Wednesday, September 30, 2009

सिविल सेवा परीक्षा


इस वर्ष की सिविल सेवा परीक्षा के प्रथम 100 चयनित अभ्यर्थियों में केवल एक के विषय गणित और भौतिकी हैं। मुझे यह तब पता लगा जब मैंने एक परिचित अभ्यर्थी से उसके विषयों के बारे में पूछा। आश्चर्य की बात यह थी कि वह एक इन्जीनियर हैं और विज्ञान के विषय न लेकर बिल्कुल ही नये विषय लेकर तैयारी कर रहे हैं।

praveen
यह पोस्ट श्री प्रवीण पाण्डेय की बुधवासरीय अतिथि पोस्ट है।
यह बहस का विषय है कि इन्जीनियरों को सिविस सेवा में आना चाहिये कि नहीं लेकिन पिछले 10 वर्षों में विज्ञान विषयों को इतना कठिन बना दिया गया है कि इन विषयों को लेकर सिविल सेवा में चयनित होना लगभग असम्भव सा हो गया है।

सिविल सेवा परीक्षा ने देश के लाखों युवाओं को सार्थक अध्ययन में लगा कर रखा हुआ है। चयनित होना तो सच में भाग्य की बात है पर एक बार सिविल सेवा की तैयारी भर कर लेने से ही छात्र का बौद्धिक स्तर बहुत बढ़ जाता है। साथ ही साथ कई वर्ष व्यस्त रहने से पूरी कि पूरी योग्य पीढ़ी वैचारिक भटकाव से बच जाती है।

सिविल सेवा की परीक्षा कठिन है और पूरा समर्पण चाहती है। अभी कुछ अभ्यर्थियों के बारे में जाना तो पता लगा कि वो माता पिता बनने के बाद इस परीक्षा में चयनित हुये हैं। यदि आप किसी अन्य नौकरी में हैं या विवाहित हैं या माता-पिता हैं तो सिविल सेवा की तैयारी में कठिनता का स्तर बढ़ता जाता है। विशेषज्ञ कहते हैं कि तैयारी तब जोरदार होती है जब आप इनमें से कुछ भी न हों।

ज्ञानदत्त पाण्डेय का कथ्य
प्रवीण शैक्षणिक रूप से इन्जीनियर और पेशे से सिविल सर्वेण्ट हैं। मेरा मामला भी वैसा ही है। पर बतौर इंजीनियर अध्ययन में जो बौद्धिक स्तर बनता है, उसमे सिविल सेवा की तैयारी बहुत कुछ सप्लीमेण्ट करती है – ऐसा मेरा विचार नहीं है। उल्टे मेरा मानना है कि बतौर इंजीनियर जो विश्लेषण करने की क्षमता विकसित होती है, वह सिविल सर्वेण्ट को कार्य करने में बहुत सहायक होती है।   

हां, अगर आप विज्ञान/इंजीनियरिंग से इतर विषय लेते हैं तब मामला व्यक्तित्व में एक नया आयाम जोड़ने का हो जाता है!

और यह तो है ही कि जैसे लेखन मात्र साहित्यकारों का क्षेत्राधिकार नहीं है वैसे ही सिविल सेवा पर केवल ह्यूमैनिटीज/साइंस वालों का वर्चस्व नहीं! और ऐसा भी नहीं है कि एक सिविल सर्वेण्ट बनने में एक डाक्टर या इंजीनियर अपनी कीमती पढ़ाई और राष्ट्र के रिसोर्स बर्बाद करता है।

लम्बे समय से मुझे लगता रहा है कि हिन्दी में बेकर-पोस्नर ब्लॉग की तर्ज पर ब्लॉग होना चाहिये, जहां दो व्यक्ति अपने विचार रखें और वे जरूरी नहीं कि एक रूप हों!। यह फुट-नोट लिखते समय वही अनुभूति पुन: हो रही है।

24 comments:

  1. हो सकता है मैं आपके विचारों से सहमत ना हो पाऊं फिर भी विचार प्रकट करने के आपके अधिकारों की रक्षा करूँगा ..वाल्तेयर
    यह लेख पढ़ कर कुछ ऐसी ही अनुभूति सभी पाठकों को होगी ...बहुत शुभकामनायें ..!!

