Sunday, March 28, 2010

डेमी गॉड्स बनने के चांस ही न थे!

Vivek Sahaiभारतीय रेल यातायात सेवा के वार्षिकोत्सव पर गीत गाते श्री विवेक सहाय; सदस्य यातायात, रेलवे बोर्ड।

वह जमाना सत्तर-अस्सी के दशक का था जब सरकारी ग्रुप ए सेवा का बहुत वजन हुआ करता था। मुझे एम वी कामथ का एक अखबार में लेख याद है कि स्कूली शिक्षा में मैरिट लिस्ट में आने पर लड़के देश निर्माण की बजाय सरकारी सेवा में घुस कर अपनी प्रतिभा बरबाद करते हैं। और जब यह लेख मैं पढ़ रहा था, तब सरकारी सेवा में घुसने का मन बना चुका था।

खैर, मेरे मन में सरकारी नौकरी की मात्र जॉब सिक्योरिटी भर मन में थी। यह सत्तर के दशक के उत्तरार्ध और अस्सी के पूर्वार्ध की बात है। पर मेरे बहुत से मित्र और उनके अभिभावक सरकारी अफसरी के ग्लैमर से बहुत अभिभूत थे। दुखद यह रहा कि उनमें से बहुत से लम्बे समय तक रीकंसाइल ही न कर पाये कि वे डेमी गॉड्स नहीं हैं और शेष कर्मचारी उनकी प्रजा नहीं हैं! उनमें से बहुत से अवसाद ग्रस्त हो गये और कई विचित्र प्रकार के खब्ती बन गये।


मैने इण्डिया टुडे में दशकों पहले एक महिला का कथन पढ़ा था, जो अपने लड़के के सिविल सेवा में चयन होने पर अपने सौभाग्य की तुलना राजा दरभंगा से कर रही थी। राजा दरभंगा यानी प्रजा के लिये माई-बाप/डेमी गॉड! पता नहीं अन्तत: क्या दशा रही होगी उस महिला और उस सपूत की; पर उसे मोह भंग अवश्य हुआ होगा।

हम कभी-कभी-कभी भी डेमी गॉड्स नहीं बन पाये! और मेरी पत्नीजी तो बहुधा कहती हैं कि तुम खुश किस्मत थे कि तुम्हारी नौकरी लग गयी थी, अन्यथा तुम किसी काम के न थे। यह वह इतनी बार कह चुकी हैं कि मैं अचेतन में इस पर यकीन भी करने लगा हूं।

खैर, आम जनता में अभी भी हम लोग टाइट लिप्ड, घमण्डी और घोंघा (जमीनी यथार्थ की समझ से दूर) माने जाते हैं। पर टाइट लिप्ड सिविल सेवा के लोग भी जब खुलते हैं तो बिन्दास खुलते हैं। इस बारे में मेरे एक साथ के अधिकारी श्री प्रदीप संधू ने भारतीय रेल यातायात सेवा (IRTS) के वार्षिकोत्सव का वीडियो लिंक ई-मेल किया। उसमें हमारे सदस्य यातायात (Member Traffic) श्री विवेक सहाय गाना गा रहे हैं। सदस्य यातायात यानी IRTS का शीर्षस्थ अफसर। आप जरा वीडियो देखें – ठीक ठाक ही गा रहे हैं श्री सहाय – ये होठों की बात चुप है --- खामोशी सुनाने लगी है दासतां!

प्रदीप संधू रेलवे सेवा छोड़ आई.बी.एम. मैं सेवारत हैं। उनका कहना है कि अगर इस तरह की खुली छवि दिखाने वाला वीडियो श्री विवेक सहाय को पसन्द न आया तो वह इसे यू-ट्यूब से उतार देंगे। यद्यपि उनका कहना है -

… व्यक्तिगत रूप से मेरा मानना है कि यह अच्छा उदाहरण है कि हम अपने सबसे सीनियर का सज्जन चेहरा प्रस्तुत करें - अपने दो लाख से अधिक कर्मियों के सामने; जिन्हें वे नेतृत्व प्रदान करते हैं, और ऐसा करने से बेहतर टीम भावना को बल मिलेगा …

देखते हैं; अगर रेल यातायात सेवा डेमी गॉड्स की मानसिकता वाली प्रमाणित होती है तो यह वीडियो उतर जायेगा! पर मेरा मानना है, वैसा नहीं होगा। वेब ३.० के जमाने में सरकारी सेवायें वैसी इंस्युलर नहीं रहीं! अफसरों की छवि में बहुत बदलाव है।


28 comments:

