नहीं नहीं, यह आप नहीं कह रहे मुझसे। यह मैं कह रहा हूं मुझसे। चौवन साल और ब्रेन सेल्स जरूर घिस रही होंगी। कभी कभी (और यह कभी कभी ज्यादा ही होने लगा है) यह लगता है कि फलाना जाना पहचाना है, पर क्या नाम है उसका? किस जगह उसे देखा है। कहीं पढ़ देख लेते हैं अल्झाइमर या पारकिंसन के बारे में और लगने लगता है कि अपने को डिमेंशिया तो नहीं होता जा रहा।
शारीरिक फैकेल्टीज में गिराव तो चलेबल है। जोड़ों में दर्द, स्पॉण्डिलाइटिस, चश्मे का नम्बर बढ़ना --- यह सब तो होता रहा है। रक्तचाप की दवा भी इस बार बदल दी है डाक्टर साहब ने। वह भी चलता है। पर मेण्टल फैकेल्टीज में गिराव तो बड़ा स्केयरी है। आप को कभी अपने बारे में यह लगता है?
डाक्टर साहब के पास उस आदमी को देखता हूं। डाक्टर उससे आम पूछ रहे हैं तो वह इमली बता रहा है। अन्दर से भयभीत है – सो अनवरत बोल रहा है – अंग्रेजी में। मरियल दुबला सा आदमी। जबरदस्त एनिमिक। उससे डाक्टर पूछ रहे हैं कितने साल रिटायर हुये हो गये। वह कहता है कि अभी वह नौकरी में है – सन २०११ में रिटायरमेण्ट है। सत्तर से कम उम्र नहीं लगती चेहरे से। बार बार कहता है कि इससे पहले उसे कोई समस्या नहीं थी। पर वह यह नहीं बता पाता कि समस्या क्या है?!
और आदतन मैं अपने को उस व्यक्ति के शरीर में रूपांतरित कर लेता हूं। और तब मुझे जो लगता है, वह स्केयरी है – बहुत भयावह! अपने कोर में भयभीत होने पर मैं अनवरत बोलने लगता हूं – अंग्रेजी में!
ओह, किसी को सुनाई तो नहीं दे रहा है? एक पॉज में मैं सोचता हूं – क्या जरा, रोग या मृत्यु का अनुभव किये बिना बुद्धत्व सम्भव है? क्या खतम हुये बिना बुद्धत्व मिल सकता है?
डॉक्टर के पास डेढ़ साल बाद गया। इस लिये कि बिना देखे, मेरी दवायें आगे चलाते रहने पर उन्हे आपत्ति थी। और उनके पास जाने पर उनके चेम्बर में आधा घण्टा प्रतीक्षा करनी पड़ी – जब तक वे पहले के दो मरीज निपटाने में लगे थे।
और यह आधा घण्टे का ऑब्जर्वेशन माइनर बुद्धत्व उभार गया मुझमें। उस बुद्धत्व को कहां सरकाऊं, सिवाय ब्लॉग के?
ये खतम होने का सिलसिला तो 40 पार होते ही आरंभ हो चुका है। अब तो कोशिश ये है कि इस प्रक्रिया को हम कितना धीमा कर सकते हैं। हाँ मस्तिष्क को संभाल कर रखा जाए तो अंत तक साथ देता रहेगा।
ReplyDeleteआज तो सारे अधेड़ों के जवाब मिलेंगे , जवान भला क्या टिप्पणी देगा यहाँ, आप खुद तो डरे ही हो दूसरों को डराने में भी कामयाब रहे हो ! बधाई !!
ReplyDeleteयह बुद्धत्व उभार तो सभी की चेतना में कुछ न कुछ मात्रा में है । सारा का सारा सर्कस अपनी उपस्थित का उभार औरों के ऊपर जताने का है, चाहे वह शाररिक हो या मानसिक । यद्यपि रहने से या न रहने से विश्व पर कोई अन्तर पड़ने वाला नहीं, पर इसके विचार मात्र से हमारा विश्व दरकने लगता है ।
ReplyDeleteपर आप निश्निन्त रहें । जिसे अपने होने का आनन्द आने लगे, उसे अपने खो जाने का डर भी नहीं होता ।
कहीं पढ़ता था कि यदि आप ५० के उपर हैं और सुबह उठने पर आपके शरीर के किसी भी अंग में कोई दर्द नहीं हो रहा है तो जान लिजिये कि आप मर गये हैं. :)
ReplyDeleteवैसे तो रामदेव के ५ प्रणायाम के लिए नित २० मिनट दें और जरा सुडुको वगैरह भरने की आदत डालें और इस ओर से मन हटा लें..सब टनाटन रहने वाला है.
मेरे परिचिता नें अभी १०० साल पूरे किये और उस रोज दावत में सन १९६४ की बात बता रही थी कि कैसे उसकी फ्लाईट रशिया में मिस हो गई थी. पूरी याददाश्त के साथ अभी कई जन्म दिन मनाने की तैयारी में दिखी.
वैसे सतीश जी की टिप्पणी पढ़ने के बाद मेरे टिप्पणी करने की बनती नहीं थी, फिर भी जवानी की उमंग है सो कह गये. :)
ReplyDeleteश्रीमान जी, मैं समीर जी की टिप्पणी को दोहराना चाहूंगा. वैसे चेहरे तो माशाअल्लाह आप जवानों को मात देते हैं.
