भाई साहब, माफ करें, आप जो कहते हैं ब्लॉग में, अपनी समझ नहीं आता। या तो आपकी हिन्दी क्लिष्ट है, या फिर हमारी समझदानी छोटी। – यह मेरे रेलवे के मित्र श्री मधुसूदन राव का फोन पर कथन है; मेरी कुछ ब्लॉग पोस्टों से जद्दोजहद करने के बाद। अदूनी (कुरनूल, रायलसीमा) से आने वाले राव को आजकल मेरे ब्लॉग की बजाय तेलंगाना बनाम सम्यक-आंध्र की खबरों में ज्यादा दिलचस्पी होगी।
राव मेरा बैचमेट है, लिहाजा लठ्ठमार तरीके से बोल गया। अन्यथा, कोई ब्लॉगर होता तो लेकॉनिक कमेण्ट दे कर सरक गया होता।
मैं समझ सकता हूं, अगर आप नियमित ब्लॉग पढ़ने वाले नहीं हैं; अगर आप दिये लिंक पर जाने का समय नहीं निकाल सकते; तो पोस्ट आपके लिये ठस चीज लग सकती है। ठस और अपाच्य।
एक अपने आप में परिपूर्ण पोस्ट कैसे गढ़ी जाये? अगर आप एक कविता, सटायर या कहानी लिखते हैं तो परिपूर्ण सम्प्रेषण कर सकते हैं। पर अगर ऐसी पोस्टें गढ़ते हैं, जैसी इस ब्लॉग पर हैं, तो बेचारे अनियत प्रेक्षक (irregular gazer/browser) के लिये परेशानी पैदा हो ही जाती है।
ब्लॉग पर आने वाले कौन हैं - पाठक, उपभोक्ता या कोई और? पिछली एक पोस्ट पर पाठक या उपभोक्ता या ग्राहक शब्द को ले कर थोड़ी मतभेदात्मक टुर्र-पुर्र थी। गिरिजेश राव और अमरेन्द्र त्रिपाठी उपभोक्ता शब्द के प्रयोग से असहज थे। मेरा कहना था -
@ गिरिजेश राव -
उपभोक्ता शब्द का प्रयोग जानबूझ कर इस लिये किया गया है कि पाठक या लेखक शब्द के प्रयोग ब्लॉग पोस्ट को लेखन/पठन का एक्स्टेंशन भर बना देते हैं, जो कि वास्तव में है नहीं।
पोस्ट लिखी नहीं जाती, गढ़ी जाती है। उसके पाठक नहीं होते। क्या होते हैं - उपभोक्ता नहीं होते तो?! असल में ग्रहण करने वाले होते हैं - यानी ग्राहक।
अब मुझे लगता है कि ब्लॉग पर आने वाले पाठक या ग्राहक नहीं, अनियत प्रेक्षक भी होते हैं – नेट पर ब्राउज करने वाले। अगर आप अनियत प्रेक्षक को बांध नहीं सकते तो आप बढ़िया क्वालिटी का मेटीरियल ठेल नहीं रहे ब्लॉग पर।
शोभना चौरे जी ने अनियत प्रेक्षक का कष्ट बयान कर दिया है टिप्पणी में -
बहुत ही उम्दा पोस्ट। थोड़ा वक्त लगा समझने के लिये, पर हमेशा पढ़ूंगी तो शायद जल्दी समझ में आने लगेगा।
बहुत बहुत आभार।
और एक ब्लॉगर के रूप में हमारा दायित्व है कि स्वस्थ, पौष्टिक, स्वादिष्ट - सहज समझ आने योग्य सामग्री उपलब्ध करायें। मधुसूदन राव की उपेक्षा नहीं की जा सकती। हिन्दी की शुद्धता के झण्डे को ऊंचा किये रखने के लिये तो कतई नहीं।
पता नहीं मधुसूदन यह पोस्ट पढ़ेंगे या नहीं, पर पूरी सम्भावना है कि इसपर भी वही कमेण्ट होगा जो ऊपर उन्होने दिया है! :-(
पहली बार हुआ है। ग्लानि भी है।
ReplyDeleteदिमाग काम नहीं कर रहा।
सब टीवी पर एक सिरियल आता है सजन रे झूठ मत बोलो। इसी में एक कैरेक्टर है जो हमेशा अपनी बात कहने के लिये क्लिष्ट हिंदी का प्रयोग करता है। उसकी बात खत्म होने पर सब लोग भकुआए से उसे देखते हैं और उससे अपेक्षा करते हैं कि थोडा बरोबर समझा, अपने को समझ में नहीं आ रेला है।