  1. बहुत ही सही और सारगर्भित प्रस्तुति...और एकदम प्रक्टिकल बातें और मुद्दे को आपने छुआ है....
    .
    .
    http://laddoospeaks.blogspot.com/2010/03/blog-post_27.html

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  2. उनमें से बहुत से अवसाद ग्रस्त हो गये और कई विचित्र प्रकार के खब्ती बन गये।
    सरकारी तंत्र व्यक्ति को जड़ता ही प्रदान करता है
    सुन्दर आलेख
    गीत सुन्दर रहा हूँ कर्णप्रिय है

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  3. आम जनता में अभी भी हम लोग टाइट लिप्ड, घमण्डी और घोंघा (जमीनी यथार्थ की समझ से दूर) माने जाते हैं...
    जनता में यह छवि अब बदलने लगी है ....आखिर सहजता से कोई कब तक भाग सकता है ....
    सरकारी अफसरों का कला पक्ष यहाँ भी देखा जा सकता है
    http://paraavaani.blogspot.com

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  4. दुखद यह रहा कि उनमें से बहुत से लम्बे समय तक रीकंसाइल ही न कर पाये कि वे डेमी गॉड्स नहीं हैं और शेष कर्मचारी उनकी प्रजा नहीं हैं!
    मतलब आम जनता यहां नदारद है! सरकारी कर्मचारी और अधिकारी आम जनता के सेवक हैं। उनको शक्ति,अधिकार और अन्य सुविधायें आम जनता की सेवा के लिये मिली हैं। यह बात जब तक सही तरीके से न समझी जायेगी तब तक सब ऐसे ही ऐंठू समझे जायेंगे। इमेज बदलना बहुत मुश्किल काम नहीं होता खाली जरूरत होती है कि सही भावना से काम किया जाये और नाटक से दूर रहा जाये।

    आज के जमाने में अगर अपने को कोई अधिकारी कर्मचारियों का डेमी गॉड समझता है तो उससे बेवकूफ़ और घामड़ शायद ही कोई मिले। व्यक्तिगत व्यवहार की बात हटा दें लेकिन समूह के रूप में किसी भी संस्थान के कर्मचारी प्रजा तो कत्तई नहीं हैं।

    वीडियो उतरना तो नहीं चाहिये। नाम हटा दें और साथ के लोग न देखें तो कौन कह पायेगा कि यह किसके होंठ हैं और किसका गला है।

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  5. गीत अत्यन्त मधुर और हृदय से उद्गमित है ।

    गीत के बोलों को देखें तो एक भाव तो श्रृंगार की ओर इंगित करता है और दूसरा हमारे डेमीगॉडीय आवरण को शनै शनै उतारता हुआ प्रतीत होता है ।

    हाँ, ब्रिटिश राज की विरासत है हमारी ऐसी छवि बनाने में जो कि नागरिकों के मन भावों को न समझने वाली लगती है । पर यह निष्कर्ष पूर्ण नहीं । कार्यालयों में लोग आते हैं और अचम्भित तब होते हैं जब उनके कार्य तुरन्त ही निष्पादित हो जाते हैं । उनकी खुशी पर हम भी अल्प-अभिमान कर लेते हैं, अब कदाचित यही डेमीगॉडीय तत्व शेष रखा है हमने ।

    सरकार में पदस्थ अधिकारियों से मिल के तो देखिये, आपकी ही तरह गाते, गुनगुनाते, मुस्कराते, आपकी समस्याओं पर हृदय उड़ेलते और अपने आप को व्यक्त करते हुये मिल जायेंगे । कुछ डेमीगॉड हैं पर वे अब ऊँचाइयों के एकान्त में हैं ।

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  6. खुद राजा बनने का यह शौक जो न कराये वही कम है.

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  7. भाभीजी की बातों में अब यकीन हो चला है. क्या यह एक प्रकार का स्टाकहोम सिंड्रोम तो नहीं. गीत ठीक ठाक लगी.

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  8. डा. महेश सिन्हा की ई-मेल से प्राप्त टिप्पणी:

    आम आदमी के लिए तो सरकारी अफसर खुदा से कम नहीं .वैसे भी रेल अपने कर्मचारियों को जीतनी सुविधा देती है अन्य कोई सरकारी विभाग नहीं देता . एक जमाना था जब लोग नौकरी करने को अच्छा नहीं मानते थे और उसमे भी रेल, मेल और जेल से दूर रहो कहा जाता था .

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  9. पाण्डेय जी, सादर यही कहना चाहता हूं कि अपवादों को छोड़कर सारे सिविल और पुलिस अफसर अपने लिये राजा से कम नहीं समझते और ऐसा करते भी हैं. यदि वे संवेदनशील होते तो समाज ऐसा न होता जैसा आज है.

