंतिम क्रिया हेतु श्मसान गया.. देख हर जाती का अलग श्मसान घाट है..
ReplyDeleteनिश्चित रूप से सोचने योग्य बात है..की गंगा घाट पर भी वर्ण व्यवस्था..
ReplyDeleteबढ़िया प्रसंग..
घाट घाट का पानी पिए है आप. .
ReplyDeleteबहुत अच्छी स्टडी के अवसर मिला हुआ है. आप धन्य हैं.
ReplyDeleteमल्लिका शेरावत ने टल्ली समझा दिया था जी
ReplyDeleteतो टल्ला भी समझ गये
प्रणाम
हम गंगा किनारे वाले क्यूं न हुए....
ReplyDeleteवर्ण व्यवस्था को खत्म होने में अभी समय लगेगा...
ज्ञानजी
ReplyDeleteअच्छा शोध है। लेकिन, अब खतरा ये है कि आपकी ये पोस्ट निकालकर गंगा को भी कोई जातिवादी न घोषित कर दे। वर्ण व्यवस्था को पोषक .. गंगा के कछार में हमारे दारागंज से लेकर उधर अरैल तक और आपकी तरफ शिवकुटी तक कच्ची की भट्ठी सुलगती रहती है लेकिन, गंगा पर तो जाकर सारी वर्ण व्यवस्था ऐसे मिल जाती है कि पानी के रंग जैसा हो जाती है। कुछ समझ में नहीं आता।
" संस्कृत पाठशाला के छात्र – जूनियर और सीनियर साधक यहीं अपनी चोटी बांध, हाथ में कुशा ले, मन्त्रोच्चार के साथ स्नानानुष्ठान करते हैं।" ....विस्की और गोलियों की खाली बोतले, दारू चरस का प्रयोग....
ReplyDeleteकितने अंतर्विरोधों की साक्षी है गंगा माँ!!!!!
अरे बाबा आप गंगा किनारे घुमने जाते है या प्रेशनिया बटोरने जाते है, फ़िर सारा दिन सोचते है इन के बारे, छोडिये इन सब का कुछ नही होने वाला
ReplyDeleteराम राम जी की
सबको आश्रय मिला है... गंगा मैया के किनारे... अलग-अलग काम धंधा... आपनी-अपनी जीविका के साधन है !
ReplyDeleteभगीरथ को क्या मालूम था कि जहाँ से वह गंगा को रास्ता दिखाते ले गये, वहाँ पर आने वाली पीढ़ियाँ क्या गुल खिलायेंगी । इतनी समस्या का अनुमान होता तो बाईपास से निकल गये होते । नदी के किनारे सार्वजनिक क्षेत्र होते हैं जिसके एक ओर तो कोई भी दृष्टिगत नहीं होता है । इसका लाभ योगियों और भोगियों को बराबर मिलता है । अब बहुत दिनों बाद हम पाठकों को भी लाभ मिलना प्रारम्भ हुआ है ।
ReplyDeleteमुझ जैसे इन्सिपिड (नीरस/लल्लू या जो भी मतलब हो हिन्दी में) को यह दीख जाता है अलानिया; पर चौकन्ने व्यवस्थापकों को नजर नहीं आता!
ReplyDeleteव्यस्थापकों को यह सब नज़र भी नहीं आएगा. अगर यह सब उन्हें नज़र आने लगा तो वह सब उनके दरवाजे पर नज़र नहीं आएगा जिसे वैभव कहते हैं.
यह पढ़कर जानकर..अचरज भी हो रहा है .गंगा माँ अच्छा बुरा सब अपने में समाहित कर लेती है . .आभार...
ReplyDeleteटल्ला बोले तो टुन्न!
ReplyDeleteएक गंगा मैया से क्या-क्या माल निकाल रहे हैं आप! गज़ब है. आनंदित हैं हम.
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दुर्भाग्य से बीच की कई पोस्ट्स चूक गये हैं. पूरे सात दिन से ब्रॉडबैण्ड खराब है. अगर कल तक नहीं सुधरा तो बीएसएनएल को लात जमाकर नये आईएसपी को आजमाएँगे.
जैसा देश वैसा भेष वाली कहावत को चरितार्थ कीजिए, भेष बदल के निषाद घाट पर जाईये, मेरे ख्याल से वहाँ के लोग आपको अधिक नोटिस भी नहीं करेंगे और यदि किसी से बात करेंगे तो वह व्यक्ति हिचकिचाएगा नहीं! :)
ReplyDeleteशायद यह भावुक टिप्पणी लगे और आज के जमाने के हिसाब से बेहद अनफिट लेकिन किंगफिशर के मलैया का उपस्थिति गंगा तट पर बेहद पीड़ित करने वाला अनुभव है। लेकिन आज का युग ऐसा ही है जब मलैया को ही याद आती है पवित्र वस्तुओं को।
ReplyDeleteगंगा , यमुना , कोशी , जैसी नदियों की कराह हम मानवों तक नहीं पहुँचती . हम जो कर रहे हैं उसका दुष्परिणाम हमें हर साल भुगतना पड़ता है भीषण बाढ़ और सुखद के रूप में . दिल्ली में यमुना मर गयी सरकार करोडों के ठेके निकाल कर स्वच्छ यमुना का झूठा नारा लगा रही है .कभी-कभी बरसात में यमुना उफनती है जैसे दिया बुझने से पहले तेज रौशनी दे रही हो . वैसे दिल्ली में दुर्गा पूजा के अवसर पर कुछ स्वयंसेवी लोग किनारे खड़े दिखे जो लोगों से पूजा पाठ की सामग्री कूडेदान में संग्रह कर रही थी . हमें भी व्यवस्था को दोष देना छोड़ कर अपने आस-पास के नदी /जंगलों आदि की रक्षा में जुट जाना चाहिए .