ReplyDeleteतब जाकर उस कैरेक्टर को अपनी जबान थोडी आएला, गएला टाईप में बोलकर लोगों को समझाना पडता है कि उसका कहने का मतलब यह था।
ये तो एक फन सिरियल की बात थी, असल जिंदगी में भी लोग अब क्लिष्टता से तंग आ गये हैं। बैंक में जाओ तो आहरण पत्र, निषिद्ध प्रक्रिया आदि देख लगता है गुगल ट्रासलेटर गले में लटका कर चलना चाहिये :)
दूसरी ओर फ्रिक्वेसी मैचिंग की भी बात है। आप जिस भाव और संदर्भ में बात कर रहे हैं वह सामने वाले की फ्रिक्वेंसी से मैच होना चाहिये वरना कुछ का कुछ समझना निश्चित है। एक बानगी देखिये,
- अबकी आम नहीं रहे
- हां आम अब खास जो हो चुके हैं
- लेकिन आम न होने की कुछ वजह
- वजह क्या, सब प्रकृति का खेल है
- हां भई, कभी तूफान आते हैं, कभी बारिश ऐसे मे आम टिके भी तो कैस
- लेकिन प्रकृति भी अपना रूप दिखाती है। आप कितने भी आम से खास बन जाओ समय आने पर सबको आम बना देती है।
- आप किस खास और आम की बात कर रहें हैं।
- अरे भई, मैं आम आदमी की बात कर रहा हूँ...जो आम नहीं रहकर खास लोगों सी जीवनशैली अपना रहे हैं।
- और मैं आम की बात कर रहा हूँ जो कि इस साल तूफान और बारिश की वजह से नहीं रहे :)
यह तो ब्लोग मालिक को भी बताना चाहिये उस्को अपने ब्लोग पढ्ने वाले क्या लगते है -पाठक,उपभोक्ता या कुछ और
ReplyDeleteक्लिष्ट हिंदी पढने में थोड़ी असुविधा होती तो है ....कुछ समय ज्यादा लगता है समझने में...मगर एक बहुत बड़ा फायदा भी कि दिनों दिन नए शब्द सीखने को मिल जाते हैं ....ब्लॉग पढने वाले तो पाठक ही होते हैं ....हाँ ... सहमत और असहमत हो सकते हैं....
ReplyDeleteहमें तो यह पोस्ट समझ नहीं आयी, ज़रा सरल हिन्दुस्तानी में समझाइये. यह बीच-बीच में टिप्पणी आदि के डाईवर्शन जो रखें हैं उन्हें भी हटाकर सरल संक्षिप्त कहें तो ज्यादह ठीक रहेगा. यह अनियत और gazer का अर्थ भी सचित्र बताने की किरपा करे. और हाँ, browser से आपका तात्पर्य क्रोम से है या सफारी से?
ReplyDeleteलिखने वाले के साथ यह परेशानी तो रहती है....अपनी शैली में लिखे या केवल बोल चाल की भाषा में लिखे....मेरी कुछ मराठी और दक्षिण भारतीय सहेलियां हैं....बड़े शौक से मेरी पोस्ट्स पढ़ती हैं..या शायद कोशिश करती हैं,पढने की...पर हमेशा शिकायत करती हैं..क्यूँ ऐसे कठिन शब्दों का प्रयोग करती है...पा हम भी कैसे मोह त्याग दें कुछ उपयुक्त शब्दों का...मन का यह द्वंद्व शायद हमेशा चलता रहेगा.
ReplyDeleteसच कहूं ,मैं तो आज तक खुद अपने बारे में समझ नही पाया की अमिन दरअसल क्या हूँ उपभोक्ता ,पाठक या फिर ग्राहक !
ReplyDeleteकोई और कोटि नही हो सकती जी ज्ञान जी ? बतरस लालच लाल की मुरली दियो छिपाय ......
मेरा तो इकलौता विचार रहा है कि
ReplyDeleteयदि आप जिज्ञासु हैं
तथा
कहीं आंग्ल भाषा का पहले न देखे-पढ़े गए शब्द के लिए घर-ऑफिस में शब्दकोष पलट सकते हैं तो हिन्दी के किसी शब्द के लिए क्यों ऐसा नहीं कर सकते?
