मेरा मुंह तिक्त है। अन्दर कुछ बुखार है। बैठे बैठे झपकी भी आ जा रही है। और मुझे कभी कभी नजर आता है बबूल। कोई भौतिक आधार नहीं है बबूल याद आने का। बबूल और नागफनी मैने उदयपुर प्रवास के समय देखे थे। उसके बाद नहीं।
कौटिल्य की सोचूं तो याद आता है बबूल का कांटा – कांटे से कांटे को निकालने की बात से सम्बद्ध। पर अब तो कौटिल्य याद नहीं आ रहे। मन शायद मुंह की तिक्तता को बबूल से जोड़ रहा है। बैठे बैठे पत्रिका में पाता हूं कौशिक बसु का उल्लेख। उनके इस पन्ने पर उनके लेख का लिंक है - "Globalization and Babool Gum: Travels through Rural Gujarat". उसमें है कि बबूल का गोंद इकठ्ठा करने में पूरी आबादी गरीबी की मानसिकता में जीती रहती है। कच्छ के रन में पानी कम होता है सो अलग।
बबूल, गुजरात, भूमण्डलीकरण, बुखार … क्या क्या जुड़ जाते हैं सोचने में। लैपटॉप खोलता हूं। फिर यूं ही जाने देता हूं। फीड रीडर में तीन सौ से ऊपर फीड हैं – आधी हिन्दी ब्लॉग्स की। एक क्लिक में वे सभी मिटा देता हूं। जब मन ठीक होगा, जब बबूल के स्थान पर कोई फूल आयेगा, तब पढ़ा जायेगा।
अभी मैं बबूल की सोचता हूं। पानी रहित गुजरात की सोचता हूं, सोशल ऑन्त्रेपिन्योरशिप की सोचता हूं। बीच बीच में झपकी भी आती है। और एक दिन बीत जाता है!
बबूल और यूकलिप्टिस लगाये गये थे पर्यावरण बचाने को। दोनो भूगर्भीय जल खत्म कर रहे हैं। कौन सा है वण्डर ट्री? बनारस-गाजीपुर-छपरा के गांगेय क्षेत्र में बहुत से बांस के झुरमुट देखे थे। बांस पेड़ नहीं, घास है। तेजी से बढ़ता है। कहीं पढ़ा था कि जब बांस का वन बढ़ता है तो बढ़ने की आवाज सुनी जा सकती है।
बबूल के साथ कौटिल्य याद आते हैं तो बांस के साथ गोविन्द – उनकी बांस की बंसुरिया।
जीभ की तिक्तता कुछ मिट रही है।
जब आप अस्वस्थ हों, और मन पर लगाम न हो तो जो हलचल होती है, उसका नमूना ऊपर है। यह जरूर है कि कुछ लोग उस बेलगाम हलचल को रद्दी को कन्साइन कर देते हैं। मेरे जैसे ब्लॉग पर टपका देते हैं। इस लिये सही कहते भी हैं कि ब्लॉग पर अस्सी परसेण्ट कूड़ा है!
कल बाजार गया तो कटहरी (छोटा कटहल) ले कर अपने नियत जगह पर जमीन पर बैठ था जल्लदवा। नाम पता नहीं, पर हमेशा दाव ले कर कटहल छीलता-बेचता दिखता है वह। स्वभाव से निहायत शरीफ पर दाव से कटहल ऐसे ड्रेस करता है मानो जल्लाद हो। सो यूपोरियन नाम पड़ गया है जल्लदवा!
क्या भाव है कटहरी? यहां तो सत्ताइस रुपये किलो दिया।
यहां दिल्ली में आंख झपकती है तो ख़्याल भी बिल्डिंगों, ट्रैफ़िक और धुएं के आते हैं, इलाहाबाद में कम से कम बबूल तो ध्यान आती है :)
ReplyDeleteबबूल की गोंद जिसे हम लाटा कहते हैं, का एक उपयोग यह भी है कि महिलायें अपनी पुरानी बिंदिया में ( जिसका गोंद निकल गया हो) माथे पर चिपकाने वाले पदार्थ के रूप में करती रही हैं। पहले के समय रोज रोज कोई नई बिंदिया नहीं बदलता था, बबूल का लाटा लिया, गोंद सूख चुकी पुरानी किसी बिंदिया के पृष्ठभाग पर चिपकाया और माथे से लगा लिया।
ReplyDeleteआजकल तो विभिन्न प्रकार की बिंदिया देखने मे आती है उनके नाम भी बडे फन्ने खां सरीखा होते है :)
जहां तक बांस की बात है तो बांस से वैसे भी न जाने कितने चीजें टोकरी से लेकर ट्रैक्टर के पीछे लगने वाले हेंगा तक बनाये जाते हैं।
यदि बांस न होते तो दूसरी मजिल तक परीक्षा हाल की खिडकी तक लोग नकल कैसे पहुंचाते। ( हाल ही में टीवी पर एक परीक्षा केन्द्र का यह नजारा देखा है)
औऱ सबसे बढकर यदि बांस न होते तो कैसे रेणु जी 'मैला आँचल' में बंसवारी में मच्छरों से कटवाते :)
तबीयत ठीक नहीं है..यह तो दिख गया मगर कटहरी काहे याद दिला दिये हम जैसे लोगों को..हम तो चाहते हैं, आप जल्दी ठीक हों!!
