tag:blogger.com,1999:blog-7822286262846371486.post4041509778670006793..comments2024-03-15T04:14:04.408+05:30Comments on मानसिक हलचल: दिहाड़ी मजदूरGyan Dutt Pandeyhttp://www.blogger.com/profile/05293412290435900116noreply@blogger.comBlogger16125tag:blogger.com,1999:blog-7822286262846371486.post-60351417935716790892008-02-22T06:57:00.000+05:302008-02-22T06:57:00.000+05:30वाकई प्रियंकर जी बहुत संवेदनशील हैं। कभी कोटा आना ...वाकई प्रियंकर जी बहुत संवेदनशील हैं। कभी कोटा आना हुआ तो उन से आग्रह है कि सूचना दें। उन से मिलना चाहूँगा।दिनेशराय द्विवेदीhttps://www.blogger.com/profile/00350808140545937113noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7822286262846371486.post-72662904226960863932008-02-21T19:55:00.000+05:302008-02-21T19:55:00.000+05:30दिहाड़ी मजदूरों का सभी जगह यही हाल होता है । पर गोव...दिहाड़ी मजदूरों का सभी जगह यही हाल होता है । पर गोवा मे जो दिहाड़ी मजदूर आते है(हमारे घर मे बहुत महीने काम चला था) वो जब काम शुरू करने के लिए कपड़े बदलते है(पुराने कपड़े रखते है काम करने के लिए) तब ही पता लगता है कि वो मजदूर है। वरना यहां पर तो ये लोग काफ़ी साफ-सुथरे और सलीके से कपड़े पहने और बाकायदा खाना लेकर आते है।mamtahttps://www.blogger.com/profile/05350694731690138562noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7822286262846371486.post-66086562645280724982008-02-21T19:13:00.000+05:302008-02-21T19:13:00.000+05:30दिहाड़ी मज़दूरों की दशा खाड़ी देशों में और भी बुरी है...दिहाड़ी मज़दूरों की दशा खाड़ी देशों में और भी बुरी है क्योंकि वे अपने परिवार से दूर हैं.जुमे की छुट्टी वाले दिन हज़ारों की तादाद में फुटपाथ पर बैठे दिखाई दे जाते हैं जो 15-20 रियाल कमा कर पैसा इक्कठे कर के घर भेजते हैं और खुद एक बार पका कर दो दिन उस पर गुज़ारा करते हैं.मीनाक्षीhttps://www.blogger.com/profile/06278779055250811255noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7822286262846371486.post-66491447185868090712008-02-21T17:14:00.000+05:302008-02-21T17:14:00.000+05:30काहे कीड़ी(चींटी) पर पंसेरी मार रहे हैं . आलसी तो ह...काहे कीड़ी(चींटी) पर पंसेरी मार रहे हैं . आलसी तो हूं ही सो इन्कार क्या करना . पर टिका रहूंगा अपने आलस के साथ ही .<BR/><BR/>हिंदीभाषी हूं . दो दशकों से हिंदी क्षेत्र के बाहर हूं . देखता ही रहता हूं इन रोज कुआं खोदकर पानी पीने वालों को . उनकी दशा-दुर्दशा . क्या कर सकता हूं ? सिवाय एक प्रवक्ता के रूप में उनके साथ खड़े होने के . अब तो जिनसे था उनसे भी भरोसा नहीं रहा .