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  2. आपकी इस बात से पूर्णतः सहमत हूँ कि हिन्दी में बेकर-पोस्नर ब्लॉग की तर्ज पर ब्लॉग होना चाहिये.

    बाकी सिविल सर्विसेस में इन्जिन्यरिंग/ साईंस/ मेडीकल और यहाँ तक की एकाउन्टिंग विषय लेकर तैयारी करते कम ही दिखते थे हमारे जमाने में भी.

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  3. बेकर-पोस्नर ब्लॉग की तर्ज भी बढ़िया लगी इस तर्ज पर हिंदी ब्लॉग होना ही चाहिए |

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  4. Since a=b; b=c;

    hence a=c


    इतना सारा कैल्क्यूलेशन 'विज्ञान वाला' करता है ताकि वह बता सके कि a = c है।

    जबकि 'मानविकी सब्जेक्ट वाला' सीधे कहता है

    a = c ,

    क्योंकि, इस संसार में मूलरूप से सभी को इश्वर ने 'बराबर ही' बनाया है :)

    और Exam में जहां Time factor का ध्यान रख यदि कोई बात सीधे कही जा सकती हो, तो वहां घुमा फिराकर कोई क्यों कहे :)

    वैसे, मेरा मानना है कि लोग रूचिकर विषय चुनते हैं और इसलिये चुनते है ताकि पूरे समय तक अपने आप को उसमें डुबोये रख सकें, अन्यथा जिस लेवल की समर्पित तैयारी चलती है, उस हिसाब से तो कई लोग पहले ही तंबू उखाड कहीं और चलने को मजबूर हो जाते हैं।

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  5. यह सही है कि एक बार सिविल सेवा की तैयारी भर कर लेने से बौद्धिक स्तर में वृद्धि हो जाती है, और योग्य व्यक्ति वैचारिक भटकाव से बच जाता है ।

    बाकी विषय के चुनाव में तो बहुत से फैक्टर काम करते हैं इन दिनों । एक विज्ञान विषयों का कठिन होना भी है ।

    प्रविष्टि सार्थक है । यहाँ इस मंच पर इस प्रविष्टि ने एक अभिनव अर्थ भी दिया है ।

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  6. civil services main logics se zayada 'applied subject' main jor diya jaata hai...
    ya diya jaana chahiye...

    ek baar IITans aur IIMans ko in prtiyogita main bhaag ne lene dene ki baat bhi chidi thi....

    ...tark ye tha ki wastage of traning and 'a good engineer can't be good administrator' .
    tark kitna sahi tha ya kitna galat...
    shodh ka vishay hai...

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  7. जीवविज्ञान से बीएससी करने के बाद भारत का प्राचीन इतिहास, समाजविज्ञान ऐसे ही पढ़ा था।

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  8. मैं सहमत हूं, इंजीनियरिंग की शिक्षा, जीवन और कार्य के अन्य क्षेत्रों में भी सहायक सिद्ध होती है. स्व-अनुभव से कह रहा हूं.

    "ज्ञानदत्त पाण्डेय का कथ्य" शब्द पढ़ते ही जो पहला विचार आया वो बेकर-पोस्नर ही था. मेरा तो सपना है कि श्री ज्ञानदत्त पाण्डेय, श्री प्रवीण पाण्डेय और श्री जी. विश्वनाथ की तिकड़ी मिलकर विभिन्न मुद्दों पर लिखे. हिंदी तो छोड़िये, अच्छे से अच्छे अंग्रेजी ब्लॉग को भी पटखनी देने लायक काम होगा.

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  9. विज्ञान के स्नातकों को विज्ञान विषयों से सिविल सेवा की परीक्षाओं में बैठाना हमेशा से ही दुष्कर लगा है.

