रागदरबारीत्व सब जगह पसरा पड़ा है मेरे घर के आसपास। बस देखने सुनने वाला चाहिये। यह जगह शिवपालगंज से कमतर नहीं है।
कुछ दिन पहले मैं चिरकुट सी किराने की दुकान पर नारियल खरीद रहा था। विशुद्ध गंजही दुकान। दुकानदार पालथी मार कर बैठा था। मैली गंजी पहने। उसका जवान लड़का लुंगी कंछाड़ मारे और पेट से केसरिया रंग की बनियान ऊपर किये नारियल की जटा छील रहा था। इतने में एक छ-सात साल का लड़का बीड़ी का बण्डल खरीदने आ गया। दस रुपये का नोट ले कर। नोट देखते हुये चिरकुट दुकानदार बड़ी आत्मीयता से उससे बोला - "ई चुराइ क लइ आइ हए का बे, चू** क बाप!" ("यह चुरा कर लाया है क्या बे, विशिष्ट अंग से उत्पन्न के बाप!) मैने लड़के को ध्यान से देखा; अभी बीड़ी सेवन के काबिल नहीं थी उम्र। तब तक उसका अभिभावक - एक अधेड़ सा आदमी पीछे से आ गया। लड़के के बब्बा ही रहे होंगे - बाप के बाप। बीड़ी उन्होंने ली, बच्चे को टाफी दिलाई। दुकानदार और उन बब्बा की बातचीत से लगा कि दोनो अड़ोस-पड़ोस के हैं। बालक के लिये यह अलंकरण प्रेम-प्यार का प्रदर्शन था। प्रेम-प्यार का आत्मीय अलंकरण?! शायद उससे अधिक। बच्चे के बब्बा उससे बीड़ी मंगवा कर उसे जो ट्रेनिंग दे रहे थे; उससे वह भविष्य में चू** नामक विभूति का योग्य पिता निश्चय ही बनने जा रहा था। मुझे अचानक उस चिरकुट दुकान का गंजी पहने दुकानदार एक भविष्यद्रष्टा लगा!
देसी अलंकरणों का सहज धाराप्रवाह प्रयोग चिरकुट समाज की खासियत है। हमारे जैसे उस भाषा से असहज रहते हैं। या वह अलग सी चीज लगती है!
ब्लॉग अगर साहित्य का अटैचमेण्ट नहीं है; (और सही में इस अगर की आवश्यकता नहीं है; अन्यथा हमारे जैसे लोगों का ब्लॉगरी में स्थान ही न होता!) तब गालियों का एक अलग स्थान निर्धारण होना चाहिये ब्लॉग जगत में - साहित्य से बिल्कुल अलग स्तर पर।
गालियां इमोशंस को बेहतर अभिव्यक्त करती हैं। गालियां बुद्धि की नहीं रक्त की भाषा बोलती हैं। बुद्धि का आटा ज्यादा गूंथने से अगर अवसाद हो रहा हो तो कुछ गालियां सीख लेनी चाहियें - यह सलाह आपको नहीं, अपने आप को दे रहा हूं। यद्यपि मैं जानता हूं कि शायद ही अमल करूं, अपने टैबूज़ (taboo - वर्जना) के चलते!
भाभीजी की बात से हम भी सहमत हैं. लिखते रहिये, लोग दुबले हुए जा रहे हैं मानसिक हलचल के बिना.
ReplyDeleteआपकी पोस्ट आयी तो अब आपका स्वास्थ्य भी अच्छा होगा । दुकानदार के बेटे के बारे में पढकर एकदम सनीचर की याद ताजा हो गयी । कुछ भी हो चिरकुटई वही कर सकता है जो चिरकुटई के भावों के प्रति सहज हों । धाराप्रवाह गाली देना भी कला है और कभी मित्रों के बीच धाराप्रवाह गाली का आदान प्रदान कभी कभी बडा सुरीला भी लगता था । ये अलग बात है कि अब बढती उम्र के चलते ये सब खत्म हो रहा है :-)
ReplyDeleteचलिये ,सौ. रीटाजी की बातेँ आप मानते हैँ यही अच्छी बात लगी और आपकी वर्जनाएँ सही हैँ (गाली ना देना)
ReplyDeleteलिखते रहीये और आशा है आप अब स्वस्थ हैँ
- लावण्या
भाभी जी को नमन..कितनी समझदार हैं..साधना क आपके यहाँ भेज देता हूँ..शायद रीता भाभी की शागिर्दी में कुछ सीख जाये..वरना तो बाथरुम लेखक बन कर रह जायेंगे हम!! :)
ReplyDeleteमैने तो पिछले दिनो एक रिपोर्ट भी पढ़ी थी. की ब्लॉगिंग करने वेल लोग अधिक स्वस्थ रहते है.. आप भी श्रीमती जी की सलाह मानिए.. और चिरकुटी पोस्ट चिपकते जाइए..