ReplyDeleteपूरा म्यूजिंग के मूड में हैं
ReplyDelete@ Udan Tashtari - हिन्दी में विशिष्ट लेखन का आपका योगदान सराहनीय है. आपको साधुवाद!!
ReplyDeleteआपने समझा कि मैं हिन्दी लिख लेता हूं। इसके लिये धन्यवाद!
जौहरी कभी कभी परख में गलत कर सकता है, नहीं?!
कमाल है कल अपन भी ऐसे ही मूड में थे ! एक ठो पोस्ट ही लिख दिए। आप तो देखे भी नहीं होंगे- मिटा ही दिए सब एक झटके में !
ReplyDeleteलेंढ़ा के आगे के स्टेज को आप कटहरी कहते हैं, हमलोग कटहल ही कहते हैं - शायद काष्ठफल का तद्भव है यह।मैं मजाक में 'कष्टहर' कहता हूँ। पेट के लिए अच्छा होता है । गोमतीनगर में 50 रु प्रति किलो - महँगा न लगे इसलिए बेचने वाला चिल्लाता है - 25 रु का आधा किलो !
मुझे वह जल्लाद नहीं कलाकार लगता है - कितनी सफाई, सुघड़ता और तहज़ीब के साथ छीलता है - मजाल क्या कि गूदा छिलके के साथ निकल आए। चाकू से जो ज्यामितीय पैटर्न बनाता है उसकी शोभा अलग। चचा ! इस पर एक चित्रमय पोस्ट होनी चाहिए। हम जहाँ हैं, फोटो खींचेंगे तो तमाशा बन जाएँगे।
आप ने यह बताया ही नहीं कि बाँस भूगर्भीय जल के लिए ठीक है या नहीं?
उदयपुर में ही नहीं पूरे राजस्थान में बबूल पाया जाता है। जिसे शू बबूल या अंग्रेजी बबूल कहते हैं वो किसी काम का नहीं है लेकिन देसी बबूल के तो कई फायदे हैं। मारवाड़ में जहाँ पानी की कमी है वहाँ या ता बबूल ही उगता है या फिर खेजड़ी। ये दोनों ही पेड़ों की पत्तियां पशुओं का आहार है। इसकी फली खाने के काम आती है और पंचकुटे का एक महत्वपूर्ण घटक है। बबूल का औषधीय उपयोग भी बहुत है।
ReplyDeleteएक बबूल इत्ते फायदे. तभी तो विज्ञापन भी बोलता है- बबूल, बबूल पैसे वसूल...बेहतरीन पोस्ट !!
ReplyDelete______________
''शब्द-सृजन की ओर" पर- गौरैया कहाँ से आयेगी
मन खराब है तो आप बबूल को क्यो याद कर रहे है. बबूल और उस जैसे अन्य कांटो की अपनी अलग अहमियत है क्योंकि कांटों के बिना फूलो का क्या वज़ूद. लेकिन जब मन ठीक न हो तो कांटो से दूर ही रेहना चाहिये. ऐसे मूड मे तो अच्छी अच्छी बाते सोचिये. मलिहाबाद के बागो मे इस साल आम की बहार है. अगर सब ठीक रहा तो फसल अच्छी जायेगी. इलाका महक रहा है. बौर अच्छी है और कीट का प्रकोप भी कम है. मेरे गरीबखाने मे भी डेढ पेड है आम के. एक पूरा अपना और एक ऐसा जो है तो पडोसी का पर फैला है मेरे घर के ऊपर. हर खास और आम के लिये आम ही आम होंगे इस साल. पडोसी के पेड के आम वैसे भी ज्याद मीठे होते है. अब बबूल का चक्कर छोड कर आम और अमरूद मे मन लगाइये.
