कितने सारे लोग कविता ठेलते हैं।
ब्लॉग के सफे पर सरका देते हैं
असम्बद्ध पंक्तियां।
मेरा भी मन होता है;
जमा दूं पंक्तियां - वैसे ही
जैसे जमाती हैं मेरी पत्नी दही।
जामन के रूप में ले कर प्रियंकर जी के ब्लॉग से कुछ शब्द
और अपने कुछ असंबद्ध शब्द/वाक्य का दूध।
क्या ऐसे ही लिखते हैं लोग कविता?
और कहते हैं यह रिक्शेवाले के लिये नहीं लिखी हैं।
मेरा लिखा भी रिक्शा-ठेलावाला नहीं पढ़ता;
पर रिक्शे-ठेले वाला पढ़ कर तारीफ में कुछ कह दे
तो खुशी होगी बेइन्तहा।
काश कोई मित्र ही बना लें;
रिक्शेवाले की आईडी
और कर दें एक टिप्पणी!
इस पोस्ट के लिये फोटो तलाशने गोवेन्दपुरी तिराहे पर गया तो स्ट्रीट लाइट चली गयी। किसी रिक्शे वाले की फोटो न आ पायी मोबाइल कैमरे में। यह ठेले वाला अपनी पंचलैट जलाये था - सो आ गया कैमरे में। पास ही एक रिक्शे वाला तन्मयता से सुन रहा था -
"मैं रात भर न सोई रे/खम्भा पकड़ के रोई/बेइमान बालमा; अरे नादान बालमा..."।
मुझे लगा कि इतना मधुर गीत काश मैं लिख पाता!
अरे साहब,
ReplyDeleteआपने जो लिखा, हमें अच्छा लगा इतना क्या कम है?
फिर भी न ज्ञान जी, लेगा कोई सबक
ReplyDeleteकविता के नाम पर ,रहेगी ये बकबक
आप समझे न समझे यह तो है आपकी कमी
कवियों से भरी पडी है यह धरा यह सरजमीं
अब यह कीडा चिट्ठाजगत में भी कुलबुला रहा है
हद है कविता सुनने रिक्शेवालों को भी बुला रहा है
यह तो है चिठाजगत के कवियों की पूरी तौहीन
काश वे भी हो पाते रिक्शेवालों सरीखे शौकीन !
ऐक बार इलाहाबाद में रिक्शे पर जा रहा था तो रिक्शेवाला कुछ गा रहा था, सुनने के लिये थोडा आगे की तरफ झुक कर बैठ गया। वो किसी बिरहा के बोल गा रहा था, शब्द थे -
ReplyDeleteहेरत रहा जा सार अस दुल्हा न पईब् ,जाडा के रतीया सुते न पउब्, हेरत रहा जा सार.....
उस समय लगा ये ऐक प्रसिध्द गीत के बोल को अपने दुख में मिला कर गीत गढ रहा है......लेकिन बहुत अच्छा लगा था वब गीत। आज आप के पोस्ट में रिक्शेवाले की चर्चा आते ही वह जाडे की यात्रा अचानक याद आ गई। यहां मुम्बई में तो आटो रिक्शे में गाना सुनने मिलता है...ससुरा चान्स मारे रे.....वाईट वाईट फेस देखे...।
अच्छी पोस्ट रही।
aapki vyatha samjhi ja sakti hai.achha piroya unhe shabd-mala me.is mamle me jyada samajh to hai nahi magar itni achhi lagi ki main ise nayi kavita to keh hi sakta hun
ReplyDeleteवाह-वाह...वाह-वाह...वाह-वाह! गुरुदेव, जमा के रखिए। यह कविता... सॉरी ‘दही’ खाने हम बहुत जल्द आ रहे हैं।
ReplyDeleteकविता लेखन अब इतना ही सरल हो गया है, कि कुछ भी लिख कर उसे लम्बवत रूप दें और कविता तैयार ! साथ ही कमेंट्स यह कि यह अनपढों और मंदबुद्धि के लोगों के लिए नही है, नतीजा उसे समझदार लोग ही पढ़ते भी हैं और तारीफ भी करते हैं ! हम जैसों कि समझ में यह कवितायें कभी आयीं ही नही ! अतः क्या कहें, आप कि इमेल ढूंढने आया था, आपके कमेंट्स का जवाब मैंने अपने ब्लॉग पर दिया है कृपया जब समय हो तो एक बार पढ़ें अवश्य ! आभार सहित
ReplyDeleteसही कहा आप ने ज्ञान भइया. लोग कविता ठेल देते हैं .... लेकिन आप की ये आज की रचना बड़े काम की है .... कुछ सोचने पर आमादा करती है ..... Striking the emotional corner is much easier .... This one, in fact, strikes much harder.