ReplyDeleteमेरी रिपोर्ट ने आपको चंगा कर दिया -यह पोस्ट उसका प्रमाण है .मूल अंगों से जुडी गालियाँ और उससे जुडी कितनी ही कहावतें सीधे प्रभावी संवाद कायम करती हैं .पर आप जब उस विधा में अब तक निष्णात नही हुए तो अब ऐसी कारस्तानियों से बाज आयें -मामला हास्यास्पद हो सकता है -बस मेरी तरह घर में ही (चैरिटी बिगिन्स एट होम ]मन हल्का फुल्का करने के लिए कभी कभार कुछ जुमलों को उच्चारित कर दिया करिए -हंसी के फौव्वारों के साथ मन हल्का हो जायेगा .जैसे बाप पा** न जाने पूत शंख बजाये .गा** से पोखरा नही खुदेगा .गा* खौरही मखमल का भगवा ...ये सारे स्लैंग नुमा कहावतें हैं -अब जब इस आप इस टिप्पणी को प्रकाशित करने में ही हिचक रहे हैं तब ख़ुद इनके उच्चारण की आपकी साध पूरी होने से रही ....मैं भी पहले काफी संकोच करता था पर अब हंसी मजाक के लहजे में इन्हे बोल लेता हूँ और इसी भाव से ये टेक अप भी होती हैं -कोई इन्हे बुरा नहीं मानता .ये हंसोक्तियाँ अब परिवेश में रच बस सी गयी हैं .
ReplyDeleteअनुभव व्यक्ति को भविष्यदृष्टा बनाता है, चाहे वह चिरकुटई दुकान पर क्यों न बैठा हो या ठेला घसीट रहा हो।
ReplyDeleteकाम से समय न मिल पाने पर भी ब्लागर पोस्ट लिखने बैठता है। यह उस के जीवन का भाग हो चुका है। वास्तव में ब्लागरी मानसिक हलचल ही नहीं है। वह मानसिक व्यायाम भी है। जिस का नियमित होना स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है। मैं भी एक सप्ताह से अपने ब्लागों पर दूर हूँ। अस्वस्थता होने या कार्याधिक्य होने पर व्यायाम से बचा जा सकता है, पर इस से अधिक दिन दूर रहना भी ठीक नहीं। भाभी की सलाह ठीक है।
वेलकम बैक
ReplyDeleteयही तो बात है ब्लागिंग में
लिखकर आदमी परेशान होता है,और ना लिखे तो और भी ज्यादा परेशान होता है।मामला कुछ कुछ इश्किया टाइप है-
वो ना आयें तो सताती है खलिश सी दिल को
वो जो आयें, तो खलिश और जवान होती है
जमाये रहिये
galiyan bakne ka saubhagya mujhe bhi prapt hai.cundecter,driver se to original galiyon se hi nipatana padata tha magar aapne kuch priya patrakaar aur photographer sathiyyon ke liye maine apne alankaran tay kiye hue hain,photographar sharda dutt tripathi ko main bhai duryodhan kehta hun,patrakar rajesh gupta shishupaal hain,kisi ko shakuni keh deta hun to kisiko hariram ya h.r. hr yani shole ka hariram yad aaya jailor ka khabri keshto.aur bhi haun fir kabhi vistaar se,aapne badhiya likha.badhai aapko, gaon ki yaad dila di jahan buzurgon ka pyar unke alankaran se hi jhalkta tha
ReplyDeleteआपका दुबारा हलचल बिखेरना अच्छा लगा। स्वास्थ्य के लिए आये, यह और उत्साहजनक है। आप बिलकुल ठीक हो जाएंगे, यही हमारी दुआ है।
ReplyDeleteरही बात चिरकुटई की तो हम होली में गाँव जाकर इसकी भरपाई करते हैं। यूनिवर्सिटी हॉस्टेल में जब बिजली कट जाती थी तो एक से एक सुभाषित वचनों से गला साफ करने का मौका मिलता था। अलग-अलग हॉस्टेल्स से प्रतिस्पर्धा करती आवाजें एक दूसरे से टकराकर मनोरम दृश्य उपस्थित करती थीं। एक बार तो गलतफ़हमीं में पुलिस भी आ गयी थी।
माने भाभीजी ज्यादा ज्ञानी है. सही सलाह देने के लिए उन्हे प्रणाम.