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  10. देव ,
    आपको गाते हुए सुना पर ठीक ठीक चेहरा नहीं देख पाया .. दीखता तो और मजा आता ..
    टाइट लिप्ड, घमण्डी और घोंघा ........... आदि आदि तो सुनना ही होता है , अंततः
    गीत की पंक्तियों का सच ही बचता है ; '' न तुम मुझे जानो , न मैं .......... ''
    '' सिविल सर्विसेज '' पर क्या कहूँ , मैं भी तो अपने जिस्मो-जां पर उस जमात में
    दाखिली के पूर्व का रंदा चला रहा हूँ ! छिलता जा रहा हूँ , जाने कितना छिलना बाकी है !
    जबकि यह सच आपने सटीक ही बयां किया है ---- '' ...... पता नहीं अन्तत: क्या दशा रही
    होगी उस महिला और उस सपूत की; पर उसे मोह भंग अवश्य हुआ होगा '' ........... आभार !

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  11. वेब ३.० के जमाने में सरकारी सेवायें वैसी इंस्युलर नहीं रहीं! अफसरों की छवि में बहुत बदलाव है।

    बिलकुल आया है जी, अफ़सर क्या और मंत्री क्या, आजकल सभी ब्लॉग लिखने पढ़ने लगे हैं, ट्विट्टर पर चहकने लगे हैं, ई बदलाव ही तो है! :)

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  12. न जाने क्यू शुरुआत से सरकारी नौकरी से चिढ थी.. आस पास एक अज़ीब सी दौड देखी थी इसके लिये.. सबको डेमी गॉड्स बनना था और हमारे यूपी के समाज मे ये कहना फ़ैशन है - "सिविल की तैयारी कर रहा हू...।"
    बाद मे वो सरकारी नौकरी के नाम पर किसी भी ग्रेड की नौकरी करते हुए पाये जाते है, नही तो किसी स्कूल के टीचर और वो अपने विद्यार्थियो को
    भी वही डेमी गॉड्स बनने के ही सपने दिखाते है..

    हम पॉवर भक्त लोग अगर शिक्षको को डेमी गॉड्स मानते तो कितना अच्छा होता.. आज हमारा बेस्ट टैलेन्ट वहा होता और वो न जाने कितनो को रीयल गॉड् बनाता..

    ज्ञान जी, आपके एक विद्यार्थी प्रवीण पान्डेय को जानता हू.. फ़िर ऐसे न जाने कितने होते!!

    P.S. सॉरी अगर मैं टॉपिक से भटक गया हूँ तो :( फ़िर बह गया भावनाओ मे..

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  13. भाभी जी सच ही बोलती होंगी जी.....:)

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  14. क्षमा ;
    '' Indian Railways. Song sung by Me .....'' इतना ही लिखा देखा और मति लोढ़ाय गयी :)
    मान बैठा था कि आप ही गा रहे हैं ...
    अब मेरी सारी बातें सहाय जी पर ! आभार !

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  15. ये डेमी गॉड्स की मानसिकता वाले हर जगह मिल जाते है | सरकारी क्षेत्र में नहीं निजी क्षेत्र की कम्पनियों में भी इस मानसिकता वाले अधिकारी भरे पड़े है | कई बार इस मानसिकता वाले टाइट लिप्ड, घमण्डी और घोंघा टाइप अधिकारी जब किसी दिन किसी निजी कम्पनी में मिल जाते है तब मैं उनके बारे में सोचता हूँ यहाँ निजी क्षेत्र में इनका ये हाल है तो ये यदि सरकारी नौकरी में चयनित हो जाते तो इनका व्यवहार कैसा होता ?

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  16. ठीक कहा आपने, केन्द्रीय सेवा - वह भी प्रशासनिक, पुलिस या अन्य संबन्धित सेवाएँ - और हिन्दीभाषी प्रदेश! यह सेवा ऐसी ही समझी जाती थी जैसे शिक्षा के बारे में सूक्ति पढ़ी थी बचपन में - "किम्-किम् न साधयति कल्पलतेव विद्या" और अगर आप इन सेवाओं में नहीं हैं तो आप प्रजा तो हैं ही, भले ही भीतर रह कर भी राजा न बन पाना आपकी नैसर्गिक अयोग्यता - अक्षमता हो।
    अपनी एक पुरानी व्यंग्य रचना याद आ गयी -
    "अफ़सरों की क़ौम में पैदा हुआ हूँ
    भैंस हो या अक़्ल, दोनों से बड़ा हूँ
    बाक़ी टीएलबीएस (TLBS)