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  10. जैसा की कुछ लोगों ने कहा है उससे मैं सहमत नहीं हूँ. विज्ञान पढने वालों के लिए विज्ञान मुश्किल नहीं होता. उनके लिए ह्यूमैनिटीज के विषय चुनना मजबूरी हो गयी है और ये किसने और किन तर्कों पे किया है ये तो आप जानते ही हैं. कई मित्र हैं सर्विस में. एक को छोड़कर सबने ह्यूमैनिटीज के विषय लिए... एक बार साइंस से परीक्षा देने के बाद.

    ये परीक्षा इंटेलिजेंस से ज्यादा पेसेंस की परीक्षा हो गयी लगती है जी !

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  11. प्रवीण शैक्षणिक रूप से इन्जीनियर और पेशे से सिविल सर्वेण्ट हैं।

    यही प्रमाणित करता है कि वैज्ञानिक से सिविल सर्वेन्ट बनना कितना सरल है:)

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  12. @लेखन मात्र साहित्यकारों का क्षेत्राधिकार नहीं है।

    सब कुछ कहते हुए बीच में हौले से, इतने हौले से कि पता ही न चले, आप अपनी मान्यता का ट्रे सरका देते हैं - पाठक के दिमाग की रैक में। ..
    चचा ये ठीक नहीं।

    साहित्यकार कोई हमसे आप से अलग स्पीसीज थोड़े होते हैं।

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  13. मेरा मानना है सिविल सर्विसिस में उन लोगो को आना चाहिए जिनमे प्रबंधन कुशलता के नासर्गिक गुण छिपे है ओर जो एक संवेदनशील ओर देश के लिए अन्दर से भला सोचने वाले लोग हो....चाहे वे किसी भी ब्रांच के क्यों न हो.....कई बार आपकी पिछली पढाई काम आ जाती है परिस्थितियों को संभालने में ...
    ओर की बात ...जैसे कोई इन्जिय्नर अपने शेत्र का जानकार होता है ... साहित्यकार भी उन बातो को शब्द देता है ओर नजरिया भी .. जिन्हें आम इन्सान शायद उतनी सुघड़ता ओर अछे तरीके से पेश नहीं कर पाता ...ये भी एक नैसर्गिक गुण है ..जो किसी कलाकार को कलाकार बनता है ...जैसे किसी को गाना अच्छा आता है ..पर हर कोई गा नहीं सकता

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  14. 15-20 बरस पहले तक भौतिकी व गणित deadly combination कहलाता था. हालत ये थी कि लगभग आधे लोग इसी तरह के विषयों से उत्तीर्ण होते थे. उस पर तुर्रा ये कि साक्षात्कार में 250 में से 100-50 नंबर पाने वाले भी ठस्से से बढ़िया ग्रुप-ए में सिलेक्ट हो जाया करते थे वहीं दूसरी ओर अन्य विषयों वाले 200-200 नंबर लेकर भी ग्रुप-बी में झूलते मिलते थे.


    गणित वाला 100 में से 100 पा सकता था पर हिंदी के पर्चे में अगर प्रेमचंद अपनी ही कहानियों या उपन्यासों पर परीक्षार्थी बन उत्तर देते तो पट्ठा एग्ज़ामिनर 100 में 60-65 से गर एक नंबर भी ज्यादा दे देता तो बात थी. कुछ विषयों में लोग 25-50 सवाल घोट डालते थे, उनमें से 5 फंस गए तो बल्ले-बल्ले.. दूसरी तरफ ह्यूमेनिटीज़ वाले डी.लिट लेवल की भी तैयारी कर मारते तो भी कम पड़ता था.

    कुछ-कुछ ऐसे महानुभाव भी थे जो पंजाबी और अरबी-फारसी जैसे भाषाई विषय लेकर 'अल्पसंख्यक' फ़ैक्टर के चलते 300 में से 275 तक पा जाते थे.

    इन्ही सब के चलते माडरेशन के बारे में अक्सर चर्चा होती थी पर इसका कोई खास मतलब नहीं होता था. अंतत: साक्षात्कार के 50 नंबर बढ़ाने और निबंध पर एक नया पर्चा शुरू करने के निर्णय इसी कारण किये गए थे.