ReplyDeleteजब तक इस तरफ और उस तरफ परिचितों की संख्या बराबर न हो जाय तब तक इधर ही रहने का इच्छा है :)
ReplyDeleteआपकी पोस्ट से ज्यादा सतीश जी की टिप्पणी ने डरा दिया :(
ReplyDeleteरीअली स्केरी. और डॉक्टर के चेम्बर के बाहर इंतजार के क्षण तो स्केरी मूवी के किसी भी नए संस्करण से ज्यादा भयावह होते हैं..
आपको तो सही उम्र में बुद्धत्व का फतूर चढ़ता है, हमको कभी-कभी अभी चढ़ जाता है। वैसे जितनी जल्दी चढ़ता है उतनी ही जल्दी उतरता भी है।
ReplyDeleteवैसे डॉक्टर के पास या कहीं और इंतजार करना पढ़े तो खाली समय में हम मोबाइल पर ट्विटर वगैरा खंगाल कर टाइम बिताते हैं।
बुद्धत्व की प्राप्ति हुई । अब और क्या चाहिए । :)
ReplyDeleteआप तो बुद्धत्व पहिले ही प्राप्त कर चुके हैं हमें तो दुःख है की हम बिना पाए ही खलास हो जायेगें !
ReplyDeleteशायद इसे ही कहते है मानसिक हलचल . बुद्धत्व अगर मर के प्राप्त हुआ तो क्या फ़ायदा
ReplyDeleteजीवन में अगर इस तरह के हिचकोले न आयें तो जीवन तन्द्रामय हो जायेगा ।
ReplyDelete.....उस बुद्धत्व को कहां सरकाऊं, सिवाय ब्लॉग के?..
ReplyDeleteलेकिन गुरुवर ब्लॉग जगत अशांत है ऐसे में यह कहाँ बुद्धत्व की प्राप्ति होगी.
हम्म्म....आपकी पोस्ट पढ़कर एक बात ज़रूर तय हो गयी कि भीतर से डरे हुए मेरे सीनीयर यूं ही शेख़ी बघारते डोलते हैं हमारे सामने :-)
ReplyDeleteफिलहाल तो बोधिवृक्ष का बोनसाई वर्जन ही मार्केट में मिल रहा है शायद तभी असल बोध नहीं हो पा रहा मुझे।
ReplyDeleteमेरे रास्ते में रूग्ण भी मिला, वृद्ध भी मिला और मृत भी मिला....लेकिन जीवन की आपाधापी में मै उन सबको नजरअंदाज करता गया हूँ , रूक कर देखने लगूँ तो नौकरी पर देर हो जाय, सहानुभूति जताउं तो अनर्गल प्रलाप कहलाए, सहायता देने की कोशिश करूं तो हाथ खाली पहले ही पसर जाय.....बोध हो तो कैसे :)
सिद्धार्थ को शायद नौकरी पर जाने की जल्दी न थी तभी तीनों अवस्थाओं को रूक कर उन्होंने उसे समझा था....यहां समझने लगूं रूककर तो office से मोबाईल बजने लगे कि -
Where r u :)
अगर जीवन मै ऎसी हलचल ना हो तो फ़िर हम मानसिक हलचल किसे कहेगे, ज्यादा तनाव मत पाले या्दास्त बहुत देर तक रहेगी
ReplyDeleteboss, aisa hai ki mai subah se hi comment karne ki soch raha tha lekin satish jee ki tippani ne apna to hawa hi nikal di thi ;)
ReplyDeletedekho ji aisa hai kaahe ko ittta sara sochne ka...
tello tello...
jo na tell sako to sochne ka bhi nai....
isiliye kahta hu ki munna bhai ki movie ek bar dekh lo sabhi k sabhi....
maante nai ho.... agrasar ho rahe ho budhape ki or ye hi sab soch soch ke ..
he he he
muaafi
हमारी पीड़ा सतीश पंचम जी वाली है। इतवार है लेकिन दफ़्तर से फोन आ रहा है- फ़ला सामान नहीं है बताइये क्या करें?
ReplyDeleteजा रहे हैं पब्लिश करके टिप्पणी!
संजीत की बात सुनी आपने ! अब एक यूनियन बनाते हैं अगले १० वर्षीय और १५ वर्षीया जीवित रहने वाले ब्लागर्स की एसोसिएशन, इसमें डॉ को फ्री मेम्बर बनाया जायेगा , आप अगर तैयार हो तो बताओ अथवा ओपन ऑफर निकाला जाये ! वैसे इस बार बहुत बढ़िया मानसिक हलचल कराई है आपने , रात भर सो नहीं सका ......
ReplyDeleteमहिलाएं और भी डरी हुई लगती हैं, कोई भी महिला ब्लागर अभी तक आपकी इस पोस्ट को पढने तक नहीं आयी !