अपभ्रंश हालांकि अपवाद हैं।
आखिर शब्दकोश होते क्यों हैं? वाचनालय की शोभा बढ़ाने के लिए?
समझ और सहजता के नाम पर ही शायद अन्य भाषाओं का प्रचलन अपना कर हम अपने आप को कई झंझटों से मुक्त समझने लगते हैं, शुतुरमुर्ग जैसे
बी एस पाबला
एक अपने आप में परिपूर्ण पोस्ट कैसे गढ़ी जाये? अगर आप एक कविता, सटायर या कहानी लिखते हैं तो परिपूर्ण सम्प्रेषण कर सकते हैं.........
ReplyDeleteलेखन के लिए यह महत्वपूर्ण और विचारणीय बिंदु हो सकता है.
आप जो कहते हैं ब्लॉग में, अपनी समझ नहीं आता। या तो आपकी हिन्दी क्लिष्ट है, या फिर हमारी समझदानी छोटी----
ReplyDeleteयह समस्या तो कइयों के साथ है.
"एक ब्लॉगर के रूप में हमारा दायित्व है कि स्वस्थ, पौष्टिक, स्वादिष्ट - सहज समझ आने योग्य सामग्री उपलब्ध करायें"
ReplyDeleteमैं आपसे सहमत हूँ , और आपका लगभग नियमित पाठक हूँ ! स्मार्ट इन्डियन से चौकन्ना रहें :-)..
@ वैसे गिरिजेश राव जी बात में भी दम है.
ReplyDeleteपोस्टे ब्लाग लेखक का उत्पादन ही है। उसे उस को श्रेष्ठ और सुगम बनाना ही चाहिए। पाठक उपभोक्ता भी है।
ReplyDeleteकुछ भी कहने में असमर्थ.
ReplyDeleteमैं तो स्मार्ट इन्डियन जी की बात से सहमत हूँ क्या कहें जी हमे भी सरल हिन्दी म और सरल शैली मे ही समझ आता है धन्यवाद्
ReplyDeleteदेव !
ReplyDeleteमैंने आपकी पोस्ट पढी और पूर्वोक्त टिप्पणियाँ भी ..
शब्द-प्रयोग पर कोई क्या विचार रखेगा पर कुछ
जो अब तक समझता आया हूँ , रखना चाहता हूँ ---
.................................
शब्दों के साथ दुहरा दायित्व जुड़ा होता है , प्रयोग करते वक़्त ..
१--- शब्द के परंपरागत अर्थ को रखना , और
२--- प्रयोक्ता द्वारा नया अनुभव , नयी संवेदना और एक हद तक अछूता
अर्थ को प्रयुक्त शब्द में समाहित करने का दवाव ..
----------- इन दोनों के बीच हमें सम्प्रेषण का दवाव भी उठाना पड़ता है , कदाचित
इसीलिये सृजन यंत्रणाभरी क्रिया के रूप में देखा गया है , जैसा अज्ञेय कह चुके हैं .. इसी के
साथ हमें 'सहज-अर्थ-बोध' और सब्द की सांस्कृतिक-संगति भी बिठानी होती है .. इसीलिये
नव-शब्द-प्रयोग अपनी चमक के साथ ग्रहण-जन्य 'खटकन' ( असहजता ) से बचा होना चाहिए ..
.... सच कह रहा हूँ मैं स्वयं भी इन पैमानों पर कितना खरा उतरता हूँ , आत्मविश्वास से नहीं कह सकता
पर कोशिश जरूर करता हूँ ..
अस्तु , असहजता की शिकायत को सहजता से लिया जाय तो भाषा के साथ कुछ असहज नहीं होगा ..
इसलिए मतभेद तो होना चाहिए पर ' टुर्र - पुर्र ' या ' लाग-डाट' नहीं ..
अगर कुछ गलत कहा तो क्षमा - प्रार्थी हूँ .. जिससे उम्मीद रखी जाती है , कहा भी उसी से जाता है ..
........................................
अब पूर्वोक्त टिप्पणियों पर ...
@ सतीश पंचम
आप अपनी बात को सीधे-सीधे रखें तो उत्तम , वह ( फ्रीक्वेंसी न मिला पाने वाला ) जवाब तो दे ...
