मेरी कालोनी के आसपास बहुत बड़े बड़े होर्डिंग लगे हैं - सिविल सर्विसेज की तैयारी के लिये नागरिक शास्त्र, पढ़िये केवल विनायक सर से।
मैं नहीं जानता विनायक सर को। यह अवश्य है कि बहुत समय तक - (या शायद अब भी) मैं अपने मन में साध पाले रहा एक आदर्श प्रोफेसर बनने की। पर क्या एक प्रोफेसर की समाज में वह इज्जत है? इज्जत का अर्थ मैं दबदबे से नहीं लेता। इज्जत का अर्थ मैं इससे लेता हूं कि उस व्यक्ति के पीठ पीछे लोग या कम से कम उसके विद्यार्थी उसका नाम सम्मान से लें।
विनायक सर नागरिक शास्त्र पढ़ाते होंगे; पर क्या वे अच्छे नागरिक बनाने में सफल होते होगे? मैं विश्वास करना चाहता था - हां। पर कल शिवकुमार मिश्र ने एक चार्टेड अकाउण्टेंसी के एक सम्मानित सर के बारे में जो बताया, उससे न केवल मन व्यथित हो गया है - वरन समाज की स्वार्थपरता के बारे में सशंकित भी हो गया है।
इन विख्यात सर का अचानक देहावसान हो गया। शिव के मित्र सुदर्शन चार्टेड अकाउण्टेंसी की कक्षायें लिया करते हैं और अत्यंत सफल प्रशिक्षक हैं। इन सर के प्रति जो आदर भाव था - उसके चलते स्वत: स्फूर्त निर्णय सुदर्शन जी ने लिया कि वे सर के सभी विद्यार्थियों की बीच में फंसी पढ़ाई पूरी करायेंगे। उन्होंने शिव से भी सलाह की। और शिव यद्यपि इन सर को व्यक्तिगत रूप से नहीं जानते थे, पर इस नेक विचार से उन्होंने भी तुरत सहमति भरी। सुदर्शन जी अत्यन्त व्यस्त व्यक्ति हैं। किस प्रकार वे सर के विद्यार्थियों के लिये समय निकालेंगे, यह भी अपने आप में समय प्रबन्धन का जटिल प्रश्न है। पर शाम/रात में उन्होंने निर्णय ले लिया,और अगले दिन सवेरे से उसके क्रियान्वयन के लिये प्रयत्नशील हो गये। यह कार्य वह व्यवसायिक की तरह करते तो लाखों का आर्थिक लाभ कमाते। निश्चय ही वे उच्चतर मानवीय मूल्यों से प्रेरित थे - और शायद सर के प्रति वास्तविक अर्थों में श्रद्धांजलि का भाव रखते हैं वह! लेकिन जितना विलक्षण निस्वार्थ सुदर्शन जी का संकल्प था, उतना ही विलक्षण घटित हो रहा था। सर के कुछ विद्यार्थी उनके शोकमग्न परिवार के पास पंहुचे हुये थे। शोक व्यक्त करने नहीं, वरन यह कहने कि सर तो बीच में चले गये, अब उनकी बाकी पढ़ाई कैसे होगी? सर शायद भीष्म पितामह होते और इच्छा मृत्यु के मालिक होते तो इन स्वार्थी तत्वों का पूरा कोर्स करा कर मृत्यु वरण करते। पर सर तो इश्वर की इच्छा के अधीन थे। सर तो चले गये। पर इन विद्यार्थियों की स्वार्थपरता उजागर हो गयी। और ये विद्यार्थी समाज में एबरेशन (aberration - अपवाद) हों ऐसा नहीं है। पर चरित्र का प्रकटन ऐसे अवसरों पर होता है। कल ये चार्टर्ड अकाउण्टेण्ट के रूप में व्यवसायिक संस्थानों को कौन से मूल्य, कौन से आदर्श से अपनी सेवायें देंगे! सुदर्शन जीवट की संकल्प शक्ति वाले जीव है। वे अब भी - यह व्यवहार जानकर भी इन विद्यार्थियों को पढ़ाने के लिये समय, स्थान प्रबन्धन में लगे हैं। मै सुदर्शन जी से प्रभावित हूं, बहुत ही प्रभावित। उनसे अब तक मिल नहीं पाया हूं; पर निकट भविष्य में अवश्य मिलूंगा। जब आसपास स्वार्थ जगत के नागरिक इफरात में हों तो इस प्रकार के व्यक्ति से मिलना अत्यन्त सुखद अनुभूति होगी।
कुछ मित्रगणों ने मेरी ब्लॉग अनुपस्थिति के बारे में जो भाव व्यक्त किये हैं, उसके लिये बहुत धन्यवाद। अस्वस्थता ही कारण है उसका। अगले सप्ताह सामान्य होने की आशा करता हूं। यह तो यात्रा में होने, कोई काम न होने और शिव के फोन से उद्वेलित होने से यह लिख पाया हूं। देखें, शायद चलती गाड़ी से यह पोस्ट पब्लिश हो जाये!