पोस्ट पढ़ने के कई घंटों बाद तक मन में इस बात की कुलबुलाहट चलती रही कि कहीं ऐसा तो नहीं कि 37 वर्ष में ही दिमाग का पलस्तर टपकने लगे ।
ReplyDeleteकिससे जूझते ? अतः कम्प्यूटर के साथ शतरंज खेले । पहला गेम हार गये और लगा कि आपके द्वारा व्यक्त आशंकायें सच हो रही हैं । हार नहीं मानते हुये दूसरे गेम में जब कम्प्यूटर को दौड़ा दौड़ा कर ठोंका तब रात को निश्चिन्तता से नींद आयी ।
अगला टेस्ट अब 1 महीने बाद ।
डा. महेश सिन्हा की टिप्पणी -
ReplyDeleteआत्मसात कीजिये बहुत महत्वपूर्ण अनुभव है .इसे बार बार जिएं।
गुरूदेव सब कुछ तो प्राप्त कर लिया आपने डाक्टर साब के इंतज़ार में।मैं भी एक बार इस दौर से गुज़रा था।लगा था सब कुछ खतम!उस समय उम्र भी कुछ खास नही हुई थी।30-32 का था शायद्।ओंकारेश्वर से दर्शन कर कर निकलते वक़्त उल्टियां शुरु हुई जो रूकने का नाम ही ना ले।इंदौर पंहुचते-पहुंचते हालत पतली हो गई और ये देख कर साथ गये प्रकाश राठौर(अब स्व)ने सीधे अस्पताल मे गाड़ी रूकवाई और डाक्टर ने ब्लड़ प्रेशर चेक किया और एक के बाद दूसरी मशीन से चेक करते गये और मुझसे पूछा कभी ब्लड प्रेशर की शिकायत हुई है।जैसे ही मैने कहा नही उन्होने कहा इन्हे किसी दूसरे अस्पताल मे भर्ती करा दिजीये।तब सारे दोस्त भड़क गये और डाक्टर को बताया ये रायपुर के जाने-माने पत्रकार है और अगर भर्ती करने की ज़रूरत है तो यंही भर्ती कर्।ये देख मेरी हालत और पतली हो गई मैने पूछा क्या बात है डाक्टर साब कोई प्राब्लम है क्या?डाक्टर ने कहा नही कोई खास नही और मुझे तत्काल अस्पताल मे जमा करा दिया गया।तब तक़ दुनिया भर के मंत्री-संत्रियों के फ़ोन अस्पताल मे पंहुच गये थे।मैं अब वीआईपी पेशेंट था और देखरेख बढ गई थी साथ ही मेरी घबराहट भी।पहली बार मुझे पता चला था कि मैं ब्लड प्रेशर का मरीज हो गया हूं और अब मुझे जीवन भर दवा खाना पड़ेगा।वंहा से भोपाल और बाद मे रायपुर आने के बाद नौकरी से इस्तीफ़ा दे दिया और डाक्टर के मुताबिक़ कम्प्लीट बेड-रेस्ट शुरू हो गया।मैं समझता हूं बेड रेस्ट जो है वो डेड रेस्ट से भी ज्यादा खतरनाक होता है। डेड रेस्ट के बाद पता नही क्या होता होगा पर तब तक़ मुक्ति ज़रूर मिल जाती है मगर बेड़-रेस्ट सिर्फ़ दिमागी उथल-पुथल या मानसिक हलचल के कुछ नही होता।जिस बारे मे सोचने से मना किया जाता है वही ज्यादा दिमाग को हिलाता है।खैर महिने भर दवा खाने के बाद भी आराम नही मिलता देख एक डिन डाक्टर ने साथ गये दोस्त से कहा इसके दिमाग मे कूड़ा भर गया है तुम दोस्त लोग बाहर निकालो तभी ठीक होगा।उस दिन वो मुझे सीधे घर न लेजाकर दोस्तों की महफ़िल मे ले गया और वंहा जब सब को पता चला तो सबने कहा अबे तू दुनिया भर के लोगों का ब्लड़-प्रेशर बढाता है अपना क्यूं बढा लिया।टेंशन लेने से क्या फ़ायदा।मैने भी कहा हां बात तो सच है,जब से बेड़ पर गया हूं साला सोच-सोच के और बीमार हो गया हूं।सबने राहत की सांस ली थी और उस दिन मैंने कहा था टेंशन लेने का नही टेंशन देने का।बस तब से अपना मूल मंत्र यही है।टेंशन लेते ही नही है हां दवा तब भी लेते थे आज भी ले रहे हैं।
ReplyDeleteडाक्टर का इंतज़ार तो साक्षात यम के इंतज़ार से भी कठीन होता है गुरूदेव और इस समय का आपने जिस्स तरह सदुपयोग किया है वैसे अगर सभी भक्तगण ध्यान से करे तो उन्हे भी उनका मनोवांछित फ़ल अर्थात बुद्धत्व प्राप्त होगा।इति श्री मानसिक हलचल पुराण्।सभी प्रेम से बोलें ज्ञानदत्त जी महाराज की जय्।
रे मन अब यहाँ सिर मत खपा। ये बुजुर्गों की फिक्र है, उन्हीं को निपटने दे। कहीं संक्रमण हो गया तो बहुत बुरा हो जाएगा। :)
ReplyDeleteअनिल पुसदकर जी के अनुभव ने तो एक अलग तरह की मानसिक हलचल चला दी है। कभी मैं भी निरोगधाम, आरोग्यधाम जैसी स्वास्थय पत्रिकाएं बहुत पढता था। पढते ही कई तरह के टेंशन आ जाते....सारी बातें इतनी Ambiguity लिये रहतीं कि लगता ये बीमारी का एक लक्षण तो मेरे इस तरह के अनुभव सरीखा हैं....ये लक्षण तो इस समय मुझमें परिलक्षित हुआ था....फलां फलां.....माने तमाम तरह के टेंशन इन स्वास्थय पत्रिकाओं के पढने से और बढ जाते।
ReplyDeleteएक दिन सभी संजोये गये अंक रद्दी में बेच आया.....न रही स्वास्थ की चेतावनी देती वह पत्रिकाएं और न रहे वह ऐरे गैरे टेंशन :)
--sir,iskee chinta kyun.smeer jee sahe kah rahe hai--
ReplyDelete.