ReplyDeleteएक अदद कटहल के पेड की भी टेम्पोरेरी मिल्कियत है अपने पास. अभी तो क्रिकेट की गेन्द के बराबर फल लगे है. जरा बढ जाये तो जल्लदवा की जरूरत पडेगी. कनटेक्ट बनाये रखियेगा.
मन की चंचलता जल्दी ठीक हो यही कामना है.
भैया ब्लॉग में अधिक तर कूड़ा नहीं है अनर्गल प्रलाप है...अनर्गल प्रलाप हमेशा कूड़ा नहीं होता...कभी कभी काम का भी होता है...आप बुखार की स्तिथि में भी इतनी अच्छी पोस्ट लिख लेते हैं कमाल है...हम तो बुखार की स्तिथि में चुपचाप पड़े रहते हैं...शरीर के साथ दिमाग भी तहस हो जाता है...आप विलक्षण हैं...निःसंदेह...
ReplyDeleteबबूल, यूकेलिप्टस और बांस के बारे में आपकी जानकारी कमाल की है.
नीरज
अरे ज्ञानदत्त जी मन खराब है तो आप नीचे बेठे क्या कर रहे है?? अजी डां के पास जाये:)
ReplyDeleteदेव जी ,
ReplyDeleteयाद आ रहा है ---
'' उधौ धन तोहरा बिवहार !
आम कटावत बबुर लगावत , चन्दन झोंकत भार !! उधौ,,, ''
मनूधौ को मन - चन्दन बनना ही होगा ! 'तिक्तता' अल्पकालिक है , ऐसा विश्वास है !
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मैं कूड़ा नहीं मानता , किसी आत्मालाप को ! कम-से-कम भोक्ता लिखकर ऊर्जा पाता है !
बबूल..नागफनी के कांटे का जिक्र तो बहुत पढ़ा है...शायद पेड़ देखे भी हों...पर पहचाना नहीं...और जहाँ रहती हूँ..वहाँ किसी और नाम से ही जाना जाता होगा....जैसे कटहल को यहाँ 'फणस' बोलते हैं...जब मम्मी को बताया तो उन्होंने बोला..यह संस्कृत शब्द है और मैं समझती थी,मराठी शब्दहै.
ReplyDeleteसतीश जी ने अच्छी जानकारी दी..बचपन में मैंने गाँव में औरतों को एक छोटी सी डिबिया में ऐसे गोंद रखते देखे हैं.पर यह 'बबूल' के पेड़ का होता था...आज पता चला.(या शायद आम के पेड़ से भी निकलता है क्या?)
आपको जल्दी स्वस्थ होने की शुभकामनाएं
बहुत अच्छा बर्राये हैं ।
ReplyDeleteगोंद वोंद तो हम नहीं जानते, उसके लिये तो मांड़ या लेई का प्रयोग कर लेते थे पर बबूल के नाम से अपने बचपन के दिन याद आ गये जब बबूल से दातून करते थे। तब तो बिनाका या सिबाका बड़े लोगों के पहुंच की चीज़ होती थी। बांस का दातुन दांत खराब ही करता था। हां उसके दूसरे उपयोग टोकड़ी से लेकर बांस घाट तक पहु़चाने में बहुत होता रहा है। आज भी। पर बबूल के दातॊन तो किस्से कहानियों की बातें रह गई हैं।
ReplyDeleteकटहल तो आज मेरे घर में भी बना है (सब्जी)।
"Jab raat hai aisee matwali , to subha ka aalam kya hoga...?"
ReplyDeleteYou write with such a great passion while ill or upset. That's really praiseworthy. But to my utter surprise, how come you think of poor babool when you do not feel well. Unfortunately my scary neighbour (Manjari), comes in my thoughts when i am down with fever . You are fortunate to have cute 'Babool thorns' in such circumstances.
Anyways, with bouquet of roses ,wishing you good health.
Get well soon !
आप ने बचपन की याद दिला दी। बबूल तो सर्वव्यापी था। जहां तक मेरा अनुमान है, पानी खीचने का काम सिर्फ यूकेलिप्टस करता है, बबूल नहीं। बबूल तो उत्तर भारत के गांव गांव के पानी को सुरक्षित रखता है।
ReplyDeleteसस्नेह -- शास्त्री
हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है.
हर महीने कम से कम एक हिन्दी पुस्तक खरीदें !
मैं और आप नहीं तो क्या विदेशी लोग हिन्दी
लेखकों को प्रोत्साहन देंगे ??
http://www.Sarathi.info
ऑन्त्रेपिन्योरशिप ?