    आज ये जानकर अच्छा लगा कि अब सिविल-सेवा में इस तरह का वर्चस्व समाप्त हो गया है और सभी एक ही धरातल पर साथ-साथ हैं...मैं नि:संदेह इंजीनियरिंग इत्यादी के विरूद्ध नहीं हूं :-)
    *******

    @डॉ .अनुराग
    जो भी सिविल-सेवा परीक्षा पास करके नियुक्त होते हैं उन्हें अपने-अपने क्षेत्र का विशेषज्ञ बना दिया जाता हैं, चाहे वह प्रशासन हो या तकनीकि महारत या दोनों का सम्मिश्रण. दो साल का प्रोबेशन पूरा होते-होते उन्हें घोड़ा बना दिया जाता है (अपवाद स्वरूप कुछेक गधे भी रह जाते हैं, पर वह शायद नस्ल बचाए रखने की क़वायद रहती होगी):-)

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  15. भाई बेचलर डिग्री के बाद चार वर्षीय सिविल सेवा परीक्षा की पढाई का ही बंदोबस्त सरकार क्यों नहीं कर देती. पाठ्यक्रम आवश्यकतानुरूप तय कर दिए जायें और यह परीक्षा पास करने के बाद ही कोई भी व्यक्ति सिविल सेवा परीक्षा में बैठ सके, या लोक प्रतिनिधि के रूप में चुनावों में खडा हो सके, कंपनियों में एच.आर. या मनाग्मेंट में शामिल हो सके, ताकि परीक्षा में समानता, कोर्स में समानता, कही किसी को असंतोष का बोध तो न हो., जैसे चार साल सेल्फ स्टडी में गंवाते हैं, फिर भी यदि असफल रहे तो कैरियर ही चौपट दिखाई देता है, फिर तो ये नहीं तो वो सही, कैरियर तो सामने रहेगा, पढाई निरर्थक तो न जायेगी.

    चन्द्र मोहन गुप्त.
    जयपुर
    www.cmgupta.blogspot,com

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  16. आप दोनों के ही विचारों से सहमति है....बल्कि यदि यह कहा जाय कि दोनों बात मिलकर बात पूरी होती है तो अधिक सटीक होगा...

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  17. बडे लक्ष्य बडी कुर्बानी मांगते हैं।
    -Zakir Ali ‘Rajnish’
    { Secretary-TSALIIM & SBAI }

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  18. हम क्या चर्चा में भाग लें । हमने तो कभी आई ए एस का फार्म तक नहीं खरीदा डर के मारे कि कहीं सालों ने सेलेक्ट कर लिया तो गधों की नस्ल बचाने की जिम्मेदारी हम पर आ जाती ।

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  19. आदरणीय ज्ञानदत्त जी,

    मैं आपकी इस बात से सहमत हूँ कि सिविल सेवा में जाकर कोई इंजिनियर या डॉक्टर राष्ट्र के संसाधन और समय को बर्बाद नही करता है बल्कि अपनी विश्लेषणात्म्क क्षमता क उपयोग कर ज्यादा बेहतर और उन्नत तरीके से कार्य कर सकता है।

    सादर,

    मुकेश कुमार तिवारी

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  20. "यदि आप किसी अन्य नौकरी में हैं या विवाहित हैं या माता-पिता हैं तो सिविल सेवा की तैयारी में कठिनता का स्तर बढ़ता जाता है। विशेषज्ञ कहते हैं कि तैयारी तब जोरदार होती है जब आप इनमें से कुछ भी न हों।"

    लेकिन दुनिया के सबसे बड़े प्रबंधकों को नियोक्ता तब काबिल मानते हैं जब वे किसी नौकरी और पारिवारिक जीवन के साथ तैयारी करके चयनित होते हैं.