ReplyDelete.
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ओह, किसी को सुनाई तो नहीं दे रहा है? एक पॉज में मैं सोचता हूं – क्या जरा, रोग या मृत्यु का अनुभव किये बिना बुद्धत्व सम्भव है? क्या खतम हुये बिना बुद्धत्व मिल सकता है?
और यह आधा घण्टे का ऑब्जर्वेशन माइनर बुद्धत्व उभार गया मुझमें। उस बुद्धत्व को कहां सरकाऊं, सिवाय ब्लॉग के?
कमाल करते हैं साहब, आपका यह माइनर बुद्धत्व तो अपने लिये भी स्केअरी हो गया है...
अरे, यह क्या, पढ़ते-पढ़ते मैं भी बुद्धत्व को प्राप्त हो गया !!!
वैसे अगर सभी भक्तगण ध्यान से पढ़ें तो उन्हे भी उनका मनोवांछित फ़ल अर्थात बुद्धत्व प्राप्त होगा...
इति श्री मानसिक हलचल पुराण्...
सभी प्रेम से बोलें...
ज्ञानदत्त जी महाराज की जय् !
ज्ञानदत्त जी महाराज की जय् !!
ज्ञानदत्त जी महाराज की जय् !!!
आभार!
स्वास्थ्य पर यह अच्छी चर्चा है । सबके अलग अलग तरीके है ।
ReplyDeleteहमारे एक मित्र रोज सुबह टीवी पर योगाभ्यास "देखते " है और स्वस्थ्य रह्ते हैं ।
दुसरे के गलतियों से या अनुभवों से सीखना पहले जरूरी है...जानकारी के लिए धन्यवाद....
ReplyDeleteपोस्ट के ऊपर एक डिसक्लेमर लगा दें कि जवान लोग इसको न पढ़ें, पढ़कर टेन्शन हो सकती है! वैसे इन सच्चाईयों का पता तो होता ही है लेकिन फिर भी जब तक वास्तविक जीवन में सामना नहीं होता तब तक मन इन बातों को नकारता ही रहता है कदाचित् किसी फॉल्स होप के तहत।
ReplyDeleteबाकी समीर जी के सुझाव पसंद आए, नोट कर लिए हैं, आशा है कि लाभकारी होंगे! :)
देव !
ReplyDeleteबड़ा कारुणिक लग रहा है , पढ़कर !
एक एक शब्द जैसे आइना दिखा रहा हो !
पर यह भी सत्य है की यही करुणा शक्ति और
शान्ति भी देती है , आचार्य रामचंद्र शुक्ल इसे करुणा का
लोकोपकारक धर्म कहते है ! अतः डर तो कतई नहीं रहा हूँ !
विचार कर रहा हूँ ---
यमराज के सम्मुख एक आकृति सी दिखती है !
यह आकृति क्या आसन्न - मृत्यु वाले व्यक्ति की है !
न देव न !
यह तो एक बालक की है ! गौर से देखता हूँ तो पाता हूँ
की यह बालक कोई और नहीं नचिकेता है , जो यम से सवाल
कर रहा है ! और फिर वही तीन वरदान याद आ रहे हैं जिनसे
यम को भी जीत लिया था नचिकेता ने !
देव जी ! हम सबमें वही मानव 'नचिकेता' है , बस पहचानते कब है ? यही
अहम सवाल है ... पहचान लिए तो समझिये यम पर विजय !
मृत्यु पर विजय !
भ्रम पर बोध की विजय !
भौतिकता पर विचार की विजय !
जन्म-जरा-मरण पर बुद्ध की विजय !
.
जन्म-जरा-मरण पर विभ्रम रहित चिंतन तोष-प्रद होता है !
आज आपकी पोस्ट पढ़ते हुए हृद्तंत्री के तार स्वतः झंकृत हो उठे !
अब अपने प्रिय अवधी कवि जायसी के सन्दर्भ के साथ विदा लूँगा ---
....................
'' मुहमद बिरिध बैस जो भई । जोबन हुत, सो अवस्था गई ॥
बल जो गएउ कै खीन सरीरू । दीस्टि गई नैनहिं देइ नीरू ॥
दसन गए कै पचा कपोला । बैन गए अनरुच देइ बोला ॥
बुधि जो गई देई हिय बोराई । गरब गएउ तरहुँत सिर नाई ॥
सरवन गए ऊँच जो सुना । स्याही गई, सीस भा धुना ॥
भवँर गए केसहि देइ भूवा । जोबन गएउ जीति लेइ जूवा ॥
जौ लहि जीवन जोबन-साथा । पुनि सो मीचु पराए हाथा ॥
बिरिध जो सीस डोलावै, सीस धुनै तेहि रीस ।
बूढी आऊ होहु तुम्ह, केइ यह दीन्ह असीस ? || ''
----------- इन्हीं जायसी जी ने फिर कहा है ;
'' धनि सोई जस कीरति जासू । फूल मरै, पै मरै न बासू ॥ ''
.......... बस यही बुद्धत्व की बास ( सुगंध ) बचा लेती है न !