ReplyDeleteगाली टेंशन मिटाने का सर्वोत्तम साधन है, बस वर्जनाएं आड़े आ जाती है.
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ReplyDeleteब्लॉग अगर साहित्य का अटैचमेण्ट नहीं है; (और सही में इस अगर की आवश्यकता नहीं है; अन्यथा हमारे जैसे लोगों का ब्लॉगरी में स्थान ही न होता!) तब गालियों का एक अलग स्थान निर्धारण होना चाहिये ब्लॉग जगत में - साहित्य से बिल्कुल अलग स्तर पर
Its a point to ponder, Gurudev !
सो, फिलहाल तो उसीमें विचर लेता हूँ, टिप्पणी-ऊप्पणी बाद मे देखा जायेगा..
वइसे भी ईहाँ मोडरेशन विलास का आभिजात्य है, सो...
स्वामी-संहिता की प्रतीक्षा है..
आ लेने दीजिये
भाभी जी ने आपकी बीमारी को पहचान लिया ...दो तीन गाली भी ठेल देते तो मन ओर हल्का हो जाता (वर्जना को छोड़कर )
ReplyDeleteभाभी जी ने सही कहा...अगर लिखते रहेंगे तो स्वस्थ महसूस करेंगे!
ReplyDeleteरागदरबारी रचना ही ऐसी है। इस देश के किसी भी कस्बे में उसे पढ़ा जाए, लगेगा कि वहीं की कहानी लिखी गयी है। शायद यह अमर कृति बीमारी की बोरियत मिटाने में काफी कारगर साबित हुई है :) इतने दिनों बाद आपका लिखा पढ़ना काफी सुखद है। उम्मीद है कि अब यह पहले की तरह जारी रहेगा।
ReplyDeleteज्ञानजी,
ReplyDeleteआपकी वापसी का इंतज़ार था।
स्वागतम्
BITS पिलानी के छात्र हैं हम दोनों।
याद है ragging के दिन?
Ragging के पहले ही दिन, जब सीनियर को पता चला कि मैं दक्षिण भारती हूँ और हिन्दी ठीक से नहीं जानता था तो मुझे हिन्दी सीखने की कसम खानी पड़ी और सिखाने की जिम्मेदारी उस सीनियर ने संभाल ली। पहला पाठ था हिन्दी की विशेष और चुनी हुई गालियाँ। एक लम्बी सूची तैयार की गई और मुझे उसे रटने का आदेश मिला। जब तक एक एक गाली को पूरी जोश के साथ अभिव्यक्त न कर सका तब तक मेरी रिहाई न होने की धमकी दी गई। रिहाई होने से पहले मुझे इन गालियों का सारे दक्षिण भारत में प्रचार करने की कसम भी खानी पड़ी।
पंजाब गए हैं कभी? किसी हट्टे खट्टे सरदारजी ट्रक ड्राइवर से मिलिए और ऐसा कुछ कीजिए के वह गुस्से से आग बबूला हो जाए। फ़िर सुनिए उसके मुँह से निकलती हुई ज्वालामुखी की आवाज़। गाली देना तो कोई उनसे सीखे। शरीर के एक एक अंग, चाहे वह कोई छिद्र हो या सतह से बाहर निकली हुई वस्तु हो, सभी शामिल हो जाएंगे उनकी गालियों में और सुनने वाले को anatomy का अच्छा सबक सीखने को मिलेगा।
दक्षिन भारती भाषाओं में भी गालियों की कोई कमी नहीं।
एक बार तमिल नाडु में बस मे सफ़र कर रहा था।
किसी बस अड्डे पर एक आदमी चिल्ला चिल्ला कर लॉट्टरी टिकट बेच रहा था और लोगों को अपने ही अंदाज़ में आकर्षित कर रहा था। मूल तमिल में उसका दोहा (couplet) का अनुवाद पेश है:
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(***) फ़ेंककर पहाड़ फ़ंसाइए!