जहाँ तक आपसे 'फ्रीक्वेंसी' मिल रही है उसके अनुसार कहना चाहता हूँ ---
........ आँख मूंद कर फ्रीक्वेंसी क्यों मिलाई जाय ? , आप-सी और आपसी !
@ बी एस पाबला
कसरत करने का समर्पण कौन करता है यहाँ , अधिकांश तो
भाषा की कतरन में उल्लू सीधा करते हैं ..
आप ऐसा सोचते हैं , जानकार अच्छा लगा ..
१) मैं यहां अनियत नहीं हूं, इसलिये आपकी ब्लॉग पोस्ट समझने में कोई कष्ट नहीं है.:o) जिस दिन कायदे से पीसी ऑन करने का भी समय नहीं होता, तब भी कैसे भी करके आपकी पोस्ट जरूर पढ़ लेता हूं और जब सिर्फ़ पोस्ट पढ़ने भर का समय होता है तो कमेन्ट भी छोड़ देता हूं.
ReplyDelete२) कविता, कहानी आदि लिखना सही अर्थों में "ब्लॉगिंग" नहीं है. अपनी प्रतिभा के प्रदर्शन के लिये एक और मंच का जुगाड़ करना भर है. सही ब्लॉगिंग वही है जो इस ब्लॉग पर देखने को मिलती है. अपने मन के भावों और विचारों का उचित रूप से सम्प्रेषण.
३) पाठक पर निर्भर करता है कि वह किस ब्लॉग को कितना समय खर्च करने लायक मानता है.
४) आप सभी को एक साथ सन्तुष्ट नहीं कर सकते.सन्तुष्टों की संख्या असंतुष्टों से अधिक रहे, यही काफ़ी है.
५) शब्दों को लेकर बहस बेमानी है. वैसे मुझे लगता है कि उपभोक्ता में कुछ गलत नहीं है. आपके ब्लॉग की लगभग हर पोस्ट से कुछ सीखने को मिलता है. प्राप्त जानकारी का उपभोग करूं और उपभोक्ता ना कहलाऊं, ऐसा कैसे हो सकता है?
अंग्रेजी में आम कथन होता है. "....then I am not buying this." यहां कहने वाले का आशय है कि मैं आपके तर्क को मानने को तैयार नहीं हूं.
६) हिंदी ब्लॉगिंग में कम होंगे जो ब्लॉगिंग को आपसे ज्यादा गम्भीरता से लेते होंगे. इसीलिये इतना विचारपूर्ण लेखन इस विषय पर.
-----------------------
क्या हिडन मैसेज ये है कि मेरे नियमित पाठक बनें. :o)
@ घोस्ट बस्टर > क्या हिडन मैसेज ये है कि मेरे नियमित पाठक बनें. :o)
ReplyDelete---------
नहीं। कम से कम पोस्ट लिखते समय तो यह नहीं था।
पर अनियत पाठक को नियमित बनाने का कोई तरीका तो होना चाहिये।
pahali bar puri post or comment khamakha me padh gaya kuch samaj me nahi aaya
ReplyDeleteडा. महेश सिन्हा की टिप्पणी -
ReplyDeleteअनियत प्रेक्षक की जगह अनियमित भ्रमर कैसा रहेगा . उपभोक्ता की जगह चिट्ठा भ्रमर!
@ अमरेन्द्र जी,
ReplyDeleteआँख मूंद कर फ्रीक्वेंसी क्यों मिलाई जाय ?
अमरेंन्द्र जी, मैं यहाँ आंख मूंद कर फ्रिक्वेंसी मिलाने को नहीं कह रहा बल्कि फ्रिक्वेंसी मैंचिंग की बात कर रहा हूँ कि यदि सामने वाला किसी बात को अपने अनुभवों या आपबीती की वजह से किसी चीज को एक विशिष्ट नजरिये से देखता है और यदि आप वही चीज किसी दूसरे नजरिये से देखते हैं तो दोनों के समझ में एक अंतर होता है और यह अंतर ही किसी वाद विवाद या कहें कि Communication Gap का काम करता है। और ऐसे में अर्थ का अनर्थ समझ लिया जाय तो आश्चर्य कैसा :)
विचार संप्रेषण के एक सजीव माध्यम के रूप में ब्लॉग का स्वरूप अन्य माध्यमों जैसे टीवी, अखबार, पत्र, पत्रिका आदि से अलग तो होना ही है। इसमें लिंक्स की सुविधा और आदान-प्रदान का रास्ता मिला हुआ है तो उसका प्रयोग करना सर्वथा उचित है। इस या उस माध्यम से तुलना करके इसमें खोट निकालना ठीक नहीं है।
ReplyDeleteभाषा के ऊपर शुद्धतावादियों और कामचलाऊवादियों का मतवैभिन्य समाप्त नहीं होने वाला। रचनात्मक लेखन करने वाले अपनी एक खास भाषा और शैली के लिए पहचाने जाते हैं। ऐसी ही अलग-अलग विशिष्ट पहचान इस ब्लॉगजगत में स्थापित कुछ मूर्धन्य महारथियों की भी है। इनमें से एक आप भी हैं। इसे यूँ ही बनाए रखिए।
@सतीश पंचम जी ,,,
ReplyDeleteधन्यवाद पक्ष रखने का ..