,,,,, हाँ . इलाहाबाद में होता तो आपसे मिलने जरूर आता !
.
प्रणाम !
अब इसे संजोग कहूँ या कुछ और....आज सुबह ही पडोस के घर में अस्पताल से एक घायल का फोन आया कि फलां गाडी का एक्सीडेंट हुआ है। उसमें सवार मेरे पडोसी मित्र का पता नहीं चल रहा कि वह कहां है।
ReplyDeleteसुनते ही पडोस के घर में कोहराम सा मच गया....क्या हुआ होगा...कहां होंगे वो.....बात बात में फोन लगाया गया पर कुछ पता नही चल रहा था। लोग दौडाए गए उस ओर.......इस बीच मेरे घर में यह उहोपोह चल रहा था कि कम से कम हाथ पैर में चोट लग जाय तो भी ठीक है....इंसान का जिवित रहना और अपने बच्चों के सामने रहना ही काफी होता है।
इस बीच लगातार फोन पर ढूँढने वालों से संपर्क चलता रहा। उम्मीद रही कि कहीं कुछ न हुआ होगा....शायद मेरे पडोसी मित्र घायल हो गये होंगे बस इतना ही हुआ होगा।
मन को हटाने के लिये मैंने अखबार वगैरह देखा, ब्लॉगिंग आदि पर थोडा खुद को लगाया। इधर समय बीतता जा रहा था। मन में आशंका घर करती जा रही थी......तभी पता चला कि वह शख्स अब नहीं रहा ।
सुनते ही मन सन्न रह गया.... विडंबना यह कि जहां एक्सिडेंट हुआ वह मित्र के गाँव के पास है और उनके बीवी बच्चों को यह कह कर बहका कर गाँव ले जाया जा रहा है कि तुम्हारे पापा गाँव के अस्पताल में एडमिट हैं।
उन मासूम अबोध बच्चों को देख कलेजा मुंह को आ रहा है। उनकी बिटिया ने मेरे घर आकर अपने घर का दूध दिया यह कह कर कि आंटी इसे यूज कर लो, पापा गाँव में एडमिट हैं हम लोग जा रहे हैं।
इस तरह के माहौल के बीच जो मन: स्थिति बनी है, कि जिस तरह से पहले केवल हाथ पैर में चोट लग जाने पर संतोष किया जा रहा था, फिर छुप छुपा कर बच्चों को बहका कर गाँव ले जाया जा रहा है ताकि रास्ते में डेड बॉडी पहुंचने तक वो फूट न पडें तो यकीन मानिए एकदम से हिल गया हूँ।
लेकिन यहां भी समय का फेर देखिये कि थोडी देर तक सब लोग स्तब्धता को जी लेने के बाद उनको याद कर लेने के बाद अनमने ही सही, अपने अपने काम में लग से गये हैं।
शायद ऐसे ही क्षण जब प्रत्यक्ष सामने आ जाते हैं तो जो मन:स्थिति बनती है वही बोधिसत्व बनाने के लिये काफी है। लेकिन यह मनो स्थिति लगातार नहीं बनी रहती हमारी, इसलिये न तो हम तथागत बन पाते हैं और न तो कोई गहन बोध का अनुभव कर पाते हैं । तभी तो अभी कुछ घंटे हुए हैं इस माहौल से गुजरे हुए और मैं यहां कम्प्यूटर पर अधमन हो लिख रहा हूँ।
हालात ने चेहरे की दमक छीन ली वरना
ReplyDeleteदो-चार बरस में तो बुढ़ापा नहीं आता ।
नहीं-नहीं, ये आपसे नहीं कह रहा, अपने आप से कह रहा हूँ। आपका आलेख पढने के बाद खुद को दिलासा जो देना था।
सतीश सक्सेना जी की बात सुन कर रुक गये। लीजिए सतीश जी कम से कम दो महिलाएं तो आ गयी टिपि्याने। तनु जी के बारे में तो मुझे ज्यादा पता नहीं पर मैं तो ज्ञान जी की ही उम्र की हूँ और इस लिए उनसे आइडेंटिफ़ाई कर पाऊं ये नेचुरल है। मुसीबत ये है कि मैं ऐसा नहीं कर पा रही। अभी तक ऐसा कोई अनुभव हुआ नहीं, डाक्टर हमसे और हम डाक्टरों से कौसों दूर भागते हैं। ऐसे में हम भी उस माइनर बुद्धत्व के इंतजार में हैं। वैसे संजीत की बात से सहमत हैं ज्यादा इस बारे में सोचने का नहीं…।:)
ReplyDeleteई-मेल से प्राप्त टिप्पणी -
ReplyDeleteबहुत दार्शनिक प्रश्न उठा दिए आपने पर उस वृद्ध के लक्षण मनोरोग के प्रतीत होते हैं ,आपका क्या ख्याल है?