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  17. पापाजी के एक चपरासी कि याद आ गई इसे पढकर.. हम जब भी पटना से बिक्रमगंज जाते थे तो वह हम बच्चों के चरण छूने दौड़ते थे, चमचागिरी से नहीं पूरी श्रद्धा से.. काफी उम्र थी उनकी, ६० से अधिक ही रहे होंगे.. और जब भी वह ऐसा करते थे तब हम बच्चे शर्म से पानी-पानी हो जाते थे.. कितनी बार भी समझाया मगर उनका कहना होता था कि आप राजकुमार लोग हैं..
    अब सोचता हूँ कि शायद अंग्रेजों के जमाने में सामंतों या बड़े अधिकारियों के मातहत काम करने वाले ऐसे ही करते होंगे जिस कारण यह गॉड वाली प्रथा पर लोग विशवास करने लगे होंगे.. मगर ज़माना अब बहुत बदल चुका है..

    हमने एक अच्छी नौकरी इसीलिए छोड़ी क्योंकि मुझे लगा सामने वाला खुद को डेमी गॉड मान कर मुझसे बात कर रहा था और वैसे ही वर्ताव कि मुझसे उम्मीद भी लगा रहा था..

    गीत अच्छा गा रहे हैं.. उनसे कहिये कि इन्डियन आयडल का ऑडिशन चल रहा है, उसमे ट्राई करें.. ;)

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  18. गीत हटाने की कोई वजह नजर नहीं आती है.

    यह सही है कि कितने ही अफसर अपने आपको डेमी गॉड माने बैठे हैं..फिर रिटायरमेन्ट के बाद पछताते हैं.

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  19. हम कभी-कभी-कभी भी डेमी गॉड्स नहीं बन पाये! और मेरी पत्नीजी तो बहुधा कहती हैं कि तुम खुश किस्मत थे कि तुम्हारी नौकरी लग गयी थी, अन्यथा तुम किसी काम के न थे। यह वह इतनी बार कह चुकी हैं कि मैं अचेतन में इस पर यकीन भी करने लगा हूं।
    आपके इस आलेख की कई बातें बहुत कुछ लिखने को प्रेरित कर रही हैं। पर आज ज़्यादा लिखने के मूड में नहीं हूँ। बस ऊपर जो लिखा है वह आज भी भोगना / झेलना पड़ा जब गंगा सगार से लौटते वक़्त सरकारी भेसल (वहां के लोग इस स्टीमर को यही कह रहे थे) लो टाइड के नाम पर छूटने को तयार नही था और पाइवेट वाले हमें ले जाने को तैयार नहीं थे तो श्रीमती जी कह रहीं थीं तुम किसी काम के नहीं हो।

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  20. और उड़न तस्तरी जी ने कितना सही कहा है कि यह सही है कि कितने ही अफसर अपने आपको डेमी गॉड माने बैठे हैं..फिर रिटायरमेन्ट के बाद पछताते हैं.

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  21. वह जमाना सत्तर-अस्सी के दशक का था जब सरकारी ग्रुप ए सेवा का बहुत वजन हुआ करता था।
    मन नहीं मान रहा अतः इस उक्ति पर भी अपने अनुभव शेयर कर लूँ ... हां वज़न इतना था कि रिज़ल्ट निकलते ही बिना नम्बर की ब्राण्ड न्यू गाड़ी के साथ लड़की के पिता रिश्ता बनाने आते थे। फ़ाउण्डेशन कोर्स के दौरान वज़नी लोगों को पचास लाख से एक करोड़ में बिकते देखा। मेरे जैसे ग्रामीण वातावरण से आए लोग उन डेमी गाडों को देख देख परेशान ही रहता था।
    और इन डेमी गाडों को बाद में अपने मातहतों से कभी अनुशासनिक कार्रवाई के नाम पर, तो कभी किसी को नौकरी दिला देने के नाम पर तो कभी ट्रांसफ़र-पोस्टिंग के नाम पर ब्लेसिन्ग्स बांटते देखा तो इन देवताओं के चरणों में शीश श्रद्धा से नत मस्तक ही हो गया।

