tag:blogger.com,1999:blog-7822286262846371486.post5021864970338474827..comments2024-03-15T04:14:04.408+05:30Comments on मानसिक हलचल: कोंहड़ौरी (वड़ी) बनाने का अनुष्ठान – एक उत्सवGyan Dutt Pandeyhttp://www.blogger.com/profile/05293412290435900116noreply@blogger.comBlogger7125tag:blogger.com,1999:blog-7822286262846371486.post-7740349949333779002011-04-10T00:18:20.191+05:302011-04-10T00:18:20.191+05:30वाह ज्ञान जी! क्या बात है . यह है हमारा देशज जीवनब...वाह ज्ञान जी! क्या बात है . <br><br>यह है हमारा देशज जीवनबोध ,हमारा सांस्कृतिक रसबोध और परम्पराप्रदत्त मांगलिकता व नैतिकता का बोध . सब कुछ उस साधारण सी दिखने वाली पारिवारिक किंतु बेहद ज़रूरी गतिविधि में समाया हुआ . यही तो है जीवन की सहज कविता .<br><br> यह उस हाट-बाज़ार को भी अपने स्थान पर रहने की हिदायत होती थी जो घर की ओर बढता दिखता था. बाज़ार अपनी जगह पर रहे . ज़रूरत होने पर हम बाज़ार जाएं, पर बाज़ार हमारी ओर क्यों आए . <br><br>आपको बहुत-बहुत बधाई! साधुवाद! .Gyan Dutt Pandeyhttps://www.blogger.com/profile/05293412290435900116noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7822286262846371486.post-16194577080427021962010-10-16T17:57:21.304+05:302010-10-16T17:57:21.304+05:30अच्छा! ये लिंक-विथिन का विजेट हाल के कुछ महीनों की...अच्छा! ये लिंक-विथिन का विजेट हाल के कुछ महीनों की ही पोस्टें दिखाता रहता है. इसी चक्कर में घूम-फिरकर वही पोस्टें सामने आती रहीं. अब सिलसिलेवार पढ़ने से पता चल रहा है कि जिन्हें पुरानी पोस्टें समझ के पढ़ते आ रहे थे वे कुछ ख़ास पुरानी नहीं हैं.<br />और आपके चिट्ठे की विकास यात्रा देखना रोचक है. पुराने संवाद पढने से जानकारी भी बढ़ रही है. आपके ब्लौग के साथ उन्मुक्त जी का ब्लौग भी इसी तरह पढूंगा.<br />आपने अपना ब्लौगर फेव-आइकन कई बार बदला है:)निशांत मिश्र - Nishant Mishrahttps://www.blogger.com/profile/08126146331802512127noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7822286262846371486.post-25561861226483233372007-06-04T12:02:00.000+05:302007-06-04T12:02:00.000+05:30जनजीवन के सहज उत्सवधर्मिता और सहकार को आपने वैसी ह...जनजीवन के सहज उत्सवधर्मिता और सहकार को आपने वैसी ही सहजता से बताया है. बडियां तो अब मेरे यहां नहीं बनती, लेकिन खिचडी के पहले तिलवा, तिलई बनाने, गन्ने की पिराई के बाद गुड बनाने और पूजा के लिए चक्की से आटा पिसने का कुछ ऐसा ही आयोजन होता है.विशाल सिंहhttps://www.blogger.com/profile/09223766680957676922noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7822286262846371486.post-4119843547513886572007-04-14T00:32:00.000+05:302007-04-14T00:32:00.000+05:30बहुत बढ़िया ! वैसे ये काम आज भी होते हैं, शहरों में...बहुत बढ़िया ! वैसे ये काम आज भी होते हैं, शहरों में नहीं पर छोटे कस्बों में होते हैं । अभी कुछ वर्ष पहले तक मैं, साबूदाने, चावल, मैदे, आलू आदि की वड़ियाँ , जो तल कर खाने के काम आती हैं व आलू के चिप्स आदि बनाती थी । सबकुछ समय , स्वास्थ्य , खाने वालों व सुखाने के लिये जगह आदि पर निर्भर करता है । आज भी अचार बनते हैं , बच्चों के लिए छात्रावास के लिये तरह तरह की चीजें बनाकर भेजी जाती हैं । <BR/>आज भी शिवरात्रि व जन्माष्टमी पर चौलाई के लड्डू व नाना प्रकार के व्यंजन बनते हैं , बस खाने वाले नहीं होते हैं । <BR/>घुघूती बासूतीghughutibasutihttps://www.blogger.com/profile/06098260346298529829noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7822286262846371486.post-78137574461682508952007-04-14T00:09:00.000+05:302007-04-14T00:09:00.000+05:30पांडे जीबस दिन बना दिया आपने. बहुत दिन बाद ऐसी रसस...पांडे जी<BR/>बस दिन बना दिया आपने. बहुत दिन बाद ऐसी रससिक्त रचना पढ़ी.आप कुछ दिनों की चुप्पी के बाद आए, क्या ख़ूब आए. हमारी अम्मा के 80 के दशक के अंत तक बनाती थीं, पेठा हम काटते थे और दिन भर कौव्वे उड़ाने के बहाने छत पर पतंग उड़ाते थे...कोंहडौरी नहीं...सब कुछ गया तेलहंडे में.<BR/>बहरहाल, जब तक आप जैसे लोग हैं उन दिनों की याद यूँ ही ताज़ा होती रहेगी.<BR/>साधुवाद.अनामदासhttps://www.blogger.com/profile/06852915599562928728noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7822286262846371486.post-21233521740443651522007-04-13T11:42:00.000+05:302007-04-13T11:42:00.000+05:30भैया प्रियंकर जी, आप तो इतनी प्रशंसा करे दे रहे है...भैया प्रियंकर जी, आप तो इतनी प्रशंसा करे दे रहे हैं कि कहीं हमें लेखक होने की गलतफहमी न हो जाये. देश के आर्थिक विकास के माड़ल को लेकर हममें मत भेद हो सकते हैं - पर उतना तो दो सोचने वाले लोगों में होना भी चाहिये!ज्ञानदत्त पाण्डेय/Gyandutt Pandeyhttps://www.blogger.com/profile/18092653978315968090noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7822286262846371486.post-62579353474787753032007-04-13T11:21:00.000+05:302007-04-13T11:21:00.000+05:30वाह ज्ञान जी! क्या बात है . यह है हमारा देशज जीवनब...वाह ज्ञान जी! क्या बात है . <BR/><BR/>यह है हमारा देशज जीवनबोध ,हमारा सांस्कृतिक रसबोध और परम्पराप्रदत्त मांगलिकता व नैतिकता का बोध . सब कुछ उस साधारण सी दिखने वाली पारिवारिक किंतु बेहद ज़रूरी गतिविधि में समाया हुआ . यही तो है जीवन की सहज कविता .<BR/><BR/> यह उस हाट-बाज़ार को भी अपने स्थान पर रहने की हिदायत होती थी जो घर की ओर बढता दिखता था. बाज़ार अपनी जगह पर रहे . ज़रूरत होने पर हम बाज़ार जाएं, पर बाज़ार हमारी ओर क्यों आए . <BR/><BR/>आपको बहुत-बहुत बधाई! साधुवाद! .Anonymousnoreply@blogger.com