सामान्य ढंग से सहमत हूँ आपसे , पर विवेच्य पोस्ट के
सन्दर्भ में क्रीक्वेंसी - मैचिंग का कोई विशेष संकेत तो
होना ही चाहिए ! .... , जहाँ स्पष्ट संकेत हो पोस्ट में ... आपकी सहमति
और असहमति वहां कैसी है ... क्या विवेच्य पोष्ट के सन्दर्भ में 'मैचिंग-क्राइसिस' की बात
समीचीन होगी ...
या फिर सांप भी मर जाय और लाठी भी न टूटे :)
हम उसी भाषा में लिख सकते हैं जिसमें लिखने की हमें आदत है, जिसमें हमारे विचार अपने आप बनकर बाहर आते हैं। किसी की सुविधा के अनुसार लिखने से भाषा थोड़ी नकली सी भी लगने लगती है। जो शब्द बार बार उपयोग में आते हैं वे ही नियमित भाषा बन जाते हैं। नेट पर आने से मैंने कई उर्दु शब्द सीखे हैं, कुछ आँचलिक भी। यदि लेखन रोचक है और पाठक को पढ़ना और विषय पसन्द है तो वह पढ़ेगा ही। प्रायः जिन्हें पढ़ना पसन्द नहीं, या हिन्दी पढ़ना पसन्द नहीं वे क्लिष्टता आदि की बातें करने लगते हैं।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
@ अमरेन्द्र जी,
ReplyDeleteविवेच्य पोस्ट के
सन्दर्भ में फ्रीक्वेंसी - मैचिंग का कोई विशेष संकेत तो
होना ही चाहिए ! .... ...
क्या विवेच्य पोष्ट के सन्दर्भ में 'मैचिंग-क्राइसिस' की बात
समीचीन होगी ...
-----------------------
अमरेन्द्रजी, ये है पोस्ट की पहले पैराग्राफ की लाईनें जिनमें फ्रिक्वेंसी मैचिंग की बात आती है।
भाई साहब, माफ करें, आप जो कहते हैं ब्लॉग में, अपनी समझ नहीं आता। या तो आपकी हिन्दी क्लिष्ट है, या फिर हमारी समझदानी छोटी। – यह मेरे रेलवे के मित्र श्री मधुसूदन राव का फोन पर कथन है; मेरी कुछ ब्लॉग पोस्टों से जद्दोजहद करने के बाद। अदूनी (कुरनूल, रायलसीमा) से आने वाले राव को आजकल मेरे ब्लॉग की बजाय तेलंगाना बनाम सम्यक-आंध्र की खबरों में ज्यादा दिलचस्पी होगी।
एक ओर तो श्री मधुसूदन राव जी का कथन कि उन्हें यहां का ब्लॉग समझ नहीं आता, या तो हिंन्दी क्लिष्ट है या फिर समझदानी छोटी। तो दूसरी ओर ज्ञानजी का कथन है कि श्री राव को शायद मेरे ब्लॉग की बजाय तेलंगाना बनाम सम्यक आंध्र की खबरों में ज्यादा दिलचस्पी होगी।
और यही वह पॉइंट है जिस पर फ्रिक्वेंसी मैंचिंग की बात आती है।
बाकी तो हम सब फ्रिक्वेंसी के नाम पर .. हलो चार्ली वन टू थ्री बोल कर ओवर कह देते हैं और उधर चार्ली ने अपने सेट में बैटरी ही नहीं डाली होती :)
फ्रिक्वेंसी मैच हो तो कैसे :)
आप की पोस्ट चार बार पढी, लगता है हमारी समझदारी( अकल दानी ) फ़ेल हो गई है, कुछ समझ मै नही आया
ReplyDeletenice