<BR/><BR/>उनकी छोड़िए . जहां हूं वहीं देखता हूं पूर्वी उत्तरप्रदेश और बिहार से आए तकनीशियनों और निचले आय-वर्ग के कर्मचारियों को . हमेशा अफ़सरों को सलाम मारते रहते हैं . उनको सेलरी कैश मिलती रहती है . पर जब रिटायर होते हैं तो पेंशन के लिए स्टेट बैंक में अकाउंट खोलना ही एवरेस्ट पर चढना हो जाता है . कोई उनको इंट्रोड्यूस करने तक को तैयार नहीं होता . तमाम तरह के काल्पनिक कारण : कोई चक्कर न हो जाए,पता नहीं गांव में इसकी एक बीबी है कि दो, और भी न जाने क्या-क्या . यह वे भी करते हैं जिनके साथ उसने चालीस साल तक काम किया,रोज़ सलाम-बंदगी की,उनके छोटे-मोटे काम किए. ऐसे हैं हम . जो मदद करे तो उसे यह कह कर डराओ-हतोत्साहित करो कि किसी दिन लफड़े में फ़ंसोगे तब बूझोगे . तब भी न माने तो किंचित वक्र मुस्कान के साथ यह कह दो कि अपने लोगों की ओर झुकाव ज्यादा है .<BR/><BR/>सो मेरे झुकाव की जड़ें यहां हैं . मैं बिहार का नहीं हूं पर जब कोई मेट्रो के दरवाजे से सटकर खड़े और उसके सरक कर खुलने पर अचकचाए किसी ग्रामीण को 'बिहारी है क्या ?' कहता है तो चुभन होती है और लड़ने का मन होता है . मिर्ज़ापुर से मेरा किसी किस्म का कोई ताल्लुक नहीं है . पर मुंबई में प्रशिक्षण के दौरान जब एक स्थानीय मित्र-प्रशिक्षणार्थी ने राह चलते रास्ते में आ जाने पर एक व्यक्ति को जिस कंटेम्प्ट के साथ कहा था 'मिर्ज़ापुर से आया है क्या ?'. वह अभी तक मुझे बेचैन करता है . गरीब कैसे जीता-मरता है इसे ज्यादा सोचता हूं तो किसी से बात करने और किसी का विकास-दर्शन सुनने का मन नहीं करता . ऐसे में उदारीकरण-फुदारीकरण और तरक्की का दर्शन ठेलने वाला अर्थशास्त्री बहुत मक्कार या विदूषक-सा लगता है . जीवन की लिखावट के अक्षर ऊपर-नीचे नाचते-चिढाते से दिखते हैं .पर और आपसदारी की निजी चीज़ें हैं जो वापस जीवन और उसके रूमान की ओर लौटा लाती हैं .<BR/>बहुत सी बेचैनियां हैं क्या-क्या लिखूं . आप सबको भी बेचैन करूंगा . दैनिक किस्तों पर जिंदगी जीने वालों के हाल पर डॉ. पीरज़ादा कासिम का एक शेर सुनिए :<BR/><BR/>रोज़ जीने को रोज़ मरने को,ज़िंदगी न समझा जाय,<BR/>बेदिली से हंसने को खुशदिली न समझा जाए ।<BR/><BR/>पर समझें या न समझें क्या फ़र्क पड़ता है. ज़िंदगी तो ज़िंदगी है -- पथरीली ज़मीन पर दूब की तरह उगी .Priyankarhttps://www.blogger.com/profile/13984252244243621337noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7822286262846371486.post-22536144906244525342008-02-21T13:28:00.000+05:302008-02-21T13:28:00.000+05:30दिहाड़ी मजदूरों के बीच चार दिन तक बैठकर बात करने का...दिहाड़ी मजदूरों के बीच चार दिन तक बैठकर बात करने का मौका मिला था एक स्टोरी करने के दौरान अपने शहर में!!<BR/>हमारे शहर की कोतवाली से कांग्रेस भवन के बीच सुबह साढ़े सात बजे से दस बजे तक यह दिहाड़ी मजदूरों का जमावड़ा दिखता है और इसे हम "चावड़ी' के नाम से जानते आए हैं।<BR/><BR/>आलोक कुमार जी की बात से सहमत हूं, इतना शारीरिक श्रम और दुनिया भर की चिंताएं इसके चलते यह नशे के आदी हो जाते हैं।<BR/><BR/>जैसा कि अनूप जी ने कहा उनके आसपास छत्तीसगढ़ के मजदूर काम करते हैं। दर-असल छत्तीसगढ़ से मजदूरों को प्रलोभन देकर ले जाया जाता है और वहां इन्हें बंधक के रूप में रखकर काम करवाया जाता है। अभी कुछेक महीने पहले रायपुर पुलिस नें सड़क पर कंटेनर में बंद करीब तीन सौ लोगों को छुड़ाया था , इन्हें कंटेनर में भरकर सड़क मार्ग से ले जाया जा रहा था, सोचिए कंटेनर में भरकर जिसके अंदर सांस लेना भी दूभर हो जाए, पानी-पेशाब का क्या हो। इन्हें छुड़ाया गया दो दिन बाद ठेकेदार इन्हें फिर किसी अन्य तरीके से ले ही गया।