Dr.bhoopendra
Rewa M.P
प्रतिशत की बात कर रहा था अनीता जी ! और आप तो अलग ही हैं, ज्ञान भाई को हौसला दीजिये ,
ReplyDeleteभाई लोग तो बुद्धत्व की बातों को आगे बढ़ा रहे हैं ! :-)
मुझे तो ऐसा कुछ भी न तो हुआ और न ही हो रहा है। बस, यह याद नहीं आ रहा कि इस समय आयु के कितने वर्ष पूरे कर लिए।
ReplyDelete1. होनी तो हो के रहे ...
ReplyDelete2. जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु....
3. मृत्यु सर्वहरश्चाहम...
4. जन्म मृत्यु जरा व्याधि दु:ख दोषानुदर्शनम...
आप तो गीता के पाठक हैं फिर यह पलायनवादी विचारधारा कैसी? अपनी तरफ से जो हो सकता है यथाशक्ति कीजिये, साथ ही याद रखिये कि यह कुछ भी टाला नहीं जा सकता है। अनंतकाल से काल का चक्र चलता रहा है और अनंतकाल तक चलता रहेगा।
5. कर्मण्येवाधिकारस्ते ...
बडे मियाँ कह गये हैं (मेरी प्रिय पंक्तियाँ) ...
ReplyDeleteमैने पूछा क्या हुआ वो आपका हुस्ने शबाब
हंसके बोला वो सनम शाने खुदा थी मैं न था
बडे मियाँ कह गये हैं (मेरी प्रिय पंक्तियाँ) ...
ReplyDeleteमैने पूछा क्या हुआ वो आपका हुस्ने शबाब
हंसके बोला वो सनम शाने खुदा थी मैं न था
सतीश सक्सेना जी की बात सुन कर रुक गये। लीजिए सतीश जी कम से कम दो महिलाएं तो आ गयी टिपि्याने। तनु जी के बारे में तो मुझे ज्यादा पता नहीं पर मैं तो ज्ञान जी की ही उम्र की हूँ और इस लिए उनसे आइडेंटिफ़ाई कर पाऊं ये नेचुरल है। मुसीबत ये है कि मैं ऐसा नहीं कर पा रही। अभी तक ऐसा कोई अनुभव हुआ नहीं, डाक्टर हमसे और हम डाक्टरों से कौसों दूर भागते हैं। ऐसे में हम भी उस माइनर बुद्धत्व के इंतजार में हैं। वैसे संजीत की बात से सहमत हैं ज्यादा इस बारे में सोचने का नहीं…।:)
ReplyDeleteअब इसे संजोग कहूँ या कुछ और....आज सुबह ही पडोस के घर में अस्पताल से एक घायल का फोन आया कि फलां गाडी का एक्सीडेंट हुआ है। उसमें सवार मेरे पडोसी मित्र का पता नहीं चल रहा कि वह कहां है।
ReplyDeleteसुनते ही पडोस के घर में कोहराम सा मच गया....क्या हुआ होगा...कहां होंगे वो.....बात बात में फोन लगाया गया पर कुछ पता नही चल रहा था। लोग दौडाए गए उस ओर.......इस बीच मेरे घर में यह उहोपोह चल रहा था कि कम से कम हाथ पैर में चोट लग जाय तो भी ठीक है....इंसान का जिवित रहना और अपने बच्चों के सामने रहना ही काफी होता है।
इस बीच लगातार फोन पर ढूँढने वालों से संपर्क चलता रहा। उम्मीद रही कि कहीं कुछ न हुआ होगा....शायद मेरे पडोसी मित्र घायल हो गये होंगे बस इतना ही हुआ होगा।
मन को हटाने के लिये मैंने अखबार वगैरह देखा, ब्लॉगिंग आदि पर थोडा खुद को लगाया। इधर समय बीतता जा रहा था। मन में आशंका घर करती जा रही थी......तभी पता चला कि वह शख्स अब नहीं रहा ।
सुनते ही मन सन्न रह गया.... विडंबना यह कि जहां एक्सिडेंट हुआ वह मित्र के गाँव के पास है और उनके बीवी बच्चों को यह कह कर बहका कर गाँव ले जाया जा रहा है कि तुम्हारे पापा गाँव के अस्पताल में एडमिट हैं।
उन मासूम अबोध बच्चों को देख कलेजा मुंह को आ रहा है। उनकी बिटिया ने मेरे घर आकर अपने घर का दूध दिया यह कह कर कि आंटी इसे यूज कर लो, पापा गाँव में एडमिट हैं हम लोग जा रहे हैं।
इस तरह के माहौल के बीच जो मन: स्थिति बनी है, कि जिस तरह से पहले केवल हाथ पैर में चोट लग जाने पर संतोष किया जा रहा था, फिर छुप छुपा कर बच्चों को बहका कर गाँव ले जाया जा रहा है ताकि रास्ते में डेड बॉडी पहुंचने तक वो फूट न पडें तो यकीन मानिए एकदम से हिल गया हूँ।
लेकिन यहां भी समय का फेर देखिये कि थोडी देर तक सब लोग स्तब्धता को जी लेने के बाद उनको याद कर लेने के बाद अनमने ही सही, अपने अपने काम में लग से गये हैं।
शायद ऐसे ही क्षण जब प्रत्यक्ष सामने आ जाते हैं तो जो मन:स्थिति बनती है वही बोधिसत्व बनाने के लिये काफी है। लेकिन यह मनो स्थिति लगातार नहीं बनी रहती हमारी, इसलिये न तो हम तथागत बन पाते हैं और न तो कोई गहन बोध का अनुभव कर पाते हैं । तभी तो अभी कुछ घंटे हुए हैं इस माहौल से गुजरे हुए और मैं यहां कम्प्यूटर पर अधमन हो लिख रहा हूँ।
पोस्ट के ऊपर एक डिसक्लेमर लगा दें कि जवान लोग इसको न पढ़ें, पढ़कर टेन्शन हो सकती है! वैसे इन सच्चाईयों का पता तो होता ही है लेकिन फिर भी जब तक वास्तविक जीवन में सामना नहीं होता तब तक मन इन बातों को नकारता ही रहता है कदाचित् किसी फॉल्स होप के तहत।
ReplyDeleteबाकी समीर जी के सुझाव पसंद आए, नोट कर लिए हैं, आशा है कि लाभकारी होंगे! :)
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ReplyDelete.