स्वार्थी लोग तो हर जगह इफरात में ही नजर आयेंगे.....मेरा अनुभव भी शिक्षकों के बारे में ऐसा ही है...पर उसके बावजूद ऐसे शिक्षकों के सान्निध्य में रहने का मौका भी मिला है जो शिक्षा को पेशा भर ना मानकर उसे समाज की भलाई के एक साधन के रूप में देखते हैं...कम से कम ऐसे लोग हमें निराशा के गर्त में जाने से बचाये रखते हैं...वरना तो सभी तरफ अंधेरा ही नजर आता है
ReplyDeleteबहुत भावपूर्ण तरीके से आपने इस प्रसंग को उठाया है -हम किस तरह के समाज की स्थापना की ओर बढ़ रहे हैं ?स्वार्थी ,श्रेष्ठ मूल्यों से सर्वथा तिरोहित -क्या अब भी कुछ किया जा सकता है ?
ReplyDeleteअच्छी पोस्ट के लिए धन्यवाद. सुदर्शन जी जैसों की वजह से ही यह दुनिया इतने स्वार्थ के बावजूद कायम है. आपके शीघ्र स्वास्थ्य लाभ की शुभेच्छा!
ReplyDeleteज्ञानदत्तजी,
ReplyDeleteइस मामले में हम थोडा मिडिल ग्राउंड की बात करेंगे । किसी भी व्यक्ति से बात करके देखिये उसके पास अपने किसी पसंदीदा शिक्षक/गुरू के प्रति मन में श्रद्धा के भाव अवश्य होंगे । कहीं कहीं तो जितने भी स्कूलों में पढाई की हो (प्राईमरी से लेकर कालेज तक) हर कालेज के कुछ ऐसे गुरू होते हैं जिनके लिये मन में आदर/श्रद्धा के भाव होते हैं । ऐसे ही अगर शिक्षकों से पूछा जाये तो वो भी अपने खास/प्रिय विद्यार्थियों के किस्से सुनायेंगे ।
मतलब अभी घोर कलजुग नहीं आया, रसातल अभी दूर है ।
"शोक व्यक्त करने नहीं, वरन यह कहने कि सर तो बीच में चले गये, अब उनकी बाकी पढ़ाई कैसे होगी?"
आपकी बात अपनी जगह सही है और उन विद्यार्थियों की भी, जो पता नहीं कैसे कोचिंग का पैसा दे पा रहे हों ।
पोस्ट बहुत अच्छी है. स्वार्थ और मजबूरी के बीच एक बहुत फाइन लाईन है जिससे हर सीए करने वाला छात्र गुजरता रहता है. एक कठिन पढ़ाई का दौर, ट्यूशन और कोचिंग की भारी भरकम फीस, घर वालों की अकूत अपेक्षाऐं-किस किस से जूझे..वही हाल तो है जो हम कितनी मौतों के समाचार लांघते हुए अपनी होल्डिंग के शेयर के भाव अखबार में खोजते हैं-बहुत फर्क नहीं है.
ReplyDeleteयाद है मुझे नैनी की भीषण रेल दुर्घटना. हमारे पड़ोसू परिवार के सज्जन भी उसी से आ रहे थे. सैकड़ों लोग मर गये मगर उनके बचने की खुशी में मोहल्ले में मिठाई बांटी गई...क्या कहें इसे स्वार्थ और उनके परिवार को समाज का नासूर??