ReplyDeleteजितने भी ग्रन्थ लिखे गये हैं भारतीय संस्कृति में, सबकी एक मूलभूत विशेषता रही है । सबके प्रारम्भ में यह बता दिया जाता है कि किस विषय को उठाया गया है, उसको पढ़ने के बाद आपको क्या लाभ होगा और कौन उसे पढ़ने की योग्यता रखते हैं । यदि आप योग्य हैं और उस विषय को पढ़ने के इच्छुक हों तभी आगे बढ़ें नहीं तो अपना समय व्यर्थ ना करें ।
ReplyDeleteब्लॉग जगत में आपकी पोस्ट पढ़ने आने वाले सभी पाठक (आप उन्हें कुछ भी कहें) आपकी ’मानसिक हलचल’ जानने की इच्छा रखते हैं । औरों के विचार और टिप्पणियाँ यदि उसी फ्रेक्वेंशी की हों तो सम्पूर्ण पाठन ’मानसिक अनुनाद’ होगा । यह अनुनाद भी अन्य लोगों को आपके पास लाता है ।
@ श्री सतीश पंचम > एक ओर तो श्री मधुसूदन राव जी का कथन कि उन्हें यहां का ब्लॉग समझ नहीं आता, या तो हिंन्दी क्लिष्ट है या फिर समझदानी छोटी। तो दूसरी ओर ज्ञानजी का कथन है कि श्री राव को शायद मेरे ब्लॉग की बजाय तेलंगाना बनाम सम्यक आंध्र की खबरों में ज्यादा दिलचस्पी होगी।
ReplyDeleteऔर यही वह पॉइंट है जिस पर फ्रिक्वेंसी मैंचिंग की बात आती है।
इस पर मैने यह मेल से जवाब दिया है उन्हे (अंग्रेजी में है, कृपया क्षमा करें):
That is correct! Rao's and mine field interests do not match. But we have to get such man also hooked to blog. How, I do not know. For instance, if I write Railways, if I put in sarkari gossip, I might catch some irregular grazers. But that does not sound very good.
But I cant ignore irregulars, that's the point.
nice
ReplyDelete:)
मधुसूदन राव जी को धैर्यपरीक्षा देनी चाहिए. धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा.
ReplyDeletenice :-)
ReplyDeleteयहाँ भी देखें
http://blogonprint.blogspot.com/2010/01/blog-post_10.html
बी एस पाबला
अगर आप अनियत प्रेक्षक को बांध नहीं सकते तो आप बढ़िया क्वालिटी का मेटीरियल ठेल नहीं रहे ब्लॉग पर।
ReplyDeleteमैं आपसे पूरी तरह सहमत हूँ
क्लिष्ट हिन्दी और सरल हिन्दी के बीच तो मैं खुद फंसी हूँ
एक तरफ पिता तो दूसरी तरफ पति.........
मुझे तो डबल मज़ा आया। एक पोस्ट पढ़ने में डबल का मज़ा। आम के आम गुठलियों के दाम।
ReplyDeletegazer ,यानि कि one who gaze मतलब जो देखता है और browser means one who browse ये तो शायद इनके शाब्दिक अर्थ हुए ।जहां तक अनियमित पाठकों को नियमित करने की बात है तो अभी तो हिंदी ब्लोग्गिंग उसी स्थान पर है शायद जहां नियमितता पारस्परिकता से ही आ रही है , एक आध या कुछ उससे ज्यादा को अपवाद माना जाए तो । खैर देर सवेर ये तो होगा ही
ReplyDeleteअजय कुमार झा
आप हम जैसों को क्या कहेंगे?