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ओह, किसी को सुनाई तो नहीं दे रहा है? एक पॉज में मैं सोचता हूं – क्या जरा, रोग या मृत्यु का अनुभव किये बिना बुद्धत्व सम्भव है? क्या खतम हुये बिना बुद्धत्व मिल सकता है?
और यह आधा घण्टे का ऑब्जर्वेशन माइनर बुद्धत्व उभार गया मुझमें। उस बुद्धत्व को कहां सरकाऊं, सिवाय ब्लॉग के?
कमाल करते हैं साहब, आपका यह माइनर बुद्धत्व तो अपने लिये भी स्केअरी हो गया है...
अरे, यह क्या, पढ़ते-पढ़ते मैं भी बुद्धत्व को प्राप्त हो गया !!!
वैसे अगर सभी भक्तगण ध्यान से पढ़ें तो उन्हे भी उनका मनोवांछित फ़ल अर्थात बुद्धत्व प्राप्त होगा...
इति श्री मानसिक हलचल पुराण्...
सभी प्रेम से बोलें...
ज्ञानदत्त जी महाराज की जय् !
ज्ञानदत्त जी महाराज की जय् !!
ज्ञानदत्त जी महाराज की जय् !!!
आभार!
अनिल पुसदकर जी के अनुभव ने तो एक अलग तरह की मानसिक हलचल चला दी है। कभी मैं भी निरोगधाम, आरोग्यधाम जैसी स्वास्थय पत्रिकाएं बहुत पढता था। पढते ही कई तरह के टेंशन आ जाते....सारी बातें इतनी Ambiguity लिये रहतीं कि लगता ये बीमारी का एक लक्षण तो मेरे इस तरह के अनुभव सरीखा हैं....ये लक्षण तो इस समय मुझमें परिलक्षित हुआ था....फलां फलां.....माने तमाम तरह के टेंशन इन स्वास्थय पत्रिकाओं के पढने से और बढ जाते।
ReplyDeleteएक दिन सभी संजोये गये अंक रद्दी में बेच आया.....न रही स्वास्थ की चेतावनी देती वह पत्रिकाएं और न रहे वह ऐरे गैरे टेंशन :)
गुरूदेव सब कुछ तो प्राप्त कर लिया आपने डाक्टर साब के इंतज़ार में।मैं भी एक बार इस दौर से गुज़रा था।लगा था सब कुछ खतम!उस समय उम्र भी कुछ खास नही हुई थी।30-32 का था शायद्।ओंकारेश्वर से दर्शन कर कर निकलते वक़्त उल्टियां शुरु हुई जो रूकने का नाम ही ना ले।इंदौर पंहुचते-पहुंचते हालत पतली हो गई और ये देख कर साथ गये प्रकाश राठौर(अब स्व)ने सीधे अस्पताल मे गाड़ी रूकवाई और डाक्टर ने ब्लड़ प्रेशर चेक किया और एक के बाद दूसरी मशीन से चेक करते गये और मुझसे पूछा कभी ब्लड प्रेशर की शिकायत हुई है।जैसे ही मैने कहा नही उन्होने कहा इन्हे किसी दूसरे अस्पताल मे भर्ती करा दिजीये।तब सारे दोस्त भड़क गये और डाक्टर को बताया ये रायपुर के जाने-माने पत्रकार है और अगर भर्ती करने की ज़रूरत है तो यंही भर्ती कर्।ये देख मेरी हालत और पतली हो गई मैने पूछा क्या बात है डाक्टर साब कोई प्राब्लम है क्या?डाक्टर ने कहा नही कोई खास नही और मुझे तत्काल अस्पताल मे जमा करा दिया गया।तब तक़ दुनिया भर के मंत्री-संत्रियों के फ़ोन अस्पताल मे पंहुच गये थे।मैं अब वीआईपी पेशेंट था और देखरेख बढ गई थी साथ ही मेरी घबराहट भी।पहली बार मुझे पता चला था कि मैं ब्लड प्रेशर का मरीज हो गया हूं और अब मुझे जीवन भर दवा खाना पड़ेगा।वंहा से भोपाल और बाद मे रायपुर आने के बाद नौकरी से इस्तीफ़ा दे दिया और डाक्टर के मुताबिक़ कम्प्लीट बेड-रेस्ट शुरू हो गया।मैं समझता हूं बेड रेस्ट जो है वो डेड रेस्ट से भी ज्यादा खतरनाक होता है। डेड रेस्ट के बाद पता नही क्या होता होगा पर तब तक़ मुक्ति ज़रूर मिल जाती है मगर बेड़-रेस्ट सिर्फ़ दिमागी उथल-पुथल या मानसिक हलचल के कुछ नही होता।