सॉरी, भाववेष में सुदर्शन जी को अपना नमन कहना भी भूल गया...
ReplyDeleteज्ञान भाई साहब,
ReplyDeleteआपकी पोस्ट पढने से ,
पिछले दिनोँ , हम वँचित रहे !
आशा है आप स्वस्थ हो गये होगेँ -
आज का विषय भी ,
एक सही दिशा को तलाशता हुआ ज्वलँत प्रश्न है स्वस्थ मानसिकता, स्वस्थ समाज की जन्मदात्री है जो बहुत से भले लोगोँ की कर्तव्यनिष्ठा की कसौटी लेती है -
- लावण्या
सरजी हकीकत से जितनी जल्दी दो चार हो लिया जाये, उतना ही अच्छा है।
ReplyDeleteदिल्ली विश्वविद्यालय में पहले साल के स्टूडेंट के दूसरे साल सर से नमस्ते तक करना छोड़ देते हैं। अब क्या काम।
दुनिया बहुत तेजी से बदल रही है, जितनी तेजी से आप समझ रहे हैं, उससे कहीं ज्यादा तेजी से।
फिर सीए वाले छात्र तो क्या कहने, पूरी जिंदगी की गुणा भाग पर टिकी हुई है। गलती सीए वालों की नहीं है, पूरी जिंदगी, पूरा समाज ही यही हो रहा है।
संबंध अब निवेश हो रहे हैं।
जहां रिजल्ट नहीं वहां निवेश काहे को।
एक शायर का शेर सुनिये
रिश्ते हैं अब टेलीफोन की तरह
सिक्का डालो, तो बात होती है।
हाय हाय करने के बजाय इसे स्वीकार कर लेना चाहिए।
स्त्यम वदति
ReplyDeleteआप जल्दी स्वस्थ हो यही कामना है
ReplyDeleteचलती गाड़ी से पोस्ट सफलतापूर्वक हो गई है :)
ReplyDeleteआप जल्द स्वस्थ हों ऐसी कामना है.
दुनिया में सभी प्रकार के लोग है. जमाना इतना प्रतिस्पर्धात्मक और व्यवसायिक हो गया है कि विद्यार्थियों की चिंताएं उनकी भावनाओं पर हावी हो गई है.
sudarshan sir jaise logo se duniya chalti hai chahe wo kam kyon na ho.pranaam karta hun sudarshan sir ko aur aapko bhi jo aswasth rehte hue bhi nirashaa ke ghor andhere me sudarhan sir ki jariye umeed jaga rahe hain.jald acche ho ishwaar se yehi kaamna
ReplyDeletejald thik hon yehi ishwar se kaamna hai
ReplyDeleteसभी प्रजाति के गुरु उपलब्ध हैं . शुक्राचार्य भी हैं और बृहस्पति भी . द्रोणाचार्य भी हैं ,विश्वामित्र भी और वशिष्ठ भी .
ReplyDeleteहां! इधर शुक्राचार्यों और द्रोणाचार्यों की संख्या तेजी से बढी है . सो वैसे ही श्रद्धालु(?) छात्र उन्हें मिल रहे हैं . जो नमस्ते भी वृथा नष्ट नहीं करते .
सुदर्शन जैसे संवेदनशील शिक्षक कितने हैं ? और जो हैं उन्हें क्या हम वह सम्वर्धना और सम्मान दे रहे हैं जिसके वे हकदार हैं ?
आपने इस पोस्ट के द्वारा एक समस्या की ओर संकेत तो किया ही साथ ही एक संवेदनशील,उत्तरदायी और बड़े दिल वाले शिक्षक सुदर्शन जी से भी हमारा परिचय कराया . सुलक्षण सुदर्शन को सौ-सौ सलाम !
नीरज रोहिलाजी ने सच कहा... ढूँढने पर अच्छे शिक्षक और विद्यार्थी मिल ही जाते है...सुदर्शनजी को सादर प्रणाम... आपकी अच्छी सेहत की कामना कर रहे है..आपके ब्लॉग़ पर या हमारे ब्लॉग़ पर आपकी अनुपस्थिती मानसिक हलचल पैदा कर देती है...