ReplyDeleteहर आदमी अन्दर से कवि होता है पर सब ज्ञान पीठ के लिए कविता नहीं लिखते और न ही सबको यह पुरूस्कार मिलता है. बहुत से लोग अपनी खुशी के लिए लिखते हैं. ब्लाग ने यह आसन बना दिया. अब क्या ब्लाग पर कविता करने की आजादी भी ज्ञान पीठ वालों को तकलीफ देने लगी?
ReplyDeleteप्रियंकर जी ने आपसे कित्ती अच्छी कविता ठेलवाई
ReplyDeleteजैसे मोहल्ले मे जलेबी बना रहा कोई हलवाई
जैसे भाभी जी ने दूध गरम,फ़िर ठंडा कर दही जमाई
कविता मे भी आईस्क्रीम की तरह जम दी ज्ञानाई
:)
कविता जमाना दही जमाने जितना ही आसान है :)
ReplyDeleteबहुत खुब कविता की है, आप भी कविओं में शामिल हो गए. अब घबराते हुए आपके ब्लॉग पर आएंगे :) बधाई स्वीकारें.
कवियों ने आपको कलकत्ता में ऐसा कर दिया,
ReplyDeleteवर्ना ब्लागर आप भी थे बड़े काम के। शिवकुटी से गोविन्दनगर फोटू खींचने जाने का काम किया है, यह है एक ब्लागर का समर्पण!
जिसे कविता समझ नहीं आएगी
ReplyDeleteवो भी अपनी नादानी छिपायेगा
बतलायेगा सब समझ गया हूं
कविता की यही खासियत है
कविता में यही रूमानियत है
थोड़ी तुक मिला दो फिर
उसमें विचार और कल्पनायें
संजो दो और कविता के
भरपूर मजे लो, मजे दो
परिवार एवं मित्रों सहित आपको जन्माष्टमी पर्व की
ReplyDeleteबधाई एवं शुभकामनाएं ! कन्हैया इस साल में आपकी
समस्त मनोकामनाएं पूर्ण करे ! आज की यही प्रार्थना
कृष्ण-कन्हैया से है !
आज कविता लिखने का अच्छा आइडिया मिला !
हम भी सोच ही रहे थे पर आज समझ आगया !
बहुत जल्दी हम भी कविता लिखना शुरू कर रहे हैं !
दही का जिक्र .. कन्हैया का मन पसंद व्यंजन ..!
पुन: बहुत बहुत बधाईयाँ जन्माष्टमी पर्व की
आपकी कविता मे दर्द है, यथार्थ है, मेहनत है, पुरुषार्थ है।
ReplyDeleteदर्द जो हमे रिक्शा चलाने मे होता है।
यथार्थ ऐसा जो रिक्शे के पहियों जितना सच है।
मेहनत, जो पसीना बहाने मे होती है।
पुरुषार्थ इस तरह, किसी महिला को रिक्शा चलाते देखा है कभी?
अब पुरस्कार स्वरुप टिप्पणी भी झेली जाए।
एक रिक्शेवाला ही आपकी कविता को सही तरह से समझ सकता है।
-कानपुरी रिक्शेवाला
(भैया, कविता करते करते, हमारे किराए के पैसे देना मत भूल जाना। इत्ता वजनी शरीर हम चार किलोमीटर ढो कर लाए है।)
कविता तो नहीं बनी, पर उस के लिए अभ्यास उत्तम है। यह कविता नहीं उस के आने की भूमिका है। यूं समझ लें, जैसे पुंसवन संस्कार।
ReplyDeleteमुझे तो लगा कि आप के गद्य में कविता अधिक होती है। इस रचना में गद्य भरपूर है।
आप को बधाई।
कविता लिखने के लिए कविता न लिखें। अपनी बात कहने को कविता लिखें। बस कविता जानदार होने लगेगी।
कवि आप हो ही लिये हैं। क्या कहें। यही कह सकते हैं कि कवि होकर भी जमाये रहें।
ReplyDeleteकविता को भी ज़माने के लिए फ्रिज में रख दे. कुछ भी जमाये रहे पंडित जी ..