जिस बारे मे सोचने से मना किया जाता है वही ज्यादा दिमाग को हिलाता है।खैर महिने भर दवा खाने के बाद भी आराम नही मिलता देख एक डिन डाक्टर ने साथ गये दोस्त से कहा इसके दिमाग मे कूड़ा भर गया है तुम दोस्त लोग बाहर निकालो तभी ठीक होगा।उस दिन वो मुझे सीधे घर न लेजाकर दोस्तों की महफ़िल मे ले गया और वंहा जब सब को पता चला तो सबने कहा अबे तू दुनिया भर के लोगों का ब्लड़-प्रेशर बढाता है अपना क्यूं बढा लिया।टेंशन लेने से क्या फ़ायदा।मैने भी कहा हां बात तो सच है,जब से बेड़ पर गया हूं साला सोच-सोच के और बीमार हो गया हूं।सबने राहत की सांस ली थी और उस दिन मैंने कहा था टेंशन लेने का नही टेंशन देने का।बस तब से अपना मूल मंत्र यही है।टेंशन लेते ही नही है हां दवा तब भी लेते थे आज भी ले रहे हैं।
ReplyDeleteडाक्टर का इंतज़ार तो साक्षात यम के इंतज़ार से भी कठीन होता है गुरूदेव और इस समय का आपने जिस्स तरह सदुपयोग किया है वैसे अगर सभी भक्तगण ध्यान से करे तो उन्हे भी उनका मनोवांछित फ़ल अर्थात बुद्धत्व प्राप्त होगा।इति श्री मानसिक हलचल पुराण्।सभी प्रेम से बोलें ज्ञानदत्त जी महाराज की जय्।
पोस्ट पढ़ने के कई घंटों बाद तक मन में इस बात की कुलबुलाहट चलती रही कि कहीं ऐसा तो नहीं कि 37 वर्ष में ही दिमाग का पलस्तर टपकने लगे ।
ReplyDeleteकिससे जूझते ? अतः कम्प्यूटर के साथ शतरंज खेले । पहला गेम हार गये और लगा कि आपके द्वारा व्यक्त आशंकायें सच हो रही हैं । हार नहीं मानते हुये दूसरे गेम में जब कम्प्यूटर को दौड़ा दौड़ा कर ठोंका तब रात को निश्चिन्तता से नींद आयी ।
अगला टेस्ट अब 1 महीने बाद ।
फिलहाल तो बोधिवृक्ष का बोनसाई वर्जन ही मार्केट में मिल रहा है शायद तभी असल बोध नहीं हो पा रहा मुझे।
ReplyDeleteमेरे रास्ते में रूग्ण भी मिला, वृद्ध भी मिला और मृत भी मिला....लेकिन जीवन की आपाधापी में मै उन सबको नजरअंदाज करता गया हूँ , रूक कर देखने लगूँ तो नौकरी पर देर हो जाय, सहानुभूति जताउं तो अनर्गल प्रलाप कहलाए, सहायता देने की कोशिश करूं तो हाथ खाली पहले ही पसर जाय.....बोध हो तो कैसे :)
सिद्धार्थ को शायद नौकरी पर जाने की जल्दी न थी तभी तीनों अवस्थाओं को रूक कर उन्होंने उसे समझा था....यहां समझने लगूं रूककर तो office से मोबाईल बजने लगे कि -
Where r u :)
आपको तो सही उम्र में बुद्धत्व का फतूर चढ़ता है, हमको कभी-कभी अभी चढ़ जाता है। वैसे जितनी जल्दी चढ़ता है उतनी ही जल्दी उतरता भी है।
ReplyDeleteवैसे डॉक्टर के पास या कहीं और इंतजार करना पढ़े तो खाली समय में हम मोबाइल पर ट्विटर वगैरा खंगाल कर टाइम बिताते हैं।
कहीं पढ़ता था कि यदि आप ५० के उपर हैं और सुबह उठने पर आपके शरीर के किसी भी अंग में कोई दर्द नहीं हो रहा है तो जान लिजिये कि आप मर गये हैं. :)
ReplyDeleteवैसे तो रामदेव के ५ प्रणायाम के लिए नित २० मिनट दें और जरा सुडुको वगैरह भरने की आदत डालें और इस ओर से मन हटा लें..सब टनाटन रहने वाला है.
मेरे परिचिता नें अभी १०० साल पूरे किये और उस रोज दावत में सन १९६४ की बात बता रही थी कि कैसे उसकी फ्लाईट रशिया में मिस हो गई थी. पूरी याददाश्त के साथ अभी कई जन्म दिन मनाने की तैयारी में दिखी.