<BR/>उत्तरप्रदेश के ईंट भट्ठों में सबसे ज्यादा मजदूर परिवार छत्तीसगढ़ से ही हैं। और छत्तीसगढ़ सरकार(ओं) को इन सबकी कोई खास चिंता हो ऐसा नज़र नही आताSanjeet Tripathihttps://www.blogger.com/profile/18362995980060168287noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7822286262846371486.post-48274436518872572202008-02-21T12:43:00.000+05:302008-02-21T12:43:00.000+05:30इतनी भीड देखकर तो किसी भी नेता के मुँह मे पानी आ ज...इतनी भीड देखकर तो किसी भी नेता के मुँह मे पानी आ जाये। हमारे यहाँ कुछ नेताओ ने दिहाडी मजदूरो का संगठन बनाने की कोशिश की थी पर उद्देश्य सही न होने के कारण वे चन्दा वसूलते धरे गये। वैसे इनमे से आधे को भी हम वापस गाँव पहुँचा पाये और वही रोजगार की व्यव्स्था कर पाये तो बहुत बडा योगदान होगा देश के लिये।Pankaj Oudhiahttps://www.blogger.com/profile/06607743834954038331noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7822286262846371486.post-7607307944622239872008-02-21T12:20:00.000+05:302008-02-21T12:20:00.000+05:30ठीक फरमाया आपने ज्ञानजीइन दिहाड़ी मजदूरों में गजब ...ठीक फरमाया आपने ज्ञानजी<BR/><BR/>इन दिहाड़ी मजदूरों में गजब की जिजीविषा होती है. हम यदि ऑफिस से आते वक्त ट्रैफिक में फंस जायें या कोई ऊंची आवाज में बात करे तो आगबबूला हो जाते हैं और ये ओवरटाइम करके भी, कम मजदूरी करके भी और बेइज्जती सहकर भी वैसे ही बने रहते हैं.Unknownhttps://www.blogger.com/profile/00434177086039562056noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7822286262846371486.post-29714177174685380002008-02-21T11:40:00.000+05:302008-02-21T11:40:00.000+05:30मजदूरों के लिए की यही है असली भारत कहना गलत होगा, ...मजदूरों के लिए की यही है असली भारत कहना गलत होगा, यह भी है भारत का एक हिस्सा कहना सही होगा. <BR/><BR/>सबका अपना अपना काम है, मैं मजदूर का काम नहीं कर पाऊँगा तो कोई इंजिनीयर भी मेरा काम नहीं कर पायेगा. कोई कम नहीं कोई ज्यादा नहीं. बेकार का महिमा मंडन वास्तव में खुद को दिलासा दिलाना है.संजय बेंगाणीhttps://www.blogger.com/profile/07302297507492945366noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7822286262846371486.post-49359217841215522682008-02-21T10:39:00.000+05:302008-02-21T10:39:00.000+05:30असंगठित मजदूरों की विकट स्थिति है। चूंकि यह उस तरह...असंगठित मजदूरों की विकट स्थिति है। चूंकि यह उस तरह से किसी का वोट बैंक नहीं है, इसलिए उन पर किसी का ध्यान नहीं है। सारी सेनसेक्स नान सेंस सी लगने लगती है, ऐसी स्थिति में। माइक्रोफाइनेंस जैसा बंगलादेशी प्रयोग इंडिया में हो, तो कुछ बात बने। <BR/>बिजनेस स्टैंडर्ड के अलावा इकोनोमिक टाइम्स भी हिंदी में आ लिया है। <BR/>चिंता ना करें, सिर्फ पांच साल और <BR/>हिंदी को हिंदी वालों के अलावा और कोई इग्नोर नहीं करेगा। <BR/>ये आंकड़ा देखिये, 2007 से 2027 के बीच देश की जनसंख्या करीब 39 करोड़ बढेगी, इनमें से करीब बीस करोड़ की पापुलेशन सिर्फ और सिर्फ सात हिंदी राज्यों से आयेगी।