ReplyDeleteटल्ला शब्द कहाँ से लिया आपने वहां भी पढ़ा "पटियाला का पैग " और परवेज़ की तस्वीर भी देखी |,पंडा अगोरते हैं जाना ,निषाद घाट वाबत भी पढ़ा यह शायद वही या वैसा ही होगा ""माँगा नाव न केवट आवा ""पुनीत कर्तव्य टल्ला भी जाना |परवेज़ से बात करना थी तो उसी वेष में जाना पड़ता जैसा की आपने लिखा है ,
ReplyDeleteयह पवित्र नदी तो पोस्टों की खान साबित हो रही है। जय गंगा मइया!!!
ReplyDeleteजय हो गंगा माई की।
ReplyDeleteआदरणीय ज्ञानदत्त जी,
ReplyDeleteगंगा मईया अपने समस्त प्रवाह में गोमुख से लगाकर बंगाल की खाड़ी तक अपने साथ एक समाज जीवित किये हुये हैं और उस समाज में मनु की समस्त वर्ण-व्यवस्था विद्यमान/मौजूद हैं।
आपकी पोस्ट ने मुझे एक पुरानी फिल्म गंगा की सौगंध का वह गीत याद आता है ...
मानो तो गंगा माँ हूँ
ना मानो तो बहता पानी....
इस गीत की मध्य पंक्तियों में भी इन्हीं बातों का उल्लेख है परंतु प्रतीक उस दौर के हैं और वो भी दबे मुँह कहे हुये। आपने तो सच्चाई को जस का तस पेश किया है, वाकई यह ईमानदार नज़रिया सबको मिल जाये।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
आपका चिंतन सोचने को विवश करता है।
ReplyDeleteदुर्गापूजा एवं दशहरा की हार्दिक शुभकामनाएँ।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
.बनारस में हमने एक दो ऐसे ही वर्ण व्यवस्था पे आधारित घाट देखे थे ... हर आदमी अपने स्वार्थ के लिए इन किनारों ओर कोनो का इस्तेमाल करता है
ReplyDeleteगंगा किनारे भी वर्ण व्यवस्था? मैने तो आपसे जाना इस लिये कि कभी गम्गा स्नान किया ही नहीं अब तो एक ही बार जायेंगे चिन्तन की जरूरत है आभार अबभी किसी ब्लाग पर इस पर आपका कमेन्ट भी पढा था सही बात कही है आपने वहा आभार्
ReplyDeleteशायद गंगा ये सब भी धो पाए...एक दिन
ReplyDeleteआखरी चित्र बहुत कैची है।
ReplyDeleteजब सात लोग एक के पीछे एक चल रहे हों और वह भी एक विशेष प्रयोजन से तो वह दृश्य अपने आप में ही खास हो उठता है। हर एक के मन में एक प्रकार की मानसिक हलचल चल रही है। कोई कुछ सोच रहा है तो कोई कुछ ।
हो सके तो इस लांग शॉट वाले चित्र को बैनर बना कर ब्लॉग पर इस्तेमाल किजिये।
काफी खूबसूरत दृश्य है।
गंगा को कितने कोणों से देखते हैं आप! अद्भुत.मुझे ये स्थाई महत्व का लगता है इसे जल्द पुस्तकाकार में लाइए.भारत की हजारों जातियों की धर्म यात्राओं को पंडों ने मोटी मोटी पोथियों में सहेजा है कभी इस पर भी आपकी पोस्ट देखने की इच्छा है.
ReplyDeleteज्ञानदत्त जी सूक्ष्म निरीक्षण है... आभार
ReplyDeleteकिन्तु शोध-कार्य कतई नहीं कहूंगा
ये गंगा जी का अंचल भी
ReplyDeleteसमाज का सच ही दीखालाता जान पड़ रहा है
- लावण्या
गंगा मैया तेरे रूप अनेक
ReplyDeleteदन्डवत नमन आपको और हमारे महान भारत को...
ReplyDeleteएक लाईना है ना - unity in diversity, बचपन मे बडी अच्छी लगती है ये लाईन, अब समझ आता है ये बडे लोग ऐसी लाईन्स बोलकर फ़ुसलाते है..