Monday, January 24, 2011

कल्लू का बिजूका


अरविन्द वहीं था, गंगा किनारे अपने कोन्हड़ा-नेनुआ के खेत पर। अब वह मुझे पहचानने लगा है; सो दूर से ही उसने नमस्ते करी। मैं उसकी ओर मुड़ा तो बोला - जरा बच के आइयेगा। नीचे नेनुआ के पौधे हैं। पिछले दिनों की सर्दी से पनपे नहीं। वास्तव में नीचे सम दूरी पर जरा-जरा से पौधे थे। मैं बच कर चलने लगा।

अरविन्द पौधे के पास फावड़े से रेत खोद रहा था। उसमें गोबर की खाद मेरे सामने ही बिछाई। बोला - इसपर एक गिलास यूरिया डाल कर समतल कर देंगे और उसके बाद बस सिंचाई ही करनी है।

DSC02986 (Medium)

पहले वह मुझसे कहता था - क्या करें बाबूजी, यही काम है। पर अब वह मुझसे परिचय होने पर खुल गया था और बेहतर आत्मविश्वास में लगा - इस काम में मजूर भी लगा दें तो आधा-तीहा काम करेंगे। पता भी न चलेगा कि खाद पूरी डाली या नहीं। अब खुद के पास समय है तो मेहनत करने में क्या जाता है? 

[पूरी पोस्ट वर्डप्रेस वाले ब्लॉग पर यहां पढ़ें।


4 comments:

  1. अरविंद से दोस्ती हो गई ... अब पौधों से भी होगी और उसका वर्णन भी आगे पढ़ने को मिलेगा, ऐसी आशा है ॥

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  2. बहुत अच्छी लगी यह दोस्ती, अब पाण्डा को इन गड्डो से दिक्कत हे, क्या यह पांडे कभी सडक पर नही चले जहां सडक कम ओर गड्डॆ ज्यादा हे:)चित्र भी बहुत सुंदर. धन्यवाद

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--- सादर, ज्ञानदत्त पाण्डेय