ReplyDeleteसबसे पहले तो बड़े भाई आपको स्वाथ्य लाभ के लिए शुभकामना.
ReplyDelete"सर तो चले गये। पर इन विद्यार्थियों की स्वार्थपरता उजागर हो गयी। और ये विद्यार्थी समाज में एबरेशन (aberration - अपवाद) हों ऐसा नहीं है। पर चरित्र का प्रकटन ऐसे अवसरों पर होता है। कल ये चार्टर्ड अकाउण्टेण्ट के रूप में व्यवसायिक संस्थानों को कौन से मूल्य, कौन से आदर्श से अपनी सेवायें देंगे! "
समाज की चिंताओं को खूबी से उकेरा है आपने. बड़ी ही विषम परिस्थिति होती जारही है. नैतिक मूल्यों में इस गिरावट के लिए हम सभी कंही ना कंही जिम्मेदार है.
सुदर्शन सर को मेरा भी प्रणाम.
जब आसपास स्वार्थ जगत के नागरिक इफरात में हों तो इस प्रकार के व्यक्ति से मिलना अत्यन्त सुखद अनुभूति होगी।
ReplyDeleteयहाँ पर मैं यह भी कहना चाहूंगा कि ऐसे ही लोगों से जिंदगी में रवानी है और जिंदगी जिंदगी है। वर्ना तो फिर हममें और मशीन में फर्क ही क्या रह जाता है?
शिक्षक/प्रोफेसर व्यक्तिगत तौर पर मेरे लिए बहुत सम्मान वाला पेशा है... बाकी स्वार्थ तो हर जगह है !
ReplyDeleteसर तो चले गये। पर इन विद्यार्थियों की स्वार्थपरता उजागर हो गयी। जो लड़के सर के यहां कोचिंग पढ़ते होंगे उन्होंने पैसा जमा किया होगा। साल की शुरुआत है। सर चाहे जित्ते अच्छे हों लेकिन उसके लिये फ़ीस लेते थे। तो अर्थ तो उनके जुड़ाव का बिन्दु बना। फ़ीस काफ़ी होती है इस कोचिंग संस्थानों की। कुछ लोगों ने न जाने कैसे-कैसे जुगाड़ी होगी। तमाम दूसरे कोचिंग संस्थान होंगे। ऐसे में सर के जाने पर अगर कुछ बच्चों के मन में सवाल उठता है कि अब हमारा क्या होगा तो वह सहज , स्वाभाविक सवाल है। वे इसे इतनी खूबसूरती से न रख पाये होंगे।
ReplyDeleteमेरे भाई की मौत हुयी। मेरा भतीजा मुझे देखते ही रोते हुये बोला-
हम लोगों का क्या होगा अंकल? क्या मैं इसे उसका स्वार्थ मानू?
कोई चला जाता है उसके संबंधी बिलखते हैं -हाय हमारा क्या होगा? हमें किसके सहारे छोड़ गये? यह सब उनके सहज उद्गार हैं। जब लड़कों ने पूरे सत्र के लिये पैसे जमा किये होंगे और सर के जाने पर उनकी चिंता पैसे को लेकर उजागर हुयी होगी तो यह एक अप्रिय किंतु सहज उद्गार है।
सुदर्शन जी ने सर जी के जाने पर जिम्मेदारी से उनके छात्रों को पढ़ाने का निश्चय किया इसकी जितनी तारीफ़ की जाये कम है। उनके जैसे लोग बहुत कम हैं। ऐसे लोग अनुकरणीय आदर्श प्रस्तुत करते हैं।
लेकिन इसी पोस्ट में लड़कों की स्वार्थपरता की बात करना गैर जरूरी सा लगा। इससे सुदर्शन जी को एक अनुकरणीय आदर्श के रूप में प्रस्तुत करने का मौका आधा हो गया। :)
हम मौज नहीं ले रहे हैं। सीरियसली कह रहे हैं जी।
आप जल्द स्वस्थ हों ऐसी कामना है.