<BR/>इन्हे मोबाइल बेचने हैं। <BR/>इन्हे मुचुअल फंड बेचने हैं। <BR/>इन्हे सास बहू सीरियल बेचने हैं। <BR/>इन्हे सनसनी बेचनी है। <BR/>हिंदी में ही बिकेगी। <BR/>अफसरों की ना पूछिये। <BR/>आपकी रचनाशीलता और नये के प्रति उत्सुकता देखकर मुझे डाऊट होता है कि आप अफसर हैं भी या नहीं। <BR/>हर अफसर छोटा मोटा सिकंदर होता है। <BR/>जिसकी एक सैट सल्तनत है, सैट मुसाहिब हैं, सैट मुद्दे हैं। इस दुनिया के बाहर कोई दुनिया है भी इसका उन्हे पता नहीं है। <BR/>पता करने की जरुरत नहीं है, यह बात तो समझ में आती है. पर पता करने की इच्छा भी नहीं है, यह देखकर दुख होता है।ALOK PURANIKhttps://www.blogger.com/profile/09657629694844170136noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7822286262846371486.post-63618248083043012792008-02-21T10:04:00.001+05:302008-02-21T10:04:00.001+05:30इन असंगठित मजदूरों की तादाद करोड़ों में है। देश इन...इन असंगठित मजदूरों की तादाद करोड़ों में है। देश इनका भरपूर फायदा ले रहा है, लेकिन इनकी चिंता पब्लिक के पैसे से चलनेवाली देश की केंद्रीय प्रतिनिधि, सरकार को नहीं है। ऐसा किसी भी विकसित देश में संभव नहीं है। और, हम विकास कर रहे हैं!! एक दिन हम विकासशील से विकसित हो जाएंगे, तब शायद इनका भी कल्याण हो जाए।अनिल रघुराजhttps://www.blogger.com/profile/07237219200717715047noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7822286262846371486.post-72146331279711020572008-02-21T10:04:00.000+05:302008-02-21T10:04:00.000+05:30शायद मुझे इन लोगों की तरह दिहाड़ी ढूंढनी हो कुछ दिन...<I><BR/>शायद मुझे इन लोगों की तरह दिहाड़ी ढूंढनी हो कुछ दिनों के लिये, तो मैं टूट जाऊं। आत्महत्या का विचार प्रबल हो जाये मन में।<BR/></I><BR/><BR/>ऐसे में हर रात देसी ठर्रा काम आता है। अपने अनुभव से नहीं कह रहा हूँ, पर जो तीन साल मैंने निर्माण क्षेत्र में बिताए हैं उससे तो यही लगता है कि जब दिहाड़ी वालों को काम मिलता है, वह भी शारीरिक रूप से इतना कठोर - और खतरनाक - होता है कि रात में लौट कर ठर्रे के बगैर काम चल ही नहीं सकता। <BR/><BR/>वैसे हिन्दुस्तान में कारीगरों के लिए परीक्षाएँ व मानक नहीं हैं, यदि होतीं, और उसी हिसाब से सरकारी निर्माण कार्य में भर्ती भी होती तो इस क्षेत्र की कुछ अलग ही छटा होती।आलोकhttps://www.blogger.com/profile/03688535050126301425noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7822286262846371486.post-53579198036675773232008-02-21T09:59:00.000+05:302008-02-21T09:59:00.000+05:30अमरीका में कई शहरों में ऐसे दिहाड़ी मजदूर दीख जाते ...अमरीका में कई शहरों में ऐसे दिहाड़ी मजदूर दीख जाते हैं. अधिकांश , मेक्सिकन मूल के होते हैं .<BR/>जब सरहद के उत्तर में, इतना वैभव हो तब, वे आकर काम करना चाहेंगे ही --<BR/>.दक्षिण प्रान्तों के मुख्य शहरों में , आजकल उनके विरुध्ध , खदेडने का अभियान चल रहा है<BR/>अमरीकी चुनाव का यह भी एक मुद्दा चर्चित है .लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्`https://www.blogger.com/profile/15843792169513153049noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7822286262846371486.post-76703909216239437682008-02-21T09:25:00.000+05:302008-02-21T09:25:00.000+05:30यह भारत का असली चेहरा है ..गांधी जी ने एक बार कहा...यह भारत का असली चेहरा है ..गांधी जी ने एक बार कहा था न कि हम जो भी करें पंक्ति के इस अन्तिम चहरे का ख़याल कर लें ..यह भारत का एक मार्मिक दृश्य है, हम सभी इससे रूबरूँ होते हैं ,थोड़ी देर के लिए ग़मगीन हो फिर अपने रोजगार मे लग जाते हैं -आपकी संवेदना आज उन्हें यहाँ तक भी ले आयी है ,पर क्या यह तस्वीर बदलेगी ?Arvind Mishrahttps://www.blogger.com/profile/02231261732951391013noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7822286262846371486.post-36464129523935364932008-02-21T09:17:00.000+05:302008-02-21T09:17:00.000+05:30अच्छा लेख। आपका कैमरा धांसू है। मजदूरी का बड़ा अजब ...अच्छा लेख। आपका कैमरा धांसू है। मजदूरी का बड़ा अजब हिसाब है। छ्त्तीसगढ़ के तमाम परिवार हमारे आसपास ठेकेदारों के यहां काम करते हैं। कोई भारत सरकार द्वारा तय न्यूनतम मजदूरी नहीं पाता है। प्रियंकर जी संवेदन शील आलसी ब्लागर हैं। उनको अपना आलस्य त्यागना चाहिये। जनहित में।अनूप शुक्लhttps://www.blogger.com/profile/07001026538357885879noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7822286262846371486.post-48232335786844241352008-02-21T09:00:00.000+05:302008-02-21T09:00:00.000+05:30ye dihari wale majdoor to yehan bhi mil jaate hain...ye dihari wale majdoor to yehan bhi mil jaate hain, jyadatar ye log mexican hote hain.<BR/><BR/>Waise filhaal to hum bhi dhiyari me kaam kar rahe hain.Tarunhttps://www.blogger.com/profile/00455857004125328718noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7822286262846371486.post-10399061132655371132008-02-21T07:35:00.000+05:302008-02-21T07:35:00.000+05:30ज्ञान जी। आप की संवेदनशीलता प्रणाम। कौन सोचता है इ...ज्ञान जी। आप की संवेदनशीलता प्रणाम। कौन सोचता है इन दिहाड़ी मजदूरों के बारे में? <BR/>सभी नगरों और कस्बों में इस तरह की मजदूर मंडियाँ दिखाई पड़ जाएंगी। इन में एक दम गांव से अभी अभी आए अकुशल से ले कर अर्धकुशल मिल जाएंगे। इन्हें माह में शायद 15 से 20 दिन मजदूरी मिलती हो। अधिकांश ट्रेड यूनियनें भी इन्हें संगठित करने में रुचि नहीं लेती। काम लेने वाले और ठेकेदार लोग इनकी मजदू्री मार लेते हैं। जिसे दिलाने का कोई पक्का कानूनी उपाय पिछले 30 सालों में मैं नहीं ढूंढ पाया। प्रियंकर जी निश्चित ही बड़े कलेजे वाले होंगे जो इन की हिमायती हैं वरना कभी कभी तो लगता है इन के परिजन भी शायद इन के हिमायती न हों। इन के बारे में लिखने के की जरुरत तो है ही। इन के संगठन के लिये भी काम करने की बड़ी जरुरत है।दिनेशराय द्विवेदीhttps://www.blogger.com/profile/00350808140545937113noreply@blogger.com