निशाना लग गया तो पहाड़ पाइए!
नहीं तो (*****) ओं, (***) ही तो खोओगे!
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(***) = तमिल में एक बहुत ही विशेष अंग के बाल की लड़ी जिसे वह एक तुच्छ सिक्के से तुलना कर रहा था। पहाड़ था एक लाख का इनाम।
(*****) = आम या तुच्छ पुरुष के लिए एक अभद्र शब्द जिसका हिन्दी में अनुवाद मैं नहीं जानता
हिन्दी में उतना मज़ा नहीं आ रहा।
मूल तमिल में ज्यादा प्यारा लगा था उसका यह ऐलान।
चलो आज आपकी इस ब्लॉग पोस्ट के कारण मुझे भी "भद्र्लोक के मंच" से उतरना पड़ा है। आपके साथ मेरा नाम भी आजसे मिट्टी में !
गोपालकृष्ण विश्वनाथ
blalaging karne se tan or man dono swasthy hote hai. blaag me vichaar abhivyakt karne se man ka mail mail saaf ho jata hai .gubaar nikalane ka sabase behatareen tareeka hai . pandit ji aap jald swasthy ho .
ReplyDeleteसाहित्यिक ढंग से यदि गाली कही जाय तो मनोभाव ज्यादा स्पष्ट हो जाते हैं, यह आपको - छिनरा, भकभेलरू, ससुर के नाती, घोडा के सार - आदि शब्दों से पता चल सकता है, लेकिन जब से साहित्य को लतियाया जाने लगा है, ये शब्द कहीं खो से गये हैं।
ReplyDeleteउपर लिखे कुछ शब्द यदि आप लोगों को खराब लगें तो क्षमा चाहूंगा, वैसे मेरी मंशा और ज्यादा अपने मनोभावों को स्पष्ट करने की थी :)
welcome back
ReplyDeleteगाली शब्द से वही विश्वनाथ जी वाले दिन याद आते हैं... बाकी सलाह तो आपको खूब मिली ही है !
ReplyDeleteनमस्कार ,आप ने बहुत ही सुन्दर लिखा,वेसे तो गाली जेसे अलंकार अच्छे नही समझे जाते, लेकिन जेसे आप ने पान ओर बीडी के संग पेश किये बहुत अच्छे लगे,धन्यवाद
ReplyDeleteभद्रता तो आयोजित है । नंगापन ही मूल है । सूट पहनकर कौन पैदा हुआ है । गालियों से परहेज कर भद्र भले ही बन जाइए, असल नहीं रह सकते । सो गालियों से परहेज कैसा ।
ReplyDeleteरीटाजी जी को धन्यवाद कि आपकी वापसी भी करा दी और सेहतमन्द बने रहने का नुस्खा भी उजागर कर दिया ।
व्ैसे भी, हर कामयाब आदमी के पीछे औरत ही तो होती है ।
ब्लाग जगत में आपकी नियमित वापसी हम सबको मुबारक हो ।
बहुत खूब। आपकी पोस्ट पढकर राग दरबारी का माहौल मन में सजीव हो उठा।
ReplyDelete"गालियां इमोशंस को बेहतर अभिव्यक्त करती हैं। गालियां बुद्धि की नहीं रक्त की भाषा बोलती हैं। बुद्धि का आटा ज्यादा गूंथने से अगर अवसाद हो रहा हो तो कुछ गालियां सीख लेनी चाहियें "
ReplyDeletebahut sahi kaha aapne.bahut hi achcha laga aalekh.
kuch dino se aapka blog khul hi nahi raha tha,pata nahi kyon.lekin aaj eksaath sab padhkar bahut hi achcha laga.