ReplyDeleteदो वर्ष अध्यापन किया है। प्रतिष्ठा प्राप्त कर पाना बहुत ही कठिन काम है इस पेशे में। हर मौके पर अपने को सिद्ध करना होता है आपको। मगर एक सुख होता है कि अक्सर जिनके सामने अपने को सिद्ध करना होता है उनसे ego-clash की गुंजाईश बहुत कम होती है।
ReplyDeleteअध्यापक वह व्यक्ति होता है जिसे, यदि अच्छा हो तो, कोई भी ज़िंदगी भर नहीं भूलता। मैनें भी के पोस्ट लिखी थी अपने एक अध्यापक पर। http://meribatiyan.blogspot.com/2008/07/blog-post_03.html
कुछ और भी हैं जिनपर लिखना चाहता हूँ।
आप की पोस्ट की खबर जब तक हमें ई-मेल में मिलती है पोस्ट बासी हो चुकी होती है और हमें पोस्ट के साथ साथ दूसरों की टिप्पणियां पढ़ने का भी मौका मिल जाता है। आज हम आलोक जी और अनूप जी दोनों की बात से शत प्रतिशत सहमत है।साथ में रोहिला जी से भी।
ReplyDeleteकोई फेलियर नहीं हुआ
ReplyDeleteन ही कोई कांटा फंसा
इसलिए पोस्ट तो
पब्लिश होनी ही थी।
यह भाषा रेल की
भाषा है क्या
सहमति दें।
तालाब का पानी जब उतरता है तो चारों ओर से समान रूप से उतरता है । सामाजिक स्खलन से न तो अध्यापक बच पाए हैं न ही छात्र । सुदर्शनजी जैसे अध्यापक हैं तो यकीन मानिए वैसे ही आज्ञाकारी छात्र भी हैं । भले और अच्छे लोग आज भी संख्या, प्रतिशत और अनुपात में ज्यादा हैं ।
ReplyDeleteहां, आलोक पुराणिकजी ने जो शेर लिखा है वह श्री विजय वाते (भोपाल) का है । उसकी पहली पंक्ति में तनिक हेर-फेर हो गया है । शेर इस तरह है -
रिश्ते भी अब टेलिफोन हो गए हैं
सिक्का डालो तो बात होती है
आपकीक तबीयत के बारे में जाकर अच्छा नहीं लगा । आपको अपने लिए नहीं, हम सबके लिए सदैव पूर्ण स्वस्थ रहना है । अब आप 'ब्लागर्स प्रापर्टी' हो गए हैं ।
सुदर्शन जी जैसे व्यक्ति जरूर मिलेंगे चाहे कम मिलें। वे ही वास्तविक गुरू हैं। जब पिताजी की अर्थी उठाने की तैयारी चल रही थी तो उन की छात्राएं जो उन से पढने आर रही थीं घर पर भीड़ देख कर वापस लौट गईं। घर पहुँचने के बाद पता लगा कि गुरूजी नहीं रहे।
ReplyDeleteआज गुरू पहले पैसे गिनता है पढ़ाना बाद में शुरू करता है। तब रिश्ता गुरू-शिष्य का न होकर सेवा प्रदाता और उपभोक्ता का रह जाए तो यह तो देखने को मिलेगा।
और बड़े भैया। जरा स्वास्थ्य का ध्यान रखिए। ठीक से जाँच करवाइए, विश्राम, निद्रा, व्यायाम का पूरा ध्यान रखिए। अभी तो बहुत कुछ करना शेष है।
सब से पहले तो आपके शीघ्र स्वास्थ्य लाभ की शुभेच्छा!फ़िर मे भी भारत मे पढा हू मेने भी दॆखे हे भिन्न भिन्न शिक्षक,अच्छे भी बुरे भी, लेकिन हम अच्छो को इज्जत से याद करते हे, ओर कही मिल जाये तो अब भी पाव छुटे हे,ओर बुरो को भी याद तो करते हे,लेकिन इज्जत से नही ओर कही मिल जाये तो कोई फ़र्क नही पडता,
ReplyDeleteआप का लेख बहुत ही अच्छा लगा धन्यवाद
अच्छी पोस्ट ...अच्छी चर्चा। अच्छे स्वास्थ्य की शुभकामानाएं।
ReplyDeleteसुदर्शन जी जैसे लोग कम है। बाकी लोगों की प्रतिक्रियाएं भी अनुभवों पर आधारित ही हैं । मैं इतना भर जोड़ना चाहूंगा कि इस उदासीनता को सिर्फ शिक्षा के क्षेत्र में ही न देखा जाए। सीखना ही किसी को अच्छा नहीं लगता अब।