    "एक बार सिविल सेवा की तैयारी भर कर लेने से ही छात्र का बौद्धिक स्तर बहुत बढ़ जाता है। साथ ही साथ कई वर्ष व्यस्त रहने से पूरी कि पूरी योग्य पीढ़ी वैचारिक भटकाव से बच जाती है।"

    और उसके बाद का भटकाव? जब वे एक हायर सैकंडरी पास हिस्ट्रीशीटर के सामने हाथ बांधे खड़े रहते हैं और जुगाड़ बिठाते हैं की उन्हें ट्रबल्ड एरिया या कम कमाई वाली जगह में न फेंक दिया जाय.

    ये प्रतियोगी परीक्षाएं निस्संदेह कठिन हैं लेकिन फैक्ट पर जोर देने के कारण. गुप्त काल का फलाना सिक्का कितने ग्राम का होता था इस जानकारी का कोई सिविल सर्वेंट क्या अचार डालेगा?

    दुनिया के किसी देश में सिविल सर्वेंट की नियुक्ति इस प्रकार नहीं होती. भारत में लोग इसे बदलना नहीं चाहते क्योंकि यह उन्हें यकायक सबके सर पर बिठा देता है. एक पच्चीस साल के अफसर के पास IAS-IPS का तमगा होने से वह पचपन साल के अधिकारी से ज्यादा काबिल नहीं हो जाता.

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  21. अपने देश में पढ़ाई-लिखाई में अच्छे माने जाने वाले बच्चे अच्छे माने जाने वाले पेशों में धंस जाते हैं।

    यह विडम्बना ही है कि देश के सबसे अच्छे माने जाने वाले बच्चे देश की सबसे अच्छी माने जानी वाली नौकरी में जाकर अंतत: देश की बागडोर संभालकर देश को चौपट करने में सहयोग करते हैं। व्यवस्था में कोई सार्थक बदलाव न इंजीनियर लाते हैं सिविल सर्वेन्ट! श्रीलाल शुक्ल ने अपने लेख सफ़ेद कालर का विद्रोह में लिखा है:१.इंजीनियर ,डाक्टर, सिविल सर्वेंट आदि जब ’युद्ध मार्ग पर प्रवृत्त ’ होते हैं तो मुझे इत्मिनान रहता है कि वे ऐसे खच्चर हैं जो तबेले में तलियाउझ करेंगे , कुछ देरे तबेले के बाहर टहलेंगे भी और फ़िर तबेले के अन्दर आकर अपने-आपको बन्द कर लेंगे।
    २. इस तरह सारा विद्रोह और आन्दोलन एक उस तालाब की शक्ल ले लेता है जिसमें गन्दे पानी की लहरें एक-दूसरे पर टूट रही हैं और बड़े जोश के सथ एक-दूसरों को काट रही हैं और तालाब के बाहर किनारे पर खड़े भारी-भरकम पेड़ों को इनसे कोई खतरा नहीं है।

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  22. बेकर-पोस्नर ब्लॉग की तर्ज पर ब्लागिंग की शुरुआत आप और भाभीजी सबसे बढ़िया कर सकते हैं। आप पोस्ट लिखें उस पर भाभीजी अपनी प्रतिपोस्ट ठोंक दें। लेकिन मुझे पता यह भी है कि आप ऐसा करेंगे नहीं काहे से कि फ़िर उनके विचार हिट हो जायेंगे क्योंकि उनके विचार ज्यादा सहज और सच के करीब होते हैं। :)

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  23. ये परीक्षा इंटेलिजेंस से ज्यादा पेसेंस की परीक्षा हो गयी लगती है जी !
    अभिषेक ओझा की बात सटीक लगती है. आईएस की इतनी लम्बी फ़ौज होते हुए भी जो-जो जैसे-जैसे होना था अब तक वैसे न हो पाना इस बात को साबित करता है. इस चयन में आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता है ताकि आप दोनों जैसे सक्षम, सहृदय और विचारवान लोग अल्पसंख्यक न रहें.

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  24. यह भी मुझे एक सुखद संयोग ही लगा कि आज ही आपको मैंने इसी बेकर-…जैसे ब्लॉग की परिकल्पना का प्रश्न ईमेल किया।

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--- सादर, ज्ञानदत्त पाण्डेय