ReplyDeleteकहां जाकर मारा है। जाने कितने घायल हो गए होंगे। :D
ReplyDeleteare vaah aap to kavi ban gaye aur bahut hi achchi kavita likhi hai. to badhai sweekar karen.
ReplyDeleteबढ़िया पोस्ट ज्ञानदा...इससे ज्यादा कहने को नहीं :)
ReplyDeleteसबने सब कहा , हमने आनंद लिया।
महेन की टिप्पणी में अपनी बात नज़र आती है और
सतीश पंचम की टिप्पणी अच्छी लगी।
जन्माष्टमी के पावन पर्व पर आपको शुभकामनाएं
ReplyDeleteदीपक भारतदीप
दही हो या कविता
ReplyDeleteबिल्कुल जम जाती है
निराला और बच्चन की
याद बहुत आती है
कविता की सरिता
बढ़िया बहाई है
पढ़े चाहे रिक्शेवाला
या हलवाई है
कागज़ पर जो उभरे है
कवि की पीड़ा है
पढ़कर तो ऐसा लगे
कविता लिखना क्रीडा है
हमपर न सही
रिक्शे पर ही लिख जाए
कभी कवि की कलम से
हमरी चर्चा दिख जाए
लगता है कि ब्लॉगिंग से आपका दिल नहें भरा।
ReplyDeleteठीक ही कविता लिखिए।
और यदि इससे भी दिल नहीं भरता तो "पेंटिंग" आजमाइए।
अगर पेंटिंग नहीं कर सकते तो कार्टून आजमाइए।
क्या आप गा सकते हैं? पॉडकास्ट तैयार कीजिए।
हम सुनने के लिए तैयार है।
ब्लॉग में यह सब सम्भव है।
मेरा सबसे प्रिय ब्लॉग वह होगा जिसमें यह सब एक जगह मिलेंगे।
है कोइ ऐसा ब्लॉग्गर?
जन्माष्टमी की बहुत बहुत वधाई, मेरी तरफ़ से ओर हमारे रिक्शेवालों की युनियन की तरफ़ से,
ReplyDeleteबधाई हो, अब आप भी वर्तमान समय के महत्वपूर्ण कवि हो गए :) मेरा मतलब महत्वपूर्ण तो आप थे ही, अब कवि भी हो गए, इसलिए महत्वपूर्ण कवि :)
ReplyDeleteसब कलकत्ते और कलकतिया भाइयों की संगति का प्रताप है :) पहले लाल रंग में रंगे, अब कविताई भी करने लगे :)
आप भी कविता लिखने लग जायेंगे तो फिर हमें सीखने को क्या मिलेगा?
ReplyDeleteनिराला की 'इलाहाबाद के पथ पर' और 'भिक्षुक' जैसी कविता कई गद्यों के बराबर होती है... पर दही के जैसी जमी हुई की क्या जरुरत है, आप वैसे ही बहुत अच्छा लिखते हैं. क्यों नए मोह-माया में फंसना चाहते हैं !
महेन साहेब के साथ खड़ा हो कर मैं यह भी कहना चाहूंगा कि कोलकाता मे प्रियंकर जी से मिलकर आए हो आप तो संगति का थोड़ा बहुत असर हुआ दिखता है ;)
ReplyDeleteBahut achche sabko lapete men le liye waise dahi ho ya kawta achchee jame tabhi maja hai.
ReplyDelete" ज्ञानाई .........
ReplyDelete:)
आह से, उपजा है क्या ज्ञान ? "
"कविता" भी ऐसे ही आती है
जैसे बचपन से जवानी और जवानी के बाद बुढापा !और कोई कह देता है,
"लगता नही है जी मेरा
उजडे दयार मेँ
२ आरज़ू मेँ कट गए,
२ इँतज़ार मेँ "
- लावण्या
कपिल सिबल सनमवर साहब की किताब छपकर आ गयी है, आपके किशन कन्हैया करें आपकी भी जल्द ही आ जाये. फिर रिक्शेवाला रिक्शे पर लादकर घूम-घूमकर बिकवाये भी. जय हो कविकंठमयी नयी-नयी.