ReplyDeleteहम ब्लॉग लिखते तो नहीं (एकाद अतिथि पोस्ट छोडकर)
हिन्दी में नियमित रूप से केवल आपका का ब्लॉग पढ़ता हूँ।
कभी कभी जब आप कडी देते हैं तो सन्दर्भ समझने के लिए वहाँ जाता हूँ।
हफ़्ते में एक या दो बार, समयनुसार अन्य मित्रों के ब्लॉग पर समय बिताता हूँ।
आप शायद हमें एक वफ़ादार पाठक कहेंगे, और लोग तो "अनियमित भ्रमर" ही समझेंगे।
जो भी हो, हम अपने आपको "उपभोक्ता" नहीं समझेंगे।
न ही आपको कोई Supplier समझता हूँ।
हम यहाँ शौक से आते हैं, किसी आवशयकता के कारण नहीं।
जाते जाते कुछ विचार:
श्री राव का आपका ब्लॉग न पढ़ना आपके लिए अच्छा है।
मेरी राय में दफ़्तर वाले यहाँ न पधारे, वह अच्छा ही है।
उन्हें आमंत्रण न करना ही आपके लिए अच्छा रहेगा।
मानसिक हलचल को एक अलग संसार मानिए और इसे सरकारी काम से न जोडिए।
शशी थरूर की कहानी आप क्यों दुहराना चाहते है?
अपने ट्वीट में उसने काफ़ी कुछ बक दिया और मुसीबत में फ़ँस गया।
यदि ट्वीत करना ही था और वह भी नि:संकोच होकर, तो किसी और नाम से करना चाहिए था।
आप सरकारी अफ़सर हैं और आशा करता हूँ कि कभी यहाँ अपने विचार व्यक्त करने पर, आपको career में कोई परेशानी नहीं होगी। क्या सरकार की establishment manual, code of conduct, वगैरह, आपको ब्लॉग लिखने की अनुमति देती है?
आज अचानक यह खयाल मेरे मन में आया।
शुभकामनाएं
जी विश्वनाथ
हमारी समस्या दूसरी थी। हमें लगता है कि जो आप लिखते हैं हमें उससे ज्यादा समझ में आ जाता है। शुरु से अभी तक आपकी कौनौ पोस्ट नहीं है जो हमारे समझ में न आई हो। वो nice वाला कमेंट का मतलब यही था। बाद में सोचा कि हम आपकी पोस्ट समझ गये हैं तो टिप्पणी ऐसी क्यों करें जिसे आपको समझने में मेहनत करनी पड़ी और झूट्ठै आपको यह भ्रम हो कि हम आपको या सुमनजी को टिप्पणी के मामले में महाजन मानकर अनुसरण कर रहे हैं।
ReplyDeletenice वाली चिरकुट टिप्पणी को निरस्त माना जाये।
मुझे सिर्फ़ एक बात पूछनी है..ग्राहक या ग्राहिका?? :) हा हा
ReplyDeleteहम तो अभी-अभी नये-नये पाठक, मेरा मतलब है ग्राहक बने हैं इस "मानसिक हलचल", लेकिन फिर भी तमाम हलचल बड़ी सहजता से हमारे भेजे में समा जाता है।
ReplyDeleteशेष अमरेन्द्र जी की टिप्पणी एक नया आयाम तो दे रही है इस बहस को, यदि इसमें बहस की कोई गुंजाईश है तो...
कुछ घंटों से बाहर था अतः पक्ष रखने देर से आ सका , अफ़सोस है मुझे , फिर भी ---
ReplyDelete@ सतीश पंचम जी
विवेच्य पोस्ट में ' उपभोक्ता ' पर जो दो लोग 'फ्रीक्वेंसी-मैचिंग-क्राइसिस' (आपके सिद्धांतानुसार कहूँ तो) के
शिकार हैं , उनपर आप कुछ बोलेंगे , ऐसी मैं उम्मीद करता था ... क्योंकि
विवेच्य पोस्ट पर इन्हें ' असहज ' होते पाया/रखा गया है .. पर आप तो ' मधुसूदन राव जी का कथन '
वसाने लगे ..