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  22. यह बिलकुल सच है कि सरकारी अधिकारी खुद को अधीनस्‍थ कर्मचारियों और नागरिकों का राजा ही मानते है। अखिल भारतीय सेवाओं (आईएएस, आईपीएस, आईआरएस, आईआरटीएस आदि आदि) के अधिकारियों के तो जलवे ही अलग होते हैं। रेल अधिकारी एक खास मायने में अलग होते हैं। वे तो जिस शहर में नौकरी करते हैं, उस शहर से अपना कोई नाता-रिश्‍ता-वास्‍ता मानते ही नहीं। मेरे कस्‍बे का रेल मण्‍डल कार्यालय मानो मेरे कस्‍बे का नहीं, किसी और ही दुनिया का हिस्‍सा है, अपनी एक अलग दुनिया की तरह, समन्‍दर में टापू की तरह। यह तब भी वैसा ही था जब आप मेरे कस्‍बे में अफसरी करते थे और आज भी वैसा ही है।

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  23. ........तुम खुश किस्मत थे कि तुम्हारी नौकरी लग गयी थी, अन्यथा तुम किसी काम के न थे। यह वह इतनी बार कह चुकी हैं कि मैं अचेतन में इस पर यकीन भी करने लगा हूं।
    ......इ का कह रहे हैं?

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  24. जीवन के समर की राह विचित्र है. ओम प्रकाश आदित्य का एक व्यंग्य
    एक लाला जी से मेरी मित्रता हुई थी यारो
    शुरू मे मिले थे हम दोनो सन साठ मे
    जीवन के समर की राह चुनने के लिये
    दोनो ने विचार किया बैठ कर बाट मे
    साहित्य की सेवा के लिये मैन घाट पे गया
    लाला गये सदर बज़ार एक हाट मे
    लाला जी ने लोहा बेंचा, मैने एक दोहा लिखा
    लाला अब ठाठ मे है, मै पडा हुन खाट मे.

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  25. ...... कितने ही अफसर अपने आपको डेमी गॉड माने बैठे हैं..फिर रिटायरमेन्ट के बाद पछताते हैं.


    No harm living half your life in illusion (khushfehmi).

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  26. वेल, पिछली पोस्ट की तरह इस पोस्ट पर कुछ कहते नहीं बन रहा. उस दशक तक ही नहीं अभी भी यही हाल है. एक टिपण्णी में मैंने कहा था... मेरे कलिग कहते हैं चलो दरोगा ही बन जाते हैं :)
    मेरे कई दोस्त है सिविल सर्विसेस के अधिकारी कुछ ट्रेनिंग में, २-४ सर्विस में भी. मेरे एक दोस्त कहते हैं 'अधिकारी बन कर मैं तो वैसे का वैसा रह गया, कहीं और भी होता तो ऐसा ही होता बाकी मुझे जानने वाले सभी बड़े लोग हो गए, कोई आईएस का पिता कोई माँ तो कोई दोस्त !' और लोग भी मिलने आते हैं: 'तुम्हारे पिताजी से तो हमारे बड़े घनिष्ठ सम्बन्ध थे, जरा ख़याल रखना बेटा'. और मोह भंग का तो ऐसा है कि हमें वो और उन्हें हम (प्राइवेट नौकरी वाले) अच्छे लगते हैं (कम से कम आज के जमाने में). और मैंने अपने दोस्त को सलाह दी की कर लो ट्रेनिंग... कुछ दिन सर्विस... कुछ और पढाई और आ जाओ हमारी तरफ ही :)
    हमसे फर्स्ट इयर में किसी ने पूछा क्या करोगे? मैंने कहा 'स्टैट्स में पीएचडी' वो कन्फ्यूज हो गया... 'आईएएस की तैयारी नहीं करोगे?' वेल... मैंने पीएचडी नहीं की और वो आज आईआरएस है. इलेक्टिव कोर्सों के साथ-साथ मेरे इंटेरेस्ट बदलते गए. खैर फिलहाल तो दोनों ही संतुष्ट टाइप हैं... कभी-कभी इंस्टैंट असंतुष्टि को छोड़कर. अपना कोई उस तरह का मोह तो था नहीं, उसका भंग होने में थोडा टाइम लगे शायद :)
    "आम जनता में अभी भी हम लोग टाइट लिप्ड, घमण्डी और घोंघा (जमीनी यथार्थ की समझ से दूर) माने जाते हैं" सुना है सरकारी ऑफिसर्स की लोकप्रियता का एक मेजरमेंट ये भी होता है कि उन्होंने कितने लोगों की नौकरी लगाई :) हमारे गाँव में पूरे इलाके के लोग बहुत गाली देते हैं उन ऑफिसर्स को जिन्होंने किसी की नौकरी नहीं लगाई... पैसा लेकर लगाने वाले की ज्यादा इज्जत होती है ना लगाने वाले से !

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--- सादर, ज्ञानदत्त पाण्डेय