ReplyDeleteक्या बात है, आप कविता भी करते हैं तो मानसिक हलचल टाईप।
ReplyDeleteगाल से गाल मिलाकर, आप लौट के क्या आये
किस का असर हैं बोलें, जो ये कविता सरकाये
अंय हमारी टिप्पणी तो गुमै गई ।
ReplyDeleteकल इत्ते जतन से लिखी थी । खैर । हम कह रहे थे कि ई कविता का रोग ससुर आपको कैसे लग गया । सच्ची कहें तो आप फोटू ज्यादा अचछे खींचते हैं । कविताई अविताई छोडिये । जो आप कर रहे हैं वो जादा अच्छा है । हम थोड़े दिन अस्त व्यस्त त्रस्त मस्त रहे । अब वापस आ गये हैं ।
हाथी घोड़ा पालकी । जय कन्हैया लाल की ।
कितने सारे लोग कविता ठेलते हैं।
ReplyDeleteब्लॉग के सफे पर सरका देते हैं
असम्बद्ध पंक्तियां।
मेरा भी मन होता है;
जमा दूं पंक्तियां - वैसे ही
जैसे जमाती हैं मेरी पत्नी दही।
aapka kahna kitna jayaj hai ise parakhane k liye aap se ise follow karne ka aagrah hai roj yah aasan kaam kiya karen
वाह, दिल को छूती हुई कविता, भाव पक्ष एवं कला पक्ष का बेहतर संयोजन । महोदय आप तो इक्कीसवीं सदी की नई कविताओं में जान डाल रहे हैं । सुप्रसिद्व कवि योगेश्वरानंद इलाहाबादी नें अपनी आलोचनात्मक कृति 'नई कविताओं के कर्णधार' में लिखा है कि दही पर लिखी गई कविताएं धी और कोलेस्ट्रोल तक का सफर तय करती हैं ।
ReplyDeleteलिखते रहें ..... हमारी शुभकामनायें ।
(हा हा हा बहुत जरूरी पोस्ट है यह मजा आ गया)
लगता है कि ब्लॉगिंग से आपका दिल नहें भरा।
ReplyDeleteठीक ही कविता लिखिए।
और यदि इससे भी दिल नहीं भरता तो "पेंटिंग" आजमाइए।
अगर पेंटिंग नहीं कर सकते तो कार्टून आजमाइए।
क्या आप गा सकते हैं? पॉडकास्ट तैयार कीजिए।
हम सुनने के लिए तैयार है।
ब्लॉग में यह सब सम्भव है।
मेरा सबसे प्रिय ब्लॉग वह होगा जिसमें यह सब एक जगह मिलेंगे।
है कोइ ऐसा ब्लॉग्गर?
परिवार एवं मित्रों सहित आपको जन्माष्टमी पर्व की
ReplyDeleteबधाई एवं शुभकामनाएं ! कन्हैया इस साल में आपकी
समस्त मनोकामनाएं पूर्ण करे ! आज की यही प्रार्थना
कृष्ण-कन्हैया से है !
आज कविता लिखने का अच्छा आइडिया मिला !
हम भी सोच ही रहे थे पर आज समझ आगया !
बहुत जल्दी हम भी कविता लिखना शुरू कर रहे हैं !
दही का जिक्र .. कन्हैया का मन पसंद व्यंजन ..!
पुन: बहुत बहुत बधाईयाँ जन्माष्टमी पर्व की
ऐक बार इलाहाबाद में रिक्शे पर जा रहा था तो रिक्शेवाला कुछ गा रहा था, सुनने के लिये थोडा आगे की तरफ झुक कर बैठ गया। वो किसी बिरहा के बोल गा रहा था, शब्द थे -
ReplyDeleteहेरत रहा जा सार अस दुल्हा न पईब् ,जाडा के रतीया सुते न पउब्, हेरत रहा जा सार.....
उस समय लगा ये ऐक प्रसिध्द गीत के बोल को अपने दुख में मिला कर गीत गढ रहा है......लेकिन बहुत अच्छा लगा था वब गीत। आज आप के पोस्ट में रिक्शेवाले की चर्चा आते ही वह जाडे की यात्रा अचानक याद आ गई। यहां मुम्बई में तो आटो रिक्शे में गाना सुनने मिलता है...ससुरा चान्स मारे रे.....वाईट वाईट फेस देखे...।
अच्छी पोस्ट रही।
फिर भी न ज्ञान जी, लेगा कोई सबक
ReplyDeleteकविता के नाम पर ,रहेगी ये बकबक
आप समझे न समझे यह तो है आपकी कमी
कवियों से भरी पडी है यह धरा यह सरजमीं
अब यह कीडा चिट्ठाजगत में भी कुलबुला रहा है
हद है कविता सुनने रिक्शेवालों को भी बुला रहा है
यह तो है चिठाजगत के कवियों की पूरी तौहीन
काश वे भी हो पाते रिक्शेवालों सरीखे शौकीन !