ReplyDeleteहिन्दुस्तानी ज़बान में तो शायद एंटरप्रिन्योरशिप ही लिखेंगे इसे? बाकी यूरोपीय उच्चारण जाने दें, पढ़े लिखों के मुंह भी वही सुना है जो हमने लिखा है। दुकानों पर ठाठ से एंटरप्राजेज या एंटरप्राइज ही लिखा चला आ रहा है। ट औ त वर्ग का अंतर है। यह उतना ही महत्वपूर्ण है जितनी फ्रांस और भारत के बीच की दूरी।
बुल्के साब बीते पांच दशकों से पचाना चाहते रहे यह उच्चारण, पचा नहीं। कुछ पढ़े लिखों की सोहबत में रेस्त्रां बोलना सीख गए पर होटलों के बोर्ड नहीं बदलवा पाए। अभी तक रेस्टॉरेंट पढ़ कर सुकून मिलता है।
बोया पेड़ बबूल का....
What is Indian food without paan (betel leaf). Paan is laced with kattha and slaked lime, betel nut, scented matter and scented tobacco (for those who like it) to make it more tasty. Kattha is made from boiling the stem of Acacia catechu which generally grows wild in Indian forests and is jealously guarded by the forest officials. The tree is allowed to be cut only after it attains maturity.
ReplyDeleteAcacia=Babool=Kikar
बुखार के समय मुझे विचित्र सपना आता है । दूध की बूँद बड़ी तेजी से बड़ी होती दिखायी पड़ती है । पता नहीं क्यों ? पर यदि दूध पर ब्लॉग आये तो समझ लीजियेगा कि बुखार में लिखा है ।
ReplyDelete@"इस लिये सही कहते भी हैं कि ब्लॉग पर अस्सी परसेण्ट कूड़ा है!"
ReplyDeleteएकदम गलत कहते हैं ! बेलगाम मन की हलचल श्रेष्ठ अभिव्यक्ति भी है ।
आप जब अपने से बतियाते होंगे, कितना खूबसूरत होता होगा वह ! स्वगत, पर जीवनगत ! व्यक्तिमत्ता के ऊंचे शिखर को छूता हुआ घोर निर्वैयक्तिक !
रह गया बांस और बंसुरिया, तो हमें तो गोविन्द भी प्रिय, उनकी बंसुरिया भी !
ब्लॉग पर अस्सी परसेण्ट कूड़ा है... ???
ReplyDeleteयह मान भी लें तो भी यह सिद्ध हो जाता है कि २० प्रतिशत कूड़ा नहीं है। आपका ब्लॉग तो निस्सन्देह चोटी के ब्लॉगों में शुमार है। इसलिए इस परिकल्पना का कोई आधार यहाँ नहीं है।
लगता है कि आजकल ’रैम्ब्लिग’ की बीमारी आयी हुई है.. इन कुछ दिनो मे मैने ऐसी कुछ पोस्ट्स पढी है और एक ठो ठेली भी है|
ReplyDeleteसच कहते है कि ८०% ब्लागजगत कूडा है..ऎट लीस्ट मेरा तो है... तभी तो इन्तजार करता रहता हू कि आप कब कुछ लिखेगे और हमे हमारी डोज़े मिलेगी...
@अजित वडनेरकर
यह उतना ही महत्वपूर्ण है जितनी फ्रांस और भारत के बीच की दूरी
मुझे लगता था की ऑन्त्रेपिन्योरशिप ’इटालियन’ ओरिजिन का शब्द है..बस आपके कमेन्ट के बाद गूगल बाबा से मदद ली और मेरे दिमाग की एक और पट्टी खुली..
http://answers.google.com/answers/threadview?id=368558
राम नवमी पर आपके शहर में क्या हुआ उस पर भी लिखें -- बबूल और नागफनी से देखिये
ReplyDeleteकितनी बातें निकल आयीं --
आशा है आप अब स्वस्थ हो गये होंगें
- लावण्या
सफेदा (यूकेलिप्टिस) को तो 'पानी का लालची' पेड कहा जाता है। यह तो दलदल कम करने में उपयोगी होता है। भारत में तो इसके दुष्प्रभाव ही सामने आए हैं।
ReplyDeleteबबूल, बांस, कौटिल्य, गोविन्द और जल्लदवा पढने से छोट गए थे पहले, अब कमी पूरी कर रहा हूँ. मुंह की तिक्तता का सम्बन्ध अच्छा जुड़ा बबूल से. BTW, नीलगिरी की तो सारी पर्वत श्रंखला युक्ल्प्तास के पेड़ों से घिरी है और जल से भरपूर है. मुझे नहीं लगता की मानव के अंधाधुंध जलदोहन का दोष एक बेचारे पेड़ पर पड़ना चाहिए.
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