चलिए 'फ्रीक्वेंसी' नहीं मिल पायी आपसे , मान लिया , :)
कहावत बदल कर फिर रख रहा हूँ ---
' सांप भी मर जाय और लाठी भी न खुनाये ' :)
अब यदि अपन डेविल्स एडवोकेट बनें तो यही कहेंगे कि क्लिष्ट हिन्दी का भी एक उपयोग है, उससे भी एक ध्येय सिद्ध होता है। आम सरल हिन्दी रोज़मर्रा के लफ़्फ़ाज़ आदि तो हर कोई समझ लेता है लेकिन भाषा पर पकड़ मज़बूत होनी चाहिए, तो ऐसा पढ़ने से उसी का अभ्यास होता है, तो काहे उससे भागा जाए!! ;)
ReplyDeleteअप चाहे जो निर्धारण कर लें, ब्लॉग पढनेवाला 'पाठक' ही होगा, उपभोक्ता नहीं। 'उपभोग' में भौतिकता आवश्यक होती है। 'ब्लॉग पोस्ट' का 'आनन्द' लिया जा सकता है, उपयोग किया जा सकता है, 'उपभोग' नहीं। वैसे, 'बहस' 'पैदा करने' या 'बढाने' के लिए आपका प्रयास निस्सन्देह प्रशंसनीय ही है।
ReplyDeleteयदा कदा मेरे मस्तिष्क में विचार उत्पन्न होते हैं कि काश सभी केवल शुद्ध संस्कृत पर आधारित क्लिष्ट हिन्दी का प्रयोग करें। हमसे नही होती तो क्या हुआ। अन्य लेखकों से ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं।
ReplyDeleteशुभकामनाएं
गोपालकृष्ण विश्वनाथ, जयप्रकाश नायायण नगर, बेंगळूरु
"यही तो मानवीय मूल्यों का सर्वोपरि अवलोकन है जो मानव को मानव से दानव बनाने के लिए स्वतः प्रेरित करता है. यही तो वह शाश्वत प्रलोभन है जिसका संशोधन करना है. जैसे पुष्प ही पुष्प की अन्तःतवचा में उद्वेलित होता है. शाश्वत प्रलोभन ही भ्रष्टाचार जनता है और उससे वह प्रभावित होता है जो सा नि वि का अधिशासी अभियंता है."
ReplyDeleteमहान विचारक और समझशास्त्री श्री सिद्धू जी महाराज क्लिष्ट शब्दों के प्रयोग पर ऐसा कहते हैं.
Sach kahun to aapki is post ne mujhe bahut kuchh sochne ko baadhy kar diya hai...
ReplyDeletebilkul sahi kaha aapne...
एक ब्लॉगर के रूप में हमारा दायित्व है कि स्वस्थ, पौष्टिक, स्वादिष्ट - सहज समझ आने योग्य सामग्री उपलब्ध करायें। मधुसूदन राव की उपेक्षा नहीं की जा सकती। हिन्दी की शुद्धता के झण्डे को ऊंचा किये रखने के लिये तो कतई नहीं।
grahak shabd ki vyakhya adbhud ki hai aapne....
राव साहब को पोस्ट समझ नहीं आती या क्लिष्ट भाषा के कारण पोस्ट समझ नहीं आती यह स्पष्ट नहीं हुआ. कौन से शब्द क्लिष्ट हैं और कौन से नहीं यह भी विवाद हो सकता है.क्या 'फूल' को 'पुष्प' लिखना या 'बढ़िया' को 'उत्तम' लिख देना क्लिष्ट भाषा का प्रयोग कहा जाएगा ? हाँ पोस्ट की विषय वस्तु को ग्रहण कर पाना या न कर पाना भिन्न भिन्न व्यक्तियों की रुचि या रुझान पर निर्भर करेगा.
ReplyDeleteब्लॉग पर आने वाला क्या होता है ये तो नहीं पता लेकिन हाँ इतना कहूँगा कि कुछ आने वाले... जो ब्लॉगर नहीं हैं... वो इसलिए आपके ब्लॉग पर नहीं आते कि बदले में आप टिपण्णी चाहिए. वो बस इसीलिए आते हैं क्योंकि उन्हें कुछ अच्छा लगता है आपके ब्लॉग पर. उन्हें हिंदी ब्लॉग्गिंग में होने वाले मूर्खतापूर्ण विवादों से कोई लेना देना नहीं. उनमें से कभी कोई आपको एक ईमेल डाल जाता है कि आपका ब्लॉग उसे बहुत अच्छा लगता है. उनमें से कई इतना भी नहीं करते... मैं ऐसे २-४ लोगों के लिए ही कभी-कभार पोस्ट लिख देता हूँ. बाकी कौन हैं पता नहीं !
ReplyDeleteघोस्टबस्टर जी ठीक कहते हैं !!
ReplyDeleteपाइंट २ से लेकर ६ तक उनसे शब्दशः सहमत !!
यह तो ब्लोग मालिक को भी बताना चाहिये उस्को अपने ब्लोग पढ्ने वाले क्या लगते है -पाठक,उपभोक्ता या कुछ और
ReplyDelete