ReplyDeleteमैं मन से अध्यापक ही हूं, और बनना भी चाहता था। पत्रकारिता में आनेवाले नए साथियों को जब पेशागत ज़रूरी बातें बताता हूं तो उनकी वृत्ति खीझ पैदा करती है। वे रूटीन अंदाज़ में काम करना चाहते हैं। हालांकि यह ज्यादा घातक है क्योंकि उनकी ग़लती के जिम्मेदार वे होंगे और किसी भी दिन नौकरी पर बन आएगी। मगर वे उदासीन हैं । क्योंकि जानते हैं कि जब बन आएगी , तब देखा जाएगा। शायद चापलूसी या घड़ियाली आंसू वाले नुस्खे काम आ जाएंगे। इन संस्कारों को उन्होने अनायास ही अपने माता-पिता से ग्रहण किया है।
मैं स्तब्ध रहता हूं ऐसी उदासीन वृत्ति पर।
ज्ञानजी,
ReplyDeleteशीघ्र स्वस्थ हो जाइए।
हमारी बातों पर ध्यान मत दीजिए।
हम केवल मज़ाक कर रहे थे। आकस्मिक छुट्टी चाहे एक दिन की, बल्कि "सिक लीव" आवश्यकता के अनुसार ली जा सकती है।
यह जानकर खुशी हुई कि चलती ट्रेन से आप इसे पोस्ट कर सके।
इसके बारे में अधिक जानना चाहता हूँ।
रेलवे ने क्या इन्तजाम किया है?
क्या यह सुविधा केवल रेलवे अफ़सरों के लिए है या सभी यात्रियों के लिए? अवकाश मिलने पर इस पर भी एक ब्लॉग पोस्ट हो जाए।
स्वार्थता हर क्षेत्र में पाया जाता है।
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मैं इतना भर जोड़ना चाहूंगा कि इस उदासीनता को सिर्फ शिक्षा के क्षेत्र में ही न देखा जाए।
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अजित वडनेरकरजी से सहमत हूँ।
कभी हम भी कालेज में प्रोफ़ेस्सर बनने के बारे में सोचा करते थे।
हमारे जमाने में वेतन इतना कम था कि इस विचार को त्यागना पढ़ा।
आज भी, मेरे पेशे में मेरा काफ़ी समय नवागन्तुकों की ट्रेनिंग में चला जाता है। उनसे इतना ही उम्मीद करता हूँ कि हमसे ट्रेनिंग लेने के बाद वे हमारे साथ कम से कम दो साल काम करें। उनको यह बात पहले से ही बता देता हूँ और मौखिक वादा करवा लेता हूँ। Bond के चक्कर में मैं उलझना न्हीं चाहता। न ही मेरे पास उनके पीछे कानूनी भागदौड़ करने के लिए समय है। मेरी इस कमज़ोरी का फ़ायदा उठाकर, आधे से ज्यादा लोग मुझे समय से पहले छोड़कर चले जाते हैं और मुझसे पाया ज्ञान का लाभ किसी और को देते हैं केवल १० या १५ प्रतिशत अधिक कमाई के लिए।
अब आदी हो गया हूँ। फ़रियाद करना भी बन्द कर दिया है मैंने।
आपका अगला पोस्ट का इन्तज़ार रहेगा।
शुभकामनाएं
अनूपजी से सहमत हूं। छात्रों के मन में ये बात आना स्वाभाविक है....जेब से दस का नोट गिर जाए तो पूरे दिन मलाल रहता है , फिर ये तो कई हजार की बात होती है....जिसने पैसे काढ कर दिए होंगे ये तो वही बता सकते हैं कि कैसे दिए....बाकी सुदर्शन जी की भी तारीफ करनी होगी कि एसे समय में आगे आए।
ReplyDeleteहम स्वार्थलोक के नागरिक तो आपको खोजते ही रहेंगे। लेकिन फिलहाल आपको स्वास्थ्य पर सबसे अधिक ध्यान देना चाहिए, भले ब्लॉगरी को थोड़े समय के लिए विराम दे दें।
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